Wednesday, December 1, 2010

यही तो हैं मेरे दिन रात.....

२ दिन बाद मंदिर गयी..... मानो ऐसा लगा कि जैसे मंदिर से भगवान् रूठ गए हों...... इतना सन्नाटा...... ख़ामोशी की भी आवाज़ सुनाई पड़ रही थी...


बाबा......


हाँ बिटिया..... मिट्टी , मिट्टी में मिल गयी. कैसा प्राणी था... वो? ३ महीने ही तो रहा था.... और तीन महीनो में ही जीत कर चला गया.


मैं बाबा से क्या बोलूं.... ३ महीने......अरे उनको तो मै १७ सालों से जानती थी......


बिटिया ...... ये उसका सामान है..... चाहो तो तुम ले लो.


क्या सामान है बाबा......


कुछ किताबे, कुछ डायरियां, कुछ कागज़ के टुकड़े....


लाओ बाबा.... मैं रख लेती हूँ. 


घर चल दी.... क्योंकि मुझे सब कुछ जानना था उनके बारे मैं... 


डायरी खोली..... पहला पन्ना....


हमारे हुस्न की इस बेरुखी से था तुम्हे शिकवा, 
मगर सच ये की ना था कोई मेरा चाहने वाला. 


मै घूमता रहा इधर से उधर, यहाँ से वहाँ.... की कोई मिले जो मुझे प्यार करता हो......किसी को शरीर की जरुरत थी, तो किसी की नज़र पैसे पर थी. कुछ दिन नौकरी भी करी..... लेकिन सब को कुछ ना कुछ चाहिए था मुझसे. लेकिन मुझे कोई ना चाहता था. 


बहुत देखभाल की, एक माली की तरह रिश्तों को संभाला, निभाया लेकिन..... सब बिखर गए.....हैं....... 

अब एक फिर तलाश मै निकला हूँ.... ली कोई मुझे...... यानी मुझे.... चाहने वाला मिल जाए..... लेकिन लगता नहीं है..... शरीर भी अब साथ नहीं दे रहा है. तुमको याद होगा... जब एक बार रिश्तों की आंधी, और मोलवियों के थपेड़ों ने मुझे तोड़ा था... तब तुम्ही थीं जिसने आगे बढ़कर.... मुझे संभाल लिया...वो ऋण मै कैसे  अदा कर पाउँगा. जब जमाने की जुबां आग और गालियाँ उगल रही थीं तब तुम्हारे प्यार और हमदर्दी ने मरहम लगाया की मै जिन्दा हो गया.....

मै सब कुछ छोड़ चुका हूँ....जिम्मेदारियां निभाते निभाते इंसान से मशीन बन गया.... अब तो फक्कड़ बन गया हूँ...जो  मिलता है चार गालियाँ दे ले या हमदर्दी..सब दिखावा है....

कल नीमसार गया था.... वहाँ तुम्हारे पड़ोस मे रहने वाली कुसुम मिली.... उसने बताया की तुम दक्षिण भारत मे कहीं बस गयी हो.... मै तो आस ही छोड़ चला था..... मालिक का नाम लेकर पड़ यात्रा पर निकल तो पड़ा हूँ...... देखते हैं किस के दरवाजे पर ये प्राण - पखेरू  उडते हैं.... सिर्फ इतना पता है की उपराड़ी गाँव के किसी कृष्ण मंदिर के पास तुम्हारा बंगला है.....

पैदल चलते चलते कई महीने गुजर गए..... कई मौसम बीत गए..... जमीन से बढ़कर माँ नहीं मिली और आसमान से बड़ा पिता नहीं मिला... कभी भी अपनी गोद मे सो ने से उसने मना नहीं किया......आज ३ महीने बाद तुम्हारे गाँव पहुंचा हूँ.... कितने अच्छे है तुम्हारे गाँव के लोग....मुझ जैसे अनजान आदमी को भी बाहें खोल कर सीने से लगाने को तैयार हैं...... कितना हंसते है तुम्हारे गाँव वाले..... अंजलि कितनी प्यारी बिटिया है... चिड़िया जैसी फुदकती रहती है.... लेकिन स्कूल नहीं जाती है.... तुम इसकी पढ़ाई का इंतजाम देखलो.....बाबा.....का ध्यान रखना... वो मुझे अपना समझने की गलती कर रहे हैं..... और तुम तो जानती हो...मै जिसका था... अब वहीं जाना चाहता हूँ......

बहुत नींद आ रही है, एक लम्बी नींद नहीं आ रही है...... तेरे आगोश मे सर हो , ये जरुरी तो नहीं......मेरे अंदर एक बेचेनी है.... एक गुमनाम मौत की  बेचेनी... मै ऐसे नहीं मरना चाहता... मुझे बचा लो......मै शांत हो चला हूँ....... और शांत......धीरे धीरे  एक खामोशी मेरी तरफ बढ़ रही है...... मै रोज़ अपने को थोड़ा कम होता हुआ देखा रहा हूँ......

मै कैसे कहूँ जानेमन....मेरा  दिल कहे मेरी बात,
तेरी आँखों की स्याही, तेरे होंठो का उजाला ,
यही तो हैं मेरे दिन रात......

मै कभी भी अपने दिल की बात ना कह पाया.....  

5 comments:

vandana gupta said...

उफ़ देव साहब्…………आपकी लेखनी तो कयामत ढाती है ……………दर्द को जैसे खुद झेला हो और फिर शब्दो मे ढाला हो…………इस कहानी मे तो जैसे कोई आसमाई नूर समाया है जो अपनी तरफ़ खींचता है…………मगर इस बार काफ़ी कम हिस्सा लगाया अगला जल्दी लगाइयेगा…………मुझे इंतज़ार रहेगा।

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

वाणी गीत said...

इस दर्द ने रुला दिया ...
वाकई किसी देवदास के डायरी ही होगी ...!

Kailash Sharma said...

मै कैसे कहूँ जानेमन....मेरा दिल कहे मेरी बात,
तेरी आँखों की स्याही, तेरे होंठो का उजाला ,
यही तो हैं मेरे दिन रात......

मै कभी भी अपने दिल की बात ना कह पाया.....


बहुत ही मार्मिक..लगता है जैसे अपने दर्द की सियाही की एक एक बूँद हर शब्द में उंडेल दी है. बहुत भावपूर्ण..आभार

Kailash Sharma said...

मै कैसे कहूँ जानेमन....मेरा दिल कहे मेरी बात,
तेरी आँखों की स्याही, तेरे होंठो का उजाला ,
यही तो हैं मेरे दिन रात......

मै कभी भी अपने दिल की बात ना कह पाया.....


बहुत ही मार्मिक..लगता है जैसे अपने दर्द की सियाही की एक एक बूँद हर शब्द में उंडेल दी है. बहुत भावपूर्ण..आभार