Wednesday, March 28, 2012

कब तक आखिर, आखिर कब तक......

इस तरह चलते चलते जिन्दगी ऐसे राह पर ले आई..जहाँ पर आ कर...जिन्दगी में और भी लुत्फ़ आ गया.....जिन्दगी को मकसद मिल गया...यहाँ पर जिन्दगी बिखराव की तरफ भी जा सकती थी लेकिन  जब सामने मकसद , लक्ष्य दिख रहा हो....फिर कहाँ का बिखराव. 


आनंद....क्या वाकई तुमको कोई तकलीफ नहीं है.....


ज्योति....क्या मैं इंसान नहीं हूँ.....या मैं इंसान लगता नहीं हूँ....


क्यों...ऐसा क्यों पूंछ रहे हो.....


तुम्हारा प्रश्न सुन कर ऐसा लगा....ज्योति..तकलीफ भी होती है, दर्द भी होता है, क्रोध भी आता है....लेकिन इन पीठ पीछे बात करने वालों पर या उनकी बातों पर ध्यान देना...मूर्खता होगी....Ignore the people who're always talking behind your back. That's where they belong, just behind and making you famous.


कमाल है.....


ये अब कमाल कौन है......??


आनंद...तुम भी ना....


ज्योति....मुस्कराओ....ये कई बीमारियों का इलाज है....और कईयों को बीमार कर देने के लिए काफी....है..तुम्हारी मुस्कराहट...


बीमार......या घायल....


Exactly.....सही शब्द घायल ही है......


तुम भी ना...आनंद .....


हाँ हाँ ...बोलो...बोलो तो..मैं भी क्या....???


आनंद...............कोई मिला नहीं लगता है सवेरे से आज....


मिला नहीं.....अरे मिली नहीं नहीं......


अच्छा जी.....


हाँ जी......


तो कौन मिलती है आपसे.....


हाय.............पूंछते हैं वो की ग़ालिब कौन है, कोई हमे बतलाये की हम बतलाएं क्या...


मैं देख रही हूँ आनंद कितनी ख़ूबसूरती से बातों का रुख मोड़ रहे हैं...बात कहाँ से शुरू हुई थी....और कहाँ जा रही है.....क्या ये इंसान कभी किसी के आगे खुलेगा....घुटता तो होगा ये भी, ढूंढता तो होगा किसी को की कोई हमसफर मिले.....लेकिन 


वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से, 
मैं ऐतबार ना करता तो और क्या करता...


लेकिन इस झूठ पर कोई गुस्सा नहीं आ रहा था.....


तुम ही ने मुझ से कहा था ज्योति...की आप तो बीमार पड़ना भी afford नहीं कर सकते...


हाँ.........


फिर बताओ......अपनी तकलीफों की तरफ देखूं या अपनी जिम्मेदारियों को निभाऊं....

जिम्मेदारी निभाओ.....मैंने कभी तुमको रोका नहीं....आनंद..लेकिन अपना ख्याल रखो....जब तुम ठीक रहोगे...तभी तो जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभा पाओगे.....


ठीक कह रही हो ज्योति.....


हार में या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं,
संघर्ष पथ पर जो मिला, ये भी सही...वो भी सही...


ज्योति.....जो लोग जिन्दगी की राह में दीयों की तरह मुझे रास्ता दिखाते थे...वो दिए एक एक करके बुझने लगे हैं....ये चिराग बुझ रहे हैं...मेरे साथ साथ जलते..... 


हंसी आती है....दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की, लोगों ने मेरी सेहन से रास्ते बना लिए....


लेकिन ज्योति....सदा दिन जात न एक समान......


हाँ....आनंद.....धैर्य रखो और विश्वास के साथ चलते रहना......slow but steady wins the race.....


हूँ....................


जरा लालटेन की रौशनी बढ़ा दो......पेड़ों के साए लम्बे हो चले हैं......


ज्योति..जरा लोगों से कह देना.....इस दिल में अभी और भी जख्मों की जगह है....माजीं के जख्म भर चले हैं......


गम को यारों कभी सीने से जुदा मत करना, 
गम बहुत साथ निभाते हैं जवाँ रहते हैं....


आनंद........कब तक आखिर , आखिर कब तक....मय की जगह खूने दिल पीना , कब तक आखिर, आखिर कब तक...... 







Sunday, March 18, 2012

बहारें फिर भी आएँगी ............

पहाड़ों पर से बर्फ पिघलने लगी....और हवा के रुख भी बदलने लगे है.....कुछ गर्मी से महसूस होती है.....दोपहर को एक सन्नाटा सा सुनाई देता है.....आम के पेड़ों पर बौर भी आने लगे हैं...मेरे कमरे के पीछे जो आम का बगीचा है उस से होती हुई हवा जब आती है तो एहसास दिला दे जाती है......की फागुन गया...गर्मी का मौसम पैर पसार रहा है......दिन में जब सुनसान सा होता है.....खिड़की के पास कुर्सी डाल कर आम के पेड़ों को देखना, चिड़ियों की  चहचहाहट......एक अजीब सी ख़ुशी भर देते हैं मुझमें....और खिड़की पास थोडा सा दाना डाल देने की आदत...और मिटटी के श्कोरे में पानी...........जैसे पक्षियों का दावतनामा.....अच्छा लगता है.....लेकिन गौरेया नहीं आती......


रात को इसी आम के बगीचे  में दीवाली जैसी रौशनी होती है.....पता नहीं कहाँ से ढेर सारे जुगनू आ जाते हैं.....और मैं फिर खो जाता हूँ.....कभी कभी एक-दो जुगनू मेरे कमरे में भी आ जाते हैं.......और मैं फिर से बच्चा बन जाता हूँ. ......ये समां मुझे फिर से खींच कर गाँव ले जाता है.....जहाँ मैं अपने आप को  गौरेया के पीछे भागता हुआ देखता हूँ, जुगनुओं के पीछे भागता हुआ देखता हूँ....गर्मी की दोपहर में आम के पेड़ के नीचे खटिया डाल कर सोता हुआ देखता हूँ....  गौरेया...तुम कहाँ हो......

मैं अपने गाँव के खेतों  में हरी मटर खता हूँ, हरा चना खता हूँ.....वो खेत के कुँए के चारों तरफ  चर्र - चर्र कर के चलता हुआ रहट.....लो तिवारी जी ताजे गन्ने का रस और गरम गरम गुड (खांड) ले कर आ रहे हैं......जरा गमछा दे दो...... वो देखो पछिम में......वो गुडहल का बाग़ है....कैसा लाल लाल फूलों से भरा है......लगता है आग लगी हो......जवानी छाई है....मरे पर..फागुन की हवा की खुशबू अभी भी हवा में है..........वो गाँव का तालाब है....गाँव की भाषा मैं इसको पोखरा कहते है..........सुशीला......का घर वो है......जिसमें आम का पेड़ दिख रहा है.....और वो देख रही हो......बड़ा सा बरगद का पेड़....हाँ...वही.....वहां चोपाल लगती है............वो देखो गाँव के बच्चे कैसे छपाक छपाक से पानी में कूद रहे हैं...........

गाँव सुनसान है.......नहीं...नहीं....सुनसान नहीं....गाँव की दोपहर है......स्कूल में देखो कैसा शोर मचा रहे बच्चे......सुशीला यहीं पढ़ाती है........

ये हकीकत है...या कल्पना ..........कहाँ है ये जिन्दगी.......अब बैलगाडी में कमर नहीं लचकती..........अब गाँव की गोरियाँ............खुल के किसी से नहीं मिलती...

कभी रेट के ऊँचे टीलों पे जाना,
घरोंदे बनाना, बना के मिटाना,
वो गुडिया की शाद्दी पे लड़ना झगड़ना,
वो झूले से गिरना, वो गिर के मचलना,
न दुनिया का दर था, न रिश्तों के बंधन,
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी............

लेकिन  बहारें  फिर  भी  आएँगी ............



Thursday, March 8, 2012

कभी कभी सोचता हूँ.....

आज थोड़ा सा वक़्त मिला था...तो पीछे मुड़ कर देखा.....कितनी दूर निकल गया हूँ...मैं.....कितनी दूर...रास्ते पीछे रह गए......शहर पीछे रह गए...मकान पीछे रह गए...लोग पीछे रह गए.....सब कुछ कितना बदल गया है....जो दिल वाले दोस्त थे..सब अमीर हो गए....अब कोई आँख किसी दूसरे के लिए आंसू नहीं बहाती....कुछ उजड़ गया..कल तक तो सब अपने ही थे.....हाँ..बिलकुल अपने....आज सब गैर...

कभी कभी सोचता हूँ.......तुमने सच ही कहा था...की आप पुराने ख्यालों के हो.....पिछडे हुए हो....लोग आप पर पैर रख कर आगे निकल जायेंगें.....और आप......सच कहा था तुमने....कभी कभी सोचता हूँ....


अरसा हो जाता है......अपने आप से मिलने की भी तो मोहलत नहीं देती ये दुनिया.....ओह....कंधे में कितना दर्द है.....नहीं ये किसी चोट का नहीं है.....जिम्मेदारी उठाते उठाते टूट गए कंधे.....लेकिन रुकने की आराम करने की इजाज़त नहीं है....चलते रहना है.....आराम करूँ तो कहाँ करूँ......कोई शजर भी नहीं नसीब है.....दो पल बैठ कर किसी के साथ अपने दिल की बात करूँ.....किस को इतनी फुर्सत..........सभी के पैरों में तो जिम्मेदारिओं के बेड़ियाँ पड़ी हैं.....खैर फिर भी अपनों के लिए वक़्त निकल जाता है.....T & C apply अपनों के लिए....अब ऐसे समाज में , ऐसी दुनिया में मेरे बसर कैसे होगा.......बोलो तो.......कभी कभी सोचता हूँ......


मुझे थकने की, आराम करने की ....... जरूरत भी नहीं...है...जब तक में दो सितारों को आसमान में नहीं सजा देता......मैं किसी की किस्मत में क्या लिखा  है नहीं जानता.....इसीलिए अपनी तरफ से कोई कसर न रह जाए....और इस राह में थकना मन है......


तुमको याद है.....मैने काफी वक़्त पहले तुमसे अर्ज किया था.....उस से दूर रहना......चरित्रहीन है वो....याद है....मैं दूर की यात्रा पर अब निकल पड़ा  हूँ....अब शायद न लौटूं ...............


कभी कभी सोचता हूँ...........


तुमने अपनों से अजनबी की तरह व्यहार करने का दर्द महसूस किया है.....देख कर अनदेखा करने का दर्द महसूस किया है.....किसी को जानबूझ कर avoid करने का अपमान महसूस किया है......


कभी कभी सोचता हूँ.....


चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर 
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है