tag:blogger.com,1999:blog-82207097935147025382024-03-27T09:09:06.414-07:00Just be who you areUnknownnoreply@blogger.comBlogger267125tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-50400950397480868202021-08-21T04:28:00.000-07:002021-08-21T04:28:31.309-07:00<p> आपने पहाड़ी नदी देखी है ? जरूर देखी होगी। </p><p>लेकिन कभी किसी टूरिस्ट प्लेस से हटकर जंगल में बहती हुई नदी सुनी है ?</p><p>Excuse me ! बहती हुई सुनी है ! मतलब। </p><p>जी हाँ पानी के बहने की आवाज़। चट्टानों के बीच ऊपर से नीचे गिरते हुए पानी की आवाज़ ! जिसको तमाम लेखक और कवि कल-कल , छल -छल कह के सम्बोधित करते आये हैं। ऑफिस का काम , शाक भाजी लेने का दबाव , ऑफिस से लौटते हुए शाम की चाय के साथ गरम गरम समोसे खाने की फ़िक्र वग़ैरह वग़ैरह। अरे इन सब को छोड़ कर कुछ दिन प्रकृति के साथ बिताने आओ , अपने आप से मिलने के लिए आओ , अपने आप से बात करने के लिए आओ , शांति और ठहराव क्या होता है , आओ उसे अनुभव करने के लिए आओ। पुराने ज़माने में ऋषि मुनि यूँ ही हिमालय में नहीं वास करते थे। कुछ न कुछ कारण होता था , आओ उस कारण को ढूंढने के लिए आओ। </p><p>ऊपर जो कुछ भी मैंने लिखा है उसकी सत्यता जाँचने के लिए आओ। </p><p>चीड़ के जंगल में चीड़ के पेड़ों से बहते हुए तेल की सुंगध जब हवा में घुलकर बहती है तो वो अद्भुत होता है। जब बुरांस के पेड़ नहीं नहीं बुरांस के जंगलों में बुरांस के लाल लाल फूल खिलते हैं तो किसी शराब से कम नहीं होते। </p><p>ख़ैर , बात शुरू हुई थी कि अभी कितना चलना बाकी है। और मैं ये कभी तय नहीं कर पाया। जहाँ चलने के लिए निकलता हूँ वहाँ पहुँच कर सोचता हूँ कि अब ? सितारों से आगे जहाँ और भी हैं। यात्रा चाहे अंदर की हो या बाहर की, होती अनंत की ओर ही है। </p><p>हमने जा कर देख लिया है राह गुज़र के आगे भी ,</p><p>राहगुज़र ही राहगुज़र है राहगुज़र के आगे भी। </p><p> होता क्या है न कि हम अपनी बनाई दुनिया में इतने डूब जाते हैं कि हमें कहीं जाना भी है ये तक भूल जाते हैं। आए कहाँ से इसका तो इल्म ही नहीं है। बा ख़ुदा। घर की तो याद भी नहीं आती। </p><p>अपनी बनाई दुनिया?</p><p>जी , चौंकिए मत। अपनी बनाई दुनिया ने ही हमें मार डाला है। </p><p>मुआफ़ कीजिएगा। बात समझ में नहीं आई। </p><p> देखिये ख़ुदा ने एक दुनिया बनाई , ठीक है। </p><p>जी </p><p>हमको इस दुनिया में भेजा। और तमाम लोगों को भेजा। कई रिश्ते बनाए। माँ का, बाप का, भाई का, बहन का , दोस्त का , पति का पत्नी का , माशूक और माशूक़ा का वगैरह वगैरह। ठीक है ?</p><p>जी </p><p>हमने इस सामजिक रिश्तों के इर्द -गिर्द अपनी दुनिया बना ली। और इसी में डूब गए। और फिर तमाम जरूरियात को पूरा करने के लिए काम किया , पैसा कमाया , शादी , बच्चे , बच्चों की लिखाई पढ़ाई , बच्चों की शादी वगैरह वगैरह। ठीक है ?</p><p>जी </p><p>ये हमारी अपनी बनाई हुई दुनिया है। </p><p>लेकिन ये जरुरी भी तो है। </p><p>जी नहीं। </p><p>मतलब ये जरुरी नहीं बल्कि निहायत जरुरी है। </p><p>फिर ?</p><p> जी अब आती है मसले की बात। अपनी और घर वालों , समाज की तमाम जरुरियातों को पूरा करते करते हम ये समझ बैठे कि हम सबके कर्ता धर्ता हैं। </p><p>तो गलत क्या है ?</p><p>आगे जारी है......... </p><p> </p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-65156075865604374222021-08-20T10:22:00.005-07:002021-08-20T10:22:51.733-07:00<p> चलते चलते शाम होने को आई लेकिन जाना काफी दूर भी था , चलता न रहता तो और क्या करता। रास्ते में रुक के दम ले लूँ मेरी आदत नहीं , लौट कर वापस चला जाऊँ मेरी फितरत नहीं। लेकिन जब मंज़िल का तसव्वुर ज़हन पर ग़ालिब हो तो पैर का दर्द मायने नहीं रखता। बक़ौल शायर </p><p>ठहर के पैर से काँटा निकालने वालों </p><p>ये होश है तो जुनूँ क़ामयाब क्या होगा। </p><p>ओहो , तो आज जनाब बग़ावत के मूड में हैं। </p><p>नहीं बग़ावत तो मेरी ख़ुद से है। और वो भी आज से नहीं कभी से है। जानती हो जब मैंने अपने पीर का वो ख़त या ख़त का वो हिस्सा या सुतूर (लाइन्स) पढ़ा जहाँ जनाब ने फ़रमाया कि मर्द तो वही है जो इक बार कुछ ठान ले उनको अंजाम तक पहुँचा कर ही दम ले। तो ये लाइन एक मीज़ान (तराजू) बन गयी, जिस पर हर रोज़ मैं अपने आप को तौलता हूँ और हर रोज़ हल्का ही पाता हूँ। और ये चीज़ मेरे अंदर ख़ुद बग़ावत पैदा करता है। रोज़ मेरा ज़मीर मुझसे सवाल करता है , रोज़ मुझ पर हँसता है। और मैं कमबख़्त मारा हार के लौट आता हूँ। </p><p>लेकिन आप की हिम्मत तो माशा-अल्लाह सलामत है। ये काफी नहीं है क्या ?</p><p>मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवाज़ , हिम्मत सलामत है ये मेरे गुरु महाराज, मेरे साहिबे - आलम का करम है लेकिन उसकी इस रहमत को ज़ाया नहीं करना , ये मेरी जिम्मेदारी है। जिंदगी का कौन सा लम्हा आख़िरी है नहीं पता। इसीलिए साहिब ने फ़रमाया कि जिंदगी ऐसे जियो जैसे अगले लम्हे में क़ज़ा रखी है। </p><p>तेरे क़दमों पे सर होगा , कज़ा सर पे कड़ी होगी , जिंदगी हो तो ऐसी हो। </p><p>क्या यार क्या लिखने बैठा और क्या लिखने लगा। खैर !</p><p>अभी और भी है......... </p><p> </p><p> </p><p><br /></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-77576061133660089462021-08-19T11:40:00.002-07:002021-08-19T11:40:25.607-07:00<p> हाँ तो जनाब तफ़सीले से समझाने वाले थे इधर उधर मतलब ! सुन्दर लाल सवाल। </p><p>अमां बताते हैं , ज़रा बैठिए , सांस तो लीजिये। ये क्या हमेशा घोड़े पे सवार आते हैं! मेरा जवाब। </p><p>अच्छा जी !</p><p>हाँ जी ! ये लीजिये दाएं हाथ से हुक़्क़ा खेंचिये और जरा बाएँ हाथ से पानदान उठा दीजिये। </p><p>ये लीजिये। </p><p>जी शुक्रिया। मैंने पानदान खोलकर पान लगाते हुए सुन्दर लाल को जीवन का फ़लसफ़ा समझाना शुरू किया। </p><p>ओह सुन्दर लाल का तारुफ़ (परिचय) तो मैंने कराया ही नहीं। सुन्दर लाल मेरा बचपन का दोस्त है और यहाँ जल विभाग में कर्मचारी है। पूरा नाम सुन्दर लाल श्रीवास्तव है लेकिन श्रीवास्तव वो नहीं लिखता है उसकी जगह "कटीला" लगाता है यानी पूरा नाम सुन्दर लाल "कटीला"। अब थोड़ा सा उनका ख़ाका भी खींच दूँ। मझोला कद , कायस्थ वालों रंग यानि की थोड़ा दबा हुआ। आँखे चमकीली। ख़ासियत - होंठो के दोनों किनारों से बहता हुआ पान। दबा हुआ रंग और पान की लाली , शायद इसीलिए "कटीला" लिखने लगा था। </p><p>ख़ैर किरदारों का तारुफ़ भी लाज़िमी होता है। आगे देखते हैं कितने क़िरदार टकराते हैं। </p><p>हाँ तो सुंदर लाल , ये जो इधर उधर लिखना होता है न , ये बकवास नहीं होती है, ये जिंदगी का फ़लसफ़ा होता है।जरा सोच के देखो कितने लम्हे हम तफ़रीह के लिए निकालते हैं। हमेशा कोई न कोई काम। घर से बाहर निकले तो किसी काम से। किसी से मिलने गए तो किसी काम से। कोई हम से मिलने आया तो किसी काम से। सुन्दर लाल ये बताओ कि तुम यूँ ही बिना किसी काम घर से बाहर कब गए थे कि चलो आज जंगल की तऱफ घूम आएँ , आज जरा शहर से बाहर निकल कर नदी तऱफ हो आएँ। आज गाड़ी उठाकर पहाड़ों निकल जाएँ , बस यूँ ही। धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो। </p><p>नहीं याद है। </p><p>मालूम है। हर इंसान अपने अपने तरीके से अपने आप को बहलाता है और उसको चाहिए भी। आजकल हर चीज़ में पैसा लगता है , मैं जानता हूँ। लेकिन ये किस कम्बख्त ने कहा कि तफरीह करने का मतलब स्विट्ज़रलैंड जाओ। </p><p>लेकिन ये बताओ कि इधर उधर लिखने का क्या मतलब है ?</p><p>हम्म्म्म , सुनो ! क्या तुम हर वक़्त रुहानी किताबें पढ़ते रहते हो ?</p><p> नहीं </p><p>क्या तुम हर वक़्त अपने ऑफिस से मुताल्लिक चीज़ें पढ़ते रहते हो ?</p><p> नहीं </p><p>इसका मतलब है कि तुम कुछ इधर उधर की किताबें रिसाले भी पढ़ते हो। क्यों ?</p><p>क्योंकि हमारे दिमाग को भी कुछ हल्की ग़िज़ा चाहिए होती है। ऐसे ही मेरे भाई , हमेशा लेख लिखते लिखते , कहानियाँ लिखते लिखते , रिपोर्टिंग लिखते लिखते , मतलब की बात लिखते लिखते मेरा दिमाग़ भी थक जाता है। लेकिन लिखना मेरा पेशा नहीं शौक़ है तो जब मैं कुछ ऐसा लिखता हूँ जिसका मतलब शायद कुछ न हो , लेकिन मेरा शौक़ तो पूरा होता है। लेकिन इस बे-मतलब की बात में कहीं न कहीं कोई न कोई मतलब की बात निकल जाती है। इधर उधर से मतलब कुछ हल्का , जो अच्छा लगे। </p><p>हम्म्म्म </p><p>अरे उठिये और थोड़ी सी स्ट्रेचिंग करके ज़रा अपने चारों तरफ बिखरी कुदरती ख़ूबसूरती का लुत्फ़ उठाइये। आपने आखिरी समय गौरैया कब देखी थी ? फ़ाख्ता देखी है आपने ? आपने नदी के किनारे पानी पैर डालकर कोयल को कब सुना था ? जंगल में किसी खंडहर होते हुए मंदिर में बैठकर अपने आप से और कुदरत से बातें कब करीं थीं ? याद नहीं होगा न ?</p><p>कैसे याद होगा। हम घर से बाहर निकलते हैं तो कुत्ते को घुमाने का काम। सब्जी भाजी लाने का काम , बच्चो ने कुछ मँगवाया है वो काम , दवाई लानी है वो काम , राशन खत्म हो घर में वो लाना है सो वो काम। सुबह काम शाम काम। </p><p>सोचो सुन्दर लाल सोचो। </p><p> </p><p><br /></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-42299814969670560442021-08-18T10:57:00.000-07:002021-08-18T10:57:39.002-07:00<p>आज कलम उठाई कि चलो कुछ लिखा जाए। कोई नया मुद्दा दिमाग को सूझा क्या ! </p><p>नहीं बिलकुल नहीं , कसम से कतई नहीं। </p><p>फिर आज लिखने का मूड क्यों बन आया जनाब ?</p><p>क्या ये जरुरी है कि हमेशा कोई मुद्दा हो तभी लिखा जाए ? कभी कभी कुछ यूँ ही या यूँ भी लिखा जाना चाहिए। माँ कसम सच कह रिया हूँ। </p><p>कुछ इधर की कुछ उधर की। कुछ यहाँ की कुछ वहाँ की। समझ रहे हैं न आप ?</p><p>जी बिलकुल समझ रहे हैं जो आप कह रहे हैं और या अल्लाह यक़ीन मानिये जो आप नहीं कह रहे हैं वो भी हम समझ रहे हैं। </p><p>बाख़ुदा बड़ा ज़हीन दिमाग पाया है आपने !</p><p>अच्छा जी </p><p>हाँ जी। </p><p>देखिये आप मुझे इधर उधर की बातों में भटका रहे हैं। मैंने कुछ लिखने के लिए कलम उठाई है आज। </p><p>लो कल लो बात। अभी ख़ुद ही तो कह रह थे कि इधर उधर की बातें लिखेंगे। </p><p>अरे तो इधर उधर का लिखने का मतलब बकवास थोड़ी लिख देंगे। हाँ नहीं तो। अरे हम कोई प्रधान मंत्री थोड़े ही है कि जो मुँह में आया बोल दिया , पीछे से सारा मंत्रीमंडल लगा है लोगों को समझाने। </p><p>अच्छा जी। तो आपका इधर उधर से क्या मतलब है , ज़रा तफ्सील से समझायेंगे ?</p><p>समझायेंगे समझायेंगे और हम नहीं समझायेंगे तो कौन समझायेगा। हमारे पीछे कोई आत्रा या पात्रा तो नहीं है जो नौटंकी करके आपको समझा दे। </p><p>क्रमश: </p><p><br /></p><p><br /></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-34139640484524558802020-02-14T12:27:00.001-08:002020-02-14T12:27:10.573-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बारिश जोरों से हो रही थी और आनंद हाथ में चाय का गिलास लिए मंदिर के बरामदे में ही बैठ गया। बरामदे में जलती हुई लालटेन की रौशनी और बारिश के पानी में एक अजीब सा सामंजस्य सा महसूस हो रहा था। ऐसे में मन में विचारों के मानो पंख लग गए हों। आज आनंद का अपने आप से सामना , न , न, न बातचीत करने का मन हो गया। और जब अपने आप से बातचीत होती है तो उसको सुनने के लिए कलेजा चाहिए होता है क्योंकि अक्ल कहती है दुनिया कि दुनिया मिलती है बाज़ार में, दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिये। लीजिये ख़ुद से गुफ़्तगू का लुत्फ़ आप भी उठाइए , आप क्यों बचे रहें।<br />
<br />
आनंद, क्या तुम एक दिल फेंक आदमी हो ? <br />
<br />
नहीं।<br />
<br />
कोई जल्दी नहीं है आनंद , सोच के जवाब दो। अपने आपको बचाने के लिए जवाब न दो। और किससे बचाओगे ? ख़ुद को ख़ुद से ?<br />
<br />
नहीं नहीं ऐसा नहीं है। कई दिनों से मेरे अंदर भी ख़ुद को जानने की जद्दो -जहद चल रही है। मैंने ख़ुद भी कई बार पूछा क्या मैं दिल फेंक आदमी हूँ , तो यकीन मानो जवाब नहीं में ही मिला। <br />
<br />
फिर ?<br />
<br />
फिर ... पता नहीं। और जो मैं अपने आप को समझता हूँ उसको हर्फ़ों में बांधना। बहुत मुश्किल है। और अगर मैं कहूँ कि मुश्किल नहीं तो अगर सफ़ों पे लिखूँ तो कोई यकीन नहीं करेगा। हाँ सच में यकीन नहीं करेगा। किसी चीज़ की तलाश, किसी चीज़ की जुस्तजू मुझे यहाँ से वहाँ , इस शख़्स से उस शख़्स तक घुमाती रही शायद। मेरे नैना सावन भादों फिर भी मेरा मन प्यासा। प्रेम , प्यार , मुहब्बत ये लफ्ज़ बहुत बार सुने, कई बार कहे लेकिन सच कहूं ये नहीं समझ में आया कि मुहब्बत है क्या। <br />
<br />
तसव्वुर में कोई रहता है लेकिन वो कौन है , ये समझ में नही आया। तबियत कुछ ढूंढती है लेकिन क्या , नहीं मालूम। एक चेहरा साथ साथ रहा पर मिला नहीं , किसको तलाशते रहे कुछ पता नहीं।<br />
<br />
क्रमश:</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-29637175806018992072020-01-29T13:13:00.002-08:002020-01-29T13:13:46.890-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
अरे बातों बातों में वक़्त कितना निकल गया पता ही नहीं चला। घड़ी देख चौंकते हुए आनंद ने कहा। बिजली चमक रही है लगता है बारिश होने को है। अब चलूँगा। माता जी अभी आज्ञा दीजिये आप भी गंगा। और हाँ सेवक काका से कह दीजियेगा मंदिर में भूत नहीं मैं रह रहा हूँ फ़िलहाल। <br />
<br />
एक ठहाका सबका। <br />
<br />
भूत कैसा भूत ? माता जी का स्वाभाविक सा सवाल। स्वाभाविक यूँ कि उनको पिछली बातों का ज्ञान न था जो सेवक काका से हुई थीं , यहाँ आते वक़्त।<br />
<br />
गंगा ने साड़ी बातें संक्षेप में माता जी को बता दीं। <br />
<br />
अरे वो मुआ किस भूत से कम है। माता जी सीधा सा संवाद।<br />
<br />
आनंद घर से निकल पड़ा १०० कदम भी न गया होगा की पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा।<br />
<br />
कौन है !!!<br />
<br />
मुड़कर देखा तो गंगा। डर गए न। लीजिये छाता लेते जाइये बारिश के आसार हैं और हाँ वापस देने खुद ही आइयेगा।<br />
<br />
छाता ले आनंद चल पड़ा आगे। वो इतना तेज चल रहा था की जैसे वाकई डरा हुआ हो। <br />
<br />
अरे आनंद बाबू !!! एक स्वर कानों से टकराया।<br />
<br />
दाईं तरफ मुड़ के देखा तो किशोर था। किशोर माने पान की दूकान वाला। <br />
<br />
अरे किशोर तुम यहां। आज दूकान बंद है।<br />
<br />
हां बाबू आज जल्दी बंद कर दी मौसम खराब है कहीं झड़ी लग गयी तो घर तक पहुंचते पहुँचते छपर छपर हो जायेगी हालत। जेब से चुरुट का पैकेट निकाल कर आनंद से कहा " लो बाबू आज शाम आप आये नहीं और मुझे जल्दी निकलना था, सो सोचा की मंदिर जा कर दे दूँ , वहां पता चल की आप गंगा बिटिया के साथ गए हो, सो इधर से निकल रहा था की कहीं रास्ते में टकरा गए तो डिब्बी आपको दे दूँ।<br />
<br />
अरे किशोर इतनी तकलीफ उठाने की क्या जरुरत थी? भाई तकलीफ के लिए माफ़ी। <br />
<br />
अच्छा दखो बूंदाबादी शुरू हो गयी है। तुम भी चलो और मैं भी। और हाँ इसके पैसे कलआकर दे दूंगा।<br />
<br />
ठीक है बाबू।<br />
<br />
मंदिर के बरामदे में पहुँच कर घड़ी देखी अरे बाप रे २५ मिनट लग गए। दूर तो है। <br />
<br />
कुर्ता उतार खूंटी पे टांग दिया और लालटेन की लौ थोड़ी बढ़ा दी। आनंद दीवार का सहारा ले मंदिर के बरामदे में बैठ गया और बारिश देखने लगा। हवा में झूमते चीड़ के पेड़। एक अजीब सा उल्लास , एक अजीब सी ख़ुशी। लेकिन सब कुछ सुंदर बहुत सुंदर। पहाड़ों में अन्धेरा जल्दी हो जाता है रात देर से होती है। पहाड़ खींचते हैं आनंद को अपनी ओर। वो यहाँ आता है अपने आप से भाग कर नहीं। कहीं आप ये राय न बना लें कि अपने आप से भागकर , जिम्मेदारियों से भाग कर यहाँ रह रहा है। न ऐसा कुछ नहीं है। <br />
<br />
टाइम ज्यादा नहीं हुआ था करीब ८:३० बजे थे बारिश भी धीमी हो चली थी। <br />
<br />
आनंद बाबू ऊपर वाले ने आज खाना तो अच्छा खिलवा दिया लेकिन चाय का इंतज़ाम तो खुद ही करना पड़ेगा प्यारे। वो उठा और चाय बनाने के लिए चूल्हा जलाया , पानी भी चढ़ा दिया। चाय का गिलास लेकर वो फिर बरामदे में आकर बैठ गया। <br />
<br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-509052125292261862020-01-24T13:31:00.001-08:002020-01-24T13:31:13.529-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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हम्म्म , बात तो आप ठीक कह रहे हैं। <br />
<br />
हां और मेरी बड़ी तमन्ना है गंगा की हमारे बच्चे पढ़ने की आदत डालें। <br />
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बात तो सही है आनंद लेकिन एक बात है।<br />
<br />
क्या ?<br />
<br />
वातावरण , घर का वातावरण , परिवार का वातावरण।<br />
<br />
हम्म्म , सही है गंगा , वातावरण तो मुख्य है। तो क्या करें बताओ।<br />
<br />
लीजिये घर आ गया। आइये अंदर आइये।<br />
<br />
आ गयी बेटी तू। गंगा की माँ का स्वर।<br />
<br />
हाँ माँ , इनसे मिल।<br />
<br />
अरे आनंद जी। माँ जी का स्वर पुन:<br />
<br />
अब तू पूछेगी अरे माँ तू जानती है इन्हें। है न।<br />
<br />
हाँ वो तो स्वाभाविक है। तू जानती है इन्हें ?<br />
<br />
और आनंद जी आप भले ही कुछ बोल या पूछ न रहे हों लेकिन बेटा तेरी आँखें यही पूछ रहीं हैं। <br />
<br />
बैठ। <br />
<br />
गंगा और आनंद दोनों बैठ गए। <br />
<br />
माँ तू कैसे जानती है ?<br />
<br />
अरे ये पुराने वाले शिव मंदिर में रहते हैं। हैं न आनंद।<br />
<br />
हाँ माँ जी। <br />
<br />
अरे इतनी हैरान परेशान करने वाली कोई बात नहीं है। मंदिर के पास जो हाट लगती है , वहाँ गयी थी तो रामेसर की बहु भी साथ थी। उसका बेटा पढ़ने जाता है इनके पास। उसी ने बताया था , हाट करने के बाद वो सुनील को लेने मंदिर गयी इनके पास तो मैं भी साथ थी , वही देखा था। मधु बता रही थी की बस ध्यान में बैठे रहते हैं। कई दिन तो उसने खाना भी भिजवाया है। स्वामी जी को। माँ हँस पड़ी। <br />
<br />
हाथ मुंह धो ले चाय बन गयी है। <br />
<br />
चाय !! अभी तो घर में घुसे १० मिनट भी न हुए तूने चाय भी बना ली !!!<br />
<br />
हाँ मुझे मालूम था की तुम लोग आ रहे हो। <br />
<br />
अच्छा !!! अब ये किसने बताया तुझे। गंगा का सवाल माँ से।<br />
<br />
सेवक राम जी ने बताया होगा , जवाब आनंद का<br />
<br />
सही जवाब ! माँ की स्वीकारोक्ति।<br />
<br />
तीनो खिलखिला के हँस पड़े। <br />
<br />
ले चाय ले। तू गिलास में चाय पी लेगा न?<br />
<br />
जी शौक से।<br />
<br />
माँ कुछ खाने को लेने चौके में चली गयी।<br />
<br />
आनंद हमारे यहां पहाड़ में तू करके बात करते हैं। इसलिए बुरा न मानियेगा माँ आपको तू कह के सम्बोधित कर रही हैं। <br />
<br />
जी नहीं मानूँगा। बिलकुल नहीं मानूँगा , कतई नहीं मानूँगा। लेकिन आप की जानकारी के लिए बता दूँ कि मेरी पैदाइश पहाड़ की है और schooling भी। अत: हे गंगे मुझे पहाड़ संस्कृति , रीति - रिवाज़ थोड़े बहुत पता हैं। <br />
<br />
<br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-31765053624243361992020-01-23T13:59:00.001-08:002020-01-23T13:59:29.630-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
सेवक काका , हँसी मजाक अपनी जगह लेकिन मुझको ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ इसके उल्टे मुझे तो बहुत शांत जगह लगी वो। <br />
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ठीक है आनंद बाबू , आप लोग शहर के पढ़े लिखे लोग हैं , आप ज्यादा उचित समझते हैं। अच्छा मुझे आज्ञा दीजिये। राम - राम गंगा बिटिया। <br />
<br />
और सेवक काका सीधे जा कर दाएं मुड़ गए।<br />
<br />
अच्छा गंगा , अब मैं भी चलूँगा। <br />
<br />
अरे घर जाने का तय हुआ था और खाना वही खा कर आप जाएंगे। ये गंगा का आग्रह था या आदेश , आनंद यही नहीं समझ पा रहा था। यदि ये आग्रह था तो इतना वास्तविक था कि उसको मना करने का साहस नहीं था और यदि ये आदेश था तो एक अधिकारपूर्ण आदेश था।<br />
<br />
आनंद गंगा की तरफ देखता रहा फिर कहा - इस सादगी पे कौन न मर जाए ए ख़ुदा , लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।<br />
<br />
अच्छा तो जनाब शायरी में भी दखल रखते हैं। <br />
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नहीं दखल - वखल कुछ नहीं , बस ऐसे ही कुछ याद रह जातीं हैं.<br />
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पढ़ना -पढ़ाना आपकी हॉबी है क्या ? आनंद का सवाल<br />
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हाँ , मुझे अच्छा लगता है। क्योंकि आजकल के समय में यह एक आदत है जो हमको टाइम पास के साथ - साथ मेंटली enrich कर देती है , ऐसा मेरा सोचना है। क्या ऐसा नहीं है?<br />
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नहीं - नहीं मैं इत्तेफाक रखता हूँ आपसे और यह बहुत सही एप्रोच है। लेकिन एक बात है गंगा।<br />
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क्या?<br />
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आजकल हम सब में - बच्चे , बूढ़े और जवान सब किताबों से पढ़ने की आदत से दूर होते जा रहे हैं और ये मेरे लिए एक चिंता का विषय है।<br />
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सो तो है।<br />
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क्या हम इस आदत को वापस लाने का प्रयत्न कर रहे हैं ? या कर सकते हैं?<br />
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आनंद , बहुत माक़ूल बात है और बहुत माक़ूल सवाल। लेकिन इस इंटरनेट ने किसी को अछूता नहीं छोड़ा है। ये तो मानते हैं न आप।<br />
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न मानने का तो प्रश्न ही नहीं है, गंगा। लेकिन एक बात कहूं - इंटरनेट पे लोग भगवान् के दर्शन भी कर सकते हैं, on line दान दक्षिणा भी दे सकते हैं, भजन कीर्तन भी सिन सकते हैं और यदि समय हो तो यू tube पर उसको चल कर उसमें शिरकत भी फरमा सकते हैं। है न?<br />
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हाँ वो तो है।<br />
<br />
लेकिन फिर भी भगवान् दर्शन के लिए मंदिर ही जाते हैं चाहे कितनी दूर हो या कितना पास। ऐसा क्यों? <br />
<br />
<br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-17208962283106640032020-01-22T14:06:00.001-08:002020-01-22T14:06:53.361-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बात करते करते दूरी काफी तय हो गयी थी। <br />
<br />
अरे गंगा बिटिया<br />
<br />
सेवक काका। नमस्ते , कैसे हैं आप ?<br />
<br />
काका इनसे मिलिए ये हैं आनंद।<br />
<br />
अरे अरे आनंद बाबू। नमस्ते<br />
<br />
बिटिया ये वही हैं न जो पुराने वाले शिव मंदिर ें रहते हैं। <br />
<br />
हाँ काका। <br />
<br />
अरे आनंद बाबू , बड़े हिम्मत वाले हैं आप हो उस खंडहर मंदिर में रहते हैं।<br />
<br />
क्यों ऐसा क्यों ? काका<br />
<br />
अरे आनंद बाबू उस मंदिर को छोड़ो , सूरज ढलने के बाद तो उस तरफ भी कोई नहीं जाता। <br />
<br />
लेकिन क्यों काका ??<br />
<br />
अरे भाई सुना है वहां भूतों का निवास हो जाता है।<br />
<br />
अच्छा !!!<br />
<br />
लेकिन काका २ महीने से मैं रह रहा हूँ , कोई मुझसे मिलने नहीं आया। आनंद का जवाब सेवक काका को।<br />
<br />
क्या करते मिलने आकर जब उन्होंने देखा होगा कि उनसे बड़ा वहाँ रह रहा है। गंगा का जवाब आनंद को। <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-4219724924084528562020-01-21T12:59:00.003-08:002020-01-21T12:59:57.638-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तो आप भी यहीं रह जाइये , गंगा का एक मासूमियत सा जवाब।<br />
<br />
जी रह तो जाता लेकिन वहशीं को सुकूँ से क्या मतलब, जोगी का नगर में ठिकाना क्या। <br />
<br />
ओह तो आप जोगी हैं !!<br />
<br />
अरे जोगी जी धीरे - धीरे , सामने पड़े बड़े से पत्थर से बचने की सलाह देते हुए गंगा ने आनंद से इक ठिठोली की। <br />
आनंद गंगा की तरफ देखा कर मुस्करा पड़ा। <br />
<br />
O , hello श्रीमान जोगी जी ऐसा क्या कह दिया मैंने जो श्रीमान को हंसी आ गयी। भलाई का तो ज़माना ही नहीं रहा , बाई गॉड। <br />
<br />
अरे नहीं गंगा जी !!!<br />
<br />
क्या नहीं गंगा जी ! हमारी समझ में नहीं आता है क्या? ये शहर वाले पता नहीं अपने आप को क्या समझते हैं ! अपने आप को क्या समझते हैं, मेरी बला से लेकिन हम लोगो को बेवकूफ जरूर समझते हैं।<br />
<br />
तुम रायते की तरह फ़ैल क्यों रही हो। गंगा की भाषा में आनंद ने गंगा से पूछा। <br />
<br />
तो आप हँसे क्यों ?<br />
<br />
अरे तो हँसना अपराध हो गया , उईईई मेरी अम्माँ। <br />
<br />
आनंद के इस जवाब पर गंगा हंस पड़ी। <br />
<br />
गंगा आप कब से इस स्कूल में पढ़ा रहीं हैं ?<br />
<br />
२ साल हो गए। <br />
<br />
सरकारी स्कूल है ?<br />
<br />
जी। कौन अम्बानी या अडानी यहाँ स्कूल खोलेगा ?<br />
<br />
हम्म्म्म ये तो है।<br />
<br />
लेकिन पढ़ना पढ़ाना मुझे अच्छा लगता है , एक सुख की अनुभूति देता है ये पेशा मुझको। मैं जब किसी बच्चे को देखती हूँ तो ये विचार कौंधता है मेरे ज़हन में कि मैं इसकी भविष्य की निर्माता हूँ। वो ठीक है हर बच्चा अपनी किस्मत लेकर आता है , वो स्वयं ही भविष्य का है लेकिन जिस उम्र उसके मां -बाप स्कूल में हमारे पास छोड़ के जाते हैं तो उनकी भी कुछ तो उम्मीदें होती होंगी। कुछ तो सपने होते होंगे उनके भी। और उस उम्र का बच्चा कच्ची मिटटी की तरह होता है , जिस रूप और आकार में गढ़ दो , वो वैसा ही बन जायगा। <br />
<br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-46175036956990517412020-01-17T13:45:00.003-08:002020-01-17T13:45:45.003-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कारण ! कारण ! कारण !<br />
<br />
जिंदगी cause and effect ही है या इन्हीं पे चलती है। <br />
<br />
क्योंकि बादल आये इसलिए बारिश हुई।<br />
<br />
क्योंकि उसने बुरा किया इसलिए उसका बुरा हुआ।<br />
<br />
दुनिया में आये हैं तो जीना ही पड़ेगा।<br />
<br />
नहीं गंगा मैं २ महीने से मंदिर में रह रहा हूँ तो इसलिए नहीं मैं किसी चीज़ से भाग रहा हूँ या भाग कर यहाँ हूँ। ऐसा नहीं है। शहर की भाग दौड़ , जिम्मेदारियों का बोझ , कुछ इधर की कुछ उधर की इन सब के बीच हम खुद को खो देते हैं हाँ सच में हम खुद को खो देते हैं. हम ये भूल जाते हैं की हम भी कुछ हैं , हम को अपने लिए भी जीना चाहिए। खुद को भी वक़्त देना चाहिए। स्वयं सेवा बहुत जरुरी है अगर किसी और की या औरों की सेवा करनी है। वो क्या है न-<br />
<br />
अक्ल कहती है दुनिया मिलती है बाज़ार में ,<br />
दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिये। <br />
<br />
तो बस यूँ समझ लो की दिल की सुन लेता हूँ और स्वयं से सम्पर्क स्थापित करने , उसको सुचारु रूप से चलने देने के लिए , खुद से मुलाक़ात करने के लिए यहां आता हूँ। प्रकृति के साथ भी अपना सामंजस्य खूब बैठता है। <br />
<br />
बात करते करते दोनों कितनी दूर निकल आये ये पता ही नहीं चला। जब तक कानों में मंदिर से आ रही आरती की आवाज़ नहीं पड़ी।<br />
<br />
लेकिन गंगा आप से ईर्ष्या होती है। <br />
<br />
मुझसे !!! वो भला क्यों ?<br />
<br />
ये जगह जहां आप रहती हैं , ये हरे भरे पहाड़, ये चीड़ के पेड़ों के जंगल, ये बुरांस के फूलों के जंगल , वो देख रही हो झरना , और ये गदेरा !!!! कुदरत ने दामन भर दिया है। </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-36546200386442678852020-01-16T12:27:00.001-08:002020-01-16T12:27:06.576-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क्या लेकिन आनंद ? गंगा का सवाल<br />
<br />
आनंद २ मिनट खामोश रहा। <br />
<br />
मैंने कुछ पूछा आनंद। <br />
<br />
हाँ सोच रहा हूँ किन किन लेकिन को गिनाऊँ , किन किन लेकिन का जवाब दूँ। अच्छा चलो यूँ कर लेते हैं।<br />
<br />
क्या कर लेते हैं ? By the way<br />
<br />
फ़िक्रे दुनिया में सर खपाता हूँ<br />
मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ। <br />
<br />
मुझे लग रहा था की आप सीधे सीधे जवाब नहीं देंगे। <br />
<br />
वैसे मैं आपको एक बात बताता चलूँ की गंगा से ये मेरी ग़ालिबन पहली मुलाक़ात है लेकिन बात ऐसे कर रहें हैं की पुरानी आशनाई है लेकिन ये भी नहीं लगता की पहली बार मिले। गोया ये ज़रूर है की नाम से एक दूसरे से आशनाई ज़रूर थी। मंदिर में बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते गंगा का नाम सुना था और ग़ालिबन इसी तरह उन्होंने ने मेरा। बकौल बशीर बद्र साहब "गुफ़्तगू उनसे रोज़ होती है , मुद्दतों सामना नहीं होता"।<br />
<br />
क्या सीधा जवाब दूँ ? और सीधा जवाब कोई हो भी तो। <br />
<br />
आप मंदिर में कब से रह रहे हैं ?<br />
<br />
२ महीने हुए।<br />
<br />
यहाँ भी उसी कारण आये हैं ?<br />
<br />
कौन सा कारण ? ओह वो। मैं अगर न कहूं तो गलत होगा। <br />
<br />
<br />
<br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-25139569548500158502020-01-14T13:42:00.000-08:002020-01-14T13:42:46.259-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क्या है यार !<br />
<br />
क्या है ये जिंदगी। नहीं नहीं कितने बंधनों में बंधी है ये जिंदगी। <br />
<br />
नहीं नहीं बंधी नहीं , मैंने खुद बाँध राखी है। <br />
<br />
मन करता खुल कर जीने को , खुल कर उड़ने को , जो करना चाहता हूँ , वो करने को , पढ़ने को, लिखने को दौड़ने को भागने , पहाड़ में जाने को<br />
<br />
लेकिन<br />
<br />
क्या लेकिन आनंद ?<br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-58506846798857377602019-09-16T08:55:00.002-07:002019-09-16T08:55:14.217-07:00एक नयी दिशा या दिशाहीन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
या दिशाहीन </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-87230473276718712912019-09-04T11:59:00.003-07:002020-01-13T13:49:34.712-08:00गंगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गंगा , हाँ गंगा ही तो हो तुम।<br />
<br />
आप? आनंद हैं। न<br />
<br />
जी हाँ। आपने कैसे पहचाना।<br />
<br />
आप वो पहाड़ी वाले शिव मंदिर में रहतें हैं। सारा गाँव आपका ही चर्चा कर रहा है आजकल।<br />
<br />
आप मुझे डरा रहीं हैं।<br />
<br />
गंगा खिलखिला कर हँस पड़ी। अरे नहीं डरिये नहीं। मैं कोई डराने वाई चीज़ नहीं हूँ न ही डराने वाली कोई बात कह रही हूँ। लेकिन आप ने मुझे कैसे पहचाना ? सीधे नाम से पुकारा।<br />
<br />
बच्चों से आपके बारे में सुना था।<br />
<br />
कौन से बच्चे ? ओह हाँ कुछ बच्चों को आप मंदिर में पढ़ाते हैं , मैंने सुना।<br />
<br />
जी हाँ।<br />
<br />
क्या - क्या बताया बच्चों ने ? गंगा का सवाल।<br />
<br />
अगर आप बुरा न माने तो हम कहीं बैठ कर बात करें। आनंद का आग्रह।<br />
<br />
अरे हाँ। मैं तो भूल ही गयी। आइये मेरे घर चलते हैं। ईजा , बाबू जी भी आपसे मिल कर ख़ुश होंगे। यहीं पास में ही है मेरा घर।<br />
<br />
चलिए।<br />
<br />
दोनों चल पड़े। बच्चे कह रहे थे कि यहाँ स्कूल में पढ़ाती हैं।<br />
<br />
जी।<br />
<br />
कितने बच्चे हैं स्कूल में ? आनंद का सवाल।<br />
<br />
होंगे करीब ४००।<br />
<br />
तब तो अच्छा स्कूल होगा।<br />
<br />
हाँ अच्छा है। यहाँ की पंचायत ही रन करती है स्कूल को। पास के गाँव से भी बच्चे आते हैं और अच्छी बात तो यह है की स्कूल में लड़कियाँ ज़्यादा हैं।<br />
<br />
अरे वाह , यह तो वाकई अच्छी बात है। <br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-20652308468961440672019-08-23T11:38:00.000-07:002019-09-04T11:15:55.512-07:00एक पुराना मौसम लौटा - 8<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
संन्यास !! क्यों तुमको ऐसा क्यों लगा ?<br />
<br />
नहीं तुम्हारे जो लक्षण दिख रहे हैं वो तो उसी तरफ इशारा कर रहे हैं।<br />
<br />
अच्छा साहब! ऐसे कौन से लक्षण देख लिए आपने मेरे अंदर ? ये पहनावा ? भाई अगर धोती कुर्ता पहन कर संन्यास लिया जाता है तब तो समझ लो आधे से ज़्यादा आदमी संन्यासी हो गया।<br />
<br />
नहीं आनंद , मैं पहनावे की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तुम्हारे विचारों और तुम्हारे मनोविज्ञान को समझने की कोशिश कर रहा हूँ और ऐसा नहीं की इस तरह की बात तुम पहली बार कर रहे हो। तुम्हारे अंदर दर्शन भी है और पहले से है लेकिन इस बार जो शिद्दत देख रहा हूँ , उससे ऐसा लगा और भाई हाँ पहनावे का भी कुछ योगदान तो है ही।<br />
<br />
सुंदर , संन्यास या विरक्ति ये तो नहीं जानता। लेकिन हाँ एक उचाटपन सा जरूर है। लेकिन जिम्मेदारियों से भाग कर नहीं। एक बड़ा अजीब सा परिवर्तन देख रहा हूँ अपने अंदर। लेकिन अच्छा सा परिवर्तन। मैं सब में हूँ लेकिन अलग भी हूँ। जब जिंदगी में हर चीज़ एक ड्यूटी की तरह ले लो न सुंदर , शायद तब ऐसा होता होगा। यहाँ तक की दुनिया में सबको प्यार करना , मुहब्बत बांटना , ये भी तो इंसान होने के नाते एक ड्यूटी ही तो है और जो आदमी मुहब्बत में डूबा सो गया काम से। बस भाई मेरे देखना यह होता है की किसकी मुहब्बत में डूबे ? इश्क़े -मजाज़ी या इश्क़े - हक़ीक़ी ? भाई दुनिया में इतना ढकोसला है , इतने hypocrates भरे हुए हैं कि भगवान् से प्रेम करो इसके ऊपर तो भाषण देते न थकते हैं ये लोग लेकिन उसी अल्लाह के बनाये हुए इंसान से नफ़रत।और अगर इंसान इंसान से मुहब्बत कर ले तो हाहाकार।<br />
<br />
कृष्ण से मुहब्बत और कृष्णा से नफरत ? सुंदर की दार्शनिक जैसी टिप्पणी।<br />
<br />
आनंद ने सुंदर की तरफ देखा और बोला - वाह सुंदर लेकिन ये सत्य है , यही हक़ीक़त है।<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-90674749690816807752019-07-30T14:45:00.001-07:002019-09-16T08:55:38.601-07:00एक पुराना मौसम लौटा - 7<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तो कहाँ थे साहब इतने साल ? सुंदर लाल का सवाल।<br />
<br />
आनंद के चेहरे पे अजीब सा भाव।<br />
<br />
नहीं बताना चाहते हो तो कोई जबरदस्ती नहीं है। परिस्थिति को परखते हुए सुंदर ने बात खत्म कर दी।<br />
<br />
कल से हर आदमी यही जानना चाहता है सुंदर, तुम कोई पहले नहीं हो। ज़रा ठहरो , मैं तैयार होके आता हूँ, रास्ते चलते बाते करेंगे , रास्ता भी कट जाएगा।<br />
<br />
लेकिन जाना कहाँ है ?<br />
<br />
स्कूल।<br />
<br />
ओह हाँ। ठीक है आओ.<br />
<br />
सुंदर ने बिना समय गवाए चाय पीना शुरू किया। और मालिन माँ २ प्लेट में पोहा रख गयीं।<br />
<br />
आनंद सफ़ेद शफ़्फ़ाक़ धोती कुर्ते में। सुंदर ने उसे देखा और कसम से देखता ही रह गया। तुम्हारे इस नए पहनावे को देखकर इतना तो विश्वास से कह सकता हूँ कि तुम किसी गलत जगह नहीं गए थे। लेकिन बुरा मत मानना इस नए पहनावे को देखकर ये उत्कंठा अवश्य जाग रही है कि तुम थे कहाँ।<br />
<br />
आओ नाश्ता कर लें। आनंद ने कहा। भाई भवाली के पास नल - दमयंती ताल का नाम सूना है ?<br />
<br />
हाँ , है तो।<br />
<br />
वहीँ जंगलों के बीच एक पुराना शिव का मंदिर है। वहीं रहा लगभग ६ महीने।<br />
<br />
मंदिर में ?<br />
<br />
हाँ।<br />
<br />
और खाना पीना ?<br />
<br />
आनंद मुस्करा दिया।<br />
<br />
इस मुस्कराहट का अर्थ ?<br />
<br />
भाई कुछ दिन तो वाकई कंद मूल फल खा कर रहा , फिर आसपास के गाँव वाली कुछ महिलायें जो जंगल में लकड़ी इकठी करने आती थीं , वो मंदिर में बैठकर कुछ आराम करती थीं और जो खाना वो अपने लिए लातीं थीं , उसमें से थोड़ा मुझे भी दे देती थीं।<br />
<br />
फिर ?<br />
<br />
इस तरह कुछ दिन चला फिर मैं भिक्षा मांगने के लिए गाँव में निकल पड़ा।<br />
<br />
क्या कह रहे हो ?<br />
<br />
हाँ सुंदर। दाढ़ी और बाल बढ़ ही गए थे। गले में रुद्राक्ष की माला और गेरुवा कपड़े। इसी वेशभूषा पर कोई न कोई खाना दे देता था और कोई चाय पानी।<br />
<br />
तो मंदिर में करते क्या थे ?<br />
<br />
आनंद ने नाश्ता खत्म किया और उठ खड़ा हुआ , चलो स्कूल चलते हैं। दोनों निकल पड़े स्कूल के रास्ते पर। तुम पूछ रहे थे न सुंदर कि मंदिर मैं क्या करता था। भाई मेरे मंदिर में कोई क्या करता है ?<br />
<br />
लेकिन पूजा पाठ तो तुम करते नहीं<br />
<br />
ध्यान तो करता हूँ।<br />
<br />
हम्म्म्म और खर्चा पानी ? यहां से तो तुम मंगवाते नहीं थे।<br />
<br />
सुंदर मंदिर में जो गाँव की औरतें आराम करने के लिए आतीं थी , उनसे मैंने बताया कि मैं बच्चो को पढ़ा सकता हूँ। और भिक्षा के लिए जब गांव जाता था तो ४ -५ बच्चे आ जाते थे , पढ़ने के लिए। उनको पढ़ा कर जो मिल जाता था काफी था। लेकिन सुंदर इन ६ महीनो में जो अनुभव हुए हैं उन्होंने मुझको खुद से जोड़ने में बहुत अहम् रोल अदा किया है। इन ६ महीनों में मैंने अपने आप को अंदर से प्रज्वालित करने की कोशिश की है।<br />
<br />
संन्यास का इरादा तो नहीं है ?<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-45719597521178059142019-07-29T14:49:00.000-07:002019-07-29T14:49:00.661-07:00एक पुराना मौसम लौटा - 6<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनका जवाब नहीं होता, मानता हूँ। कुछ सवाल ऐसे भी या यूँ कहिये कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनका जवाब देना नहीं चाहते इसलिए उन सवालों से दूर भागते हैं। वो सवाल बहुत कठिन हों ऐसा जरुरी नहीं है लेकिन कम्बख़्त ऐसे सवाल उन हक़ीक़तों का सामना करवाते हैं , जिनको हम avoid करना चाहते हैं। <br />
<br />
ज्योति को छोड़कर आनंद घर की तरफ लौट पड़ा। कभी - कभी इंसान बहुत कुछ सोचने को होते हुए भी कुछ भी नहीं सोचना चाहता है। आनंद की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। रास्ते मैं भुवन की दूकान से एक पैकेट सिगरेट का लिया। चलो घर चलें। घर आया , कपडे बदले और लेटते ही नींद आ गयी। शायद थकान बहुत थी। और होना लाज़मी भी थी।<br />
<br />
आनंद उठ बेटा , ले चाय रखी है। मालिन माँ की आवाज़।<br />
<br />
चाय ???<br />
<br />
हाँ चाय ही बोला मैंने। <br />
<br />
कितने बज हैं ? आनंद का स्वयं से प्रश्न। ८:३० बज गए। आज तो काफी देर हो गयी। उठा नित्यकर्म से निवृत होकर , आराम कुर्सी पे बैठ चाय की चुस्की ली। छप्पर का बरामदा आज भी आनंद का पसंदीदा स्थान है। लगता है रात काफी बारिश हुई थी. ज़मीन गीली थी। घास पर बारिश की बूंदें अभी भी चमक रहीं थीं। लेकिन साहब चीड़ के पेड़ों से आती हुई , महकती हुई हवा का कोई जवाब आज तक नहीं है। बरामदे में रखे हुए गमले में पानी से बचाव करती हुई गिलहरी कैसे टुकुर - टुकुर देख रही है। सिटोल का जोड़ा , गौरैया सबके लिए छप्पर का बरामदा पनाहगाह बन जाता है , बारिश में और जाड़े में। <br />
<br />
आनंद बाबू घर में रखे हैं क्या ?<br />
<br />
ये कौन मुआ आन पड़ा सवेरे सवेरे। मालिन की मालिन वाली भाषा। मालूम है कौन है। वही मरा सुंदर आया है।कोई आराम न करने देना आनंद को। <br />
<br />
मालिन माँ राम - राम ! अभी तक हो ? मेरा मतलब कैसी हो ? सुंदर ने आग में घी डालने का काम किया। <br />
<br />
हाँ हूँ और अच्छी हूँ। <br />
<br />
जनाब कहाँ हैं ?<br />
<br />
कहाँ मतलब क्या , बरामदे में है।<br />
<br />
अच्छा - अच्छा ज्यादा गर्म न हो इसके बदले एक कप गर्म गर्म चाय मिल जाए , तुम्हारे हाथ की , तो जिंदगी बन जाए। <br />
<br />
जा बैठ लाती हूँ। <br />
<br />
और अदरक वाली हो तो अच्छा है।<br />
<br />
मालिन ने लगभा दौड़ा ही लिया था सुंदर को। खुद जाता है कि ले जाया जाएगा।<br />
<br />
आनंद बरामदे में बैठा ये morning show देख रहा था। <br />
<br />
आओ सुंदर ! आनंद ने सुंदर को गले से लगा लिया। <br />
<br />
साले तू ज़िंदा है !! सुंदर ने आनंद के गले लगते हुए कहा.<br />
<br />
ओह, सूंदर का परिचय तो दिया ही नहीं। जी सूंदर का असली नाम है अविनाश श्रीवास्तव। कायस्थ है तो रंग भी कायस्थों वाला है। यानी सांवला। और पान के ऐसे शौकीन की होंठ के किनारे लाल रहते हैं। इसलिए आनंद ने उसका नाम रखा है सुंदर लाल "कटीला " .<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-52413399101074078552019-07-26T13:37:00.001-07:002019-07-26T13:37:25.324-07:00एक पुराना मौसम लौटा - 5<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
चलो खाना खा लो दोनों , मालिन माँ का आदेशात्मक आग्रह। <div>
<br /></div>
<div>
खाना !!! अरे बाप रे ९:३० बज गए। पता नहीं समय के पर क्यों लग जाते हैं जब कोई अपनों के साथ होता है। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जातें हैं </div>
<div>
मगर घड़ियाँ जुदाई की गुजरतीं हैं महीनों में। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
चलिए खाना खा लिया जाए , आनंद ने ज्योति से कहा। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
अरे मालिन माँ , यहीं खाना नहीं खा सकते हैं क्या ? क्यों गरीब को उठने की ज़हमत देती हो। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
बैठा रह , बैठा रह , देती हूँ। उफ्फ्फ , कैसा आदमी है ये। कम्बख्त को कुछ कह भी नहीं सकती। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
जैसी उम्मीद थी , ना , ना , उम्मीद कहना गलत होगा। खाने की उम्मीद नहीं थी लेकिन जब मालिन माँ बहुत प्यार से बनातीं हैं तो हरी मटर का गरम गरम पुलाव ही बनातीं हैं , ये उनकी ख़ास डिश है। और साथ में नींबू प्याज, हरी मिर्च और अदरख के टुकड़े। जन्नत इसके आगे खत्म। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
खाना खत्म होते होते आनंद ने ज्योति से पूछा कि चाची को पता है न कि तुम कहाँ हो ? </div>
<div>
<br /></div>
<div>
हाँ , हाँ पता है , मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि ....... चलो जाने दो। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
ठीक है, ठीक है......... चलो तुमको घर छोड़ दूँ। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
शाल लेकर आनंद और ज्योति बाहर आये , तो हवा के पहले झोंके ने हल्की हल्की बूंदो से स्वागत किया। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
लो बारिश भी होने को है। रुको मैं छाता लेकर आता हूँ। </div>
<div>
<br /></div>
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तुम रुको आनंद , मैं लाती हूँ। </div>
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ज्योति छाता लेकर आई। लकड़ी की मूठ वाला वाला छाता। आनंद ने छाता खोला और दोनों चलने लगे। ख़ामोशी दोनों के दरमियान। कभी कभी कुछ पल ऐसे होते हैं जिनको सिर्फ महसूस करना ज़्यादा अच्छा लगता है। कोई शब्द नहीं, कोई बातचीत नहीं। ये वो पल था जहाँ पर कई पिछली यादें दोनों के मनस पटल पर चल रहीं थीं। </div>
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आनंद......</div>
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हम्म्म। ..... </div>
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अब रुकोगे न !</div>
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कोई जवाब नहीं दे रहे हो इसका अर्थ ?</div>
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क्या जवाब दूँ , ज्योति !</div>
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वहशी को सुकूं से क्या मतलब , जोगी का नगर में ठिकाना क्या। </div>
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ये तो कोई बात नहीं हुई, आनंद।</div>
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ज्योति , मुझे बाँध के मत रखो। मैं बन्धनों से परे जाना चाहता हूँ। मैं सबके बीच भी अकेले रहता हूँ। तुमसे एक बात कहूं ज्योति या एक बात बताऊँ। </div>
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बोलो न। </div>
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मेरे और तुम्हारे बीच एक सम्बन्ध है। जिसका आधार प्रेम है और प्रेम सारे सम्बन्धो का आधार होता है या होना ही चाहिए। लेकिन मैंने पहली बार प्रेम और इश्क़ में फर्क जाना है। </div>
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क्या बात है आनंद , तो साहब को किसी से इश्क़ हुआ है , चलो हुआ तो सही। </div>
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तुमको बुरा नहीं लगा ?</div>
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बुरा क्यों कर लगेगा आनंद ? ये मैं बहुत अच्छी तरह से समझती हूँ कि हमारे बीच प्रेम का सम्बन्ध है लेकिन मुहब्बत या इश्क़ नहीं है। हमारी आपस की अंडरस्टैंडिंग बहुत मज़बूत है और परिपक़्व है। तुम मेरे सबसे अच्छे, सबसे पहले और प्रिय मित्र हो, मित्र नहीं सखा और ऐसे ही तुम मुझको देखते हो , ये मैं जानती हूँ, आनंद और आज से नहीं कई सालों से। तुम्हारे साथ मैं अपने आप को सुरक्षित महसूस करती हूँ। क्या मित्रता का आधार प्रेम नहीं होना चाहिए ? मैं जानती हूँ आनंद तुम्हारे अंदर बंध के रहने का गुण नहीं है। तुम्हारी आत्मा स्वछंद और मुक्त है। और तुमको इसी गुण के साथ स्वीकार किया है। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब गाँव वाले, स्कूल वाले , मंदिर के पंडित जी, सब तुम्हारी तारीफ़ करते हैं , मुझे गर्व होता है। </div>
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आनंद अवाक् सा आज ज्योति को सुन रहा था , देख रहा था। लो तुम्हारा घर आ गया , आनंद ने बात काटते हुए कहा। </div>
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आओ अंदर आओ, माँ से मिल लो , रामू काका से भी मिल लो। </div>
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आनंद ने कुछ देर सोचा और बोला - कल आऊं ज्योति ? रात काफी हो गयी है और बरसात भी न जाने कब जोर पकड़ ले। कल तो स्कूल होगा न ?</div>
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हाँ , और तुम कल स्कूल आ रहे हो , समझे। </div>
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ठीक है तो कल रात का खाना तुम्हारे यहां। </div>
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ठीक, अच्छा अब तुम भी चलो. </div>
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राम - राम। </div>
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आनंद वापस चल पड़ा। लेकिन एक interesting प्रश्न उसके दिमाग में उठा - क्या प्रेम और इश्क़ में अंतर है ? </div>
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बूझो तो। </div>
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Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-49784709028158458902019-07-26T08:31:00.001-07:002019-07-26T08:31:27.391-07:00एक पुराना मौसम लौटा - 4<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अब तुमने मना किया कि वो तीन सवाल न पूछे जाएँ तो नहीं पूछतीं हूँ। लेकिन ये तो जान सकती हूँ कैसी रही यायावरी ? क्योंकि तुम्हारा स्वभाव एक जगह टिक के रहने का तो है नहीं , इसलिए ये सवाल तो लाज़मी है। <br />
<br />
बिलकुल लाज़मी है। लेकिन इसका जवाब क्या दूँ। किसी से हम मिले नही किसी से दिल मिला नहीं। सिगरेट का एक लंबा कश ले कर आनंद का जवाब। लेकिन एक बात बताऊँ ज्योति, इस घुम्मकड़ स्वभाव ने बहुत दुनियाबी बना दिया। समझ में तो आया कि दुनिया में रहना है दिल नहीं दिमाग का भी इस्तेमाल करना चाहिए और ज़्यादा करना चाहिए। <br />
<br />
चलो देर से ही सही तुम्हारी समझ में ये तो आ गया। ज्योति ने एक संतोष की सांस ले कर कहा। <br />
<br />
लेकिन मोहतरमा एक बात और जान लीजिये लगे हांथो कि जीत कह लो या संतोष, वो उन्हीं को होता है जो दिल की सुनते हैं। हाँ उनको सफर बहुत करना पड़ता है। लेकिन शायद ये भी नियति का निर्धारण होता है कि कौन दिमागी होगा और कौन दिल वाला। दिमाग वालों के पास पद , पैसा , गाडी , बँगला होता है।<br />
<br />
और दिल वालों के पास। ...... ज्योति का प्रश्न<br />
<br />
दिल वालों के पास......<br />
<br />
गम मुझे हसरत मुझे वहशत मुझे सौदा मुझे<br />
एक दिल दे कर ख़ुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे। <br />
<br />
हम्म्म्म। ........<br />
<br />
ये गाने और ढोलक की थापों की आवाज़ कहाँ से आ रही है, आनंद ने दरवाजे के ओर देखते हुए पूछा।<br />
<br />
अरे वो जनार्दन के घर में जलसा है। उसकी बेटी का रोका है , लड़के वाले आये हैं। मुझे भी जाना है , तुम चलोगे ? ज्योति का आनंद से अनअपेक्षित सवाल। आनंद ने ज्योति की तरफ ऐसे देखा जैसे "क्या कह रही हो तुम" .<br />
<br />
नहीं।<br />
<br />
वो तो मुझे मालूम है।<br />
<br />
अरे जब मैं invited नहीं हूँ तो कैसे जाऊं। और रोका है , शादी होती तो छुपते छुपाते घुस जाता और खाना खा के चला आता।<br />
<br />
अच्छा जी। जैसे वो आपको आने देते इतनी आसानी से। देवकी की १० वी में 2nd पोजीशन आने में किसका हाथ था , किसकी मेहनत थी , वो जब उसको पता चला , तो जमीन में गड़ के रह गया। घर आया था , मां से कह रहा था कि आनंद बाबू ने बिटिया को अव्वल नंबर लाने के लिए अपने कर दिए और मैं सरे पंचायत उनका अपमान कर आया। <br />
<br />
Really !! लेकिन देवकी के रिजल्ट के वजह से ही दूर दराज गाँवों के बच्चे स्कूल आने लगे।<br />
<br />
हमारे जुनु का नतीजा जरूर निकलेगा<br />
इसी स्याह समुन्दर से नूर निकलेगा। <br />
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-85320489890654120862019-07-24T13:29:00.000-07:002019-07-24T13:29:14.521-07:00एक पुराना मौसम लौटा - ३<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ पल ऐसे होते हैं या जिंदगी में ऐसे आते हैं जहाँ पर आदमी की समझ में नहीं आता कि क्या बोले , क्या - क्या बोले, बोले की न बोले और बोले तो क्या बोले। जहां पर अल्फ़ाज़ और ख़्याल में तालमेल नहीं बैठ पाता ऐसी हालत में चुप रह जाना बेहतर होता है। आँखें जो देखतीं हैं जुबाँ उसको बयाँ नहीं कर पाती। दिल जो महसूस करता है जुबाँ उसे भी बयान नहीं कर पाती। शायद यही हालत आनंद की थी जब उसने अपने घर की दहलीज़ पर उसको खड़ा देखा। नहीं नहीं इंतज़ार करता पाया। चंद लम्हों में कटा है मुद्दतों का फ़ासला। सच में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके पास होने पर वक़्त भी ठहर जाया करता है। <br />
<br />
अरे ज्योति , बस यही निकल पाया मुंह से। <br />
<br />
ले बिटिया आ गया तेरा आनंद। ज्योति के पीछे से आती हुई मालिन माँ के आवाज़। सवेरे निकल गया था सामान घर में रख कर अब लौटा है। गोधूलि के समय लौटा है पता नहीं दिन में कुछ खाया भी है या नहीं। <br />
<br />
तीनों ने घर के अंदर प्रवेश किया। तुम दोनों बैठो। मैं चाय बना के लाती हूँ। खाने का टेम हो गया है लेकिन साहब को तो चाय चाहिए होगी। और अब चाय\पियेगा खाना पता नहीं कब खायेगा। कोई सुधरा ही नहीं है। मालिन बड़बड़ाती हुई चौके में गयीं। <br />
<br />
मालिन ने आनंद की आराम कुर्सी के पास लकड़ी वाली कुर्सी घसीट के रख दी। जैसे सालों से उन्हें पता हो की आनंद अगर आराम कुर्सी पर बैठता था तो ज्योति लकड़ी वाली कुर्सी वहीँ रख के बैठती थी। <br />
<br />
आनंद ने शाल और झोला खुटी पर टांग दिया। बैठो ज्योति खड़ी क्यों हो ? अदब -आदाब में तो नहीं खड़ी हो कि ये बैठें तो मैं बैठूं। कहते हुए आनंद आरामकुर्सी पर बैठ गया अब आप भी तशरीफ़फ़र्मा हो जाइये। ज्योति आनंद की तरफ लगातार देख रही थी कुर्सी पर बैठते हुए बोली आनंद तुम बिलकुल नहीं बदले। बहुत अच्छा लगा ये देख कर , बड़ी खुशी हुई ये देखकर।<br />
<br />
"उनको दुनिया कहेगी दीवाना , ऋतु बदलती है जो बदलते नहीं"। आनंद का अपने लहज़े में सटीक जवाब। लेकिन एक दया करोगी , ज्योति ?<br />
<br />
हाय राम कैसी बात करते हैं। दया कैसी। बोलिये।<br />
<br />
कहाँ थे , कैसे हो , कब आये बस इन सवालों से बात मत शुरू करना। सवेरे से इनका जवाब देते देते कसम से जुबान का स्वाद कसैला हो गया है। <br />
<br />
बाप रे आने तो डरा ही दिया था। पता नहीं क्या कहना चाहते हैं , दया करो। <br />
<br />
तो और क्या करूँ ज्योति ? चाची कैसी हैं? अब तो बुढ़ा गयीं होंगी। आनंद का अपना लहज़ा। <br />
<br />
माँ ठीक हैं हाँ बूढ़ा तो गयीं हैं। <br />
<br />
तुमने एक बात गौर करी , ज्योति ?<br />
<br />
कौन सी ?<br />
<br />
मैंने अभी तक ये नहीं पूछा कि तुम कैसी हो।<br />
<br />
बड़ी मेहरबानी की आपने।<br />
<br />
नहीं नहीं मेहरबानी कैसी। हाथ कंगन को आरसी क्या। सामने देख रहा हूँ और देखता ही जा रहा हूँ और अब समझ में आ रहा है कि पुराने चावल और पुरानी शराब क्यों बेहरतीन मानी जातीं हैं। <br />
<br />
क्या मतलब मैं चावल दिखती हूँ आपको ?<br />
<br />
तुम्हारे सोचने का स्तर अभी वही है। दाल चावल तक। <br />
<br />
उफ्फ्फ तो मैं शराब दिखती हूँ आपको।<br />
<br />
लो चाय पियो , मालिन माँ की एंट्री। <br />
<br />
लो देख लो मालिन माँ कौन सा बदल गयीं। अभी भी गलत समय पर एंट्री करने की आदत बरक़रार है। <br />
<br />
मालिन माँ , आनंद को उनको सम्बोधन।<br />
<br />
क्या हुआ ?<br />
<br />
आप अभी भी यही चाहती हो न कि मेरे और ज्योति के बीच कोई नोक झोंक न हो।<br />
<br />
हाँ क्यों ?<br />
<br />
नहीं दो गिलास चाय और साथ में सिर्फ तो मठरियां एक एक खा लो। अगर तीन रख देतीं तो शायद तीसरी कौन खाये इस के ऊपर हमारी नोंक झोंक हो जाती।<br />
<br />
हे राम , इसके दिमाग में तो बातें पता नहीं कहाँ से आतीं हैं। और मालिन माँ हसँते हुए चली गयीं। आज घर में शोर है। हँसी का शोर। काफी दिनों बाद सुना और अच्छा लगा। <br />
<br />
स्कूल कैसा चल रहा है ज्योति ?<br />
<br />
हाँ बताना भूल गया ज्योति आनंद के स्कूल में अब तो vice principal है। <br />
<br />
अच्छा चल रहा है। आसपास के गाँव से भी काफी बच्चे आने लगे हैं अब तो। <br />
<br />
ये तो अच्छी बात है। लेकिन उससे भी अच्छी एक बात और है।<br />
<br />
वो क्या है भला ?<br />
<br />
मेरी गैरहाज़िरी में तुम यहाँ आती रहीं।<br />
<br />
अच्छा ये आपसे किसने कह दिया ?<br />
<br />
बाहर खिले हुए गुलाब बता रहें हैं। झूमते हुए गुलदाउदी के फूल बता रहें हैं। डहेलिया का झुण्ड बता रहा है। <br />
<br />
ओह। ....... <br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-7678645967005774392019-07-23T14:46:00.002-07:002019-07-23T14:50:24.641-07:00एक पुराना मौसम लौटा - 2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जैसा नाम वैसा स्वभाव और वैसा ही चरित्र। बहुत मुश्किल है लेकिन फिर भी ऐसे लोग हैं। जो अपने लिए नहीं जीते हैं।<br />
<br />
आप आनंद जी को कब से जानते हैं ? सुशीला का प्रश्न<br />
<br />
बेटी जानता तो मैं इसको कई सालों से हूँ लेकिन पहचान पाने में बहुत देर लगी।<br />
<br />
ये कैसे हो सकता है बाबा ? जिसको हम जानते हैं उसको पहचानते भी हैं ना।<br />
<br />
नहीं बिटिया दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला। हम बहुत से लोगों को जानते हैं लेकिन पहचानते कितनों को हैं या कितनों को पहचान पाते हैं ? अब आनंद को ही ले ले। हाँ कई सालों से जानता हूँ। गाँव का स्कूल उसके पिता जी का खुलवाया हुआ है।<br />
<br />
बाबा अविनाश जी का घर कौन सा है गाँव में ?<br />
<br />
यहां से दो ढाई कोस होगा। तुझे राधा का घर पता है ?<br />
<br />
हाँ बाबा<br />
<br />
वहां से सौ गज आगे, उलटे हाथ पर ।<br />
<br />
अरे वो फूलों वाला। जहां मालिन दादी रहती हैं।<br />
<br />
हाँ बिटिया।<br />
<br />
वो आनंद का ही घर है। मालिन आनंद के घर पर सालों से काम कर रही हैं।<br />
<br />
आनंद भी मंदिर से निकल कर ख़रामा ख़रामा चलता हुआ बढ़ चला। उसकी चाल देख कर कोई भी भाँप सकता है कि वो सिर्फ चल रहा है कहाँ जा रहा है , मंज़िल कहाँ है पता नहीं। इंसान के दिमाग में क्या चल रहा है उसकी बॉडी language को देखकर न - न पढ़कर समझा जा सकता है। लेकिन ये कला , ये विधा तो विधाता ने सबको दी लेकिन उसका इस्तेमाल सभी नहीं कर पाते हैं। खैर साहब छोड़िये मैं भी कहाँ विधि और विधान ले कर बैठ गया।<br />
<br />
आनंद ने मुड़कर देखा कि मंदिर से वो कितना आगे निकल आया है। तसल्ली हो गयी कि हाँ खासी दूर हूँ तो जेब से चुरुट की डिब्बी निकाली और एक सिगरेट जला कर उसके कश लेते हुए चलता रहा।<br />
<br />
आनंद भइया ..... राम राम ! बड़ी जानी पहचानी सी आवाज़।<br />
<br />
कौन है भाई ?<br />
<br />
अन्धेरा थोड़ा गहरा गया था इसलिए सूरत नहीं दिखाई पड़ रही थी।<br />
<br />
भैया मैं कुंदन।<br />
<br />
अरे कुंदन भाई , माफ़ करना अँधेरे की वजह से पहचान नहीं पाया। कैसे हो ?<br />
<br />
मैं बिलकुल ठीक हूँ। आप कैसे हो और कब आये कहाँ थे ?<br />
<br />
आनंद ने मन में सोचा कि ३ प्रश्नो का जवाब तो सबको देना ही पड़ेगा - कहाँ थे , कैसे हो और कब आये।<br />
<br />
ठीक हूँ कुंदन और आये हुए अभी १ ही दिन हुआ है और कहाँ थे , बस ये न पूछो।<br />
<br />
अच्छा अभी चलता हूँ भाई कुंदन। कल दूकान पर आता हूँ।<br />
<br />
ठीक है भैया।<br />
<br />
आनंद आगे बढ़ गया। कब घर पहुँच गया पता नहीं चला। आज दरवाजा खुला हुआ था। घर के अंदर मद्धिम उजाला भी आ रहा था। और हवा में एक अजीब सी महक भी। दरवाजा खुला हुआ समझ में आता है मालिन माँ अंदर हैं इसलिए उजाला भी है अंदर लेकिन ये खुशबू !!!!!!<br />
<br />
कुछ न कुछ तो जरूर होना है।<br />
<br />
कैसे हो आनंद ! हवा में तैरती हुई एक सुरीली सी आवाज़।<br />
<br />
आनंद ने सर उठा के देखा तो मूर्तिवत देखता ही रह गया। <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
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Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-16023212567324381282019-07-22T14:52:00.001-07:002019-07-22T14:52:27.347-07:00एक पुराना मौसम लौटा- 1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शाम धीरे धीरे अपना साया बढ़ाती जा रही थी। मंदिर में आने जाने वाले भी काम हो रहे थे। कभी कभार कोई आकर मंदिर का घंटा बजाता जिसकी आवाज़ दूर दूर तक सुनाई पड़ रही थी।<br />
<br />
प्रणाम बाबा ....... युवक ने पंडित जी का चरणों को स्पर्श किया। <br />
<br />
खुश रह बेटा , पंडित जी इतना ही कह पाए। कहाँ था इतने साल ? कोई खोज खबर नहीं। घर में दिया बाती रोज़ होती रही। मालिन कहीं गयी नहीं। लेकिन तेरी कोई खबर उसको भी नहीं। कई बार मालिन यहां आई मैंने पूछा भी तेरे बारे में लेकिन उसके पास कोई जवाब नहीं। <br />
<br />
बाबा, यायावरी में था। बहुत घूमा, बहुत जगह घूमा। इधर गया उधर गया। नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर। आनंद ने जवाब दिया। आवाज़ में एक अजीब सा निर्मोहीपन। <br />
<br />
और ........ पंडित जी का एक सवाल। <br />
<br />
और क्या बाबा। <br />
<br />
गंगा कैसी है ? पंडित जी का सीधा सा सवाल। <br />
<br />
बाबा ये रही चाय सुशीला थाली दो गिलास चाय और तश्तरी में चार बिस्कुट लेकर आई। आ बिटिया बैठ। आनंद ये सुशीला है अंजलि की बेटी। यहीं रहती है मेरे साथ। आनंद ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ रखा और होंठ पर आशीर्वाद के बोल बुदबुदा के रह गए। चाय ख़तम कर के आनंद ने पंडित जी से चलने की आज्ञा मांगी। अभी तो रहेगा न यहां बेटा ? पंडित जी का स्वाभाविक सवाल। आनंद ने पंडित जी की तरफ देखा , मुस्कराया और स्वीकारोक्ति में सर हिलाया। सुशीला के हाथ में १०० रुपए रखे। और उसको आशीर्वाद देते हुए पंडित जी से विदा ली। <br />
<br />
बाबा ये कौन हैं ? अब सुशीला का प्रश्न<br />
<br />
बिटिया क्या जवाब दूँ तेरे सवाल का और कहाँ से शुरू करूँ।<br />
<br />
एक पुराना मौसम लौटा। ये जो आया था इसका नाम है आनंद और जैसा इसका नाम वैसा ही इसका चरित्र।<br />
<br />
लेकिन ......<br />
<br />
सजदों के एवज फिरदौस मिले , ये बात मुझे मंज़ूर नहीं,<br />
बेलौस ईबादत करता हूँ , बन्दा हूँ तेरा मजदूर नहीं। </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-15211991649369429292019-07-18T13:44:00.004-07:002019-07-18T13:44:55.835-07:00एक पुराना मौसम लौटा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
समय गुज़रता था समय गुज़रता है और समय गुज़र जाएगा ये उसकी की नियति है। काफी वक़्त हो चला। वक़्त के पुल के नीचे से समय का पानी काफी बह चुका। अब तो नई शुरुआत का समय है। <br />
<br />
सावन का मौसम लग चुका है और बारिश की झड़ी लगी है। पेड़ पौधों पर जमी धूल बारिश के पानी से साफ़ हो चुकी है और पत्ता - पत्ता, बूटा - बूटा हरे रंग में चमक रहा है। इस बारिश में चलती हुई हवा में पेड़ तो ऐसे झूम रहे हैं जैसे कोई अल्हड़ अभी अभी जिंदगी के सोलवहें साल में प्रवेश कर रही हो। उसे जंगली गुलाब बहुत पसंद हैं क्योंकि वो झाड़ में लगते हैं और एक ही झाड़ में कई सारे गुलाब, बुराँस के पेड़ को देखा है कभी आपने ? नहीं न। मैं जानता हूँ बाबू , आपने नहीं देखा होगा। बुराँस के पेड़ पर जब जवानी आती है, तो कौन सी मदिरा उसके सामने टिक पाती है। ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा। बस स्टैंड से थोड़ा ऊपर चलकर वो जो पानी का सोता है वहां पर कुंदन की चाय की दूकान है। न कुंदन बदला न ही उसकी दूकान। एक ट्रांजिस्टर सवेरे से बजना शरू होता है और जब तक दूकान बंद होने का समय न हो जाए बजता ही रहता है। <br />
<br />
गाँव में अभी भी कुछ ज़्यादा नहीं बदला है। कुछ पक्के मकान जरूर बन गए हैं लेकिन कच्चे मकान अभी भी हैं। मिसर जी की दूकान के बायीं तरफ नीम का वो बड़ा पेड़ आज भी मौजूद है। रेलवे स्टेशन पार करके वो काली जी का पोखरा आज भी है। उसके किनारे पर कृष्ण जी का मंदिर आज भी है। और मंदिर के पास वो बरगद का पेड़ जी हाँ , अभी भी वहीं है। आज भी शाम के वक़्त मदिर से कीर्तन , घंटे - घड़ियालों की आवाज़ आती है , आज भी पोखरे में शाम की आरती के बाद तैरते हुए दिए दिखते हैं। कितना अद्भुत समां होता है। शाम गहराते हुए रात में बदल जाती है और मंदिर के पीछे एक छोटा सा घर जिसके बरामदे में एक बल्ब टिमटिमा रहा है और एक आराम कुर्सी पर एक बुज़ुर्गवार बैठे हुए नज़र आते हैं , जी हाँ ये बुज़ुर्गवार मंदिर के पंडित जी हैं नाम दशरथ चौबे है। उम्र बिला शक़ ७० से ऊपर है। चेहरे पर शान्ति, मन में स्थिरता और शून्य में देखती आँखें। <br />
<br />
बाबा ......... पंडित जी की पोती ने आवाज़ दी। उसका नाम सुशीला है। उम्र अगर , चलिए हटाइये उम्र का ज़िक्र क्यों कर करें। बस यूँ समझ लीजिये बाबा की देखरेख और मंदिर की देखभाल का जिम्मा उसी के सर है। उसने सारा समय अपने बंसी बजैया को दे दिया।<br />
<br />
क्या है बेटा....... पंडित जी ने बेटी की आवाज़ का जवाब दिया। <br />
<br />
बाबा , आप से कोई मिलने आये हैं। सुशीला ने कहा<br />
<br />
मुझसे ? पंडित जी का प्रश्न। <br />
<br />
कौन हैं ? दूसरा प्रश्न।<br />
<br />
बाबा कोई आनंद हैं। <br />
<br />
कौन !!!! आनंद !!!!! ....... पण्डित जी का विस्मय और आश्चर्य से भरा स्वर। वो कुर्सी से ऐसे उठे कि जैसे कोई २० -२५ साल का लड़का और मंदिर की तरफ लगभग दौड़ पड़े। सुशीला ने पकड़ा नहीं तो लगभग गिर गए थे। वो पंडित जी को मंदिर तक ले गयी। और मंदिर में एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा था। दोनों एक दूसरे को देखते रहे। कोई शब्द नहीं, कोई आवाज़ नहीं , ख़ामोशी कैसे बोलती है कोई यहां देखता। अचानक दोनों एक दूसरे की तरफ बढे और गले लग गए। अब आंसू बोल रहे थे शब्द नहीं। कौन कहता है की मौन बोलता नहीं है। कई बार जो बातें शब्द बयां नहीं कर पाते खामोशी कह जाती है। <br />
<br />
सुशीला इस बात को लेकर आश्वस्त थी की कोई अपना ही है। पंडित जी उस आदमी के साथ मंदिर के बरामदे में ही बैठ गए। <br />
<br />
सुशीला , बेटी ज़रा गुड़ और पानी तो ले आ। पंडित जी स्वर में आतिथ्य का भाव। अरी सुन, गुड़, अदरक और तुलसी डाल कर चाय बना दे बेटी और सुन ज़रा बसेसर की दुकान से देख तो अगर लड्डू हों तो ले आ<br />
<br />
पंडित जी के स्वर से ऐसा तो निश्चित था कि कोई अपना ही है जो बरसों बाद आया है या मिला है। <br />
<br />
<br />
ये कौन था ? <br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8220709793514702538.post-41975655132346060452018-09-17T14:59:00.000-07:002018-09-17T14:59:18.436-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बताओ हैं न मेरे ख्वाब झूठे,<br />
कि जब भी देखा, तुझे अपने साथ देखा।<br />
<br />
बहुत मग़रूर होते जा रहे हो,<br />
मुहब्ब्त में कमी करनी पड़ेगी। <br />
<br />
तुम मुहब्बत के कौन से तक़ाज़ों कि बात करते हो,<br />
यहाँ तो लोग ख़ुदा को भी, फुरसत मिले तो याद करते हैं .<br />
<br />
अब तो तन्हाई का ये आलम है फ़राज़ ,<br />
कोई हँस भी देखे तो मुहब्बत का गुमाँ होता है। <br />
<br />
अच्छे लगे जो तुम, सो हमने बता दिया ,<br />
नुक़सान ये हुआ, कि तुम मगरूर हो गए। <br />
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मेरी फ़ितरत में नहीं ग़म अपना बयाँ करना ,<br />
अगर तेरे वजूद का हिस्सा हूँ तो महसूस कर तकलीफ मेरी। <br />
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<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">Koi Mukhlis Agar Hota Toh Mein Bhi Mohabat Karti. </span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">Dil To Bahot Milay Hain Magar Koi Dil Se Nahi Milta</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कोई मुख़लिस अगर होता तो हम भी मुहब्बत करते, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">दिल तो बहुत मिले मगर कोई दिल से नहीं मिला। </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">Rah-e-muhabbat main ajab sa howa hai haal apna, </span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">Na zakhm nazar ata hai na dard saha jata hai...</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">राहे मुहब्ब्त में अजब सा हाल है अपना, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">न ज़ख्म नज़र आता है, न दर्द सहा जाता है। </span></div>
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