Thursday, February 24, 2011

हालात......2

ज्योति दीदी....आप को प्रिंसिपल  साहब ने बुलाया है.....काका ने स्टाफ रूम में आकर मुझे सूचना दी.

आप की जानकारी के लिए बता दूँ...की स्कूल की स्थापना के समय से ही काका यहाँ पर हैं..इसलिए सब लोग आदर से उन्हें काका कहते हैं.....उनका नाम संपत राम है. 

आती हूँ काका......मैं प्रिंसिपल के कमरे की तरफ चल दी.....

अंदर  आ सकती हूँ ....सर? 

कौन....ज्योति...आओ बेटी. ...बैठो.....सब ठीक है....?

हाँ सर...सब ठीक है. आप ने बुलवाया था....? 

हाँ....तुमने कुछ सुना....? 

किस बारे में,  सर...... ?

आनंद के बारे में....

हाँ सर...सुना है की उन्होंने इस्तीफा दे दिया है......प्रिंसिपल साहब ने एक कागज निकाल कर सामने रख दिया......

ये है.......२ पंक्तियों का इस्तीफ़ा........तुम्हारी उस से कोई बात हुई...? 

नहीं सर.....२ दिन पहले घर आये थे....लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं हुई.....

तो मैं इसको स्वीकार कर लूँ...... प्रिंसिपल साहब ने मुझसे पूंछा.

अब मैं क्या जवाब दूँ........मैं प्रिंसिपल साहब का चेहरा देखती रही......

मैं जानता हूँ बेटी और समझता हूँ ...तेरे और आनंद के रिश्ते को, उसकी गहराई को, उसकी पवित्रता को..इसीलिए तुझे यहाँ बुलाया है.  तेरी क्या राय है....?  

सर..इसको अभी कुछ दिन hold  करिए.....जहाँ तक मैं आनंद को जानती हूँ...उनको कुछ दिन का टाइम दे दीजिये...और कुछ दिन का एकांत....वो वापस आयेंगे. 

वो है कहाँ.....? तीन दिन से कुछ अता-पता  ही नहीं है....संपत को उसके घर भेजा तो घर पे मिला ही नहीं...क्या बाहर गया है...?

बाहर तो नहीं गएँ हैं......लेकिन मैं आज बात करुँगी.

देख ले बेटी......ले ये इस्तीफ़ा तू रख ले, अगर वो माँ जाए तो फाड़ देना...नहीं तो देखेंगे क्या करना है.

ठीक है...सर. ...मैं कमरे से बाहर निकली....तो सोचने लगी कि आश्वासन तो दे दिया है...लेकिन कहाँ खोजू उस आवारा मसीहा को....? बिना बताये गायब हो जाना तो उनके चरित्र की विशेषता है..... चलो शायद मालिन माँ को पता हो.....स्कूल के बाद मैं आनंद के घर की तरफ चल दी.....सब्जीमंडी में ही मालिन माँ मिल गयीं......

अरी...ज्योति बिटिया...तू यहाँ.....? घर जा रही थी क्या...?

हाँ माँ.....आनंद कहाँ हैं....?

आनंद...........घर पर है.....क्यों क्या हुआ है....

कुछ नहीं माँ....ज़रा मिलना है.

मुझ बुढिया से छिपा रही है बेटी....आनंद को मैंने कभी इस हाल में नहीं देखा जैसा पिछले चार दिन से है.....किसी से भी मिलने को मना कर रखा है...संपत २ बार आया, दोनों बार मना करवा दिया.  

क्या हुआ माँ...वो ठीक तो हैं....मुझे  अंदेशा था की मेरे एक हफ्ते की दूरी ने उनकी क्या  हालत कर दी होगी....लेकिन ये दूरी, दूरी नहीं थी......हालात  थे....मैं समझा लूंगी उनको.  

चल घर चल...मेरा काम हो गया है...घर ही जा रही हूँ.

घर के बाहर बाग़ की दशा देख कर घर के अंदर रहने वाले की दशा का अंदाज हो गया मुझे.

आनंद .......ज्योति आई है.....मालिन माँ का सूचित करने वाला स्वर.

आओ...ज्योति.....एक मलिन सी आवाज़.

अंदर जिस व्यक्ति को देखा उसका नाम उसकी दशा के बिलकुल विपरीत.

ये क्या आनंद....क्या हाल है ये......कब से इस हाल में हो....कहलवा नहीं सकते थे....या मालिन माँ को भी मना कर दिया था की ज्योति को कुछ न बताये....

बैठोगी या खड़े खड़े ही भाषण दोगी....? आनंद का घुटा हुआ सा स्वर.

मैं अभी आती हूँ....मालिन माँ ......मैं अभी आ रही हूँ...ज़रा दो कप चाय बना दो....

अच्छा बिटिया....मालिन माँ का जवाब....वो सोचने लगीं...की इसको क्या हो गया ...आंधी की तरह आई तूफ़ान की तरह चली गयी.....

१० मिनट बाद ज्योति डॉक्टर को ले कर फिर आई....

ह्म्म्म...इनको तो काफी तेज बुखार है....कोई दवा ली.....?

नहीं ली होगी.....ज्योति का विश्वास से भरा हुआ जवाब डॉक्टर को.

साहब को १०३ बुखार है...और कोई दवा नहीं....डॉक्टर ने आग में हवा डालते हुए कहा.
                                                                                                                                            क्रमश:






   

Tuesday, February 22, 2011

ईदगाह-2

गुस्ताखियाँ करना मेरा स्वभाव रहा है.....बचपन से गुस्ताखियाँ करता चला आ रहा हूँ...और बड़े बुजुर्ग माफ़ी भी फरमाते आ रहे हैं, की किसी दिन तो साहबजादे को समझ आएगी....आज एक बड़ी गुस्ताखी करने की जुर्र्त कर रहा हूँ.......इसीलिए से पहले से माफ़ी नामा पेश कर रहा हूँ......

हम सभी ने उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "ईदगाह" जरुर पढ़ी होगी....मेरे मन में अचानक ये ख्याल पैदा हुआ....की हामिद मियां तो अब बड़े हो चले होंगे....अब अगर वो होते तो इस कहानी में आगे क्या होता......बस इसी ख्याल ने आग को हवा दे दी और मैं "ईदगाह-2" लिखने का मन बना बैठा..............इसको लिखने में अगर मुझसे कोई गुस्ताखी हो जाए.....तो मुझे माफ़ फरमा दें.


वक़्त चलता रहा...अमीना बी के लिए वो चिमटा एक बेशकीमती चीज़ हो गयी....और होती भी क्यों न.....उमर किस के रोके रुकी है भला.....हामिद मियाँ दिन-बी-दिन बड़े होते गए....वो चार -पांच साल का गरीब से दिखने वाला लड़का......जवान हो गया....और हालत ने जिस बच्चे को चार-पांच साल में ही बड़ा और जिम्मेदार बना  दिया  हो.....वो सोलह-सत्रह साल में क्या बनके निखरेगा....सोना...और क्या.

अमीना बी....दो घरों में काम कर के हामिद की स्कूल फीस के पैसे देने लगी और हामिद मियाँ.....पांच-छे- सातवीं पढ़ते हुए बारहवीं कर गए.....आज गाँव में सब से ज्यादा पढ़े हुए लोगों में शुमार होता है...मियाँ का....... दसवीं पास करने के बाद तो हामिद ने दादी का काम करना भी छुड़वा दिया.....दिन में वो स्कूल जाता....और शाम को पुराने अखबारों से बनाये लिफाफों को दुकानदारों को बेचने.....गुजर लायक पैसे हामिद दसवीं से ही कमाने लगा....और खुश....खुशमिजाजी तो अल्लाहताला ने उसके दिल में भर दी थी.....जिस से भी मिलना दुआ-सलाम करना, मिजाजपुर्सी करना, बड़ों का अदब करना, मीठा बोलना....जी कुछ ही दिनों में गाँव का हर दुकानदार   इंतज़ार करता मिलता कि हामिद आये तो लिफ़ाफ़े खरीदें...और अगर किसी दिन हामिद न आ पाए....तो घर से जा कर नकदी दे कर लिफ़ाफ़े ले आते....और अगर नकदी न भी हो.....तो हामिद ने कभी किसी को "न" नहीं बोला....उसको अपने पिछले दिन याद थे.

ईद फिर आई.....इस बार दादी , मानो बच्ची बन गयी हो.....नया सलवार-कुर्ता और उपर से जर्री का दुपट्टा....दादी की उम्र 75  की होगी.....लेकिन बदन में जैसे पंख लग गए हों....शामियाने वाले को भी नहीं बक्शा दादी ने...अरे मर्दुआ, जरा कुर्सी तो सलीके से लगा दे...और देख पानी में बर्फ डाल दे...अरी.....सलमा....देख जरा शरबत में ख़स डाल दे......और सुन...सिवैयों में मेवा डाल दीजियो.....अरी सुन.....वो लड्डू पर जरा कपड़ा डाल दे... 

मैं देख लूँगी दादी....आप बैठ जाओ.....सलमा ने अमीना बी का हाँथ पकड कर कहा. 

अरी....सुन हामिद कहाँ है...? 

मैं यहीं हूँ...दादी......

हामिद समझ रहा था की आज दादी के पर जग गए हैं......और लगे भी क्यों न.....सालहों -साल बाद तो वो दिन आया जिसका ख्वाब दादी ने कभी देखा भी न था.....आज हामिद मियाँ की दूकान का फीता जो कटना था......चौधरी साहब के बगल की कुर्सी पर अमीना बी बैठेंगी .....ईद की नमाज के बाद चौधरी साहब को आना है....नमाज अदा हुई....पूरा गाँव हामिद मियाँ के जलसे में शिरकत फरमाने  आ पहुंचा.....फीता कटा....ईद हुई.  नूर, सलमा, सिम्मी, मोहसिन....सब तो थे....

अब दादी की उंगलियाँ चूल्हे से रोटी उतारने में  नहीं जलती.....दादी सब से अमीर हो गयीं....उनके पास हामिद जैसा पोता जो है......

जो भी दौलत थी वो हामिद के हवाले कर दी,
जब तलक मैं न बैठूं , वो खड़ा रहता है.


हामिद को आज भी वो दिन नहीं भुला जब दादी ने कितने महीन से बचाए हुए पांच पैसे उसको दिए.....जा ईद के मेले में घूम आ......तीन  पैसे के उस चिमटे ने...और उस से भी ज्यादा सारे खिलोनों से लड़ते हुए वो चार साल का बच्चा अपनी दादी की उँगलियों को आग से बचाने के लिए चिमटा लाया...तो दादी की आँखों से गिरे हुए वो चंद आंसू  के कतरे
आज दुआ बन कर बरस रहे हैं.....और वो चिमटा दादी आज भी कुरआन शरीफ की तरह सहेजती हैं.....सच में...अल्लाह कसम......  

Monday, February 21, 2011

वक़्त.....तुम सुन रहे हो न

वक़्त को रुका हुआ कभी नहीं देखा मैंने....क्या तुमने देखा है...? ओरों के लिए वक़्त की क्या परिभाषा है...मैं नहीं जानता...और नहीं मुझे कोई रूचि है......लेकिन मेरे लिए वक़्त रुका हुआ है.....तारीखों पर तारीखें बदलती जा रही हैं.....लेकिन मेरा वक़्त नहीं, इस वक़्त मेरा वक़्त मेरे साथ नहीं है....कुछ रूठा हुआ है.....कुछ नाराज़ है......मेरा वक़्त खराब है.

बोलो न.....अब चुप क्यों हो....? कोयल गाती हुई ही अच्छी लगती है, फूल इठलाते हुए ही अच्छे लगते हैं.....मांग सजी हुई ही अच्छी लगती है.....तुम चहचहाती  हुई ही अच्छी लगती हो.....अब मान भी जाओ....और हँस के दिखा दो....एक बार.....सिर्फ एक बार...... अच्छा बाबा....मेरे सामने न सही...तो अकेले में ही सही....लेकिन हंसो न......तुम्हारी हंसी भी जिन्दगी देती है मुझको को......

वक़्त.....तुम सुन रहे हो न....तुम को तो कोई नहीं रोक पाया..लेकिन तुमने मुझे रोक दिया....कहाँ - कहाँ तुमने मुझे रोका है...तुम से अच्छा कौन जानता है....पानी बहता हुआ और वक़्त चलता हुआ ही अच्छा लगता है.....ये कुदरत का नियम है. ......मैं दरिया हूँ पर तुम वक़्त हो...दरिया का बहाव भी वक़्त के साथ बदल जाता है......वक़्त तुम बहुत बलवान हो......मुझसे नाराज़ हो..?

तुम्हारे  बिना.....मैं...????? तुमने कागज के गुलाब तो देखे होंगे......खूबसूरत होते हैं...लेकिन खुशबू  नहीं होती....देखो मेरे और इम्तिहान न लो......पास नहीं हुआ इम्तिहान में तो फेल हो जाऊँगा.....

तुम समझ रही हो न....वक़्त.....चलो.....मेरे वक़्त मेरे साथ चलो, मुझे ले कर चलो. मैं जब -जब वक़्त के साथ नहीं चला....गिर पड़ा.....

वक़्त टिक - टिक करो.....करो न...........देखो अब मान भी जाओ.   

Sunday, February 20, 2011

हालात .......

हेल्लो......क्या मैं अंदर आ सकता हूँ......

कौन....ओह....आनंद.....आइये......कैसे आना हुआ....?

कुछ काम नहीं था....इधर से गुजर रहा था, सोचा सलाम करता चलूँ....हांलांकि  मौसम अब बदल रहा है....

बैठिये...चाय लेंगे...? 

नहीं......तक्कल्लुफ़ न करिए. 

और बताइए.....आराम से हैं...आप..? 

हाँ...सब ठीक है......सब कुशल है.....आप बताइए....

सब ठीक है.......

दोनों चुप......दोनों के पास बाते बहुत हैं...लेकिन  दोनों चुप.... 

ये किताब नयी ली है ...आप ने.....

हाँ......अच्छी है.

कभी केशव प्रसाद मिश्र की कोहबर की शर्त पढियेगा..... माफ़ करियेगा बिना पूंछे सलाह दे रहा हूँ. आप को पढने का शौक है इसलिए बोल बैठा.

नहीं नहीं कोई बात नहीं.....अरे लाइट चली गयी.....मैं जरा लालटेन जला दूँ.....

जी.....

फिर चुप्पी......शाम हलके हलके रात के दामन में समाती जा रही थी....लेकिन यहाँ पर दो लोग चुप्पी  के सहारे बात कर रहे थे.....आज पहली बार उसने मुझसे पूंछा की चाय पियोगे....जो ये जानती है की चाय तो मेरी संजीवनी बूटी है......लेकिन आज ओपचारिकता निभाने का वक़्त है....जो दिल कभी एक साथ धड़के हों...उनको अलग होने में थोडा वक़्त तो लगता है, थोड़ी तकलीफ भी होती है..थोडा खून भी बहता है...वो खून लाल रंग का नही होता, वो अरमानों का खून होता है, वो सपनों का खून  होता है,  वो उम्मीदों का खून होता है.....और इन सब का रंग लाल नहीं होता......

आप की तबियत कैसी है.....५ मिनट के अंतराल पर एक सवाल .

ठीक है......२ सेकंड में जवाब. 

आप आज कल स्कूल नहीं आ रहे हैं.....? दूसरा ओपचारिक सवाल. 

मैंने इस्तीफ़ा दे दिया है......तुरंत  जवाब.  

उसकी आँखों ने पूंछा क्यों?

लेकिन मैं होंठो के हिलने का इंतज़ार करता रहा.....की सवाल आये.

लेकिन कोई सवाल नहीं.......

अच्छा अब चलता हूँ......तुम्हारा  का काफी समय ले लिया मैंने....

नहीं ....ऐसा कुछ नहीं है.

 थोड़ी ठंड है...कुछ गर्म पहन लीजियेगा...तुमको को ठंड जल्दी असर करती है.  अच्छा नमस्कार........ कहा सुना माफ़ करियेगा.


ये आनंद और ज्योति के बीच का संवाद है....

Saturday, February 19, 2011

खाली फ्रेम.....

ये खाली फ्रेम देख रही हो ...... ज्योति...... इसमें  कई सालों से एक तस्वीर हुआ करती थी...मैं नाम उजागर नहीं कर रहा हूँ.....क्योंकि किसी अपने के चेहरे पर रुसवाई के बादल मुझे नामंजूर है....जिस चेहरे पर रुसवाई के बादल होंगे...वो चेहरा भी किसी मेरे अपने का ही होगा.....

कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी.....
यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.....

अच्छा ...ज्योति एक बात बताओ क्या फ्रेम में से तस्वीर निकाल लेने से....इंसान भुला दिया  जा सकता है.....? मुझे तो यूँ लगता है की...खाली फ्रेम उस  इंसान की याद और दिलाता है.....जिस की तस्वीर उस फ्रेम में थी......अगर शिव के मंदिर से शिव की मूरत हटा दी जाए...तो क्या शिव मंदिर नहीं रहेगा....? खैर....हर इंसान की अपनी-अपनी सोच होती है.....मैंने कभी भी किसी पर अपनी सोच मनवाने का जोर नहीं डाला....तो आज भी नहीं डालूँगा.....इसीलिए...अपने दिल में कुछ तस्वीरें बसा ली हैं.....ताकि वो ख़ास तस्वीर किसी फ्रेम की  गुलाम न बने. .....बस ये खाली फ्रेम एक टीस जरुर पैदा करता है.......अगर इजाज़त दो....तो मिर्ज़ा ग़ालिब का एक कीमती शेर अर्ज़ करूँ.....

कोई मेरे दिल से पूंछे, तेरे तीर-ए-नीमकश  को.......आधा धंसा हुआ तीर 
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता. 

तो ये जो खाली फ्रेम है...ये तीर-ऐ-नीमकश है.....जो टीस पैदा करता है....और अगर ये टीस किसी अपने खासमखास से मिली हो...तो इसकी ख़लिश दुगनी हो जाती है......और वो बिरले ही होते हैं....अजूबे ही होते हैं....जिनको ये दर्द नसीब होता है..... तुमसे इसका बयाँ क्या करना.... तुम तो खुद इस दर्द से गुजरी हो.....इस दिल में अभी और भी जख्मों  की जगह है....अबरू की कटारी को दो आब और ज्यादा.....

शम्मे महफ़िल जल उठी, और जल गया परवाना भी,
देखना ये है, उजाला किसके मुस्तकबिल में है....

देखो.....ये खाली फ्रेम....तुम्हारे और करीब ले आया है.....लेकिन....जोर न डालो, परेशाँ न हो....नाम नहीं लिखूंगा......ये जुबाँ किसी ने खरीद ली, ये कलम किसी का गुलाम है. ....मैने हमेशा से..ओरौं के दर्द को मरहम समझ कर अपने दिल मे समेटा है.....और मरहम समझ कर लगाया भी...उससे मैं अपने दर्द भूल गया....लेकिन

अब उसके दिल पे मेरी हुकुमत नहीं रही,
अब दस्तरस से ये भी इलाका निकल  गया.

वक़्त की बड़ी यारी रही है मेरे साथ.....एक दर्द से तबियत ठीक से रंगेज़ नहीं हो पाती...दूसरा दरवाजे पर खड़ा होता है....अब बताओ दरवाजे पर अगर कोई खड़ा हो....तो उसको स्वीकार तो करना ही पड़ता है.....ये संस्क्रति की सीख है.....सभ्यता की सीखा है.....मैं जानता हूँ...मेरे जैसे असभ्य के मुंह से , सभ्यता की बाते.....अरे तौबा.

कल वक़्त मिला.....और बोला...और मियाँ.....अभी भी और अभी तक ज़िंदा हो.......मैने कहा.....मियाँ....जायेंगे भी तो जब अब वक़्त मुकरर करेगे, जब आप इज्ज़ाज्त देंगे....वक़्त से पहले तो मैं खुदा के सामने भी नहीं हाज़िर होउंगा....

तो तब तक......वक़्त का सवाल....?

क्या तब तक.......ये खाली फ्रेम....मुझे एहसास दिलाता रहेगा......की यहाँ पर कौन था....

वो मेरी पीठ में खंजर जरुर उतारेगा,

मगर निगाह मिलेगी तो कैसे मारेगा.

बताइए.....अगर एक खाली फ्रेम का ये तासुब (impact) है. मेरे दिल पर  तो इसमे लगी हुई तस्वीर , अगर कुफ्र न समझें तो अर्ज़ करूँ.....तुझमे खुदा देखता था मैं.   

तुम्हारे रहमो-करम पर जरूर हैं लेकिन,
हम अपने शहर में जीने का हक तो रखते हैं....

तुम से मना किया था न....

तुम से मना किया था न....

तुमको समझाया था , न.....की उससे दूर रहना....उसको छूत की बीमारी है.....गाँव वाले यूँ ही तो उसको उलटा सीधा नहीं कहते.....उसको यूँ ही तो गाँव से नहीं निकाल दिया......लेकिन चलो ...अच्छा हुआ...की तुम ने खुद अनुभव कर लिया और राहें जुदा कर लीं......वो है ही नहीं....सभ्य और अभिजात्य   समाज मे रहने लायक......अब तुमको भी इस बात का एहसास हो जायेगा...की उसके यहाँ से चले जाने में.....कितना सुख और शान्ति है.

जी..... मैं सतीश के बारे में ही बोल रही  हूँ.....अब आप ने देखा....उसका क्या चरित्र है.....? अरे ऐसे आदमी को सूली पर लटका देना चाहिए....और वो भी चौराहे पर....ताकि भविष्य में कोई भी इस छूत की बीमारी से ग्रसित न हो...... आप ने अपना status  देखा है...न Mrs. Sharma. ....ठीक है मन से वो आप से कुछ attach  हो गया था....लेकिन....पैरों की धूल क्या माथे  पर लगाई जा सकती है......जो जो कदम आप ने उठाये हैं...इस छूत की बीमारी से बचने के लिए......मैं आप के साथ हूँ.....जब आँख खुले, तभी सवेरा...........रही बात उसकी.......तो क्या आप ने उसकी ज़िन्दगी का ठेका ले रखा है...? अरे ....जाने दीजिये न.....कितने ही इस तरह लोग रोज़ पैदा होते हैं...रोज़ मरते हैं..... ख़ाक डालिए.

अब आप ही देखिये....कितनी खुश और स्वस्थ्य दिख रहीं हैं आप...और हैं आप.....अरे, जिसका ख्याल भी मन मे....बीमारी पैदा कर दे....उस से तो मीलों की दूरी अच्छी.....वो कुछ दिन तड़पेगा, परेशान होगा.....फिर एक दिन शांत हो कर.....इस जमीन की खुराक हो जायेगा......कम से कम एक चरित्रहीन तो इस दुनिया से कम होगा.....मुहब्बत करता है..............दूर रहिये उससे.....         

और सुनिए .....अभी न छेडिये जिक्रे मुहब्बत, जलाल्लोदीन अकबर सुन रहे हैं...... 

Friday, February 18, 2011

.दिल ने ये कहा है दिल से........

कोई अनुशासन ही  नहीं है, अजीब आप-धापी मची रहती है...जब देखो. इतना भी ख्याल नहीं रहता है की इन्हीं के बीच से होकर साँसों को भी आना-जाना होता है.....बेचैनियों जरा रास्ता तो दो की सांस आ जाये. रोज़ सांस कम से कमतर होती जा रही है.....जरा सा तो लिहाज करो.....

उसकी याद आई है साँसों ज़रा धीरे चलो,
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता है!


एक बाज़ार सा लगा  रहता है....मेरे सीने में....हसरतों का.......कई बार तो मैंने साँसों को भी समझाया है की.....साँसों जरा धीरे चलो.....तुम्हारे बेतरतीब आने से भी इबादत में खलल पड़ता है....लेकिन कोई मानने को तैयार ही नहीं है.....एक विद्रोह मेरे अंदर खुद से.....एक क्रान्ति......एक तरफ दिमाग अपनी सारी फौज ले के खडा है...और दूसरी तरफ दिल अकेला. कई बार दिल तो सम्हल जाता  है लेकिन दिमाग अपना संतुलन खो बैठता है......और ये लीजिये......फिर दिल ही दिमाग को समझाता भी है.....ये कैसी दुश्मनी है......चल हट पगले .....दिल और दिमाग में दुश्मनी.............कभी हो ही नहीं सकती....

एक बाजू काटने पे तुले थे तमाम लोग, 
सोचो, कैसे दूसरा बाजू......... न बोलता. 

लेकिन....सीने में होती हुई इस घुटन से मैं परेशान हूँ.....क़िबला.....इसीलिए  जब मौका मिलता है...एक दो गहरी सांस ले लेता हूँ.....क्या करूँ...जीना भी तो है.....हज़रात...मैं जिदगी को मजबूरी समझ कर नहीं जीना चाहता....ये तो अल्लाह-ताला की सबसे बड़ी नेमत है.....कम से कम इतना जरूर चाहता हूँ..की ये चादर , जैसी उसने दी है....अगर इसमे मखमल के पैबंद न लगा सकूँ तो कम से कम टाट के पैबंद तो न लगाऊं....बाहर के तूफानों  को मैं झेल जाता हूँ.....अपने आप को किसी महफूज़ जगह बंद कर के....लेकिन इन अंदर के तूफानों का क्या करूँ........क्या अपने आप से भाग जाऊं.....लेकिन भाग के जाऊं कहाँ.....

इनको  समझाओ..... की देखो, मेरी मानो......एक बात समझ लो....मुझको  और तुमको रहना तो साथ साथ ही है...ता-उम्र. .....इसलिए कभी  तुम मेरी मानो...कभी मैं तुम्हारी....इस तरह बगावत करने से...तो हासिल कुछ भी नहीं होगा....हाँ एक घुटन जरूर होगी.....देखो साँसों की डोरी को चलने  दो....अगर वो सलामत ...तो सब सलामत. 

कल दिल ने मुझसे  से कहा...की तू तो पागल है....तू एहबाब के साथ रहना चाहता है, दोस्तों के बीच रहना चाहता है.... इसलिए नहीं की तू दोस्त-पसंद इंसान है...बल्कि इसलिए की तू डरपोक इंसान है...दोस्तों के बीच रहकर तेरा अपने आप से सामना ही नहीं होता....अरे उठ सामना कर अपने आप का, क्यों किसी के उपर निर्भर करता है......

कौन देता है यहाँ साथ उम्र भर के लिए, 
लोग तो जनाजे में भी कंधा बदलते रहते है. 

जब तू अकेला होता है...तो विचार, दिल के भाव, हसरतें, घाव....सब तुझ पर टूट पड़ते हैं..और तू डर कर....अपने आप से भागता है....मत कर ऐसा.... विचार, दिल के भाव, हसरतें, घाव....ये सब तेरे खुद के ईजाद किये हुए हैं....तेरी खुद की तामीर हैं....तोड़ दे इनको और निकल चल इन सब से बाहर....फिर देख.....क्या शानदार मुस्तकबिल तेरा इंतज़ार कर रहा है.....तू कदम तो बढ़ा....वो तुझको गोद में बिठाने को तैयार है, मुन्तजिर है .....लेकिन तू अपने बनाये इस जंजाल से निकल ही नहीं पा रहा है.....

तेरी तामीर के किस्से कहीं लिखे न जायेंगे,
तू जंगल से गुजरने के लिए रस्ता बनता है..........

ये जो  हसरतों का जंगल तूने खुद अपने सीने में तामीर किया है....इसको तोड़....इसमे से रस्ता बना....और वो देख..................मुस्तकबिल....शानदार......हाँ...एक बात और...शुक्रिया अदा कर उन लोगों का..जिन्होने तुझको आज इस हाल में ला के छोड़ दिया.....

बुलंदी देर तक किस शख्स की हिस्से में रहती है,

बहुत उंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है.


दिल ने ये कहा है दिल से.   

एक प्रयोग....या सच्चाई...

मेरे बारे में तुमसे कोई पूंछे,  तो कह देना,

वो इंसान तो अच्छा था, पर बदनाम बहुत था.

बोलियाँ तो लगी थीं बाज़ार में मगर,

वो इंसान बाज़ारू या बिकाऊ नहीं था.

कहने को तो हम भी उसके करीबी थे मगर,

उसको आदमी पहचानने का शऊर नहीं था.

इसलिए बना लीं दूरियाँ हमने......

सब उसके अपने थे कोई गैर नहीं था.

कोई गैर नहीं था..............कोई गैर नहीं था.





Monday, February 14, 2011

१४ फ़रवरी की शाम...

१४ फ़रवरी....बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल के, जो चीरा, तो कतरा-ए- खूँ ना निकला.....
Valientine's day यानी प्रेम का दिन...या प्रेमियों का दिन.....लीजिये हुज़ूर.....अल्लाह ने ३६५ दिन बनाये....इंसान ने उसमे भी अपनी अक्ल लगा दी...आज ये दिन , आज वो दिन.....Valentine day, friendship day, Promise Day, Mother's day, पता नहीं father's day होता है या नहीं....खैर मेरे लिए हर दिन Valentine day होता है....अगर ना हो..तो मर जाऊं.....

मैं किसी की critical analysis नहीं कर रहा हूँ....हर आदमी स्वतंत्र है यहाँ....मैं तो इक अजीब सा हादसा बयाँ कर रहा हूँ जो कल रात मेरे साथ गुजर गया....ऑफिस से लौटते-लौटते १० बज गए थे...मेरे कमरे से कुछ दूर वाले मकाँ से रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी....तो फिर इक अंदरूनी से जंग दो-चार हो गया......क्या हुआ है...इतनी रात को..कौन रो रहा है....मैं जहाँ रहता हूँ....वहाँ के लोगों की बोली मेरी समझ में नहीं आती है....क्या पूंछु..कैसे पूंछु.....१० बज रहे हैं...घर चलो.....आराम करो.....लेकिन इक छोटे बच्चे के रोने की आवाज़ ने पैरों में बेड़ियाँ पहना दीं..... दिमाग कह रहा था...की अपने घर जा रे.लेकिन पाँव साथ देने को तैयार  ना थे....क्योंकि उस बच्चे की रोने की आवाज़ तो इंसानों जैसी थी.....वो ना तमिल में रो रहा था, ना तेलगु में, ना कन्नड़ा में, ना हिंदी में, ना अंग्रेजी में....नहीं रहा गया में उस झोपडी में पहुँच ही गया....

झोपडी के अंदर रहने वाली माँ की तबियत काफी खराब थी....लोग काफी जमा थे....अस्पताल ले जाने की तैयारी कर रहे थे.....दो बच्चे....उम्र यही कोई ३-४ साल की होगी.....पता नहीं माँ की हालत देख कर या वहाँ पर जमा हुई भीड़ को देख कर रोते ही चले जा रहे थे.......मैं उन दोनों बच्चों को लेकर और उनके साथ कुछ और बच्चे मेरे कमरे पर आ गए....उन बच्चों के पिता ने मुझसे कन्नड़ा में कुछ कहा...जो मेरी समझ में नहीं आया ...लेकिन उसके चेहरे की परेशानी और आँखों में भरे हुए चिंताओं के रंग ने मुझे बताया की वो कह रहा की आप जरा बच्चों को देख लो......मैंने  उससे कहा की आप अस्पताल जाओ...बच्चों की चिंता मत करो........में हिंदी...वो कन्नड़ा...लेकिन प्रेम की भाषा वो भी समझ गया..और मैं भी.....

तुम तो जानती हो ज्योति......मेरे पास बच्चों के लायक खिलोने नहीं होते....उनको देने की लिए टॉफियाँ नहीं होती....फिर मैंने पागल या जोकर होने का रूप रचा ...... और खूब नाचा उन बच्चों के बीच, मेरा गान उनकी समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन उनकी तालियों की आवाज़ और पहले तो शर्माती हुई हंसी, और बाद में खुल के हंसती हुई आवाज़ ने मुझ में जोश भर दिया..............और ईनाम में जानते  हो मुझे क्या मिला...............................वो दोनों बच्चे ............. हंसने लगे...........

और उनको हंसता हुआ देख कर, बाकी बच्चे भी खुश हो गए.....और फिर तो मेरे कमरे पर खूब धमा-चौकड़ी  हुई......मैंने महसूस  किया....की जब वो दो बच्चे रो रहे थे.....तो बाकी सारे बचे भी चुप थे.....शायद वो उन बच्चो की चिंता या डर समझ रहे थे...लेकिन जब वो दोनों हँसे....तो सब हँस  पड़े...ख़ुशी  और आंसू ...इनकी कोई भाषा नहीं होती........फिर रात में १२:१५ बजे सब बच्चों के साथ मिलकर मैंने bread  और jam  खाया......

अब तुम  बोलो...इससे अच्छा Valentine day क्या हो सकता है....मैने ख़ुदा से फिर इक इल्तिजा की....

कम से कम बच्चों की  हंसी की ख़ातिर,
ऐसी मिट्टी में मिलाना की खिलौना हो जाऊं.  

Saturday, February 12, 2011

पुरानी दिल्ली...2

ओह...इस कमबख्त आँख को इतना भी सलीका नहीं की किस राह से बचना है...किस छत को भिगोना है...

इक बार रो लो.....आनंद. ...क्या पुरुष हो इसलिए रोने में संकोच है.....

नहीं...ज्योति....ऐसा कुछ नहीं हूँ....लड़ कर उपर उठना ही मेरी फितरत है....पर इक दिल है....जो महसूस करता है...इसलिए कभी कभी..........

गम मुझे, हसरत मुझे , वहशत मुझे, सौदा मुझे,
इक दिल दे कर खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे.....

जानती हूँ....आनंद....और समझती भी हूँ....जानते हो हम मजबूर या लाचार कब होते हैं......जब सब कुछ जानकर , सब कुछ समझते हुए भी...और चाहकर भी................हम कुछ कर ना सकें......उससे बड़ी लाचारी क्या होगी....?

सही कह रही हो....ज्योति...शायद इसीलिए..अब मैं दूसरों के दर्द में, जिसमे कुछ कर ना सकूँ..... दूरी रखता हूँ....जितना करीब जाता हूँ...उतना ही दर्द और महसूस होता है.....और कुछ ना कर सकने के कारण....जो गुस्सा अंदर ही अंदर उठता है...वो अपनी लाचारी और मजबूरी का एहसास करा देता है.....हम से मजबूर का गुस्सा भी अजब बादल है, जो अपने ही दिल से उठे, और अपने ही दिल पर बरसे......पता नहीं ....क्या चाहता है वो ...मेरा मन तो कभी कभी तो उससे भी शिकायत करने का करता है....

जो कुछ मेरे नसीब में लिखना था, लिख दिया.
परवरदिगार, अब तेरी जरूरत नहीं रही......

और क्या बोलूं..बोलो तो. ...जो कुछ उसने लिख दिया है...उसको पूरा करना ही तो अब मेरा काम है....कभी आग से गुजर के...कभी बादलों पर चलते हुए....कभी आँधियों का सामना करते हुए, कभी आँधियों का रुख मोड़ते हुए.....

आनंद...अपने इस गुस्से को ठंडा मत होने देना......क्योंकि यही गुस्सा तुम को तुम्हारी मंजिल तक ले कर जाएगा....जानती हूँ....किस किस आग में झुलसे हो तुम.....

दुनिया ना जीत पाओ तो, हारो ना खुद को तुम.
थोड़ी बहुत तो जहन में नाराजगी  रहे.......

तुम ठीक कह रही हो ज्योति......अगर बुरा ना मानो तो .............तो दवा दे दो......और मालिन माँ से कह दो की दो प्रेमी जनों के  लिए चाय बना दें.....

अच्छा जी ......

हाँ.................अच्छा स्वामी जी.......मैं कह देती हूँ.....धन्यवाद ...कन्या.

वो उठ के चली गयी...मैं सोचता रहा...कितना अपनत्व है इसके शब्दों में, कितनी चिंता है....सब कुछ जानती है मेरे बारे में...लेकिन कितनी शांत और संयमित रहती है....सब कुछ है इसके पास...लेकिन दिल का इक कोना, जो सालों साल से खाली है....जिसमे ये अपने प्रियतम को रखती है....कोई भी उस कोने तक पहुँच ना पाया...इसलिए...ज्योति को ज्योति  की तरह  कोई समझ नहीं पाया....ये भी इक पुरानी दिल्ली है....इसीलिए....मेरे दर्द को वो..और उसकी घुटन को मैं....समझ लेता हूँ. कितनी बार इस दिल्ली ने भी आँधियों की मार झेली है....

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है
मगर धरती की मजबूरी सिर्फ बादल समझता है.
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर कैसी है.....
ये मेरा दिल समझता है, या तेरा दिल समझता है.....
मुहब्बत इक एहसासों की पावन सी कहानी है...
कभी कबीरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है.....

जिस दिल...में ये एहसास बसते  हों.....वो तो पुरानी दिल्ली ही हुए......लुटने की लिए तैयार.

हकीकत जिद लिए बैठी है चकनाचूर करने को,
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है....................ये मेरी कमजोरी है.

सुनो आनंद......

जी .......ये तो मेरा अब job profile बन गया है.......

क्या......job profile बन गया है

सुनना ......

ओहो....आनंद ......कुछ खाओगे....नाश्ता किया है....?

दे दो.....दवाई भी लेनी है.....

मालिन माँ ............... दो पराठे भी बना दो......आनंद के  लिए.

आनंद...इक बात बताओ.....

पूंछो....

मै रोती  हूँ तो लोग आ कर कंधा थपथपाते हैं,
मैं हंसती  हूँ तो लोग अकसर रूठ जाते हैं.........ऐसा क्यों ?

ज्योति......हम लोग अकसर अपने दुखों से उतना दुखी नहीं होते हैं...जितना हम दूसरों को सुखी देख कर दुखी होते हैं......इसलिए जब आंसू बहते हैं......तो वो लोग हमदर्दी इसलिए नहीं दिखाते की वो दुखी हैं.....वो इसलिए की वो हमारी good books में आ जाए......और जो सचा हमदर्द होता है..ना..ज्योति....वो हमदर्दी दिखाता नहीं है....अपितु..जिस वजह से हम दुखी हैं...उस कारण को हटाने का प्रयत्न करता है...वो stage पर सामने नहीं आता....लेकिन अपना काम कर जाता है......और रहू दूसरी पंक्ति......तो किसी मेरे खुश रहने पर कई लोगों के सीने पे सांप लोट जाते हैं..... और फिर वहाँ से शुरू होता है अफवाहों का सिलसिला.....और उस ख़ुशी का कारण जाने का सिलसिला...और कारण को हटाने का सिलसिला....

और हम जैसे लोग.....जो हैं...ज्योति.....इनको भगवान् ने लुटने के लिए ही भेजा है....जा...प्यार बाँट...प्यार बांटना बच्चों का खेल नहीं है...ज्योति...ये तुमसे अच्छा कौन जानता है.....क्योंकि गुलाब बांटने में कई बार हाँथो  को कांटो से भी गुजरना पड़ता है.....लेकिन जिसको गुलाब की चाह होती...उनको कांटो का डर भी नहीं होता.

क्या इसीलिए .....दिल्ली बार बार लुटती है....?

हाँ...और इसीलिए बार बार बसती भी है.

जानती हो ना ज्योति.....मुझे कई लोगों ने कहा...की मुझको दुनिया में जीने का हुनर नहीं आता....मुझको दुनियादारी नहीं आती.....हाँ नहीं आती.....

उसी को जीने का हक है इस जमाने  में,
जो इधर का लगता रहे , और उधर का हो जाए...........ये नई दिल्ली है..... 

Friday, February 11, 2011

पुरानी दिल्ली-1

ज्योति.... तुम तो जानती ही हो...इतिहास की छात्रा रही हो....की पुरानी दिल्ली की किस्मत मे कितनी बार लुटना लिखा था.

अब क्या इतिहास पढ़ोगे ?.....आनंद.

क्या इतिहास पढूं....ज्योति.

तो फिर ये इतिहास का ज़िक्र क्यों आया.....?.......कुछ तो है की जिसकी परदादारी है.....

खाली दिमाग शैतान का घर......इसलिए.

आनंद.....अगर तुमको बताना होता है....तो तुम बिलकुल सीधे तरीके से समझा देते हो.....लेकिन अगर तुमको कोई बात नहीं बतानी है तो तुम आदमी को "China to Peru" घूमा देते हो.

हूँ......... तुम समझने लगी हो मुझे. अब खतरनाक हो गयी हो.....

अच्छा जी......तो अब क्या करेंगे...आप ? साथ में police protection रखेंगे .........

अजी सरकार......police  की गिरफ्त से भली तो आप की गिरफ्त है.

बाते करवा लो....आप से....बस. ..... बातों के धनी हो तुम .....आनंद.

ज्योति.....जानती हो कुछ दिल ऐसे होते हैं.....जैसे पुरानी  दिल्ली....

क्या मतलब.....

पुरानी दिल्ली कितनी बार बसी...कितनी बार उजड़ी.....कितनी बार इसको लूटा गया....कमबख्त .....मेरा दिल ना हुआ...पुरानी दिल्ली हो गया..... कितने ही तैमूर आये, कितने ही बाबर आये...कितने फिरंगी आये....लेकिन ये कमबख्त...फिर भी धडकता रहता है.... और धडक रहा है... 

ले बेटा....... ये रही दवाई. मालिन माँ की गलत समय पर दखलंदाजी......कैसी है ज्योति बिटिया ...?

मैं ठीक हूँ ......आप कैसी हैं. ....ये दवा किसकी है.

इतनी देर से बतिया रही है......ये नहीं पता की दवा किस की है......बिटिया जिसकी तबियत खराब होती है...वही दवा लेता है....

ज्योति ने मेरी तरफ ऐसे देखा देखा..जैसे मैने कोई गुनाह किया  हो.

अच्छा माँ....मैं चलती हूँ.....

कहाँ जा रही हो...बैठो.....ज्योति.

क्यों क्या करूँ बैठ कर.....हम आपके हैं कौन...?

मेरी मुस्कराहट ने बता दिया...की मैं चाहता हूँ की वो कुछ देर और बैठे. .....

अब आप मुँह से कुछ फूटेंगे...या मुँह मे दही जम गया है....?

तुमको देख कर तो खून जम जाता है...दही जमना तो बच्चों का खेल है.

बस फिर वही बातें......मैं क्या करूँ आप का....?

सही बात है....ना होता मैं तो क्या होता....

आनंद......क्या बात है...मैं देख रही पिछले दो महीनो से की तुम हर दूसरे या तीसरे दिन.....बीमार पड़ रहे हो.....आखिर क्या बात है...वो कौन सा राज दफन है तुम्हारे सीने मैं...जो अंदर  ही अंदर तुमको घुन की तरह चाटता जा रहा है....और तुम चुपचाप दर्द को पीते जा रहे हो.....क्या महादेव बनने का इरादा है...?

मैं ज्योति की तरफ देखता रहा.....

ऐसे मत देखो....आनंद. तुम जानते हो....की मुझे आपकी चिंता होती है....

मैं जानता हूँ....रि सखी.....

क्या .......कौन सा इतिहास आज खुल गया......जिसके राज तुम्हारे सीने में दफन हैं.....  आनंद?

इसको सीना नहीं कहते हैं....सखी.....इसको ताजमहल कहते हैं.....ये इक मकबरा ही तो है....जहाँ मेरे अरमानों की कब्रें बनी हैं......चलता फिरता कब्रिस्तान हूँ मैं..........और इस कब्रिस्तान में किसी और की कब्र नहीं...सारी कब्रें , मेरी खुद की हैं....

आनंद..............जरा गौर से दखो....इन्हीं कब्रों के उपर हरी घास भी जम रही है....आशा की हरी घास......चलती रहती है....जरा गौर से "निराशा" को देखो तो उसी में तो आशा है........

वाह.....तुम तो मुर्दों में भी जान डाल देती हो..... सही कह रही हो......निराशा में भी आशा है....वाह.

बस करिए.....कुछ भी बोल देते हैं.

कैसी विडम्बना है....ना सखी.....जब तुम कमजोर पड़ीं तो मैं ने इक कोशिश करी तुम्हारे साथ खडे होने की.........और आज तुम...............

अरे.............आनंद...तुम्हारी आँखों में पानी.......
                                                                                                                                                  क्रमश:

Saturday, February 5, 2011

तपस्वनी और फ़कीर....समापन


तो ये है...मुझ से तुम तक का सफ़र.....कितने मोड़ों से मुड़ता हुआ, कितनी बार टूटता हुआ, कितनी बार जुड़ता हुआ, कितनी बार बिखरता हुआ, कितनी बार संवरता हुआ....मैं तुम्हारे शहर पहुँच ही गया...यहाँ से अनंत कि यात्रा शुरू होगी....क्योंकि ...तपस्वनी...अब पाने को कुछ रहा ही नहीं.....तुमको देखना था, देख लिया.... अब उसकी याद आने लगी है.....या वो मुझे याद कर रहा है...पता नहीं.....अब वो ही वो बसता है.....तुम्हारा नाम लेता हूँ तो उसका ही अक्स उभरता है.......मेरा कृष्ण है वो...पार्थ का सारथि है वो....मेरा है वो...बस वो अपना बना ले मुझको.....तपस्वनी.

दरिया में यूँ तो होते हैं कतरे ही कतरे  सब,
कतरा वही है, जिसमे कि दरिया दिखाई दे.

तुम वो कतरा हो...जिसमे मुझे वो दिखाई देता है...और उसमे तुम दिखाई देती हो...खुद को ढूंढता हूँ तो तुमको पा जाता हूँ..पता नहीं..तुम इक गोरख धंधा हो. अब मन स्थिर और शांत है..ये जो एकांतवास जानकी नंदन ने मुझे दिया है ना....अब इसकी अहमियत समझ में आ रही है..शायद वो मुझको अपने और करीब ला रहा है ...इसिलए तो दूर किया है..ताकि विरह की ये आग और भड़के...और इतनी भड़के कि जिस में मेरा "स्व"....ही जल कर खाक हो जाए...तभी तो वो मिलेगा....यही तो उसके मिलने कि शर्त है.....अजीब है..लेकिन है....

कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिए,
आंखें जो बंद हो तो वो जलवा दिखाई दे.

तुम तो राधा हो ही.....तुम तो उसकी हो ही....मुझे  अपने आप को पार्थ बनाना पड़ेगा..तभी तो वो मेरा सारथि बनेगा....बोलो..ये सच है ना...आज यहाँ मुझे २ महीने हो चलें हैं....जब से निकला हूँ पहली  बार किसी जगह इतना लंबा विश्राम लिया है....लेकिन अब और जाऊं कहाँ....कृष्ण भी यहाँ..राधा भी यहाँ...मैं तो फ़कीर  हूँ...

मैं तो कुत्तवा राम का, मोतिया मेरा नाम,
गले राम कि जेवड़ी, जित खींचे तित जाऊं.

तुम समझ जाओगी....मैं जो भी कुछ लिखता चला जा रहा हूँ.....प्रेम का जो उदाहरण तुमने स्थापित किया है, ना तपस्वनी..वो भी इस जमाने में जहाँ प्रेम को बाजरू बना दिया गया है........उसने तुमको उस ऊँचाई पर बैठा दिया है....जहाँ पर तुमको देखने के लिए, जब मैं सर उपर उठाता हूँ....पंजो के बल पर खडे होके तब भी मैं तुमको नहीं देख पाता हूँ.....सच है ना....आदमी कितने भी पाँव क्यों ना उचका ले....चाँद को तो नहीं छू सकता....लेकिन मेरी तपस्वनी...मै इस सत्य से भाग नहीं सकता कि...

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले,
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले.

इस फ़कीर कि इक इल्तजा है.....मानोगी.....खुश रहना. .........................इति. 

तपस्वनी और फ़कीर 3

आज कितनी तेज धूप है.....और शफाक नीला आसमाँ....कभी कोई भक्त आकर  मंदिर के घंटो को छेड़ जाता है....कभी तुमने महसूस किया है....राधा....कि जब आसमाँ साफ़ हो तो असीम का अंदाज होता है.....जहाँ तक नज़र जाती है...नीला रंग......और ऐसे में  विचारों का आवागमन भी बिना किसी रुकावट के होता है.....और जब बादल छाए होते हैं.....अंदर भी कुछ बादल छा जाते हैं.....वो वीरवार था......जब तुमने अपने अंदर को मेरे सामने पहली बार खोला  था....सूरज पूरब से होता हुआ पश्चिम तक पहुँच गया था......मैं तुमको सुनता रहा... और अपनी असंवेदनशीलता को महसूस  करता रहा..... और जब तुम गयीं.....तो उसके बाद काफी देर तक मैं अपने आप को टटोलता रहा....कि मेरे अंदर वो दिल कहाँ है...जो दूसरों को समझता था...जो दूसरों कि आँखे पढता था....क्यों नहीं समझ पाया मैं.....तुमको.

अब सब कुछ अंत कि ओर है....ओर मैं जब अपने आप को तुम्हारे सामने रखता हूँ....तो छोटा ही पाता हूँ....बहुत छोटा. ......तुमने जीता है मुझे....असली सिकन्दर तो तुम हो......अब जब वक़्त ने इक बार फिर मुझे एकांतवास पे भेज दिया है....तो फिर मैं अपने आप को समेट कर अपने को बनाने कि कवायत में लगा हूँ.....लेकिन कुछ टुकड़े  नहीं मिल रहे हैं.....कैसे मिलेंगे ...वो तो तुम्हारे पास ही रह गए हैं.......लेकिन अब अधूरापन भी अच्छा लगता है.....क्योंकि ये उसकी याद दिलाता रहता है...जिसकी वजह से मैं अधूरा हूँ.....

माँ के स्वर्गवास के बाद.......मैं पूरा ही फ़कीर हो गया.....तुमको मेरी माँ कि याद तो होगी.....बचपन से लेकर उनके स्वर्गवास  होने तक....जब भी कोई तकलीफ हुई...मैं उनके पास जाता था...ओर बिना मेरे कुछ कहे वो  कह देतीं थीं...सब ठीक हओ जायेगा..तू वो करते रह...जो तू समझता है....कि ठीक है. ....जब मौलविओं ने मुझे खत्म करने का मंसूबा बना लिया था.....तो अपने कृष्ण के साथ वो राधा ही थी...जो मेरे सामने खड़ी हो गयी थी....याद तो होगा तुम्हे. ......मैने इक बार कोशिश करी कि किसी कि नज़रों मे घर बना लूँ ... लेकिन उन्होंने आंसू समझ कर मुझे नज़रों से बहा दिया.....ओर मैं वहाँ भी घर ना बना सका. ....

तेरे क़दमों पे सर होगा, कज़ा* सर पे खड़ी होगी,                            *मौत
फिर उस सजदे का क्या कहना, अनोखी बन्दगी होगी.
मजा आजायेगा महशर  में फिर सुनने-सुनाने का,
जुबां होगी वहाँ मेरी, कहानी आप की होगी.

बोलो....अगर मैं तुमको तपस्वनी कहता हूँ.....तो गलत है..... अरे हाँ...याद आया...तुमको ग़ज़ल का शौक था....ओर मैने तुमसे कहा था.....ग़ज़ल लिखना ओर पढ़ना बहुत आसान है अगर तुम साथ हो तो.....

तुमने कहा था.....वो कैसे...बोलो तो.

मैने कहा था....सारे अल्फाजों को तुम पे सजा दिया जाए...ओर फिर तुमको पढ़ा जाए.....इक से इक कीमती शेर बनेगें....

ओर तुम.....आप भी ना.......इतना कह कर चुप हो गयी थीं.

लो उसी सिलसिले का इक शेर ......तुम्हारी खिदमत में पेश है.....

सर से पा तक, वो गुलाबों का शजर लगता है,
बावजू* हो के भी उसे छुते हुए डर लगता है.          *नमाज से पहले मुँह-हाथ धोना
मैं तेरे साथ सितारों से गुजर सकता हूँ,
कितना  आसान मुहब्बत का सफ़र लगता है.

आदाब.......

Friday, February 4, 2011

तपस्वनी और फ़कीर....

ज़िन्दगी चलती रही......तुम मिली और फिर जुदा हुईं.....लेकिन ज़िन्दगी फिर भी चलती रही. लेकिन इस बार तुम्हारे  बिछड़ने का बाद...ज़िन्दगी तो चलती रही...लेकिन ज़िन्दगी का मजा जाता रहा.....तुम अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए....दिल में एक अलख जला....उसी में जलती रहीं.....और मैं तुमको देखता रहा...समझता रहा. फिर तूफ़ान का आना भी लाजमी था.....जब मौलवी साहब और उनके कुनबे ने मुझे दफन करने में  कोई कसर ना छोड़ी थी...दफन कर भी दिया था......और याद है तुमको तपस्वनी...यही मौलवी साहब इश्क के उपर घंटो तहरीर देते रहते हैं....खैर.....मैं अकले कैसे लड़ा उन मौलविओं कि जमात से...और लड़ने के बाद अकेला ही रह गया......या अकेला कर दिया गया....

जब इन मौलवी साहब ने मुझे इतना लहुलुहान कर दिया...कि मैं किसी काबिल ना बचा.....तो मेरी हालत उस आदमी कैसी हो गयी...जो डूब रहा है...और बचने के लिए हाथ पैर मार रहा हो.....उस वक़्त तिनके का सहारा भी काफी होता है....और उस वक़्त तुम खड़ी हुईं....और तुम ने ना सिर्फ मुझको बचाया बल्कि अपनी ज़िन्दगी दे कर मुझे अपना कर्जदार बना लिया.....लेकिन इन मौलविओं कि जमात का दिल अभी भरा नहीं था....वो तो मुझ पर निशाना  साधे ही बैठे थे.... मेरा वो खुतूत जो हवाओं के साथ उड़ता हुआ...मौलवी साहब के सहन में गिरा और एक जोरदार धमाका हुआ.....लेकिन इस बार के धमाके में तुम भी नहीं बच पाइं, खून के कुछ छीटे तुम्हारे दामन पर भी गिरे....और तुम्हारा दामन भी मैला  हुआ....और मैं अपने आप को इस गुनाह के लिए कभी माफ़ नहीं कर पाया....मेरी वजह से तुम्हारे दामन पर दाग.....या अल्लाह....इस से तो मौत ही बेहतर है.

फिर मैं सब कुछ छोड़ चला....और फ़कीर बन गया.....लेकिन इस बार गाँव-गाँव, गली-गली तुमको अपने साथ लिए घूमता रहा.....कई मदिरों में गया.....तो तुम साथ थीं.....कई मस्जिदों में भी गया....वहाँ भी तुम साथ थीं....एक दिन ख़ुदा से मिला...वहाँ भी तुम साथ थीं.....

ना गरज किसी से वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से,
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र, तेरे नाम से तेरे काम से.

मैने अल्लाहताला से दरख्वास्त करी कि " या ख़ुदा.....अगर इश्क का ये अंजाम है....और ये तेरी मर्जी है....तो मेरे सर आँखों पर" ...मैं अपनी धुन में जीने लगा....गाँव-गाँव, गली गली....मुहब्बत बांटने लगा...और मेरी इस मुहब्बत का स्रोत तो तुम ही थीं तपस्वनी.....कितनी बार लोगों ने मुझे पागल करार दिया, कितने ही लोग मुझ पर हँसते थे...कितने लोगों के जहर बुझे हुए...अलफ़ाज़ इस दिल को चीर कर गए.....कितनी बार कई माएँ अपने बच्चों को मुझसे ....पागल है..... ये कह कर दूर खींच लेतीं थी......लेकिन मेरी नज़र कभी भी इन पर नहीं गयी...और सब कुछ मुझसे अलग होता गया...छूटता गया.....और मैं फ़कीर बन गया......मैने दो चार किताबे तो पढ़ी हैं लेकिन, शहर के तौर तरीके मुझे कम ही आते हैं.....इस लिए जिसने जब चाहा मुझे इस्तेमाल किया.....और वो भी मुझे लोगों ने बताया कि ...बेवक़ूफ़ ..तुझे इस्तेमाल कर रहे हैं....जा भाग जा.....

लेकिन तपस्वनी....भाग कर जाता तो कहाँ जाता.......मेरे जहन में हमेशा ये बात बिजली कि तरह कौंधती थी....कि जब वो.....दिल के अंदर एक आग को सालहों-साल जला कर रख सकती है....और खुद ही उसमे जलती है तो क्या तू....लोगों कि चंद बाते बर्दाश्त नहीं कर सकता......ज़िन्दगी कि कई तकलीफों में तुमको सामने रखकर....या तुमको पुल बनाकर मैने उन तकलीफों को पार किया....

पंडित जी बुला रहे हैं.....अभी आता हूँ....देखो इंतज़ार करना........तपस्वनी .

शिद्दत कि धूप , तेज हवाओं के बावजूद,
मैं शाख से गिरा हूँ, नज़र से गिरा नहीं.

लेकिन अब हालात बहुत बदल गए हैं.......

हम दुश्मन को भी पाकीज़ा सजा देते हैं... 
हाथ उठाते नहीं......नज़रों से गिरा देते हैं




तपस्वनी.....और.....फ़कीर......

ये तीसरी डायरी है पिछले डेढ़ महीने में........ आज दिल का वो कमरा खोला जहाँ पर कई सालों से मैं खुद नहीं गया.... नहीं..... नहीं ऐसा नहीं कि मैं डरता हूँ.... बल्कि वो एक मंदिर है जहाँ पर गिने-चुने लोग ही जा पाते हैं....

बुत भी रखे हैं, नमाजें भी अदा होती हैं.
दिल मेरा दिल नहीं, अल्लाह का घर लगता है.

कोई इस डोरी का का सिरा या अंत नहीं जानता है. इस डोर कि शुरुआत तपस्वनी से होती है...और अंत इस फ़कीर पे......  पता नहीं कि इन डायरियों का अंजाम क्या होगा.....लेकिन सब कुछ लिख कर ही जाना चाहता हूँ.....बात....लगभग २२ साल पहले कि है.......जब मैने पहली बार राधा का दीदार किया....वो गुलाबी सूट और उसमे गुलाबी वो......गुस्सा आया था.....अरे गुलाबी गुलदस्ते में, गुलाब....जरा contrast रंग पहन लिया होता....लेकिन...बिजली गिरनी थी...सो गिर गयी.....वो खिड़की के पास तुम खड़ी थीं....पता नहीं तुमको याद हो या ना याद हो...शायद तुम्हारे घर में कोई जलसा था...बहुत लोग थे....लेकिन कोई भी नहीं था.....वक़्त कि पतंग लगातार उडती रही.....कभी हवा के साथ....कभी हवा के खिलाफ.....कभी आसमाँ छू ले ने को बेकरार...

सच है...तपस्वनी...वक़्त किसी ना किसी मोड़ पर लाकर  हमको फिर आमने-सामने खड़ा कर देगा...नहीं सोचा था....उस दिन तुमको रूचि के घर पर देखा.....तो रोक नहीं पाया.....पूंछ ही बैठा.....पहचाना नहीं लगता है......और तुम्हारा ठंडा सा जवाब......एक ठेक सी लगी दिल को...लेकिन इतना महसूस नहीं हुआ....वक़्त काफी मरहम लगा चुका था....लेकिन जब उस दिन तुमसे सारी दास्ताँ सुनी...तो तुमको तपस्वनी नहीं कहता तो और क्या कहता....तुमको देखता हूँ....तो समुद्र कि याद आती है....उपर से कितना शोर सुनाई पड़ता है..लेकिन अंदर....खामोशी...गहराई..और गहराई...और गहराई.....अल्लाह....और उस गहराई में जलती हुई प्यार कि शमां....शमां भी तुम और उसपर कुर्बान हो जाने वाले परवाने भी तुम.....जब तुमने हकीकत बयान करी.....तो मैं तुमको तपस्वनी ना कहता तो और क्या कहता.....अब तुम खुद बोलो......बोलो तो. 

मैं ग़ज़ल कहूँ, या ग़ज़ल पढूं, मुझे दे तो हुस्ने ख़्याल दे
तेरा गम ही है मेरी तर्बियत*, मुझे दे तो रंजो मलाल दे........... * शिक्षण
 सभी चार दिन कि हैं चांदनी, ये रियासतें, ये वजारतें,
मुझे उस फ़कीर कि शान दे, कि जमाना जिसकी मिसाल दे.
मेरी सुबह तेरे सलाम से, मेरी शाम तेरे ही नाम से,
तेरे दर को छोड़ के जाऊँगा, ये ख़्याल दिल से निकाल दे.
क्रमश:

Tuesday, February 1, 2011

हर शख्स दौड़ता हैं यहाँ भीड़ कि तरफ,

हमने जाकर देख लिया है, राहगुज़र के आगे भी,
राहगुज़र ही राहगुज़र है, राहगुज़र के आगे भी.

मानती हो ना तपस्वनी...इंसान खत्म हो जाते हैं...लेकिन रास्ते नहीं.... कितने रास्तों से होता हुआ यहाँ तक पहुंचा हूँ.....मैं ही जानता हूँ...और हर रास्ता ..एक किताब साबित हुआ.....जिसने कुछ ना कुछ मुझे सिखाया ही है. जो चलने वाले होते हैं, वो मंजिल कि फ़िक्र नहीं करते...बस दिल में मंजिल कि याद बनी रहे तो दुनिया अपने आप रास्ता दे देती है और मंजिल अपने आप सामने आ जाती है...अगर चलने का हौसला हो तो.......इस चलने के सिलसिले में कई बार बदन टूटता है, कई बार मन. कई बार पैरों में छाले पड़ जाते हैं...लेकिन मंजिल कि धुन....सब कुछ बर्दाशत करने कि ताकत दे देती है.....तुम जानती ही होगी जब कृष्ण जेल में पैदा हुए और वासुदेव उन्हें सूप में रख कर गोकुल छोड़ने चले तो यमुना उफान पर थी.....और उसी यमुना ने उनको गोकुल जाने का रास्ता दिया था...ये एक एतिहासिक दृष्टांत हो सकता है...लेकिन अगर इसके दूसरे रुख को देखो....

कोई चले, चले ना चले, हम तो चल पड़े.
मंजिल कि जिस को धुन हो, उसे कारवाँ से क्या....

यही सब कुछ बाते हैं...जो मुझे ज़िंदा रखतीं हैं. जानती हो.....राधा.....मुझे इतने जख्म कैसे मिले.....क्योंकि मैने दुनिया के बनाये आम रास्तों पर चलने से इनकार कर दिया. और अपना रास्ता खुद बनाने कि सोची....रास्ते बने ना बने, मंजिल मिली ना मिली...पर जख्मों का वो गुलदस्ता दिया लोगों ने जिसके फूलों में ये ख़ासियत है कि वो मुरझाते नहीं हैं.....

गम को यारों कभी सीने से जुदा मत करना,
गम बहुत साथ निभाते हैं, जवाँ रहते हैं.

तपस्वनी....मैं जानता हूँ..मेरी हर बात तुम बिलकुल उसी तरह समझोगी जैसे मैं लिख रहा हूँ. क्योंकि तुमने भी तो अपना रास्ता खुद ही बनाया है....यही तो समानता है मुझमें और तुम

हर शख्स  दौड़ता हैं यहाँ भीड़ कि तरफ,
और ये भी चाहता है, उसे रास्ता मिले....

मेरी डायरी कि पन्ने पढकर ...तुम को इस बात का अंदाजा  लग जाएगा  कि ज़िन्दगी कि कितने रंगों ने अब तक मुझको रंगा है....