Tuesday, October 8, 2013

एक जरा सा दिल टूटा है, और तो कोई बात नहीं.....


भगवान् के  काम, समझ से बाहर के होते हैं. दुनिया बनाई, समझ मे आती है. लोग बनाये , समझ मे आता  है. दिमाग दिया, समझ मे आता  है. अब दिल बने की क्या जरूरत थी, ये बात मेरी समझ से परे है. अरे जब दिमाग दे दिया था तो उसी में कुछ ऐसा इंतजाम कर देता जो दिल का काम भी करता रहता था. वो तो बड़ा कारसाज़ है कर देता तो आज कितने लोग कितनी तकलीफों से बच जाते. दिल का दौरा नहीं पड़ता, दिल टूटा नहीं करते, लोगों को दिल से खेलने का मौक़ा नहीं मिलता. न दिल होता , न भावनायें होती, न संवेदनाएं होती. आदमी कितना सुखी होता. वफ़ा ये बेवफा जैसे अलफ़ाज़ ही ईज़ाद न हुए होते. न प्यार, न मुहब्बत, न नफरत -- कुछ नहीं. दुनिया कितनी सुंदर होती. न मंजनू होता, न रांझा.

खैर , अब इसके दुसरे पहलू को देखते हैं. अगर दिल बना ही दिया , तो फिर लोग भी  दिलदार होने चाहिये. आज के लोगों, जो दिल होने का दावा करते हैं, वो कहानी याद आती है, जब एक गीदड़ ने शेर की खाल पहन ली और अपने आप को शेर समझने लगा. आज के लोगों ने ईश्वर के घर को (दिल मे ईश्वर का निवास होता है) , तिजारत का सामन बना दिया, Business का सामन बना दिया, खेलने का खिलौना बना दिया, तोड़ने का सामन बना दिया, बस दिल को दिल ही  न बना पाये. लेकिन दावा पूरा है, की हमारे  पास भी दिल है......................  अपना दिल , दिल, दूसरे का दिल, पेप्सी का ग्लास - Use & Thorw.

अच्छा, भगवान् भी तो ऐसे लोगों का हिसाब रखता होगा? जैसी करनी, वैसा फल. आज नहीं तो निश्चित कल. ये मैने एक बस मे लिखा हुआ देखा था. लेकिन ये दिल के व्यापारी, खुश बड़े देखे हैं मैने. क्योंकि दिल एक ऐसी चीज़ है, एक ऐसी commodity है जिसके ग्राहक और खरीददार मिलते भी थोक में हैं. एक ढूँढो , मिलते हैं हजारों. ये दिलों के व्यापारी. ये एक खटमल - मच्छर  की तरह होते हैं. जो अलग - अलग लोगों का खून पीना पसंद करते  हैं. ये देखने मे काफी मिलनसार और मीठा बोलने  वाले होते हैं. हमदर्दी का मरहम हाँथ मे और आस्तीन मे खंजर छुपा कर रखते है. सर पे हाँथ फेरते हैं और पीठ पे वार करते है.

ये तो हुई बात उन लोगों की जिन के लिए दिल एक commodity है. अब जरा उन लोगों का हाल देखते हैं जो दिल को दिल मानते हैं. ऐसे लोग कम तादाद मे मिलते है. और ये लोग पिछडे  वर्ग मे गिने जाते हैं. इनको कुछ लोग दकियानूस के नाम से पुकारते हैं. ये लोग दुसरे के दिल के खातिर अपने दिल पे कुछ भी सहन करने के ताकत रखतें हैं. दुसरे की ख़ुशी की खातिर , अपनी खुशियों को कुर्बान करना, इन लोगों के बाएं हाँथ का खेल होता है. ये अपने दिल को पेप्सी का ग्लास, और दूरी को दिल को कांच का ग्लास समजने की गलती अक्सर करते है. इन लोगों की आंखे हमेशा  सूखी रहती है. दिल रोता है. ये लोग एक जोंक की तरह होते हैं, जिसको चिपक गये , चिपक गये. वहां से हटाया , तो मौत. और उस मौत को ये मौत नहीं मानते, कहते हैं की हम उनके दिल में तो ज़िंदा हैं. अरे भाई जिसके  दिल मे ज़िंदा होने की बात कर रहे हो, ये तो तय कर लो की उनके दिल है भी या नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं की शेर की खाल मे गीदड़ हो.

तोड़ो, फेंको करो कुछ भी, दिल हमारा है, क्या खिलोना है...

Tuesday, August 27, 2013

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी

सुंदर लाल चला गया।.......

ज्योति लौट कर आई तो देखा मेज पर  रखा हुआ लिफाफा ................सोचती रही क्या कर।..पढूं या न पढूं।....  चलो पढ़ कर देखने में क्या नुकसान है. 

उसने लिफ़ाफ़े में से ख़त निकाला......

प्रिय मित्र, 

काफी समय से तुम से मुलाक़ात नहीं हुई  और मैं तुम्हे भूल गया हूँ ऐसा भी नहीं...

तुम तो मेरे सुख दुःख के सहभागी रहे हो....तुमने मेरे जीवन के अनेक उतार चढ़ावों को देखा है. तुम तो जानते हो सुंदर...मैं कितना अपने लिए जिया हूँ...बस अब और नहीं. अब चादर समेट लेने का वक़्त आ गया लगता है. ...पिछले इक महीने से vomiting में खून आ रहा है.....लगता है चाय और चुरुट ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया है. गुस्सा मत होना वैद्य जी के पास गया था...65 मिनट उनके साथ था.....साठ मिनट डांट पिलाई और पांच मिनट दवाई.....खांसी बढ़ गयी है और ज्वर भी लगातार बना रहता है....थकान बहुत है. खाने पीने से मन हट गया है. सुंदर....जीवन मे एकाकीपन भरता जा रहा है......इतनी चोटें खाई है सुंदर की अब और चोट खाने की हिम्मत भी नहीं बची है......कोई नहीं है.....सब अपने काम से काम से लग गए हैं....और कोई किनारा कर चुका है......२ महीने हो गए हैं घर से निकला नहीं हूँ.......वैद्य जी कह रहे हैं की हवा पानी बदलने की लिए कुछ दिन पास के गाँव हो आओ.......

ज्योति......हाँ ज्योति....अब चोंको मत.....अच्छी है अपने घर परिवार में मस्त है व्यस्त है....२ महीने पहले देखा था.....कब तक वो भी मेरी देखभाल करे.....कोई बच्चा तो नहीं हूँ.....लेकिन सुंदर.....वो मेरी बहुत अपनी है......वो साथ रहती है तो हिम्मत बंधी रहती है.....एक हौसला सा बना रहता है...लेकिन कब तक वो भी साथ दे.....समाज के अपने कायदे क़ानून हैं.....लेकिन सुंदर...ये समझ में नहीं आया की बिना कारण बताये या जुर्म बताये किसी को सजा देना क्या ठीक है....और वो भी उसको जो उसके उपर निर्भर हो.....वो भी पूरी तरह से.....शायद ठीक हो......पता नहीं सुंदर.....मैं इतना दुनियादार्री तो नहीं जानता हूँ....किसी को अपना मानता हूँ तो वो तुम हो और ज्योति......

पिछले महीने स्कूल का वार्षिक समारोह था..तबीयत ठीक ना होने की वजह से जा नहीं पाया....संपत राम आया था समारोह की तस्वीरें लेकर. ज्योति को उसमे देखा..वो बहुत सुंदर लग रही थी.....सुना सारे कार्यक्रम की बागडोर ज्योति के हाँथ में थी...मैं बहुत खुश हूँ...... लेकिन इजहार करना मैं ना सीख पाया....तुम्हारी अगर ज्योति से मुलाक़ात हो.....और 
हमारी बेखुदी का हाल वो पूंछे अगर,
तो कहना होश बस इतना है की तुमको याद करते हैं...

तुमको मेरे घर के पीछे वाली खिड़की तो याद होगी......जहाँ से घर के पीछे का खुला मैदान दिखाई पड़ता था.....दूर तक धूप ही धूप और एक नीम का पेड़...और मैदान से गुजरती हुई रेल की पटरी......सुंदर...मेरा जीवन भी उसी मैदान की तरह हो गया सूखा नीरस......और मेरे हृदय पर धड़ा धड़ा धड़ा धड़ा चलती हुई  रेल जो दिल को छलनी करती हुई चली जाती है और फिर देर तक सन्नाटा , सूनापन........

सुंदर कभी कभी अफ़सोस होता है की मैं अपने लिए क्यों नहीं जिया ....शुरू से ही , जीवन की शुरुआत से ही......कुछ ढूंढता रहा......

एक चेहरा साथ साथ रहा पर मिला  नहीं, 
किसको तलाशते रहे कुछ पता नहीं.....

ज्योति के साथ वो रिक्तता पूरी सी हो चली थी......जीवन मे रस और रंग दोनों का ही समावेश हो रहा था...लेकिन विधि ...उसको तो कुछ और ही मंजूर था....

जिसको तुम पूंछते हो , वो मर गया फ़राज़,
उसको किसी की याद ने ज़िंदा जला डाला
..............

बहुत तकलीफ है, सुंदर....दर्द बहुत है.....

उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ, 
हमें यकीं था हमारा कसूर निकलेगा. 

अब वक़्त-ए- रुखसत आ चला है........मालिन माँ की चिंता है.....बहुत परेशान है मुझको लेकर.....मुझसे कह रही थी की मैं ज्योति से बात करूँ क्या.....

मैंने मना कर दिया.......

मिली मुझे जो सजा वो किसी खता पे न थी फ़राज़,
मुझे पे जो जुर्म साबित हुआ वो वफ़ा का था।...

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी 

Tuesday, August 13, 2013

एक रुका हुआ फैसला है ..........

बहुत दूर चला गया था  आप से निकल के सोचा था की कभी नहीं लौटूंगा .... कभी नहीं .......चलता रहा ..... कभी थका तो ठहर के आराम किया ...... लेकिन पीछे देखा तो काँप गया .......भीड़ ........ ग़मों की, यादों की, जख्मों की , दर्द की , मिलने की , बिछुड़ने की ……. और हाँ ...धोखों की, अपनों की ......

आज भी जब सोचता हूँ तो नहीं समझ पाता  हूँ ...... की कैसे कोई साथ छोड़ देता है. ..... क्या ये संभव है.

नहीं ...नहीं जरूर संभव होगा तभी तो ऐसे वाकयात होते है।

लेकिन ......

नहि…… अब ये लेकिन के तीर अपने तरकस में ही रहेने दो.

और ज्योति….

मुस्करा के रह गया लेकिन बातों को मोड़ने के फन में तो  माहिर है.

मुझको जिन्होंने कत्ल किया है , कोई उन्हें बतलाये नजीर 
मेरी लाश के पहलू में वो अपना खंजर भूल गये. 

मतलब .......

ये लो ....

ये क्या है .....

खंजर .....है.

मुस्करा लेते हो .......इतने दर्द में भी ..?

अरे .... अपनों से भी कहीं दर्द मिलता है…। बोलो तो. अपनों से तो सौगातें मिला करती हैं .

और ये दर्द ....?

सौगात कहो ....पगले ..दर्द तो गैरों से मिला करते हैं .

क्या कोई गैर है तुम्हारे लिए ......?

नहीं ....इसीलिये  तो मुझे दर्द नहीं होता ...

तुम पागल होते जा रहे हो…।

लो .... यहाँ पर भी अपनी सोच को ठीक करो ..... जिसको तुम पागलपन समझते हो .... मुहब्बत के बाज़ार में इसको कीमत कहते है। .....

एक लम्हे में कटा है मुद्दतों का फासला, 
मैं  अभी आया  हूँ कुछ तस्वीरें  पुरानी देख कर. 

हाँ ...... मैं  इतेफाक रखता हूँ आप से.

अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर दिल हों मुमकिन है, 
हम तो उसदिन राय देंगे जिस दिन धोखा खायेंगे ...... 

सुनो ..... मैं एक एसोसिएशन बना रहा हूँ ......

एसोसिएशन ......????/

हाँ ....

कौन सी .....

आल इंडिया बेवफ़ा  एसोसिएशन .....

उनको मेम्बर बना लूँ ......

फिर पागलपन .....

क्यों ...... अब ऐसा क्या कह दिया मैंने .....

अरे .... वो तो इसके president  होंगे .....

फिर देर क्यों ....???

एक रुका हुआ फैसला है ..........

एक दिन तो होगा ही .....

Sunday, July 28, 2013

अब बारी तुम्हारी.....

अब बारी तुम्हारी......

तुम्हारे शब्द जादू करते हैं.....तुमको पता है.....नहीं...तुमको पता नहीं होगा....आँख कब अपने आप को देख पाती है.
अगरबत्ती तो एक कोने में जलती है.....घर पूरा महकता है.....मुहब्बत वो खुशबू है....वो एहसास है....जो अनदेखे, अनजानों को महबूब बना देती है.....वो ताकत है ये ....प्यार....अब तो मान जाओ.

तुम्हारे एक-एक शब्द में मैं अपने आप को पाता हूँ....और मेरे एक-एक शब्द में तुम अपने आप को महसूस कर सकती हो.....क्योंकि  मैं कल्पना के पंख लगा कर सपनों कि दुनिया मे नहीं जीता.....सिर्फ जो महसूस करता हूँ...लिख देता हूँ. मुझे  नहीं पता साहित्य  क्या होता है....मैं अपने आप को तुमसे जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ.....कहीं ना कहीं.......या जुड़ता हुआ....कितना अच्छा हो...कि ना तुम मुझे देखो...और ना मैं तुमको....पर फिर  भी एक इंतज़ार बन जाए......एक बेकरारी पैदा हो जाए.....अगर कोई सन्देश ना आये, तो गुस्सा भी आये....जबकि...अनदेखे  हैं हम....वो हो सकता है..सिर्फ प्रेम हो...प्रेम के अलावा कुछ  भी नहीं....जिस्म और देह के बंधन से परे.....क्या यही प्यार है.....बोलो तो....बोलो ना.

जहाँ पर ओपचारिकता ना हो......"जी" कहने की, ना धन्यवाद  कहने की...एक बार मेरा नाम , बिना "जी" लगा कर लो तो  ...बोल के देखो.....मुझसे नहीं....तो अपने आप से ही सही.....सारी ओप्चारिक्ताओं को ताक पर रख कर..... तुम्हारा हृदय बहुत कोमल है.....और हो भी क्यों ना......प्रेम की तरंगे सागर मे ही तो उठती हैं....पत्थरों  में नहीं.....मै एक बार डूब  के देखूं ...इस प्रेम के सागर में......अथाह और अगाध समुद्र में.......

खुसरो दरिया प्रेम का, वाकी उल्टी धार,
जो उतरा सो डूब गया, जो डूब गया सो पार.

मुझको याद आता है Richard  Bach  का वो कथन " Can miles truly separate you from the person you love....If  you want to  be with someone you  love , aren't  you already  there " ..... दूरियां कब प्रेम को कम कर पायीं हैं.....उलटा ही हुआ....दूरियों ने प्रेम की आग को और हवा दी है.....देख रही हो ना प्रेम की जादूगरी....ये प्यार ही तो है...जो बुत को ख़ुदा बना देता है......और इन्तेहाँ  ये है की ... बन्दे  को ख़ुदा करता है इश्क.....कोई शक....?

अच्छा...नहीं मानती हो........

तुम झूठ बोलती हो......कम से कम अपने आप से तो मत बोलो.

मुहब्बत की आग जलाती नहीं...निखारती है......ज्यों - ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जवल  होए. 

बहुत कुछ कह दिया ना मैने.......नहीं...सब कुछ तो कह दिया.....अब क्या रहा मेरे पास.....छुपाने को, बताने को....

अब बारी तुम्हारी.....

Wednesday, June 5, 2013

कुछ अनकही....

मेरा परिचय भी तो तुम्ही ने मुझसे कराया था....नहीं मैं तो टुकड़ों में बँटी हुई ज़िदगी जी रहा था....मैंने अपनी ज़िन्दगी जी ही कब.....जब तुमने अपने आप को मुझको दिया...उस समय मैं ये सोच रहा था कि मेरा कौन सा टुकडा तुमको स्वीकार करे....बहुत मुश्किल होता किसी कि उपरी परत को चीर कर उसके अंदर जाना.....और फिर वहाँ से उसको पहचानना. किस के  पास इतना वक़्त है..... प्रेम भी तो घड़ी कि सुइयों के हिसाब से होता है......पता नहीं वो प्रेम होता है....या अग्नि की शांति.....प्रेम तो चोबीसों घंटे ता उम्र का होता है...ऐसा बड़े बुजुर्ग सिखा गए हैं.....और तुम जानती हो तपस्वनी....प्रेम भी आजकल कर्तव्य समझ कर होता है.....प्रेम के लिए प्रेम कहाँ होता है......वो बिरले ही होते हैं...जो प्रेम करते हैं, क्योंकि वो प्रेम करते हैं.

कल रात बहुत तेज तूफ़ान था.....हवा, बारिश और बिजली तीनो ने ही हंगामा मचा रखा था....पंडित जी, मैं और अंजलि मंदिर के बरामदे मैं बैठे हुए प्रक्रति का ये अद्भुत नज़ारा देख रहे थे.....और हम तीनो को उसको देखने का नज़रिया अलग था......अंजलि डर रही थी.....जब हवा की तेजी से बरगद का वो विशाल पेड़ लहरा रहा था, पंडित जी अपने कृष्ण की कृपा मान...सब कुछ देख रहे थे..और किसी का अनिष्ट ना इसकी प्रार्थना कर रहे थे....और मैं..अपनी तपस्वनी को देखने की ख़ुशी मैं...इसे प्रक्रति का उपहार मान रहा था.

कल दोपहर, तुम्हारे पति पंडित जी से मिलने आये थे. शायद मंदिर मे - कमरे बनाने का प्रस्ताव था. ताकि....जो लोग बाहर से आते हैं...उनके रुकने का बंदोबस्त हो सके. मुझसे भी दुआ-सलाम हुई. पंडित जी ने मेरा परिचय कराया....तुम्हारे पतिदेव ने मुझसे प्रश्न किया कि इस उम्र में संन्यास.....क्या कहीं आप अपनी जिम्मेदारियों से भाग तो नहीं रहे हैं. तुम्हारे पति के इस सीधे प्रश्न ने मुझे बहुत प्रभवित किया. सीधा सवाल, सीधे आदमी से....तुम समझ रही हो ना....सीधा सवाल , सीधे आदमी से.

मैने पूंछा कि ये आप कैसे कह सकते हैं कि मैं जिम्मेदारी से  भाग रहा हूँ..ये भी तो संभव  है कि मैं कोई जिम्मेदारी निभा रहा हूँ.....कोई ये कैसे तय कर सकता है कि अमुक आदमी जिम्मेदारियों से भाग रहा है या उनको निभा रहा है....

नहीं , नहीं.....इतनी कम उम्र मैं आप फ़कीर बन गए..इसलिए जिज्ञासावश पूंछ लिया....अगर आप को बुरा लगा तो माफ़ी चाहता हूँ.

अरे नहीं...भाई माफ़ी मांग कर मुझे लज्जित ना करिए....आप का प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है...और मैं इसका स्वागत करता हूँ. देखिये हम सब समाज का हिस्सा हैं....और जिस समय हम किसी के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर रहे होते  हैं....संभव है कि उसी समय हम किसी दूसरे कर्तव्य से विमुख हो रहे हों.....तो क्या ये जिम्मेदारी से भागना होगा....?

नहीं....

तो फिर ऐसी situation मे क्या करना चाहिए....?

Priorities fix करके अपनी ड्यूटी निभानी चाहिए.

exactly ....मैं इस वक़्त वही कर रहा हूँसमाज, परिवार इन सब के बीच रहते हुए...हम ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारी अपने प्रति भी कोई ड्यूटी है.....ये स्वार्थ या कोई selfish approch नहीं है...मेरा ऐसा मानना है....अगर मैं आप को किसी चीज़ के लिए convenience करना चाहता हूँ, तो पहले मैं तो convenience हूँ. या अगर मैं ख़ुशी बांटना चाहता हूँ, तो पहले मेरा खुश होना या खुश रहना जरुरी है..नहीं तो वो एक दिखावा होगा, छल होगा....और हम सब इसी छल में अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं.... और दोष भगवान् के नाम. जिस तरह से हम अपनी ज़िन्दगी जीते हैं, तो हम दूसरों को भी तो उनकी ज़िन्दगी जीने दें.......जैसे वो चाहते हैं....क्यों हम लोग.....अपनी बेनामी शर्तें लगा देते हैं....  

Yes , I agree with you...तुम्हारे पति का जवाबइसलिए मैं तो अपने परिवार के सदस्यों को पूरी स्वतंत्रता देता हूँ.

अरे.....please do not take  it personal. मैं तो एक आम सी बात कह रहा हूँ. .....जिसको हम अपने हिसाब से स्वतंत्रता कहते हैं...क्या ये संभव नहीं कि वही दूसरे के हिसाब से दासता हो.....जेल के अंदर कैदी भी तो आज़ाद होता है.....हम दूसरे कि स्वतंत्रता को अपने परिप्रेक्ष्य में क्यों देखते हैं....

पंडित जी...इस वार्तालाप को बड़े ध्यान से सुन रहे थे....और हर बात को अपने अनुभव कि कसौटी पर तौल रहे थे...ये में उनके हाव-भाव से जान सकता था. तपस्वनी....पिछले  कई दिनों से जब से तुम मंदिर रही हो...मैं तुमको देख रहा हूँ.....जितनी जेवरों से तुम लदी रहती हो.....ऐसा लगता है....कि किसी लक्का कबूतर को सोने से लाद दिया गया हो...सिर्फ उड़ने  कि मनाही  है.....

May I leave now with your permission ....तुम्हारे पति ने बड़े अदब के साथ मुझसे पूंछा.

Sure .... it was a pleasure to meet you . और मैं क्या कहता..उनके अदब का मैं कायल हो गया.

तपस्वनी...ज़िन्दगी तुम्हारी है....इसको जियो..जैसे तुम चाहती हो....इस पर अधिकार किसी का है तो सिर्फ जानकी नंदन का. अगर तुम किसी कि उत्तरदाई  हो तो सिर्फ उनकी.....मेरा मतलब ये नहीं कि बगावत कर दो...लेकिन ज़िन्दगी जियो.....तुम जब अपनी ज़िन्दगी जीती हो.....मैं भी ज़िन्दगी जीता हूँ....मानो या ना मानो


ओह....डायरी में पन्ने भी खत्म हो रहे हैं....अब क्या बताऊँ..किसी किताब वाले कि दूकान पर जा कर अगर भिक्षा  में एक डायरी मांगूगा तो वो भी हंसेगा....क्या करूँ....आज सवेरे  .३० बजे आँख खुल गयी...ध्यान आदि से निवर्त हो कर सोचा कि चलो डायरी पूरी  कर लूँध्यान इस विचार के साथ खत्म हुआ.....

तेरे जलवे अब मुझे हर सू नज़र आने लगे,
काश ये भी जो के मुझमे तू नज़र आने लगे.

मेरे यहाँ रहने से अंजलि को काफी काम पड़ गया हैछोटी सी रानी बिटिया...गर्म गर्म चाय ले कर गयी लो बाबा चाय लो.....पंडित जी भी चाय का ग्लास ले कर मेरे पास ही बैठ गए.....

सवेरे सवेरे कहाँ जाने कि तैयारी है....? उनका प्रश्न.

थोड़ा अहम कम करने जा रहा हूँ.....मेरा जवाब.

क्या मतलब...?

हाँ...पंडित जी.....कुछ दिनों से मंदिर में बैठे बैठे कुछ अहंकार सा गया है. सब कुछ बैठे बिठाए मिल रहा है, इसलिए...आज पास के गाँव में भिक्षा मांगने जा रहा हूँ.....ज्यादातर लोगजो बचा हुआ होता है...वो भिक्षा में दे कर पुण्य कमाते हैंकुछ गालियाँ देकरऔर एक या दो ही होते हैं...जो अपनी जरूरतों को काट कर भिक्षा देते हैं...कई बार तो कुछ लोग कटाक्ष भी कर देते हैं.....और मैं...मेरे मालिक कि मर्जी कह कर मुस्करा देता हूँ. इससे अहम को कम करने में मदद मिलती है....मुझे ऐसा लगता है.

आज फिर स्वास्थ्य कुछ ढीला ही है....अंजलि बिटिया कि एक कप चाय ने काफी साथ दियाचलते चलते कुछ थकान सी लगी तो पास के मकान  में कुछ देर विश्राम के लिया रुकाबारिश शुरू हो गयी है.

अब्बा देखो दरवाजे पर कोई भिखारी  बैठा है......   एक छोटे से बच्चे कि आवाज़ सुनाई दी.

जा.....ये रोटी दे दे उसको....अब्बा....हियाँ आवो. इतनी आवाज़ मैने सुनी.



मैं शायद थकान और ज्वर कि वजह से कुछ मुर्छित सा हो रहा थाआँख खुली तो एक मियाँ सामने बैठे हुए, मुझे घूर रहे थे....हुज़ूर क्या आप कि तबियत नासाज़ है.....उनका सवाल.

जी...मियाँ हरारत सी है....

तो कहाँ इस तूफानी मौसम में घूमने निकल पड़े.....तफरी कि लिए निकले थे या खुदकुशी करने....

मियाँ कि आवाज़ और बात करने का अंदाज कुछ साल पीछे खींच रहा था...लेकिन कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए मैं भी अनमना सा उनके सवाल सुन रहा था. मैं चुप......

बोलिए हुज़ूर.....जवाब दीजिये....

मैं मियाँ कि तरफ गौर से देखता रहा....तपस्वनी...जानती वो मियाँ कौन थे......वो थे सज्जाद  मियाँ. तुम को शायद उनकी याद ना हो..... याद है तुम्हारे घर के पड़ोस में जो मौलाना साहब रहते थे, सज्जाद उनका ही छोटा बेटा था. ...लेकिन सज्जाद तुमको छेड़ता बहुत था....इसलिए तुम उस से दूरी बना कर ही रखती थीं.

सज्जाद ने दो मोटी मोटी गालियाँ दी....और फिर खींच कर गले से लगा लिया और साले कि आँखों में आंसू भी गए, मेरे लिए....देखो ना वो मेरे लिए रो पड़ाऔर सारे हाल जानने कि लिए सवाल दर सवाल करता चला गया. कहने लगा कि कहाँ ठिकाना है...मेरे ये कहने  पर में उपराड़ी गाँव के कृष्ण मंदिर में रुका हूँ....तो वो बोला....अबे....राधा भी तो वहीं रहती है.......तू मिला?

दोपहर हो गयी....बारिश कुछ कम हुई...आज पहली बार तबियत को लेके ना जाने से कुछ डर सा लगा..सो वापस मंदिर ही चल पड़ा. आज कि भिक्षा में मालिक ने सज्जाद मियाँ  के घर का खाना लिखा था...सो नसीब हो गया. लेकिन वो आज भी तुमको याद करता है तपस्वनी......याद है एक बार मैने तुमसे कहा था.....

दिन गए शबाब के आँचल संभलिये,
होने लगी है शहर में हलचल संभालिये.

बाकी फिर कभी...थोड़ा आराम करने का मन है....

आज शाम बड़ी ठंडी हवा चल रही है.....मंदिर में कोई नहीं है.....पंडित जी किसी पास के मंदिर में कथा बांचने गए हैं.....और मुझ जैसे नास्तिक को मंदिर की देखभाल करने का कह गए हैं.....मंदिर के बाहर पोखरे में तैरते हुए आरती के दिए....कैसे जगमगा रहे, झिलमिला रहे हैं.....लगता है इस गाँव मे हर दूसरे दिन कोई त्यौहार होता है....एक मन कहता था की तुम भी आज मंदिर आओगी...लेकिन एक मन कहता था की तुम नहीं आओगी...क्योंकि तुम शुरू से ही मंदिर कभी पूजा करने के लिए तो गयी नहीं हो......

तुम जानती हो तपस्वनी...जिस दिन तुमने अंजलि के हाँथो रोटी और सब्जी भिजवाई थी....वो क्या बोली मुझ से.....कहने लगी " बाबा...ये लो मेरी दीदी ने आप के लिए भिजवाई है ये रोटी और सब्जी."...मैने पूंछा की कौन सी दीदी हैं....तो कहने लगी की वो शायद  आप को जानती हैं.....मैने पूंछा कैसे ...तो बोली...की जब मैने दीदी को बताया की आप ने कुछ खाया नहीं...तो वो नाराज़ हो गयीं......और कहने लगी की क्या करूँ में उनका.......शुरू से ही ऐसे हैं....बाबा...आप दीदी को जानते हैं क्या...? मैं उस बच्ची को क्या जवाब देता.....बोलो तो.

तपस्वनी....आजकल शरीर साथ नहीं दे रहा है.....रह-रह के ज्वर जाता है. परसों तुम मंदिर आई थीं..तुम्हारे साथ एक सज्जन भी थे....संभवत: तुम्हारे पति थे.....अच्छा लगा तुम दोनों को देख कर. तुम उस नीली साड़ी में ऐसी लग रहीं थीं....कोई परी उतर आई हो.....और गले में सफ़ेद मोतियों की माला. ....में थोड़ा संकोची स्वभाव का हूँ...इसलिए सामने ना पाया.....माफ़ करना...तुम बरगद के पेड़ की तरफ भी आईं थीं...लेकिन मैं वहाँ पर नहीं था....बाद मैं पता चला की तुम और तुम्हारे पति , इस मंदिर के managing trustee भी हो. .....अच्छा है..राधा यहाँ भी कृष्ण की देखभाल कर रही है.

रात के नौ बज गए हैं...पंडित जी अभी तक आये नहीं हैं......सब जा चुके हैं.....सब शांत....दिए अभी भी टिमटिमा रहे हैं....आज मंदिर में बहुत चढावा आया है...  सब कुछ वहीं कृष्ण के चरणों में रख दिया....पता नहीं क्यों...तपस्वनी...अब मन इस ज़िन्दगी से हट गया है....और दूसरी दुनिया में जाने को उतावला हो रहा है....तुम उस दिन जब मुझसे से मिली....तो तुम्हारे अंदर  भी मैने निर्लिप्तता का भाव महसूस किया. कैसे तुमने अपने अंदर २२ सालों से उस आग को जिन्दा रखा....जलती हुई शमा पर तो कई पतंगे कुर्बान हो जाते हैं...लेकिन तुम ने तो अपने आप को कुर्बान कर दिया...वो भी उस शमा पे जो कोई देख नहीं सकता....जो दिल के अंदर जलती रहती है...हर वक़्त, हर समय....

पंडित बाबा भी कई दिनों से कुछ कहना चाह रहे हैं...वो मेरा पास आते भी हैं, बैठते भी है....लेकिन वो नहीं कह पा रहे हैं, या पूंछ पा रहे हैं.....जो वो कहना या पूंछना चाहते हैं....मैं समझ रहा हूँ.....मुझे भान है इस बात का कि वो समझ रहे हैं कि इस फ़कीर कि तपस्वनी कौन है....तुमको वो अपनी बेटी मानते हैं....बहुत तारीफ़ करते हैं....अच्छा लगता है.....गाँव के लोग अब भी कितने सीधे होते हैं ना.....तपस्वनी.

मैं तुम्हारी तरफ से चिंतित रहता हूँ.... तुमको दिवाली के दिन  देखा था....मुँह कुछ और बोलता है और आंखे कुछ और....क्या तुम्हरे चारों तरफ कोई ऐसा नहीं जो तुमको जो तुम हो वो स्वीकार कर सके....लो पंडित जी आगये...और अंजलि भी.

आइये बाबा.....कैसा रहा आज का प्रवचन.

कैसा प्रवचन बेटा...वो तो ज्ञानियों का काम है. हम तो प्रेमी हैं......हम तो राधा और कृष्ण कि प्रेम कथा ही सुना सकते हैं.

मैं चुप...

बेटा.....इस मंदिर कि जो देखभाल करते हैं....उन्होंने एक दिन खाने पर बुलाया है...चलेगा...?

मैं क्या करूंगा जाकर....?

चल...मिल ले. " तुलसी इस संसार में सब से मिलिए धायेना जाने किस वेश मे नारायण मिल जाए."

वो तो ठीक है..बाबा..लेकिन...पंडित जी मेरी कशमकश को समझ रहे थे.

मैं तो उनको जानता नहीं.....ना वो मुझे.

क्या पता बेटा.....किस का किस से किस जन्म का नाता हो.....राधा बिटिया ने कहा है कि फ़कीर को भी ले कर आना , बाबा. ....और तू नहीं जानता कि वो कितनी जिद्दी है.....

हाँ बाबा...मै क्या जानूं....लेकिन आप तो जिद्द ना करो. .....लो अंजलि चाय ले कर गयी....लो बाबा चाय पियो...तुमको तो शाम से चाय नहीं मिली होगी.....? कितना ध्यान रखते हैं ये लोग........सब तुम पर गए हैं क्या....तपस्वनी.

तो तू नहीं जाएगा....

नहीं बाबा...मुझको माफ़ करो....मेरी तरफ से उनसे भी माफ़ी मांग लेना.

मैं जानता हूँ तपस्वनी तुम को गुस्सा तो बहुत आया होगा मेरे ना आने पर...लेकिन सिक्के का जब तुम दूसरा रूख देखोगी तब तुम मुझे माफ़ कर दोगी.

मिलना था इत्फ़ाक, बिछडना नसीब था

वो इतनी दूर हो गया, जितना करीब था....


कुछ अनकही....