Tuesday, December 27, 2011

कोई जाने ना......

चलो ज्योति थोड़ी देर टहल के आते हैं.......तुम्हे देर तो नहीं हो रही है...?

नहीं...नहीं...चलो......लेकिन तुम कुछ गर्म पहन लो.....

हाँ.....वो शाल दे दो....जरा...

मालिन माँ...मैं जरा घूम ने जा रहा हूँ......

अच्छा......

तुम हमेशा घूमने के लिए यहीं क्यों आते हो......आनंद....

ज्योति...एक अजीब सा सुकून मिलता हैं यहाँ...पर.....इस टीले पर बैठ कर....नीचे बहती गंगा...दिल-ओ-दिमाग मे एक अजीब सी शान्ति देती है.....और ये मंदिर.....बहुत शांत है.....गाँव से थोडा दूर है..इसलिए  लोगो की आवाजाही भी कम रहती है.....

तुमको अकेलापन पसंद है...आनंद..?

हाँ...ज्योति.....

लेकिन यारों दोस्तों में बहुत हंसी मजाक करते हुए देखा है मैने....

क्या हर हंसी के पीछे ख़ुशी ही  होती है.....ज्योति..?

ग़म छुपाते रहे मुस्कुराते रहे, महफ़िलों-महफ़िलों गुनगुनाते रहे
आँसुओं से लिखी दिल की तहरीर को, फूल की पत्तियों से सजाते रहे....


क्या बात है.....आनंद..कुछ परेशान हो....


नहीं ज्योति ...परेशान नहीं ...कहते हैं रात जितनी गहरी होती है...सितारे उतने ही साफ़ दिखाई पड़ती हैं.......और जाड़ों की रात....कभी छत पर जाकर आसमान को देखो....कितनी शान्ति , कितना सुकून मिलता है......वो देखो...चाँद के पास चमकदार तारा देख रही हो...ज्योति.....

हाँ.....

वो शुक्र है.... जिसको English में Venus कहते हैं....कहते हैं ना  men are from  Mars , Ladies are  from  Venus ...


अच्छा जी.....ऐसा क्यों....

क्योंकि Venus is  the  goddess of  beauty ....

ओहो....

हाँ जी......

आनंद...तुम इतने बात करने वाले हो...जब चुप रहते हो....तुमको घुटन नहीं होती......

होती है......बिलकुल होती......है...सर में भारीपन भी होता....लेकिन क्या करूँ.....किसको आती है मसीहाई..किसे आवाज़ दूँ.......

बिलकुल अकेले हो ना.....आनंद.....

हाँ......बिलकुल....अकेला...ज्योति....लेकिन....निराश नहीं.....हारा हुआ नहीं....हाँ थक जाता हूँ..कभी कभी....

ज्योति...तुमको डर  नहीं लगता.....

किस बात का डर.....आनंद..?

मेरे साथ इस बेनामी रिश्ते का डर.....

आनंद......ये जो नदी है......इसके दो किनारे हैं.....ये कभी मिल नहीं सकते ...लेकिन कभी एक किनारे की नदी भी नहीं होती...और रही बात....दुनिया से डर की......तो किस बात का डर.....मैं तुम्हारे  साथ रहना कोई पाप नहीं समझती.....कोई गलत नहीं समझती.....कोई दुसरा क्या समझता है...क्या सोचता है....यर मेरी सरदर्दी तो  नहीं है.....खैर ये बात practical नहीं है......संतुलन, balance ...ये बहुत अहम होता है..आनंद. अगर मैं अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभा कर..कुछ समय तुम्हारे साथ बीतती हूँ.....अपने आप से जुडती हूँ, अपने real self को पाती हूँ.....तो किसी का क्या नुकसान ...... ये दुनिया, ये समाज.............समाज ...आनंद किस समाज की बात  करते   हो तुम......ये बना है की आदमी को अकेलेपन से बचा सके लेकिन......छोड़ो न आनंद ....इस समाज और दुनिया की  बातें.....

ज्योति.....हंसी आती है......अपने हालत पर, दुनिया पर और समाज पर.....

वो देखो एक नाव वाला कितनी मस्ती से गाता हुआ जा रहा है.......ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में.....सागर मिले कौन  से जल में...कोई जाने ना.......

ठंड बढ़ रही है..चलो वापस चलें.....

वापस तो जाना है ......आनंद.

Wednesday, December 21, 2011

प्रेम-2

आनंद.....कब तक चुपचाप कोई जले ?

ज्योति.....इसकी कोई सीमा नहीं है.

अच्छा आनंद...एक बात सच सच बताना.....

बोलो......वैसे भी मैं झूठ नहीं बोलता.....

तुम्हारी जिन्दगी में  मेरा स्थान क्या है......

ज्योति.....ये सवाल तुमको पूंछना पड़ रहा है....????

मुझे गलत मत समझना आनंद.....

अरे नहीं....ऐसा नहीं है.

ज्योति...ये बहुत कठिन और आसान सवाल है..कठिन इसलिए....क्योंकि कुछ लोग किसी की जिन्दगी में वो स्थान रखते हैं ....जो परिभाषित नहीं किया जा सकता. जिसको शब्दों में बांधने की कोशिश उस इंसान के साथ अन्याय होता है.....और आसान इसलिए...की तुम मुझ पर विश्वास करती हो..तो में जो कुछ भी कह दूंगा..तुम मान लोगी....हाँ अगर वो अतिशोयोक्ती न हो....है कि नहीं......

तुम बोलो आनंद......

क्या बोलूं....ज्योति.....अब अगर हवा इंसान से पूंछे कि उसके जीवन मे उसका क्या स्थान है...या खुशबू अगर फूल से पूंछे कि उसके लिए खुशबू का क्या महत्व है...तो बताओ कोई जवाब दे तो क्या दे....तुम्ही बताओ...मैं कुछ  भी भूला नहीं हूँ....किन किन और जिन जिन हालातों से मैं गुजरा हूँ.....उसमें तुम्ही थीं जो मेरे साथ खड़ी थीं....जिसका विश्वास मेरे उपर से तब भी नहीं डिगा, जब मैं टूट कर बिखर रहा था.....अब और क्या बताऊँ......

आनंद....तुम मुझे आसमान पर मत बिठाओ.....मैं क्या थी और अब क्या हूँ...ये सिर्फ मैं जानती हूँ..और जो मैं हूँ...इसको बनाने में या पुनर्जीवित करने में तुमने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी..में तो अपना वजूद ही भूल गयी थी......

अब तुम मुझे आसमान पर मत बिठाओ...ज्योति....कुछ gifts जो भगवान् हमे देता है, वो मर नहीं सकतीं....वो खत्म नहीं सकतीं...हाँ उनकी आंच ठंडी हो सकती है.....मैने सिर्फ वही किया....

वही मनुष्य है कि मनुष्य के लिए मरे....

 लेकिन ये रिश्ता.......

कुछ  रिश्ते बेनाम होते हैं......लेकिन सब से खुबसूरत होते हैं.....गमले में लगा गुलाब देखा है ना....कभी किसी जंगले में जा कर जंगली गुलाब को भी देखो....कैसा हवा के साथ लहराता है, इठलाता है, लचकता है...वो खूबसूरती गमले के गुलाब में नहीं होती...मत दो हर रिश्ते को नाम....

अच्छा अब अगर में ये पुंछु कि मेरा क्या स्थान है.......तो.....

हूँ......सोचना पड़ेगा....


प्रेम...

आनंद बेटा......आज खाने में क्या खायेगा......मालिन माँ का हमेशा की तरह कठिन  सवाल......

कुछ भी बना दो माँ......हमेशा की तरह आनंद का सरल सा जवाब....

तुझसे तो कुछ पूँछना ही बेकार है......मटर का पुलाव बना देती हूँ.....चाय लेगा....

मालिन माँ....ये भी कोई पूंछने की बात है...जवाब ज्योति का.....मेरे लिए भी बना दो.....ना.

अच्छा....अच्छा...कहते हुए मालिन माँ रसोई की तरफ चल दीं....

आनंद.......

हाँ ज्योति.....आनंद का कुछ चोंकेते हुए सा जवाब 

क्या हुआ आनंद...इतना चोंक क्यों गए...लगता है की दिमाग कुछ चल रहा है......कुछ परेशान हो....??

नहीं परेशान तो नहीं..हाँ दिमाग जरुर चल रहा है......

क्या चल रहा है दिमाग में.....बोलोगे.

कुछ ख़ास नहीं...ज्योति.....सोच रहा हूँ...की मेरी जो छवि लोगो के दिमाग में बनी है...एक आवारा, मस्त मौला, लापरवाह...इससे मुझे कितना फायदा है....लोग मेरे बारे में seriously सोचते ही नहीं, मेरे चरित्र की गहराई का अंदाजा नहीं लगा पाते....तो मैं कितनी उलाहनो से बच जाता हूँ....जानतो हो ज्योति...."पर उपदेश कुशल बहुतेरे" ..... लेकिन जो उपदेश हम दूसरों को देते हैं..जब उनको जीने की बारी आती है..न ज्योति.....तब कितने लोग खरे उतरते हैं....

आनंद.....ऊँगली उठाना बहुत आसान है....ख़ास कर दूसरों पर...मुझे सब कुछ पता है....जो जो तुम सुन रहे हो, जो जो उंगलियाँ तुम पर उठ रहीं हैं.... लेकिन मैने अभी तक तुमको अपना धैर्य खोते हुए नहीं देखा.....और खोना भी मत.....ये सब बरसाती मेंढक हैं...जो सिर्फ टर्र टर्र करते हैं..वो भी जब तक बरसात होती है....

ले बेटा...चाय......और ये ले मटर का पोहा....मालिन माँ...का अवतरण......

ज्योति....जिन्दगी का अगर कोई लक्ष्य नहीं है.....तो जिन्दगी, जिन्दगी नहीं....जीता तो जानवर भी है...शायद इंसान और जानवर में यही फर्क है....खेल के मैदान में..बच्चे गेंद लेकर खेलते रहते हैं....कोई इधर मारता है कोई उधर मारता है.....लेकिन जब वही बच्चे दो-दो ईंटे उठा कर , दो एक तरफ और दो एक तरफ रख देते हैं.....तो वो एक match बन जाता है, लक्ष्य निश्चित हो जाता है.....और उसमें रोमांच पैदा हो जाता है.

तुम कितना सोचते हो ....आनंद.

चाय लो....और ये पोहा...खा लो...वर्ना मालिन माँ...फांसी दे देगी....

वो तो मैं खा लुंगी.....मैं एक बात पूँछु...आनंद.

क्यों नहीं.....जरुर

प्रेम के बारे में क्या सोचते हो तुम...

ज्योति....प्रेम के बारे में तो ज्ञानी सोचते हैं.....

आनंद....अब ये मत कहना की मैं तो ज्ञानी नहीं हूँ...मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता.....

अरे नहीं......ऐसा नहीं है......ज्योति.....प्रेम के बारे में जितने ग्रन्थ लिखे जाएँ, कम हैं.... लेकिन में तो ये सोचता हूँ..की प्रेम के बारे में लोग लिख कैसे लेते हैं.... ये तो मानी और अल्फाज में समझाई नहीं जाती....मैं तो ये मानता हूँ..की ढाई आखर प्रेम का , पढे सो पंडित होई.......प्रेम तो अथाह समुन्द्र है...जो इसमे उतर गया.....वो तर गया. 

खुसरो बाज़ी प्रेम की वाकी उल्टी धार, जो उतरा सो डूब गया, जो डूब गया सो पार......मानती हो...ना.

हाँ ... आनंद.

ज्योति जो प्रेमी होगा...वो शांत होगा.....क्योंकि जहाँ गहराई होगी...वहां शांत होगा. जहाँ छिछलापन होगा, जहाँ shallowness होगी वहां शोर होगा....तुमने समुन्द्र तो देखा है ना....किनारों पर ज्यादा हल्ला मचता है....क्योंकि वहां छिछलापन होता है, shallowness होती है....लेकिन जहाँ गहराई होती है,समुन्द्र वहां शांत रहता है...यही एक प्रेमी की पहचान भी है.....प्रेम में जुबाँ कब बोलती है...

तो क्या प्रेम व्यक्त नहीं किया जा सकता या नहीं करना चाहिए.....

व्यक्त करना भी चाहिए...और किया भी जाना चाहिए....

तो फिर इसके लिए इतना शोर-शराबा क्यों.....

क्योंकि अपने गिरेबान में झाँक कर देखने की हिम्मत किसमें है....

मुजरिम है सोच सोच , गुनाहगार  सांस सांस,
कोई सफाई दे तो कहाँ तक सफाई दे.

जानतो हो ज्योति....कुछ देशों में ये शोध हो रहा है, की क्या Jesus Christ की जिन्दगी में कोई स्त्री थी....अरे..मैं तो कहता हूँ की चलो मान लिया की उनकी जिन्दगी में कोई औरत थी, तब भी वो ईसा मसीह बने, हम सब की जिन्दगी में भी औरत है, क्या हम ईसा मसीह बने....ये सवाल पूंछो....बंद करो उंगलियाँ उठाना....

प्रेम....पूजा है ज्योति.....अगर हमारे आराध्य के उपर एक भी ऊँगली उठी....तो प्यार की तोहीन है....आराधक को जलना पड़ता है...एक दीये की तरह....चुपचाप....                                                    क्रमश:




Thursday, December 15, 2011

एक नयी शुरुआत

तुमने सुना कुछ...आनंद....

क्या....

लोग क्या क्या बातें कर रहें हैं......

वो तो उनका धर्म है..करने दो.....मैं भी सुन रहा हूँ....

तुमको तकलीफ नहीं होती......किस मिट्टी के बने हो.....?

तकलीफ भी होती है, दर्द भी होता है, गुस्सा भी आता है....बोलो क्या करूँ...?

किस तरह तुम सब पी लेते हो...आनंद...किस तरह..क्या अपने आप को नीलकंठ कहलवाना चाहते हो....?

ज्योति....तुम जब इस तरह के सवाल करती हो...तब जो तकलीफ होती है...वो उस तकलीफ से ज्यादा है....जो लोगो की बातों से होती है.....

नहीं आनंद..नहीं...मैं तुमको तकलीफ नहीं देना चाहती हूँ.....

ज्योति......
मुस्करा देता हूँ जब भी गम कोई आता है पास,
बद्दुआ की काट मुमकिन है कोई तो है दुआ.....

संस्कारों का भोग तो भोगना ही पड़ेगा..उस से बचकर तो कोई न जा पाया....जब हवा तेज हो सर झुका कर चलने में ही समझदारी है.....धैर्य....... रखने में ही समझदारी है......जैसा हमने बोया है, वही तो काटेंगे......बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से पाए....

आनंद.......कितना बर्दाशत कर सकते हो.....तुम ?

ज्योति.....जिन्दगी में जब प्राथमिक्ताए fix हो जाती हैं....तब क्या बर्दाशत करना है और कितना बर्दाश्त करना है.....ये सब बेमानी हो जाता है.....सामने ध्येय होता है..और हमारी तरफ से प्रयत्न....जो लोग बात कर रहे हैं....वो आ कर मेरा दर्द बाँट तो नहीं सकते....तो फिर उनकी चिंता क्यों करूँ....

हाँ ....उनकी चिंता मुझे जरुर होती है.....जो मेरे दर्द को बराबर का बाँट लेते हैं.....और मेरे कंधे से कंधा मिलाकर खडे हैं......

हे भगवान्........तुम गलत युग में पैदा हो गए हो......आनंद. ... हँस क्यों रहे हो....

ये सब में नहीं जानता ...ज्योति. मैं..ज्ञानी नहीं हूँ......कर्मयोगी बनने की कोशिश कर रहा हूँ.....कर्म सिर्फ कर्म.....सिर्फ कर्म......

यहाँ से होगी एक नयी शुरुआत.......बोलो होगी ना .................

Wednesday, December 14, 2011

नयी शुरुआत.....

हाँ आनंद, एक नयी शुरुआत तो करनी पड़ेगी....अफ़सोस करने से कुछ नहीं होता है......

हूँ............सही कह रही हो, ज्योति......कब तक और कहाँ तक मेरा साथ निभा पाओगी , ज्योति....

क्या जवाब दूँ आनंद.......लो सुनो..

किसी का पूंछना कब तक हमारी राह देखोगे,
हमारा फैसला जब तक ये बीनाई रहती है....

ज्योति....जिन्दगी के इस कड़े सफ़र में जब तुम साथ हो.....तो ये सफ़र भी आसान हो जायेगा. जो कुछ बर्दाशत करना है, वो तो करना ही पड़ेगा....लेकिन....

थके हारे परिंदे जब बसेरे की लिए लौटें,
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरुरी है.

आनंद तुम्हारे साथ जानते हो मुझे क्या आराम है....या क्या आराम रहता है.....

नहीं...बताओ तो...

तुम्हारे साथ मैं जो हूँ , वही रहती हूँ...मुझे बनना नहीं पड़ता है.......और इंसान जब जो है वही रहे, तभी comfortable रहता है.

मैं एक बात बोलूं, ज्योति.....

बोलो....

क्या तुम को एक show piece की तरह रखा जाता है......

पता नहीं आनंद....शायद  हाँ....कहाँ तक और कब तक बन संवर के ओरों के सामने आऊं....मै जो हूँ, जैसी हूँ..क्या इस रूप मैं लोगों को स्वीकार नहीं..........चेहरे पे क्रीम, पावडर के साथ साथ एक दिखावटी हंसी भी पहननी पड़ती है......क्यों करूँ मैं ये सब...बोलो...क्यों...?

हूँ..................जानती हो ज्योति...मुझे तुम एक पहाड़ी नदी की तरह लगती हो.....

हाय...अल्लाह.....वो क्यों?

क्योंकि पहाड़ी नदी.....छल छल , कल कल बहती हुई ही अच्छी लगती है.....तुम को देख कर ऐसा लगता है..उस पर बाँध बना दिया गया हो......

आनंद..इतने समझोते कर लिया हैं...की अब अपना असली वजूद ही भूल गयी हूँ....सब कुछ है आनंद मेरे पास , सब कुछ..लेकिन मैं खाली हूँ.....बिलकुल खाली.....

लेकिन....ज्योति..हार कर थक मत जाना....जिन्दगी हर वक़्त करवट लेती है....मुझको देखो...कभी सोचा था....मैं इस रूप को भी देखूंगा जिन्दगी के....नहीं.....लेकिन देखा. हर रात की सुबह होती है....अमावस्या के बाद पूर्णमासी भी आती है......

ठीक कह रहे हो आनंद.......लेकिन इस बार अमावस्या ज्यादा लम्बी हो गयी लगता है.....तुमको कैसा लगेगा जब तुमको ये यकीन हो जाए...कि तुम्हरे हर movement पर नज़र है.....तुम आज़ाद हो कर भी एक कैदी हो....वैसे  एक बात मैं जरुर सोचती हूँ आनंद....तुम्हारे बारे मैं.....

वो क्या......

कि तुम कौन सी मिटटी के बने हो.....जिन हालातों से तुम गुजर रहे हो , कोई आम आदमी होता, तो ख़ुदकुशी कर चुका होता....भाड़ में जाये जिम्मेदारियां.....

कौन सी मिटटी कबाना हूँ...ये तो में भी नहीं जानता...लेकिन हालत तपा तपा कर रूह को इतना मजबूत बना देंगे कि छोटी छोटी चोट तो असर भी नहीं करेगी.....और अब करती भी नहीं है.....

हादसों कि जद में हैं  तो मुस्कराना छोड़ दें,
जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दे....

जब नयी शुरुआत करनी ही है....तो क्यों ना हौसले के साथ करी जाए....तुम हो ना....

Tuesday, December 13, 2011

एक नयी शुरुआत.............


मालिन माँ.....राम राम...

राम राम ..ज्योति बिटिया....कैसी है...?

मैं तो ठीक हूँ .....आप कैसे हो......

बस बिटिया..... ईश्वर की कृपा है.....

आ.....आनन्द वो बैठा है...बरामदे में....चाय पीयेगी बिटिया....अभी अभी आनंद ने फरमाइश की है....

तो बना दो न मालिन माँ.....बरामदे से आते हुए आनंद की आवाज़....

कैसी हो ज्योति.....

 ठीक...और आप.....

बिलकुल ठीक.... आओ....बरामदे  में बैठते हैं....

ओहो...नया छप्पर डलवाया है....

हाँ ज्योति....बहुत दिनों से मन था.....गर्मी के दिनों में....दोपहर में इसके नीचे बैठ कर....उस नीम के पेड़ देखना बहुत अच्छा लगता है...दूर तक कुछ नहीं होता, सिर्फ एक सन्नाटा......और गर्म हवा..ज्योति.....जरा मालिन माँ से बोल दो..की चाय में अदरक न डाल दे.

और बताओ ज्योति ...क्या चल रहा है.....कुछ नया लिखा....?

नहीं आनंद......

क्यों...?

कुछ अंदर से उठ नहीं रहा है......अंदर से आ नहीं रहा है.....आनंद.

कुछ आ नहीं रहा है...या इतना ज्यादा आ रहा है और इतनी विविधता के साथ आ रहा है की तुम निर्णय नहीं कर पा रही कि लिखूं या न लिखूं.....अगर लिख दिया तो नाम जाने किस किस के चेहरे से पर्दा उतर जाए.....तुम लिखती हो भी तो ऐसा...सो सुनार की, एक लुहार की....

बस करो आनंद...ऐसा कुछ नहीं हैं !!!!!!

अरे अपने प्रशंसकों से पूंछो....  

तुम ने कुछ नहीं लिखा.....आनंद.

मैने......ज्योति मैं कवि या लेखक तो हूँ नहीं....जो देखता हूँ....वही लिखता हूँ, जो सोचता हूँ वही लिखता हूँ......हाँ.....कुछ लिखा है.....लेकिन कभी कभी एक अजीब सी असमंजस  में पड़ जाता हूँ....की में कोई लेखक तो हूँ नहीं, जो में ओरों  की लिए लिखूं...........क्या लेखन मेरे लिए एक outlet जैसा है क्या.....संभव है....लेकिन कभी कभी, ज्योति.....टूटने सा लगता हूँ., हारने सा लगता हूँ.....मन करता है...भाग जाऊं.....लेकिन भागूं तो किस से....दुनिया से...या अपने आप से......नहीं नहीं......ये गलत है....जिम्मेदारी हैं मेरे उपर....और निभाना है, शान से खूबसूरती से.........आनंद अपनी लय में बोलते जा रहे थे....

ये ले बेटा चाय और पराठे.....और सुन जरा दस-बीस रुपए दे दे.....शाम के लिए सब्जी लानी है...

वो वहां ताक में रखे हैं...आप ले लो.

........आनंद......

हाँ ज्योति.....कुछ ज्यादा बोल गया क्या...?

नहीं.....बोलो....ये जरुरी है.....तुम इंसान हो..pressure cooker नहीं...जो सीटी बजा कर दबाव कम कर लेता है.....तुम बोलो आनंद.....कहाँ खो गए.....

कहीं नहीं...मैं तो यहीं हूँ..... जरा सोच रहा था.....ज्योति

इस तरह तय की हैं हमने मंजिलें,
गिर पडे, गिर कर उठे, उठ कर चले...

ज्योति जिन्दगी जीने का ये एक फलसफा रहा है मेरा.....लेकिन धोखे खा खा कर....अब तो विश्वास  डोलने सा लगा है.....अब अगर टूटा तो........

नहीं आनंद.....तुम उनमे से नहीं जो टूटते हैं...हालातों को तोड़ कर उनसे बाहर निकल जाना यही तो तुम्हारी खासियत है....उनको देखो जो तुमको देख कर हिम्मत बांधते हैं.....कौन हैं वो...मैं  बताऊँ....

नहीं ज्योति..मैं जानता हूँ..... और सच बताऊँ तो मुझको वो डूबते को तिनके का सहारा नज़र आते हैं....

ठीक है....आनंद....जिन्दगी की यही खूबसूरती है.....

हाँ......ज्योति ये तो है......एक नयी शुरुआत.

गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो,
जिसमें खिले हों फूल वो डाली हरी रहे.... 

Monday, December 5, 2011

अच्छा...तुम ही बोलो...तपस्वनी

इस गाँव में कुछ अच्छे मित्र भी हैं.....अरे नहीं..पढे लिखे नहीं हैं....

नैथानी जी.........आप की किराने की दूकान है.

प्रकाश.......रानीखेत और चिलियानौला को जोड़ने वाली सड़क के नुक्कड़ पर इसकी चाय की दूकान है.

बिष्ट जी........सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं.

चन्दन.....मंदिर के पास इसकी चाय - बीड़ी की दूकान है.....

हमसब मे बिष्ट जी ही सब से ज्यादा पढ़े लिखे हैं.......

लेकिन.....इनसब को जाहिल और गंवार समझने की गलती न कर बैठिएगा...जो मैंने करी थी...जब इस गाँव में आया था.....सब इंसान हैं....क्योंकि ये अभी भी दूसरों का दर्द महसूस करते हैं...गाँव में जब भी कोई विपत्ति आई हैं....सब एक साथ दिखे....कोई अपना दमन बचाकर निकलने वाला नहीं है......

शहर में तो जनाजे को भी सब कंधा नहीं देते,
इस गाँव मे छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं.....

रोज़ शाम....को , या यूँ कहिये आठ बजे के बाद....चन्दन की दूकान पर जमावड़ा होता है....और दिन भर का हिसाब किताब............ ये है  यहाँ की जिन्दगी........

तपस्वनी......आज तुम को परिचित करवा रहा हूँ......

उसका नाम है दया पुजारी. मंदिर से कुछ ही दूर उसका घर है.....जब सवेरे धुप की पहली किरण उस का घर चूमती है तो वो तुलसी में पानी डालने बालकोनी में आती है.......ढीले से बंधे हुए बाल, कमर तक झूलती हुई चोटी, श्रधा  से झुकी हुई पलकें, कानो में बालियाँ.....अब और क्या बताऊँ....

देखने में साधारण.
डीलडोल...साधारण.
कद-काठी....साधारण.
स्वभाव......निषछल.
ह्रदय.....साफ़.
नज़र----बेदार. 

नाजुक इतनी की डर लगता है... छुने से मुरझा न जाए.

नाजकी उस के लब की क्या कहिये,
पंखुरी एक गुलाब की सी है.

लेकिन गंभीरता इतनी....की जैसे पर्वत.

अपने आप को हालत में ढाल लेने में..जैसे पानी.....

आज  तक इसको आप सभी से छुपा कर रखा था.....जान का सदका तो सभी उतारते हैं, कोई नज़र का सदका भी तो उतारे....

जुबाँ कम और आंखे बहुत बोलती हैं..... वो कह देती वो सब जो "वो" कहना भूल जाती है.....अब आप का प्रश्न होगा या होना चाहिए....तो उसमें तपस्वनी जैसा क्या है.....?

जी.....पते की बात पूछीं आपने.....उसमें तपस्वनी जैसा क्या है.....?

मैंने उसको अपने आप से लड़ते हुए देखा है. 
मैने उसको दौलत में खेलते हुए देखा है. 
मैंने उसको अपने आप को देते हुए देखा है.....
मैने उसकी आँखों में पानी और होंठो पे हंसी साथ साथ देखी है. 
मैने उसको लाभ और हानि, जय- पराजय, में संभव देखा है.

अब बोलिए उसको क्या नाम दूँ..............

अच्छा...तुम ही बोलो...तपस्वनी   



अपना ख्याल रखना तपस्वनी.....

ये भी तो हो  सकता है की वो बदल गयी हो या बदल रही ही....

संभव है....

तुम तो डरा रहे हो मुझे.....

तुम डर क्यों रहे हो......

क्या मतलब.....

मतलब साफ़ है.....

तुमको कोई उम्मीद है....और जहाँ उम्मीद होती है..वहां पर दुःख और डर तो होते ही हैं......

तो मैं क्या करूँ...?

कुछ मत करो.....

तुम मेरी मदद कर रहे हो मेरे मन.....या मुझे confuse कर रहे हो....?

मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ......मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूँ.....उम्मीद मत करो.....तुम प्रेम करते हो.....तुम्हारा कार्य यहाँ पर खत्म होता है......प्रेम two way traffic नहीं होता. अपने आप को हटाओ....तभी तो वो............

हाँ........मैं समझ रहा हूँ......

अच्छा है.......और जितनी जल्दी समझ लो, उतना अच्छा है......

तो क्या सब कुछ सपना था.....

नहीं.......हकीकत थी.....

तो क्या हकीकत ख़त्म भी हो सकती है.....

नहीं....अगर तुम प्रेम की बात कर रहे हो...तो प्रेम कभी नहीं मरता....प्रेमी मरते हैं, बदलते हैं....लेकिन प्रेम नहीं.....

तो क्या सालों की तपस्या......

अपने से सम्बंधित प्रश्न करो..... दूसरों की आस्था और तपस्या पर नहीं....तुमको इसकी इज़ाज़त नहीं है.....

पता नहीं......

कौन क्या कर रहा है...इस पर ध्यान मत दो.....वो ये क्यों कर रहा है...ये जानना ज्यादा जरुरी है..... और उचित है.... और इससे भी ज्यादा उचित है....तुम क्या कर रहे हो....और क्यों कर रहे हो.....

लेकिन अगर हमने किसी के साथ ईमानदारी बरती है तो....?

तो ....क्या....? उसके परिणाम की इच्छा रखते हो.....ये तो मजदूर करते हैं...मेहनत करते हैं और मेहनताना  लेते हैं..... क्या तुम मजदूर हो......?

क्या कोई रिश्ता नैतिक या अनेतिक होता है....?

नहीं....नैतिक या अनैतिक एक काम के दो नाम हैं......संभव है जिसको दुनिया अनैतिक मानती है...वो तुम्हारी नज़र में नैतिक हो ..या इसका उलटा....

तो क्या करना चाहिए......

वो करो जो तुम्हारा दिल कहे, तुम्हारा मन कहे ......क्योंकि दिल कभी झूठ नहीं बोलता....और गलत रास्ते पर नहीं ले जाता......

लेकिन दुनिया.....?

ये दुनिया तुम्हारी बनाई हुई है....

तो मैं न बदलूँ....?

किस के लिए...और क्यों......क्योंकि तुम प्रेम करते हो......

गिले शिकवे जरुरी हैं, अगर सच्ची  मुहब्ब्त है,
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है.

शायद तुम ठीक कहते हो.......

अपना ख्याल रखना तपस्वनी.....

Friday, December 2, 2011

तपस्वनी.....

शाम काफी गहरा चुकी थी..... ठंड की वजह से मंदिर में लोगों कि आवा-जाही भी गिनी चुनी थी. उपर से बारिश ने न रुकने की कसम सी खा ली है....ये जिस मंदिर का अब मैं जिक्र कर रहा हूँ...ये रानीखेत के चिलियानौला गाँव में चीड़ के जंगलों के बीच में पड़ता है....पुराना शिव मंदिर है....पास में ही एक छोटी सी पहाड़ी नदी है......मैं वहीँ रहता हूँ.....

चिलियानौला..एक छोटा सा गाँव है.....एक छोटा सा बाज़ार है....२ से ३ हजार की आबादी होगी....लेकिन आठ बजते बजते सुनसान सा हो जाता है.....एक आध गाड़ी की आवाज़ सुनाई दे जाती है......चन्दन सिंह कुवार्बी गाँव के पंच हैं....गाँव के सब से रईस  आदमी हैं..लेकिन भले और सीधे-साधे.....उन्होने ही  मुझे इस मंदिर में रहने की इज़ाज़त दी है.....और देखरेख करने की....

मैंने तो उनसे साफ़ साफ़ कह दिया..की देखो साहब...देखरेख जरुर करूँगा..लेकिन मंदिर में पूजा पाठ करने को न कहिये....क्योंकि वो मुझे आता नहीं है.....उनको मैं क्या बताता की मैं तो एक तपस्वनी को ढूँढने आया हूँ, उसको मनाने आया हूँ.....जो रूठ गयी है.....

नहीं...नहीं मुझसे नहीं......वो उलझ जाती है...अपने आप से उलझ जाना उसकी एक फितरत है...या एक अदा....पता नहीं...लेकिन उसको सुलझाने मैं मेरी अपने आप से अक्सर मुलाकत हो जाती है....लेकिन आजकल वो खो गयी है......खैर...मैं भी कहाँ अपनी रामकथा आप को सुनाने बैठ गया....
देह धरे को दंड है, सब काहू को होए...

लेकिन मैं एक बात बताता चलूँ.....ये तपस्वनी वो नहीं..जो गेरुआ पहनती हो.....ये वो है..जो अपने सारे दाईत्वों को निभाती है, हंसती भी है, मुस्कराती भी है..लेकिन सब से अलग अकेली रहती है....

अब आप भी कहेंगे ये क्या बात हुई....की समाज में रहती भी है और अकेली भी है....लेकिन होते हैं कई लोग ऐसे होते हैं...जो पानी में कमल के पत्ते की तरह दुनिया में रहते है.....वो राधा भी है, वो मीरा भी है. वो जिसकी दीवानी है..... वो कोई खुशनसीब ही होगा......मैं.....अरे न रे बाबा....ना ना......

आजकल उसने पर्दा कर लिया है......खुद से भी और मुझसे भी....

गुस्सा है.....हो सकता है..

रूठी है......हो सकता है...

आहत है...संभव है....

क्या कोई है जो उसको सम्हाल ले.....उसको जरुरत है......

तुम्हारी अपनी क्या हालत है...वो भी बयान कर दो.....

मेरी हालत......लो भला मुझे क्या होने लगा....

तुम क्यों सकुचाते हो अपना हाल  बयान करने  में....

ना रे बाबा ....बात सकुचाने की तो है ही नहीं...

जब हम किसी को प्रेम करते  हैं....तो अपना दर्द कहाँ रह जाता है....

नहीं फुर्सत यकीँ जानो, हमे कुछ और करने की,
तेरी यादें, तेरी बातें बहुत मसरूफ रखती हैं........

बस यही तो....अपनी बातों को एक शेर के पीछे छुपा लेने की ये आदत.....

नहीं रे मन...नहीं.......

वो तपस्वनी बहुत परेशान है......

जब तक वो खुलेगी नहीं....वो बहेगी  नहीं.....वो डूबती जायेगी.....वो ख़तम होती जायेगी...
अरे वो अपने आप में अथाह समुद्र है..कुछ भी बर्दाशत करने की कुव्वत है उसमें....और मैं उसको डूबने दूँ.......संभव नहीं....है.

तो क्या करोगे.....

पता नहीं...

तो फिर परेशान क्यों.....

प्रार्थना तो कर सकता हूँ....

वो ठीक है, और उचित भी....

लेकिन उसको यकीं तो हो जाए....की मैं अपनी तपस्वनी को ढूंढ रहा हूँ...

वो जानती है......तुम अपना कर्तव्य करो....फल की चिता मत करो....

तुम से ज्यादा उसको तुम्हारी चिंता है....

लेकिन वो नाराज है.......

वो नाराज नहीं है...वो आहत है.......

जाओ ...अब मंदिर जाओ ....

क्या मंदिर..जब तपस्वनी ही नहीं....

तुम अगर उसको समझते हो ....तो जहाँ तुम हो, जिस हाल में तुम हो..वो वहीँ है...

मैं जानता हूँ, समझता हूँ.....लेकिन..फिर भी इंसान हूँ.....ना....

तपस्वनी.....एक बार तो बोलो....या क्या मैं ऐसे ही विदा लूँ...तुम से नहीं..संसार से...

Monday, November 28, 2011

तुम....

तुम....

एक ग़ज़ल तुम पे लिखूं वक़्त का तकाजा है बहुत,
इन दिनों खुद से बिछुड़ जाने का धड़का बहुत.....

हाँ ..... कई दिनों से सोच रहा हूँ...की तुम पर लिखूं.....यानी अपनी कलम का इम्तेहान लूँ....तुम साथ नहीं हो, तुम पास नहीं हो......लेकिन मैं अकेला भी नहीं हूँ और तुम दूर भी नहीं हो.....

खरीद सकते उन्हें तो अपनी ज़िन्दगी देकर भी खरीद लेते ,,,

पर कुछ लोग “कीमत ” से नहीं “किस्मत ” से मिला करते हैं …!!

अब बताओ किस्मत से कौन लड़े.......मेरा हर गीत अधूरा है.......मेरी हर शेर अधूरी है.....कुछ इधर - उधर बिखरा है.....इनको कौन संवारे.....तुम !!!!!!

तुम तो हो ही नहीं.......हो भी नहीं और हर जा हो....... तुम....

अभी तो गीत गुनगुनाया भी नहीं..था.....और रागनी रूठ गयी.....

अब तुम पर लिखूं तो क्या लिखू.......या क्या क्या लिखूं....कुछ रुसवाई का डर भी होता है....

मैं एहतियातन उस गली से कम गुजरता हूँ,
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाए....

एक मन करता है...सब कुछ लिखू दूँ, सब कुछ बोल दूँ...तुमसे.....लेकिन तुम कहाँ हो.....तुम से क्या बोलूं....कि  दिल की धड़कन हो तुम.....

दिन को आंखे खोल कर, संध्या को आंखें मूँद कर,
तेरे हर एक रूप की पूजा नयन करते रहे.....
उंगलियाँ जलती रहीं..और हम हवन करते रहे.....

अब क्या करूँ......मुहब्बत चीज़ ही ऐसी है....

लो तुम से मुहब्बत का जिक्र करना......सूरज को चिराग दिखाने का गुनाह भी करवाना  है क्या मुझसे.....ना रे बाबा ना.......ना ना...

Friday, November 25, 2011

ना कर शुमार कि शह गिनी नहीं जाती......

कितनी देर हो गयी.....मदिर में खड़े खड़े...आज तो बरसात नहीं रुकेगी...वो देखो दक्षिण की तरफ...काले बादलों का समूह....तुम आज कहाँ फँस गयी..ज्योति...माँ भी चिंता कर रही होगी.....

बादल छंट भी जाते हैं....आनंद. बारिश रुक भी जाती है.....तुमको इतना परेशान पहले कभी नहीं देखा...

वो देखो नदी के किनारे....कितने आराम से बैलगाड़ी वाला गाना गाते हुए जा रहा है....ध्यान दो.....गाना भी सुना हुआ है.....याद है ये गाना....

कौन सा गाना...आनंद.

सूरज मुख न जइबे  न जइबे हाय राम...मेरी बिंदिया का रंग उड़ा जाए.....वो गाना सिर्फ गा ही नहीं रहा है...उसको जी रहा है....न उसको सुर की चिंता, न राग का डर.... कितना अच्छा गा रहा है....
चिंता, परेशानियां तो हेर एक की जिन्दगी में हैं...ज्योति....क्या ये हमारे खुश या नाखुश होने की शर्त हैं.....बोलो ज्योति....

नहीं आनंद.....शर्तों पर खुशियाँ नहीं आती. शर्तों पर प्यार नहीं होता... ईश्वर ने जिन्दगी तो शर्त पर नहीं दी...ना आनंद......

हाँ ज्योति....इसलिए तो में तुमको बेहिसाब जीने की राय अकसर देता रह्ता हूँ....

ना कर शुमार कि शह गिनी नहीं जाती,
ये जिन्दगी है हिसाबों से जी नहीं जाती....

और तुम आनंद....क्या तुम खुश हो....देखो सच बोलना...

हाँ ज्योति..मैं खुश हूँ....

सच....

बिलकुल सच.... ऐसा क्यों पूंछा तुमने...?

क्योंकि तुम्हारी जिन्दगी जीने का तरीका कितना सहज है.....

ज्योति....जब तेज हवा चलती है ना.....तो सिर्फ वही पेड़ या वही शाख बचती है.....जो लचक जाती है...जो पेड़ तन कर सीधे खड़े रहते हैं...वो टूट जाते हैं.....और मैं तो सब कुछ मौला को सौंप चूका हूँ....मेरे लिए अब जो कुछ भी उसकी मर्जी से है.....उसकी मर्जी ही है.....और उसकी मर्जी मे क्या अच्छाई है, या क्या बुराई है.....ये सोचना मेरा काम नहीं...है.....

मैं जानता हूँ....कि तुम भी मुझको लेकर कम परेशान नहीं हो.....लेकिन...परेशान हो कर तो काम नहीं सधता...हाँ कठिन समय मे...शांत रह कर ही तो रास्ता नकालता है ना....बोलो....बोलो तो.

मुहब्बत पे ये दुनिया यकीं कर के देखे  तो,
वहीँ रास्ता निकलता है, जहाँ रास्ता नहीं होता...

सब ठीक हो जायेगा.....ज्योति. तुम तो साथ हो ...ना...

अरे वो देखो हरिराम आ रहा है......उसको जानती हो ना....

हाँ जानती हूँ.....सुमिरन कि चाय कि दूकान पर काम करता है....और तुम्हारा तो अच्छा दोस्त होगा....

हाँ..सो तो है.....चाय तो लोगी ना....ऐसे मौसम मैं इसको भगवान् ने ही भेजा है....

आनंद....आप भी ना.....

अरे....हरिराम.....

अरे आनंद भैया.. आप यहाँ...अरे ज्योति दीदी..नमस्ते...

हरिराम...चाय ला देगा....और कुछ खाने को भी....ये ले बीस रुपए..

अभी लाया..भैया....

ज्योति.....जिन्दगी बहुत खूबसूरत है....अरे अगर मैं तुमको महीने मैं तीस दिन अगर मिठाई खिलाऊं तो खा लोगी.....

नहीं.....

कभी कभी कुछ तीखा , कुछ चटपटा खाने का भी मन करता है....ना. मिठाई का अपना स्वाद है तो मिर्चे का अपना.....दोनों स्वीकार हैं.....जिन्दगी तो है ही..सुख-दुःख का मिश्रण....

इसको जियो.....तुम भी , मैं भी..... तुम साथ हो ना......

आनंद......

कुछ मत कहो ज्योति......कुछ नहीं.

Wednesday, November 23, 2011

सलामती कि दुआ

तुम तो जानती ही हो....की हार न मानने की मेरी फितरत है.... चाहे जो हो जाए....लेकिन एक बात बताऊँ तुमको....कठिन समय ही अपने और गैरों की पहचान करवाता है....जब हम सफल होते हैं, तो हमारे दोस्तों को पता चलता है की हम कौन हैं....और जब हम असफल होतें हैं..तो हमको पता चलता है की हमारे दोस्त कौन हैं.....

मैं हार मानु तो किस से...वक़्त से......????

वक़्त तो हर वक़्त बदलता है.....वक़्त के साथ यही तो खूबी है....की गुजर जाता है...अच्छा हो या बुरा..गुजर जाता है.....

या हार मानु इस दुनिया के लोगों से.......इनकी तो फितरत है....दूसरों की आग पर रोटियां सेंकना...इन्होने किस को बक्शा है....बोलो तो..?

ऐसा क्यों होता है..की जब हम दूसरों पर एक ऊँगली उठाते हैं....तो तीन उंगलियाँ हमारी खुद की तरफ इशारा कर रही हैं..ये क्यों भूल जाते हैं....हम ये क्यों भूल जाते हैं...

लेकिन तुम ने तो किनारा कर ही लिया है...अच्छा किया...... It is better to safe then sorry....मानती हो ना......

जिन्दगी कि यही ख़ूबसूरती है.....कि पहले इम्तिहान लेती है...फिर पाठ सीखाती है.... और मैं भी अपनी जिद का पक्का हूँ....जब तक मंजिल पर नहीं पहुंचता, तब तक रुकुंगा नहीं...

इस तरह तय की हमने मंजिलें...
गिर पड़े, गिर कर उठे, उठ कर चले....

नदी कि धार के साथ तो कोई भी तैर सकता है....मज़ा तो तब है, जब हर तरफ से मुसीबतों का पहाड़ टूट रहा हो...और धार के विपरीत तैरना हो....मैं तैरूँगा....मेरे उपर मेरे मालिक का हाँथ है....मै तैरूँगा.....कितनी खोखली है ये दुनिया और ये दुनिया वाले....

जिस समय किसी को वाकई सहारे कि जरूरत हो..तब उसके आसपास कोई नहीं होता....वो भी  जिनको दावा था....खैर....दुनिया है ये.

लेकिन मेरे मालिक, इनको सदबुद्धि दे.. इनको सीखा कि जो पयाम तुने दिया है..हर कठिन वक़्त सब का इम्तिहान लेता है...कि किसने कितना पाठ,खाली पढ़ा और किसने उसको जीवन में उतार लिया.....

या मेरे मौला....मुझे ताकत दे.....कि इन दुनिया वालों का सामना करते हुए..तुझ तक पहुंचू....और पहुंचूं जरूर.....सब कि सलामती कि दुआ के साथ आज बस इतना ही..... 

Tuesday, November 15, 2011

ये कहानी फिर सही....

सर्दी पाँव पसार रही है....सुबह और शाम एक गुलाबी सी ठंड.....कुछ नींद सी नहीं आ रही है....चलो बालकोनी में ही बैठता हूँ....कितनी जल्दी सड़कों पर सन्नाटा  छा जाता है न...सर्दियों में... अच्छा है....मैं इस सन्नाटे  में अपने आप से मिल लेता हूँ....

आकाशा कितना नीला और साफ़ है...और उसके उपर से चाँद..लगता है दूध से धुला हुआ....हल्की सी हवा भी चल रही है.....जरा पैरों पर शाल डाल लूँ....अच्छा लग रहा है....कहीं बुला रहा है मुझको कोई....मन मे विचारों की आपाधापी मची हुई है......क्या करूँ....कैसे समझाऊं इनको...कि

ऐसा तो कम ही होता है...वो भी हों तन्हाई भी....

आज आसमान को देख कर कितना सुख मिल रहा है.....जैसे दिन भर के झंझावातों को झेलनी के बाद ...कितना सुकून महसूस कर रहा हो......कितना सुकून..........महसूस करने दो.....मेरे विचार भी धीरे धीरे शांत हो रहें हैं.....जैसे किसी तूफ़ान के बाद सागर... डर लगने लगा है...अब शान्ति से....आदत है तूफानों से दो-चार होने कि....

बहुत कुछ बिखरा हुआ है..समटने दो...हाँ वक़्त तो लगेगा ही.... क्या करूँ....बाहर  का बिखराव हो समेट  कर किनारे कर दूँ....लेकिन ये तो अंदर का बिखराव है...अब तो ये भी भूल गया हूँ..कि कौन सी चीज़ कहाँ राखी थी.....क्या करूँ.....  बोलो  तो.....अरे ...तुम तो अब बोलोगे भी नहीं.....हाँ देखो ...मुझसे मत बोलना....श....श....श.................

इतना सन्नाटा है...अपनी सांस की आवाज़ भी सुनाई पड़ रही है..... क्या तुम किनारा कर लोगे....

कर लोगे....? अरे मैं तो अकेला ही रह गया हूँ.....

मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा....
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए....

ला माँ....एक कप चाय दे दे....क्या १२:३० बज गए.....माँ....वक़्त ने चलना छोड़ दिया है....और लोगों के साथ उसने भी दौड़ना सीख लिया.....पता नहीं.....किसी को कुछ भी पसंद नहीं आएगा...लेकिन में क्या करूँ.......

एक रस्मे बेवफाई थी, वो भी हुई तमाम,
वो बेवफा दोस्त हमे बेहद अज़ीज़ था.....

सोना बनने की ख्वाहिश...और आग से तपने में डर..... ऐसा थोड़ी होता है....ये कहानी फिर सही....

Tuesday, November 1, 2011

जिन्दगी...मेरे घर आना.....

जिन्दगी...मेरे घर आना.....

बाबा...खुशियाँ  हमसे क्यों रूठ गयीं हैं......? खाना खाते राबिया का भोला सा सवाल.

किसने के कहा ...बेटी.....

कई दिन हो गए .....आप हँसे नहीं हो.....इस लिए पूंछ लिया.

ऐसा न है बेटी......कुछ तबियत ठीक नहीं रह रही है.....तू तो देख ही रही न सब.... 

हाँ बाबा..... देख रही हूँ.....

न तुम्हारे खाने का ठीक...न पीने का......न वक़्त पर सोते हो.....बाबा कुछ परेशान हो....

अब उस दस साल कि राबिया को क्या जवाब दूँ.....क्या उसको बोलूं...कि जिस पे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे.......बागबाँ ने आग दी जब आशियाने को मेरे...

या उसको बोलूं.....कभी कभी यूँ भी हमने, अपने दिल को बहलाया है.. जिन बातों को खुद नहीं समझे, ओरों को समझाया है....

अरी राबिया....

हाँ अब्बा ....

बिटिया...जरा लालटेन में तेल दाल दे...और खिड़की बंद कर दे....लगता है सारी बारिश आज ही होवेगी....तू ने स्कूल का काम तो कर लिया है....न लाडो....

हां अब्बा...वो तो मैने शाम को ही कर लिया था...

तू बड़ी समझदार होगई है.....

और क्या पढ़ाया आज स्कूल में....तेरी मास्टरनी जी ने....

अब्बा....आज किसी फ़कीर और तपस्वनी कि कहानी सुनाई..थी.

अच्छा......बिटिया....फ़कीर तो में जानूं ..लेकिन ये तपस्वनी कौन होवे है...?

बाबा....जैसे हमारे महजब में फ़कीर होते हैं, ना , वैसे ही हिन्दू लोगों में जो औरतें पूजा पाठ कर ने कि लिए घर छोड़ देतीं हैं....उनको तपस्वनी कहते हैं...

अच्छा........

तो क्या कहानी सुनाई...मास्टरनी जी ने...

बाबा......तपस्वनी ने एक फ़कीर के लिए सब छोड़ दिया....और जब फ़कीर को उसकी सख्त जरूरत आन पड़ी....न अब्बा....तो तपस्वनी.....चली गयी.......

कहाँ चली गयी......

पता नहीं अब्बा.....

मैं क्या बताऊँ.....कौन कहाँ चला गया.........जिन्दगी बहुत खूबसूरत है....अगर इसको इसके उंच-नीच के साथ ले लो. लेकिन......कुछ तो मजबूरियाँ रही होगी, यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता ..... अरी राबिया....

हाँ अब्बा.....

चाय पीयेगी....

अब्बा......अभी थोड़ी देर पहले तो तुम ने चाय पी है.....कुछ खा लो...ये लो....दो रोटी खा लो....

बड़ा ख्याल रखे है..... तू मेरा....


Thursday, October 20, 2011

नीड़ का निर्माण....5

आनंद.....तुम ने निदा फाजली की वो ग़ज़ल सुनी होगी....

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी.

हाँ ज्योति....ये जिन्दगी का सच भी है....

तुमको नहीं लगता की हम दोनों एक ही कश्ती में हैं...आनंद

हाँ...तभी तो साथ साथ हैं.....मैं जानता हूँ...और समझता भी हूँ ज्योति...जो तुम्हारे दिल-ओ-दिमाग में चलता है और चल रहा है.....लेकिन हर रिश्ते को कोई नाम देना तो जरुरी नहीं हैं ना...खासकर जहाँ पर दिल के रिश्ते हों..वहां कोई बंधन स्वीकार नहीं होता......चाहे बंधन एक नाम का ही क्यों ना हो.....मैने रिश्तों को टूटते हुए देखा है, मैंने रिश्तों में दरार पड़ते देखा है.....लेकिन दिलो के रिश्ते...जिस्म का बंधन टूटने के बाद भी नहीं टूटते....ज्योति.....दिल के रिश्ते देश और काल से परे होते हैं.....सुनने में दार्शनिक लगता है, philosphy लगती है..लेकिन सच भी यही है...कोई भी रिश्ता तभी ज़िंदा रहता है जब उसके बीच सांस लेने की जगह हो....नहीं तो दम घुटने लगता है....

ठीक कह रहे हो आनंद...नहीं तो दम घुटने लगता है....

हाँ ज्योति...अब इस पैमाने पर मेरे और अपने रिश्ते को नापो...

Where words fail, action speaks. Where action fails, eyes speak. Where eyes fail, tears speak. And where everything fails, LOVE SPEAKS.

ज्योति....जिन्दगी बहुत खूबसूरत है....इसकी सबसे बड़ी ख़ूबसूरती जानती हो क्या है....

क्या है.....

रोज़ नए रंग दिखाती है.....नयापन बना रहता है, ताजगी बनी रहती है....कभी उपर की तरफ चलती है तो कभी नीचे...कभी इतना उपर ले जाती है की डर लगने लगता है...तो कभी इतने नीचे ले जाती है की डर लगने लगता है....कभी निराशा का बदल छा जाता है तो वहीँ पर आशा की किरण भी चमकती है....

मैं आनंद को देख रही थी....जिसको आम लोग...जोकर, बेवक़ूफ़ या पागल कह कर किनारा कर लेते हैं....वो आज एक दार्शनिक बन गया और कितने आराम से जिन्दगी को जी गया...जख्म सह गया...अपमान पी गया ..... इनको प्रेम ना करूँ तो क्या करूँ.....प्रेम सिर्फ प्रेम...लेकिन इनसे भी बच कर रहना पड़ेगा....वो अपना समाज है ना....

कहाँ करने देगा नीड़ का निर्माण फिर....???????

Wednesday, October 19, 2011

नीड़ का निर्माण फिर...4

कितना अन्धेरा हो गया है......ज्योति तुम घर जाओ.....क्या वक़्त हुआ होगा.....

साढ़े छह....बजे हैं.... ज्योति का जवाब.

अरे साढ़े छह बजे इतना अन्धेरा होता है कहीं......

आनंद....अक्तूबर खत्म होने को है.....जाड़ा धीरे धीरे पाँव पसार रहा है....दिन छोटे होते जा रहे हैं.....

हाँ....ज्योति दिन छोटे होते जा रहे हैं और कम भी.......

ऐसा मत कहो ...आनंद....

नहीं ज्योति....मैं कोई negative रूप में नहीं ..बल्कि हकीकत बयान कर रहा हूँ.

बहुत बदल गए हैं आनंद...आंखें अनंत में न जाने क्या ढूंढती रहतीं हैं....अपने अंदर से बाहर निकलते ही नहीं हैं......आंखें सूख गयी हैं...हंसी गायब.....या ..इन सब से बहुत आगे निकल गए हैं आनंद....

चलो ज्योति घर चलो...कुछ ठण्ड सी लग रही है....

बुखार तो नहीं है....आनंद ...? ज्योति का चिंतित स्वर.

हो भी सकता है.......पीठ मे दर्द है. . लगता है मौसम की करवट..अपना असर दिखा रही है....

आनंद ....... तुम अपना ध्यान नहीं रख सकते..?

ज्योति...जब जीवन सिर्फ जिम्मेदारियों से भरा हो.....तो कहाँ वक़्त मिलता है...अपना ध्यान रखने का...बोलो...बोलो तो...... कभी कभी मन करता है.......

क्या मन करता है...आनंद बोलो...

वो देखो मालिन माँ आ रही हैं......

मुझे आनंद की ये बच निकलने की अदा बड़ी पसंद है....

अरे ज्योति बिटिया......कैसी है.....? मालिन माँ का प्यार भरा सवाल.

आप कैसी हो......

मैं तो ठीक हूँ......अब तो ये साधू आ गया है...अब ठीक हूँ.

मालिन माँ......

बैठ....चाय चाहिए....बनाती हूँ.....

मालिन माँ.....ज्योति ने बुलाया..

क्या है बिटिया.....?

ये साधू कौन है.....

साधू...ये है..ना.

आप चाय बना लो...

आनंद...तो मेरा अनुमान गलत नहीं है...

कौन सा अनुमान.......

यही की तुम बदल गए हो.....

नहीं ज्योति...मैं बदला नहीं...हूँ.....दुनिया के रीति-रिवाज सीखने की कोशिश कर रहा हूँ...

क्यों.....तुम जैसे हो..भले हो....जैसे हो....जो हो..वही रहो......why you want to dump your life..for hollow customs, for useless customs....just be who you are....


हाँ.....तुम ठीक कह रही हो.....

ले बेटा चाय...और ये गरम गरम मठरी.....

वाह.....तो तुम ने ठण्ड की शुरुआत कर दी...मालिन माँ.

ओह...ये गोरइया इतना शोर क्यों मचा रही हैं.....

शाम को घर लौट के आईं हैं... किसी कौव्वे ने इस का घोसला गिरा दिया है.......

ओह...नीड़ का निर्माण फिर...

Monday, October 17, 2011

नीड़ का निर्माण फिर...३

देखा ज्योति तुमने ..जिन्दगी कितनी रोचक होती है.....हम किसी बड़ी ख़ुशी की तलाश में अपने नजदीक बिखरी हुई अनगिनत छोटी छोटी खुशियों को नज़रअंदाज करते जातें हैं....और अपने अंदर कुंठा और तनाव को जन्म देते जाते है....

आनंद......ऐसा भी तो होता है की हमारे पास सुब कुछ होता है....लेकिन फिर भी एक खालीपन अंदर रहता है.....

हाँ बिलकुल होता है.....अगर ये खालीपन न हो तो महबूब को कौन याद करे...भक्त में याचना न होती तो , भक्त भगवान् बन गया होता....

तुमको किसी बात का अपराध बोध नहीं होता.....आनंद?

होता है....बिलकुल होता है...जब मैं किसी को जानबूझ कर, सोच समझ कर कोई नुक्सान करता हूँ....तब मै सो नहीं पाता हूँ......

ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें.
वो हो गुनाह से पहेली, या गुनाह के बाद.    

आनंद...... तुम्हारे अंदर जो दर्द या गुस्सा भरा है अगर वो न निकला तो.....वो तुम्हारी अपनी सेहत पर भी तो असर डालता है.....?

कोई नीलकंठ यूँ ही नहीं कहलाता...ज्योति...

आनंद ....मैं क्या करूँ आप का...

एक कप बढ़िया सी चाय पिला दो......और अगर इज़ाज़त दो तो मै एक चुरुट पी लूँ...अब पी ही लेता हूँ....जानता हूँ तुम मना तो नहीं करोगी तो हाँ भी नहीं कहोगी .....मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया....हर फ़िक्र को धुएं  में उड़ाता चला गया..... 

आज कई दिनों बाद आनन्द को इतना गंभीर देखा... पता नहीं किस मिटटी से भगवान् ने बनाया इनको... अपमान, गुस्सा सब को पी कर भी कितना  शांत, सयंमित....किसी चीज़ की तलाश है..इनको..लेकिन मुंह से कभी निकलेगा नहीं.... आंखे बोलती हैं..लेकिन...आज के ज़माने में आंखे पढता कौन है, ये कला अब कहाँ रही....लोगों को शरीर पढने से फुर्सत नहीं है....

लो आनंद चाय......

हाँ...दो.......बैठो. ...... ज्योति..और बताओ स्कूल कैसा चल रहा है...?

ठीक है......तुम वापस आओगे?

हाँ....ज्योति......आउंगा.....लेकिन थोडा वक़्त और लूंगा....

क्यों.....

अभी समेटने की प्रक्रिया से गुजर रहाहूँ...

इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं, 
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं... ............यही तो जिन्दगी है.....कल तक मैं दूसरों को जिन्दगी जीने की हिम्मत देता था....आज जब वक़्त ने करवट ली...तब ये महसूस करने का, नाप-तौल करने का...की जो उपदेश दूसरों को देते थे...अब उनको जीने का वक़्त है...अपने आप को नापने का वक़्त है...इंशा जी उठो अब कूच करो.... 

आनन्द...

Thursday, October 13, 2011

नीड़ का निर्माण फिर.....२

माँ.....आनंद आयें हैं.....ज्योति की आवाज़.

नमस्ते चाची......कैसी हो?

मैं तो ठीक हूँ बेटा....लेकिन तू....ये क्या हाल बना लिया है....? कहाँ था......बैठ....

सब ठीक है चाची....रही हाल की बात...तो कुछ दिन के लिए "उस से मन हटा कर दुनिया से लगा बैठा था, बाकी सब ठीक है.."

तेरी बात को समझना मेरे बस का नहीं है...तू बैठ..मैं चाय बनाती हूँ.

कैसे हो आनंद.....पास में कुर्सी  खींच कर ज्योति बैठ गयी.

बढ़िया हूँ...ज्योति.......वाकई में बढ़िया हूँ....वो कहते हैं ना की ईश्वर जिसको चाहता है....उसको "इल्लत, किल्लत और जिल्लत" थोक में देता है....और अब मुझे यकीन हो गया है..कि वो मुझे चाहता है....किसी से कोई शिकायत नहीं, कोई शिकवा नहीं...देह धरे को दंड है सब कहू को होय...

जानती हूँ, आनंद......

जानती हो ना ज्योति....अंग्रेजी मे एक कहावत है...Time is the biggest healar and death is the great leveller....तो सोचना क्या...और सोचना क्यों....

तुम्हारी जिन्दगी के फलसफे इतने सीधे और इतने आसान हैं...आनंद.....

मेरे पास सब कुछ है....हाँ..सब वो कुछ. लेकिन फिर भी एक खालीपन, एक रीतापन....कुछ तो है जो मेरे पास नहीं है, उसके ना होने का एहसास....पता नहीं.... 

ज्योति...पिछले ६ महीनो ने मुझे सोना बनने का मौका दिया है....हाँ...सोना बनने का....जो तभी खरा होता है...जब आग में जलता है....अब कोई लगाव नहीं...सिर्फ ड्यूटी, ड्यूटी और फिर ड्यूटी...यही है..जिन्दगी. 

हमने जाकर देख लिया है, राहगुजर के आगे भी, 
राहगुजर ही राहगुजर है, राहगुजर के आगे भी......

आनंद एक बात बोलूं.....

बोलो...

तुम कहना कुछ और चाहते हो..कह कुछ और रहे हो....क्या ऐसा तो नहीं..है.

पता नहीं....

तुम इतने चुप रहने वालों में से तो नहीं हो....जहाँ तक मै जानती हूँ...

हमको किस के गम ने मारा,
ये कहानी फिर सही.
किस ने तोडा दिल हमारा,
ये कहानी फिर सही............ज्योति.

ले बेटा....चाय ले...और ये हरी मटर का पोहा....

वाह चाची...इसकी सख्त जरूरत थी....काका कहाँ हैं...दिखाई नहीं पड़ रहे...

रामदीन .....का भतीजा गुजर गया....गए...वीरवार को....

अरे...कौन....सुनील......?

हाँ.....

हे राम....काका तो ठीक हैं....?

ठीक ही है बेटा......शाम को आ जायेगा....

और ज्योति ......स्कूल कैसा चल रहा है....

ठीक चल रहा है......आप का क्या प्रोग्राम है....

मेरा प्रोग्राम......? किस बारे में.....

स्कूल ज्वाइन करने के बारे में......

मैं तो इस्तीफ़ा काफी समय पहले दे चुका हूँ.....ज्योति. ..

कहाँ जा रही हो...?

आती हूँ.....

ज्योति लौटी तो हाँथ मे एक लिफाफा था....ये लो आनंद.

ये क्या है......अरे ये तो मेरा इस्तीफ़ा है....?.......

हाँ.....accept नहीं हुआ....

मतलब.....?

मतलब ये...कि इस्तीफ़ा accept नहीं हुआ.....

ये सब क्या है........ज्योति... 

आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया,
मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया.
पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर,
क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया

क्रमश: ....... 

Tuesday, October 11, 2011

नीड़ का निर्माण फिर....

कभी किसी किताब का शीर्षक , किसी की जिन्दगी पर कितना सही बैठता है..देखा तुमने....ज्योति...हाँ ये शीर्षक है हरवंशराय बच्चन की आत्मकथा का....लेकिन देखो कितना सही बैठा है मेरे उपर.....नीड़ का निर्माण फिर....कहाँ से चला....और कहाँ पहुंचा...ओह...सीने पर हाँथ मत रखो...अंदर कुछ चुभ रहा है.....दर्द भी है.....लेकिन किस से कहूँ.....क्या विडंबना है न ज्योति....हम सब हर वक़्त लोगों से घिरे रहते हैं...लेकिन फिर भी अकेले रहते हैं....बिलकुल अकेले.  

मुस्कराने की आदत भी अच्छी आदत है..बहुत कुछ छुपा लेती है, बहुत सी बातों पर पर्दा डाल देती है....तुम सुन रही हो न ज्योति.....

हाँ आनंद सुन रही हूँ..यही पर हूँ....चुप मत हो..और बोलो.....बोलो न. 

क्या बोलूं...

घर से निकले थे हम मस्जिद की तरफ जाने को, 
रिंद बहका के हमे ले गए मैखाने को. 

ज्योति..ये जो तुम्हारा उपर वाला है न... इतना आजमाता है क्यों है अपने चाहने वालों को....

क्यों आनंद ...क्या किया उसने.....?

अरे उसने कुछ नहीं किया.... जो कुछ मेरे नसीब मै लिखना था...लिख दिया. ज्योति..जो बाते हम बातों बातों मे दूसरों को बताते हैं...उनको अपने उपर आजमाने का वक़्त आया है....वो भी देखना चाहता है....  की कितना लोहा है हमारे अंदर......तिनके तिनके इकअठे कर रहा हूँ...

नीड़ का निर्माण फिर.... 



Sunday, March 27, 2011

मीर जाफर.....का नाम तो सुना होगा.....

४५ का हो चला हूँ....गोधूली का वक़्त है.....सूरज अस्त होने के ओर चल  दिया..... लेकिन वक़्त ने अभी तक अपना मजाक करने का लहजा नहीं छोड़ा......ज्योति तुम सुन रही हो, ना.....

ऐ अंधरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखे खोल दी, घर में उजाला हो गया.

सोचा था इस बार बच्चों को ये सिखाउंगा.....लेकिन इस बार पासा उलटा पड़ गया ओर काफी कुछ सीख कर मैं वापस आ गया हूँ.....हाँ...काफी कुछ. इस बार मेरे अपनों ने.....मेरे अपनों...का मतलब तो तुम जानती ही होगी.....मेरे बड़ा कड़ा इम्तिहान लिया.... ओर मैं फेल कर दिया गया.......जरुरी हिदायतों के साथ मुझे वापस भेज दिया.....मेरे अपनों ने....एक नया अपना भी शामिल हुआ....इस बार.

अब दोस्त कोई लाओ मुकाबिल भी हमारे,

दुश्मन तो कोई कद के बराबर नहीं निकला.

तो मेरे अपने ही खड़े हो गए......बोलो..मैं क्या करता.....अगर ये जांघ दिखाऊं तो भी मेरी बदनामी ओर अगर वो जांघ दिखाऊं तो भी मेरी बदनामी.......मुझे हरा दिया......अपनों ने ही....

गिरहें पड़ी हैं किस तरह, ये बात है कुछ इस तरह,

वो डोर टूटी पा रहा, हर बार हमने जोड़ दी,
वो चाहता है सब कहें सरकार तो बे-ऐब है
जो देख पाए ऐब वो, हर आँख उसने फोड़ दी.

मीर जाफर.....का नाम तो सुना होगा.....मेरी गलती इतनी है...की मैंने आवाज़ उठा दी.

Thursday, February 24, 2011

हालात......2

ज्योति दीदी....आप को प्रिंसिपल  साहब ने बुलाया है.....काका ने स्टाफ रूम में आकर मुझे सूचना दी.

आप की जानकारी के लिए बता दूँ...की स्कूल की स्थापना के समय से ही काका यहाँ पर हैं..इसलिए सब लोग आदर से उन्हें काका कहते हैं.....उनका नाम संपत राम है. 

आती हूँ काका......मैं प्रिंसिपल के कमरे की तरफ चल दी.....

अंदर  आ सकती हूँ ....सर? 

कौन....ज्योति...आओ बेटी. ...बैठो.....सब ठीक है....?

हाँ सर...सब ठीक है. आप ने बुलवाया था....? 

हाँ....तुमने कुछ सुना....? 

किस बारे में,  सर...... ?

आनंद के बारे में....

हाँ सर...सुना है की उन्होंने इस्तीफा दे दिया है......प्रिंसिपल साहब ने एक कागज निकाल कर सामने रख दिया......

ये है.......२ पंक्तियों का इस्तीफ़ा........तुम्हारी उस से कोई बात हुई...? 

नहीं सर.....२ दिन पहले घर आये थे....लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं हुई.....

तो मैं इसको स्वीकार कर लूँ...... प्रिंसिपल साहब ने मुझसे पूंछा.

अब मैं क्या जवाब दूँ........मैं प्रिंसिपल साहब का चेहरा देखती रही......

मैं जानता हूँ बेटी और समझता हूँ ...तेरे और आनंद के रिश्ते को, उसकी गहराई को, उसकी पवित्रता को..इसीलिए तुझे यहाँ बुलाया है.  तेरी क्या राय है....?  

सर..इसको अभी कुछ दिन hold  करिए.....जहाँ तक मैं आनंद को जानती हूँ...उनको कुछ दिन का टाइम दे दीजिये...और कुछ दिन का एकांत....वो वापस आयेंगे. 

वो है कहाँ.....? तीन दिन से कुछ अता-पता  ही नहीं है....संपत को उसके घर भेजा तो घर पे मिला ही नहीं...क्या बाहर गया है...?

बाहर तो नहीं गएँ हैं......लेकिन मैं आज बात करुँगी.

देख ले बेटी......ले ये इस्तीफ़ा तू रख ले, अगर वो माँ जाए तो फाड़ देना...नहीं तो देखेंगे क्या करना है.

ठीक है...सर. ...मैं कमरे से बाहर निकली....तो सोचने लगी कि आश्वासन तो दे दिया है...लेकिन कहाँ खोजू उस आवारा मसीहा को....? बिना बताये गायब हो जाना तो उनके चरित्र की विशेषता है..... चलो शायद मालिन माँ को पता हो.....स्कूल के बाद मैं आनंद के घर की तरफ चल दी.....सब्जीमंडी में ही मालिन माँ मिल गयीं......

अरी...ज्योति बिटिया...तू यहाँ.....? घर जा रही थी क्या...?

हाँ माँ.....आनंद कहाँ हैं....?

आनंद...........घर पर है.....क्यों क्या हुआ है....

कुछ नहीं माँ....ज़रा मिलना है.

मुझ बुढिया से छिपा रही है बेटी....आनंद को मैंने कभी इस हाल में नहीं देखा जैसा पिछले चार दिन से है.....किसी से भी मिलने को मना कर रखा है...संपत २ बार आया, दोनों बार मना करवा दिया.  

क्या हुआ माँ...वो ठीक तो हैं....मुझे  अंदेशा था की मेरे एक हफ्ते की दूरी ने उनकी क्या  हालत कर दी होगी....लेकिन ये दूरी, दूरी नहीं थी......हालात  थे....मैं समझा लूंगी उनको.  

चल घर चल...मेरा काम हो गया है...घर ही जा रही हूँ.

घर के बाहर बाग़ की दशा देख कर घर के अंदर रहने वाले की दशा का अंदाज हो गया मुझे.

आनंद .......ज्योति आई है.....मालिन माँ का सूचित करने वाला स्वर.

आओ...ज्योति.....एक मलिन सी आवाज़.

अंदर जिस व्यक्ति को देखा उसका नाम उसकी दशा के बिलकुल विपरीत.

ये क्या आनंद....क्या हाल है ये......कब से इस हाल में हो....कहलवा नहीं सकते थे....या मालिन माँ को भी मना कर दिया था की ज्योति को कुछ न बताये....

बैठोगी या खड़े खड़े ही भाषण दोगी....? आनंद का घुटा हुआ सा स्वर.

मैं अभी आती हूँ....मालिन माँ ......मैं अभी आ रही हूँ...ज़रा दो कप चाय बना दो....

अच्छा बिटिया....मालिन माँ का जवाब....वो सोचने लगीं...की इसको क्या हो गया ...आंधी की तरह आई तूफ़ान की तरह चली गयी.....

१० मिनट बाद ज्योति डॉक्टर को ले कर फिर आई....

ह्म्म्म...इनको तो काफी तेज बुखार है....कोई दवा ली.....?

नहीं ली होगी.....ज्योति का विश्वास से भरा हुआ जवाब डॉक्टर को.

साहब को १०३ बुखार है...और कोई दवा नहीं....डॉक्टर ने आग में हवा डालते हुए कहा.
                                                                                                                                            क्रमश:






   

Tuesday, February 22, 2011

ईदगाह-2

गुस्ताखियाँ करना मेरा स्वभाव रहा है.....बचपन से गुस्ताखियाँ करता चला आ रहा हूँ...और बड़े बुजुर्ग माफ़ी भी फरमाते आ रहे हैं, की किसी दिन तो साहबजादे को समझ आएगी....आज एक बड़ी गुस्ताखी करने की जुर्र्त कर रहा हूँ.......इसीलिए से पहले से माफ़ी नामा पेश कर रहा हूँ......

हम सभी ने उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "ईदगाह" जरुर पढ़ी होगी....मेरे मन में अचानक ये ख्याल पैदा हुआ....की हामिद मियां तो अब बड़े हो चले होंगे....अब अगर वो होते तो इस कहानी में आगे क्या होता......बस इसी ख्याल ने आग को हवा दे दी और मैं "ईदगाह-2" लिखने का मन बना बैठा..............इसको लिखने में अगर मुझसे कोई गुस्ताखी हो जाए.....तो मुझे माफ़ फरमा दें.


वक़्त चलता रहा...अमीना बी के लिए वो चिमटा एक बेशकीमती चीज़ हो गयी....और होती भी क्यों न.....उमर किस के रोके रुकी है भला.....हामिद मियाँ दिन-बी-दिन बड़े होते गए....वो चार -पांच साल का गरीब से दिखने वाला लड़का......जवान हो गया....और हालत ने जिस बच्चे को चार-पांच साल में ही बड़ा और जिम्मेदार बना  दिया  हो.....वो सोलह-सत्रह साल में क्या बनके निखरेगा....सोना...और क्या.

अमीना बी....दो घरों में काम कर के हामिद की स्कूल फीस के पैसे देने लगी और हामिद मियाँ.....पांच-छे- सातवीं पढ़ते हुए बारहवीं कर गए.....आज गाँव में सब से ज्यादा पढ़े हुए लोगों में शुमार होता है...मियाँ का....... दसवीं पास करने के बाद तो हामिद ने दादी का काम करना भी छुड़वा दिया.....दिन में वो स्कूल जाता....और शाम को पुराने अखबारों से बनाये लिफाफों को दुकानदारों को बेचने.....गुजर लायक पैसे हामिद दसवीं से ही कमाने लगा....और खुश....खुशमिजाजी तो अल्लाहताला ने उसके दिल में भर दी थी.....जिस से भी मिलना दुआ-सलाम करना, मिजाजपुर्सी करना, बड़ों का अदब करना, मीठा बोलना....जी कुछ ही दिनों में गाँव का हर दुकानदार   इंतज़ार करता मिलता कि हामिद आये तो लिफ़ाफ़े खरीदें...और अगर किसी दिन हामिद न आ पाए....तो घर से जा कर नकदी दे कर लिफ़ाफ़े ले आते....और अगर नकदी न भी हो.....तो हामिद ने कभी किसी को "न" नहीं बोला....उसको अपने पिछले दिन याद थे.

ईद फिर आई.....इस बार दादी , मानो बच्ची बन गयी हो.....नया सलवार-कुर्ता और उपर से जर्री का दुपट्टा....दादी की उम्र 75  की होगी.....लेकिन बदन में जैसे पंख लग गए हों....शामियाने वाले को भी नहीं बक्शा दादी ने...अरे मर्दुआ, जरा कुर्सी तो सलीके से लगा दे...और देख पानी में बर्फ डाल दे...अरी.....सलमा....देख जरा शरबत में ख़स डाल दे......और सुन...सिवैयों में मेवा डाल दीजियो.....अरी सुन.....वो लड्डू पर जरा कपड़ा डाल दे... 

मैं देख लूँगी दादी....आप बैठ जाओ.....सलमा ने अमीना बी का हाँथ पकड कर कहा. 

अरी....सुन हामिद कहाँ है...? 

मैं यहीं हूँ...दादी......

हामिद समझ रहा था की आज दादी के पर जग गए हैं......और लगे भी क्यों न.....सालहों -साल बाद तो वो दिन आया जिसका ख्वाब दादी ने कभी देखा भी न था.....आज हामिद मियाँ की दूकान का फीता जो कटना था......चौधरी साहब के बगल की कुर्सी पर अमीना बी बैठेंगी .....ईद की नमाज के बाद चौधरी साहब को आना है....नमाज अदा हुई....पूरा गाँव हामिद मियाँ के जलसे में शिरकत फरमाने  आ पहुंचा.....फीता कटा....ईद हुई.  नूर, सलमा, सिम्मी, मोहसिन....सब तो थे....

अब दादी की उंगलियाँ चूल्हे से रोटी उतारने में  नहीं जलती.....दादी सब से अमीर हो गयीं....उनके पास हामिद जैसा पोता जो है......

जो भी दौलत थी वो हामिद के हवाले कर दी,
जब तलक मैं न बैठूं , वो खड़ा रहता है.


हामिद को आज भी वो दिन नहीं भुला जब दादी ने कितने महीन से बचाए हुए पांच पैसे उसको दिए.....जा ईद के मेले में घूम आ......तीन  पैसे के उस चिमटे ने...और उस से भी ज्यादा सारे खिलोनों से लड़ते हुए वो चार साल का बच्चा अपनी दादी की उँगलियों को आग से बचाने के लिए चिमटा लाया...तो दादी की आँखों से गिरे हुए वो चंद आंसू  के कतरे
आज दुआ बन कर बरस रहे हैं.....और वो चिमटा दादी आज भी कुरआन शरीफ की तरह सहेजती हैं.....सच में...अल्लाह कसम......  

Monday, February 21, 2011

वक़्त.....तुम सुन रहे हो न

वक़्त को रुका हुआ कभी नहीं देखा मैंने....क्या तुमने देखा है...? ओरों के लिए वक़्त की क्या परिभाषा है...मैं नहीं जानता...और नहीं मुझे कोई रूचि है......लेकिन मेरे लिए वक़्त रुका हुआ है.....तारीखों पर तारीखें बदलती जा रही हैं.....लेकिन मेरा वक़्त नहीं, इस वक़्त मेरा वक़्त मेरे साथ नहीं है....कुछ रूठा हुआ है.....कुछ नाराज़ है......मेरा वक़्त खराब है.

बोलो न.....अब चुप क्यों हो....? कोयल गाती हुई ही अच्छी लगती है, फूल इठलाते हुए ही अच्छे लगते हैं.....मांग सजी हुई ही अच्छी लगती है.....तुम चहचहाती  हुई ही अच्छी लगती हो.....अब मान भी जाओ....और हँस के दिखा दो....एक बार.....सिर्फ एक बार...... अच्छा बाबा....मेरे सामने न सही...तो अकेले में ही सही....लेकिन हंसो न......तुम्हारी हंसी भी जिन्दगी देती है मुझको को......

वक़्त.....तुम सुन रहे हो न....तुम को तो कोई नहीं रोक पाया..लेकिन तुमने मुझे रोक दिया....कहाँ - कहाँ तुमने मुझे रोका है...तुम से अच्छा कौन जानता है....पानी बहता हुआ और वक़्त चलता हुआ ही अच्छा लगता है.....ये कुदरत का नियम है. ......मैं दरिया हूँ पर तुम वक़्त हो...दरिया का बहाव भी वक़्त के साथ बदल जाता है......वक़्त तुम बहुत बलवान हो......मुझसे नाराज़ हो..?

तुम्हारे  बिना.....मैं...????? तुमने कागज के गुलाब तो देखे होंगे......खूबसूरत होते हैं...लेकिन खुशबू  नहीं होती....देखो मेरे और इम्तिहान न लो......पास नहीं हुआ इम्तिहान में तो फेल हो जाऊँगा.....

तुम समझ रही हो न....वक़्त.....चलो.....मेरे वक़्त मेरे साथ चलो, मुझे ले कर चलो. मैं जब -जब वक़्त के साथ नहीं चला....गिर पड़ा.....

वक़्त टिक - टिक करो.....करो न...........देखो अब मान भी जाओ.   

Sunday, February 20, 2011

हालात .......

हेल्लो......क्या मैं अंदर आ सकता हूँ......

कौन....ओह....आनंद.....आइये......कैसे आना हुआ....?

कुछ काम नहीं था....इधर से गुजर रहा था, सोचा सलाम करता चलूँ....हांलांकि  मौसम अब बदल रहा है....

बैठिये...चाय लेंगे...? 

नहीं......तक्कल्लुफ़ न करिए. 

और बताइए.....आराम से हैं...आप..? 

हाँ...सब ठीक है......सब कुशल है.....आप बताइए....

सब ठीक है.......

दोनों चुप......दोनों के पास बाते बहुत हैं...लेकिन  दोनों चुप.... 

ये किताब नयी ली है ...आप ने.....

हाँ......अच्छी है.

कभी केशव प्रसाद मिश्र की कोहबर की शर्त पढियेगा..... माफ़ करियेगा बिना पूंछे सलाह दे रहा हूँ. आप को पढने का शौक है इसलिए बोल बैठा.

नहीं नहीं कोई बात नहीं.....अरे लाइट चली गयी.....मैं जरा लालटेन जला दूँ.....

जी.....

फिर चुप्पी......शाम हलके हलके रात के दामन में समाती जा रही थी....लेकिन यहाँ पर दो लोग चुप्पी  के सहारे बात कर रहे थे.....आज पहली बार उसने मुझसे पूंछा की चाय पियोगे....जो ये जानती है की चाय तो मेरी संजीवनी बूटी है......लेकिन आज ओपचारिकता निभाने का वक़्त है....जो दिल कभी एक साथ धड़के हों...उनको अलग होने में थोडा वक़्त तो लगता है, थोड़ी तकलीफ भी होती है..थोडा खून भी बहता है...वो खून लाल रंग का नही होता, वो अरमानों का खून होता है, वो सपनों का खून  होता है,  वो उम्मीदों का खून होता है.....और इन सब का रंग लाल नहीं होता......

आप की तबियत कैसी है.....५ मिनट के अंतराल पर एक सवाल .

ठीक है......२ सेकंड में जवाब. 

आप आज कल स्कूल नहीं आ रहे हैं.....? दूसरा ओपचारिक सवाल. 

मैंने इस्तीफ़ा दे दिया है......तुरंत  जवाब.  

उसकी आँखों ने पूंछा क्यों?

लेकिन मैं होंठो के हिलने का इंतज़ार करता रहा.....की सवाल आये.

लेकिन कोई सवाल नहीं.......

अच्छा अब चलता हूँ......तुम्हारा  का काफी समय ले लिया मैंने....

नहीं ....ऐसा कुछ नहीं है.

 थोड़ी ठंड है...कुछ गर्म पहन लीजियेगा...तुमको को ठंड जल्दी असर करती है.  अच्छा नमस्कार........ कहा सुना माफ़ करियेगा.


ये आनंद और ज्योति के बीच का संवाद है....

Saturday, February 19, 2011

खाली फ्रेम.....

ये खाली फ्रेम देख रही हो ...... ज्योति...... इसमें  कई सालों से एक तस्वीर हुआ करती थी...मैं नाम उजागर नहीं कर रहा हूँ.....क्योंकि किसी अपने के चेहरे पर रुसवाई के बादल मुझे नामंजूर है....जिस चेहरे पर रुसवाई के बादल होंगे...वो चेहरा भी किसी मेरे अपने का ही होगा.....

कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी.....
यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.....

अच्छा ...ज्योति एक बात बताओ क्या फ्रेम में से तस्वीर निकाल लेने से....इंसान भुला दिया  जा सकता है.....? मुझे तो यूँ लगता है की...खाली फ्रेम उस  इंसान की याद और दिलाता है.....जिस की तस्वीर उस फ्रेम में थी......अगर शिव के मंदिर से शिव की मूरत हटा दी जाए...तो क्या शिव मंदिर नहीं रहेगा....? खैर....हर इंसान की अपनी-अपनी सोच होती है.....मैंने कभी भी किसी पर अपनी सोच मनवाने का जोर नहीं डाला....तो आज भी नहीं डालूँगा.....इसीलिए...अपने दिल में कुछ तस्वीरें बसा ली हैं.....ताकि वो ख़ास तस्वीर किसी फ्रेम की  गुलाम न बने. .....बस ये खाली फ्रेम एक टीस जरुर पैदा करता है.......अगर इजाज़त दो....तो मिर्ज़ा ग़ालिब का एक कीमती शेर अर्ज़ करूँ.....

कोई मेरे दिल से पूंछे, तेरे तीर-ए-नीमकश  को.......आधा धंसा हुआ तीर 
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता. 

तो ये जो खाली फ्रेम है...ये तीर-ऐ-नीमकश है.....जो टीस पैदा करता है....और अगर ये टीस किसी अपने खासमखास से मिली हो...तो इसकी ख़लिश दुगनी हो जाती है......और वो बिरले ही होते हैं....अजूबे ही होते हैं....जिनको ये दर्द नसीब होता है..... तुमसे इसका बयाँ क्या करना.... तुम तो खुद इस दर्द से गुजरी हो.....इस दिल में अभी और भी जख्मों  की जगह है....अबरू की कटारी को दो आब और ज्यादा.....

शम्मे महफ़िल जल उठी, और जल गया परवाना भी,
देखना ये है, उजाला किसके मुस्तकबिल में है....

देखो.....ये खाली फ्रेम....तुम्हारे और करीब ले आया है.....लेकिन....जोर न डालो, परेशाँ न हो....नाम नहीं लिखूंगा......ये जुबाँ किसी ने खरीद ली, ये कलम किसी का गुलाम है. ....मैने हमेशा से..ओरौं के दर्द को मरहम समझ कर अपने दिल मे समेटा है.....और मरहम समझ कर लगाया भी...उससे मैं अपने दर्द भूल गया....लेकिन

अब उसके दिल पे मेरी हुकुमत नहीं रही,
अब दस्तरस से ये भी इलाका निकल  गया.

वक़्त की बड़ी यारी रही है मेरे साथ.....एक दर्द से तबियत ठीक से रंगेज़ नहीं हो पाती...दूसरा दरवाजे पर खड़ा होता है....अब बताओ दरवाजे पर अगर कोई खड़ा हो....तो उसको स्वीकार तो करना ही पड़ता है.....ये संस्क्रति की सीख है.....सभ्यता की सीखा है.....मैं जानता हूँ...मेरे जैसे असभ्य के मुंह से , सभ्यता की बाते.....अरे तौबा.

कल वक़्त मिला.....और बोला...और मियाँ.....अभी भी और अभी तक ज़िंदा हो.......मैने कहा.....मियाँ....जायेंगे भी तो जब अब वक़्त मुकरर करेगे, जब आप इज्ज़ाज्त देंगे....वक़्त से पहले तो मैं खुदा के सामने भी नहीं हाज़िर होउंगा....

तो तब तक......वक़्त का सवाल....?

क्या तब तक.......ये खाली फ्रेम....मुझे एहसास दिलाता रहेगा......की यहाँ पर कौन था....

वो मेरी पीठ में खंजर जरुर उतारेगा,

मगर निगाह मिलेगी तो कैसे मारेगा.

बताइए.....अगर एक खाली फ्रेम का ये तासुब (impact) है. मेरे दिल पर  तो इसमे लगी हुई तस्वीर , अगर कुफ्र न समझें तो अर्ज़ करूँ.....तुझमे खुदा देखता था मैं.   

तुम्हारे रहमो-करम पर जरूर हैं लेकिन,
हम अपने शहर में जीने का हक तो रखते हैं....

तुम से मना किया था न....

तुम से मना किया था न....

तुमको समझाया था , न.....की उससे दूर रहना....उसको छूत की बीमारी है.....गाँव वाले यूँ ही तो उसको उलटा सीधा नहीं कहते.....उसको यूँ ही तो गाँव से नहीं निकाल दिया......लेकिन चलो ...अच्छा हुआ...की तुम ने खुद अनुभव कर लिया और राहें जुदा कर लीं......वो है ही नहीं....सभ्य और अभिजात्य   समाज मे रहने लायक......अब तुमको भी इस बात का एहसास हो जायेगा...की उसके यहाँ से चले जाने में.....कितना सुख और शान्ति है.

जी..... मैं सतीश के बारे में ही बोल रही  हूँ.....अब आप ने देखा....उसका क्या चरित्र है.....? अरे ऐसे आदमी को सूली पर लटका देना चाहिए....और वो भी चौराहे पर....ताकि भविष्य में कोई भी इस छूत की बीमारी से ग्रसित न हो...... आप ने अपना status  देखा है...न Mrs. Sharma. ....ठीक है मन से वो आप से कुछ attach  हो गया था....लेकिन....पैरों की धूल क्या माथे  पर लगाई जा सकती है......जो जो कदम आप ने उठाये हैं...इस छूत की बीमारी से बचने के लिए......मैं आप के साथ हूँ.....जब आँख खुले, तभी सवेरा...........रही बात उसकी.......तो क्या आप ने उसकी ज़िन्दगी का ठेका ले रखा है...? अरे ....जाने दीजिये न.....कितने ही इस तरह लोग रोज़ पैदा होते हैं...रोज़ मरते हैं..... ख़ाक डालिए.

अब आप ही देखिये....कितनी खुश और स्वस्थ्य दिख रहीं हैं आप...और हैं आप.....अरे, जिसका ख्याल भी मन मे....बीमारी पैदा कर दे....उस से तो मीलों की दूरी अच्छी.....वो कुछ दिन तड़पेगा, परेशान होगा.....फिर एक दिन शांत हो कर.....इस जमीन की खुराक हो जायेगा......कम से कम एक चरित्रहीन तो इस दुनिया से कम होगा.....मुहब्बत करता है..............दूर रहिये उससे.....         

और सुनिए .....अभी न छेडिये जिक्रे मुहब्बत, जलाल्लोदीन अकबर सुन रहे हैं...... 

Friday, February 18, 2011

.दिल ने ये कहा है दिल से........

कोई अनुशासन ही  नहीं है, अजीब आप-धापी मची रहती है...जब देखो. इतना भी ख्याल नहीं रहता है की इन्हीं के बीच से होकर साँसों को भी आना-जाना होता है.....बेचैनियों जरा रास्ता तो दो की सांस आ जाये. रोज़ सांस कम से कमतर होती जा रही है.....जरा सा तो लिहाज करो.....

उसकी याद आई है साँसों ज़रा धीरे चलो,
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता है!


एक बाज़ार सा लगा  रहता है....मेरे सीने में....हसरतों का.......कई बार तो मैंने साँसों को भी समझाया है की.....साँसों जरा धीरे चलो.....तुम्हारे बेतरतीब आने से भी इबादत में खलल पड़ता है....लेकिन कोई मानने को तैयार ही नहीं है.....एक विद्रोह मेरे अंदर खुद से.....एक क्रान्ति......एक तरफ दिमाग अपनी सारी फौज ले के खडा है...और दूसरी तरफ दिल अकेला. कई बार दिल तो सम्हल जाता  है लेकिन दिमाग अपना संतुलन खो बैठता है......और ये लीजिये......फिर दिल ही दिमाग को समझाता भी है.....ये कैसी दुश्मनी है......चल हट पगले .....दिल और दिमाग में दुश्मनी.............कभी हो ही नहीं सकती....

एक बाजू काटने पे तुले थे तमाम लोग, 
सोचो, कैसे दूसरा बाजू......... न बोलता. 

लेकिन....सीने में होती हुई इस घुटन से मैं परेशान हूँ.....क़िबला.....इसीलिए  जब मौका मिलता है...एक दो गहरी सांस ले लेता हूँ.....क्या करूँ...जीना भी तो है.....हज़रात...मैं जिदगी को मजबूरी समझ कर नहीं जीना चाहता....ये तो अल्लाह-ताला की सबसे बड़ी नेमत है.....कम से कम इतना जरूर चाहता हूँ..की ये चादर , जैसी उसने दी है....अगर इसमे मखमल के पैबंद न लगा सकूँ तो कम से कम टाट के पैबंद तो न लगाऊं....बाहर के तूफानों  को मैं झेल जाता हूँ.....अपने आप को किसी महफूज़ जगह बंद कर के....लेकिन इन अंदर के तूफानों का क्या करूँ........क्या अपने आप से भाग जाऊं.....लेकिन भाग के जाऊं कहाँ.....

इनको  समझाओ..... की देखो, मेरी मानो......एक बात समझ लो....मुझको  और तुमको रहना तो साथ साथ ही है...ता-उम्र. .....इसलिए कभी  तुम मेरी मानो...कभी मैं तुम्हारी....इस तरह बगावत करने से...तो हासिल कुछ भी नहीं होगा....हाँ एक घुटन जरूर होगी.....देखो साँसों की डोरी को चलने  दो....अगर वो सलामत ...तो सब सलामत. 

कल दिल ने मुझसे  से कहा...की तू तो पागल है....तू एहबाब के साथ रहना चाहता है, दोस्तों के बीच रहना चाहता है.... इसलिए नहीं की तू दोस्त-पसंद इंसान है...बल्कि इसलिए की तू डरपोक इंसान है...दोस्तों के बीच रहकर तेरा अपने आप से सामना ही नहीं होता....अरे उठ सामना कर अपने आप का, क्यों किसी के उपर निर्भर करता है......

कौन देता है यहाँ साथ उम्र भर के लिए, 
लोग तो जनाजे में भी कंधा बदलते रहते है. 

जब तू अकेला होता है...तो विचार, दिल के भाव, हसरतें, घाव....सब तुझ पर टूट पड़ते हैं..और तू डर कर....अपने आप से भागता है....मत कर ऐसा.... विचार, दिल के भाव, हसरतें, घाव....ये सब तेरे खुद के ईजाद किये हुए हैं....तेरी खुद की तामीर हैं....तोड़ दे इनको और निकल चल इन सब से बाहर....फिर देख.....क्या शानदार मुस्तकबिल तेरा इंतज़ार कर रहा है.....तू कदम तो बढ़ा....वो तुझको गोद में बिठाने को तैयार है, मुन्तजिर है .....लेकिन तू अपने बनाये इस जंजाल से निकल ही नहीं पा रहा है.....

तेरी तामीर के किस्से कहीं लिखे न जायेंगे,
तू जंगल से गुजरने के लिए रस्ता बनता है..........

ये जो  हसरतों का जंगल तूने खुद अपने सीने में तामीर किया है....इसको तोड़....इसमे से रस्ता बना....और वो देख..................मुस्तकबिल....शानदार......हाँ...एक बात और...शुक्रिया अदा कर उन लोगों का..जिन्होने तुझको आज इस हाल में ला के छोड़ दिया.....

बुलंदी देर तक किस शख्स की हिस्से में रहती है,

बहुत उंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है.


दिल ने ये कहा है दिल से.