Friday, October 2, 2015

जाइए.......बात करवा ले कोई आप से

जाइए.......बात करवा ले कोई आप से, नहीं नहीं ये मैं नहीं कह रहा हूँ, ये तो वो नामुराद पन्ने हैं जो मन को खींच कर सालों साल पीछे ले जा रहे हैं। 

वही गाँव के बाहर, जंगल के पास, ऊँचे टीले पर कृष्ण का  मंदिर, टीले से नीचे जाती हुई पगडंडी और दो कोस की दूरी पर पुराना घाट। आज भी सब वही हैं।  मदिर भी , पगडंडी भी और घाट भी , कोई नहीं है तो तुम।     मंदिर में आज भी शाम को आरती होती है , आरती की आवाज़ दूर तक सुनाई पड़ती है , घंटे -घड़ियालों की आवाज़ भी , लेकिन थोड़ी देर बाद फिर सन्नाटा छा जाता है। और मैं सन्नाटे की आवाज़ को सुनता हूँ।  जी हाँ सुनता ही नहीं महसूस भी करता हूँ। लेकिन वो ठंड के मौसम की सुनसान रातें और मंदिर के बरामदे में बैठा हुआ मैं, साधुओं के साथ चिलम , miss  करता हूँ।  वो बारिश की शाम और ठिठुरती हुई तुम , फिर रमेश की दूकान की गर्म गर्म चाय , याद है।  

मयकशी का तो मज़ा इस भरी बरसात में है , 
और बरसात में भी दिन में नहीं रात में है।  

लेकिन एक रीतापन , एक खालीपन , एक अकेलापन , हमेशा मेरे साथ रहता है।  जो मुझसे ये हमेशा कहता है:-

तुम अपने बारे में कुछ देर सोचना छोड़ो तो मैं  बताऊँ, कि तुम किस कदर अकेले हो।     

तुम्हे याद है ज्योति हम लोग boat ride पर जाते थे, रामदीन , अरे वही नाव वाला , अभी कुछ दिन पहले गुज़र गया।  भला आदमी था।  उसकी नाव भी अनाथ जैसी घाट से बंधी हुई है और आती जाती लहरें उससे अठखेलियां करती रहती है। आज काफी दिनों बाद पगडंडी पर चला गया और लो कम्बख़्त मार गाना भी क्या बज रहा है हामिद मियाँ के रेडियो पर  ……यकीन होगा किसे कि हम तुम एक राह संग चले हैं।  

हँसी आ गयी  .......... 

सरजू मिला था कल ....... अब तुमको पहले तो ये बताऊँ की सरजू कौन है , तुम्हारे साथ ये भी तो एक समस्या है , की हर किरदार से तुम्हारा  तार्रुफ़ करवाऊं पहले, तो कहानी आगे चले. ख़ैर  चलो यूँ भी सही।  

अरे सरजू , वही मंदिर वाले पंडित जी का बेटा। स्कूल में vice  principal हो गया है। चौंक पड़ा मुझको देखकर। काफी देर तक बात करता रहा , तुम्हारे बारे में पूँछ रहा था , बताओ मैं कहता उससे तो क्या कहता ? बोलो , बोलो तो!!!! उसने मुझसे कहा है की मदिर में आके रहूँ , अब बताओ , यायावरों का क्या ठिकाना।  आज यहाँ तो कल पता नहीं कहाँ।  मैंने उससे कुछ नहीं कहा , मुस्करा दिया।  वो कह रहा था की पंडित जी का स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता , मंदिर की देखभाल करलूँ। अब मेरा भी जी ठीक नहीं रहता , ज्योति।  लेकिन किसी के साथ बाँट भी नहीं सकता हूँ।  मालिन माँ भी अब बूढ़ी हो चलीं हैं , और मेरी फ़िक्र उनको और ज़्यादा परेशान  करती है। मैं उनसे ये भी नहीं कह सकता की वो कमला के साथ रह लें , वो उनकी सेवा करेगी और उनको आराम मिलेगा।  

तुमको राधा और तपिस्वनी की याद तो होगी।  कितने किरदार जी लिए तुमने मेरे साथ।  अच्छा एक शेर तुम पर कहूँ, चलो थोड़ी शरारत ही कर लूँ  :- 

चाँद के शौक़ में तुम छत पे चले मत जाना , 
शहर में ईद की तारीख बदल जायेगी। 

 जाइए.......बात करवा ले कोई आप से.  





      




  

Saturday, September 12, 2015

ज़माने बीत गए , उसको देखा भी नहीं

ज़माने बीत गए , उसको देखा भी नहीं ,
हम उसे  भूल गए हो तो ऐसा भी नहीं।

जी हाँ  ....... मैं सुन्दर लाल "कटीला" हूँ  …… आनंद को दोस्त।

आनंद तो याद होगा आप को  .... जिसे आप कहते थे आशना  … जिसे आप कहते थे बावफा।  आज फिर आनंद  की डायरी हाँथ लग गयी , चलो पहले पन्ने से शुरू करते हैं , पहला पन्ना यानी  डायरी का  आखरी पन्ना।

"वक़्त काफी बीत गया , जिसको मेरे एक एक पल की खबर रहती थी और जिसके एक एक पल की खबर मुझको रहती थी  ………अब हफ्तों , महीनो और साल बीत गए लेकिन कोई खबर नहीं।  और कहते हैं न No news  is  good  news.

अक्सर राह चलते  दो तीन बार आमना सामना हुआ , कभी वो नज़र बचा कर निकल गयीं कभी हम नज़र चुरा कर निकल गये. 

वो मुझ से  मैं उससे जुदा हो गया, ज़माने का कर्ज़ा अदा हो गया।

वक़्त ने अजीब मक़ाम  पर ला कर खड़ा किया है।  एक वक़्त था जब अहबाब की भीड़ थी और आज दूर तक अकेलापन।  जिंदगी जैसे जून के महीने की तपती भरी दुपहरी।

मेरा दिल न हुआ दिल्ली हो गया।  उजड़ा - बसा , बसा-उजड़ा।  लेकिन किसी से गिला नहीं है  ……

मैं कैसे कह दूँ कि वो बेवफा है ,
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है।

कल अग्रवाल की दूकान के पास वाले बैंक में तुम मिली।  चंद मिनट की मुलाकात और ढेर सारी बाते करने को , बताओ मुमकिन था ?

नहीं न। .

इसलिए मैं चला आया था वहां से।

अगर कोई तुमको मुझसे बात करते देख लेता तो ? अल्ला अल्ला  ....... मेरा क्या लेकिन तुमको न जाने क्या क्या सुनना पड़ता।

 तुमको मालिन माँ की याद तो होगी , तीन महीनो से वो छुट्टी पर हैं, कमला के घर गयीं हैं उसके बेटा हुआ है।
जिंदगी चाय और चुरुट पर चल रही है।

काफी समय से कुछ लिखा नहीं है इसलिए विचारों का  जमावड़ा लग गया है कोई outlet नहीं।

ज़ब्त  .......... ज़ब्त और ज़ब्त।

वही फ़िर मुझे याद आने लगे हैं।
जिन्हे भूलने में ज़माने लगे हैं।

कल पंडित जी मिले थे।  तुम्हारे बारे में पूँछ  रहे थे।  बताओ मैं जवाब देता तो क्या देता ?

सो अनसुना कर दिया।

अंजलि पंडित जी की बिटिया याद है तुम्हे  ……? बड़ी हो गयी है और स्कूल में पढ़ाती है। पंडित जी बिस्तर से लग गए हैं।  कल मिलने गया था।  उम्र अभी 65 की है।

तुमने मन्दाकिनी को देखा है? जब पर्वत से निकलती है कैसी उछलती , बल खाती, शोर मचाती चलती है धीरे धीरे जब वो समतल में पहुँचती है तो शांत, धीर और गंभीर।

मेरे जीवन  मंदाकनी भी समतल में बह रही है ,  मालूम नहीं की सागर से मिलने में कितना समय और कितनी दूरी और बाकी  है।

मिलना यदि सम्भव हो।   

   

Thursday, September 10, 2015

अल्लाह रे ये कमसिनी

कुछ होश भी है ऐ दस्ते जुनू , देख क्या हुआ ,
दामन तक आ गया है गरीबाँ फटा हुआ।  

अल्लाह रे ये कमसिनी इतना नहीं ख्याल , 
मैयत पे आके पूँछते हैं इनको क्या हुआ।  

आओ "असीद" अब तो यही मशग़ला सही , 
इक रोये और  दूसरा पूँछे की क्या हुआ।   


Wednesday, August 26, 2015

अकेले हम भी रहते हैं .

वो जहर देता तो दुनिया की नज़र में आ जाता फ़राज़, 
सो उसने यूँ किया, वक़्त पे दवा न दी ....

आँखों में अश्क और होंठो पे हंसी .....

टूटा हुआ इक दिल और होंठो पे हंसी .....

पीठ पे ज़ख्म और होंठो पे हंसी .....

हालातों से लड़ना और होंठो पे हंसी .....

दर्द बर्दाशत भी करना है ...... और हँसना  भी .....

 .....बिलकुल फिल्मी कहानी का सीन है ......है न ......तो हम भी किस हीरो से कम हैं।

न राधा, न ज्योति, न अंजलि, न नैना ....  सब ख्याली किरदार थे ....चले गए।

 ...सब ऐसे छोड़ गए जैसे शमशान में अंतिम संस्कार करके लोग चले जाते हैं ......अच्छा लगता है

........ईद पे रूचि के घर पर  ज्योति को देखा था .......न नमस्ते, न दुआ , न सलाम .....जरा सी देर में क्या हो गया जमाने को ......

लेकिन अच्छे लोग तो फिर भी अच्छे ही लगते हैं ....फ़राज़।

तुमने तो देखा ही होगा की पानी को कोई रोक न पाया। .......वो अपने निकलने का रास्ता बना ही लेता है ....चाहे रिस रिस कर ही क्यों न निकले ..........

मत पूँछ की क्या रंग है मेरा तेरे  आगे,
तू देख की क्या रंग है तेरा मेरे पीछे .....

एक दीवानापन छा  गया है मुझ पर .......  इतनी चोटों  , इतनी घावों के बावजूद भी ज़िंदा हूँ ......पता नहीं कौन सी शराब पिला दी है मेरे मौला ने .....नशा सा छाया रहता है।

और इस नशे में मुहब्बत का नशा मिला दो तो ......... अल्लाह ...अल्लाह ....जैसे  भांग खाने के बाद किसी को मिठाई खिला दो .....

अच्छा लगता है अपनों से मिलना ......जो अब पराये से हो चले हैं ...

मुझे चेहरे पढने का हूनर आता है ..........उफ़ .....अल्लाह कितनी तकलीफ देता ये . कभी ये वरदान समझता था मैं .....अब तो मरा ...श्राप सा लगता है .....हाँ।

कितना बहलाऊं अपने आप को ....कैसे बहलाऊं .......

अरे ..............ये क्या फिर टूटने की तरफ .......नहीं ...तुमको इसकी इजाज़त  नहीं है .....  नहीं है।

अभी तुम्हरे गले पे जहर के नीले  निशाँ नहीं दिखाई पड़  रहे हैं ....अभी और गरल बाकी है .....

तुमको यादें सताती नहीं .......या तुम भी फ़राज़ बन गयी हो ....

भूल जाना भी एक तरह की नेमत है फ़राज़,
वर्ना इंसान को पागल न बना दे यादें ......

लेकिन ये यादें ही तो हैं जो डूबते हुए मन को सहारा भी देतीं हैं .......और कभी ये मन को अपने अंदर डुबो लेना चाहती हैं ......इन्हीं के बीच कभी डूबते , कभी उतराते , कभी जख्मों के दर्द बर्दाश्त करते करते ...चल रहा हूँ .....लेकिन ...

हमसफर होता कोई तो बाँट लेते दूरियां,
राह चलते लोग क्या समझें मेरी मजबूरियाँ .

मैंने खुद ही तो कहा था .....उससे ....

कभी जब अकेलेपन से घबराओ , हमे आवाज़ दे लेना,
अकेले हम भी रहते हैं ....

एक नयी शुरुआत.............

एक नयी शुरुआत.............


मालिन माँ.....राम राम...

राम राम ..ज्योति बिटिया....कैसी है...?

मैं तो ठीक हूँ .....आप कैसे हो......

बस बिटिया..... ईश्वर की कृपा है.....

आ.....आनन्द वो बैठा है...बरामदे में....चाय पीयेगी बिटिया....अभी अभी आनंद ने फरमाइश की है....

तो बना दो न मालिन माँ.....बरामदे से आते हुए आनंद की आवाज़....

कैसी हो ज्योति.....

 ठीक...और आप.....

बिलकुल ठीक.... आओ....बरामदे  में बैठते हैं....

ओहो...नया छप्पर डलवाया है....

हाँ ज्योति....बहुत दिनों से मन था.....गर्मी के दिनों में....दोपहर में इसके नीचे बैठ कर....उस नीम के पेड़ देखना बहुत अच्छा लगता है...दूर तक कुछ नहीं होता, सिर्फ एक सन्नाटा......और गर्म हवा..ज्योति.....जरा मालिन माँ से बोल दो..की चाय में अदरक न डाल दे.

और बताओ ज्योति ...क्या चल रहा है.....कुछ नया लिखा....?

नहीं आनंद......

क्यों...?

कुछ अंदर से उठ नहीं रहा है......अंदर से आ नहीं रहा है.....आनंद.

कुछ आ नहीं रहा है...या इतना ज्यादा आ रहा है और इतनी विविधता के साथ आ रहा है की तुम निर्णय नहीं कर पा रही कि लिखूं या न लिखूं.....अगर लिख दिया तो नाम जाने किस किस के चेहरे से पर्दा उतर जाए.....तुम लिखती हो भी तो ऐसा...सो सुनार की, एक लुहार की....

बस करो आनंद...ऐसा कुछ नहीं हैं !!!!!!

अरे अपने प्रशंसकों से पूंछो.... 

तुम ने कुछ नहीं लिखा.....आनंद.

मैने......ज्योति मैं कवि या लेखक तो हूँ नहीं....जो देखता हूँ....वही लिखता हूँ, जो सोचता हूँ वही लिखता हूँ......हाँ.....कुछ लिखा है.....लेकिन कभी कभी एक अजीब सी असमंजस  में पड़ जाता हूँ....की में कोई लेखक तो हूँ नहीं, जो में ओरों  की लिए लिखूं...........क्या लेखन मेरे लिए एक outlet जैसा है क्या.....संभव है....लेकिन कभी कभी, ज्योति.....टूटने सा लगता हूँ., हारने सा लगता हूँ.....मन करता है...भाग जाऊं.....लेकिन भागूं तो किस से....दुनिया से...या अपने आप से......नहीं नहीं......ये गलत है....जिम्मेदारी हैं मेरे उपर....और निभाना है, शान से खूबसूरती से.........आनंद अपनी लय में बोलते जा रहे थे....

ये ले बेटा चाय और पराठे.....और सुन जरा दस-बीस रुपए दे दे.....शाम के लिए सब्जी लानी है...

वो वहां ताक में रखे हैं...आप ले लो.

........आनंद......

हाँ ज्योति.....कुछ ज्यादा बोल गया क्या...?

नहीं.....बोलो....ये जरुरी है.....तुम इंसान हो..pressure cooker नहीं...जो सीटी बजा कर दबाव कम कर लेता है.....तुम बोलो आनंद.....कहाँ खो गए.....

कहीं नहीं...मैं तो यहीं हूँ..... जरा सोच रहा था.....ज्योति

इस तरह तय की हैं हमने मंजिलें,
गिर पडे, गिर कर उठे, उठ कर चले...

ज्योति जिन्दगी जीने का ये एक फलसफा रहा है मेरा.....लेकिन धोखे खा खा कर....अब तो विश्वास  डोलने सा लगा है.....अब अगर टूटा तो........

नहीं आनंद.....तुम उनमे से नहीं जो टूटते हैं...हालातों को तोड़ कर उनसे बाहर निकल जाना यही तो तुम्हारी खासियत है....उनको देखो जो तुमको देख कर हिम्मत बांधते हैं.....कौन हैं वो...मैं  बताऊँ....

नहीं ज्योति..मैं जानता हूँ..... और सच बताऊँ तो मुझको वो डूबते को तिनके का सहारा नज़र आते हैं....

ठीक है....आनंद....जिन्दगी की यही खूबसूरती है.....

हाँ......ज्योति ये तो है......एक नयी शुरुआत.

गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो,
जिसमें खिले हों फूल वो डाली हरी रहे....

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी

सुंदर लाल चला गया।.......

ज्योति लौट कर आई तो देखा मेज पर  रखा हुआ लिफाफा ................सोचती रही क्या कर।..पढूं या न पढूं।....  चलो पढ़ कर देखने में क्या नुकसान है. 

उसने लिफ़ाफ़े में से ख़त निकाला......

प्रिय मित्र, 

काफी समय से तुम से मुलाक़ात नहीं हुई  और मैं तुम्हे भूल गया हूँ ऐसा भी नहीं...

तुम तो मेरे सुख दुःख के सहभागी रहे हो....तुमने मेरे जीवन के अनेक उतार चढ़ावों को देखा है. तुम तो जानते हो सुंदर...मैं कितना अपने लिए जिया हूँ...बस अब और नहीं. अब चादर समेट लेने का वक़्त आ गया लगता है. ...पिछले इक महीने से vomiting में खून आ रहा है.....लगता है चाय और चुरुट ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया है. गुस्सा मत होना वैद्य जी के पास गया था...65 मिनट उनके साथ था.....साठ मिनट डांट पिलाई और पांच मिनट दवाई.....खांसी बढ़ गयी है और ज्वर भी लगातार बना रहता है....थकान बहुत है. खाने पीने से मन हट गया है. सुंदर....जीवन मे एकाकीपन भरता जा रहा है......इतनी चोटें खाई है सुंदर की अब और चोट खाने की हिम्मत भी नहीं बची है......कोई नहीं है.....सब अपने काम से काम से लग गए हैं....और कोई किनारा कर चुका है......२ महीने हो गए हैं घर से निकला नहीं हूँ.......वैद्य जी कह रहे हैं की हवा पानी बदलने की लिए कुछ दिन पास के गाँव हो आओ.......

ज्योति......हाँ ज्योति....अब चोंको मत.....अच्छी है अपने घर परिवार में मस्त है व्यस्त है....२ महीने पहले देखा था.....कब तक वो भी मेरी देखभाल करे.....कोई बच्चा तो नहीं हूँ.....लेकिन सुंदर.....वो मेरी बहुत अपनी है......वो साथ रहती है तो हिम्मत बंधी रहती है.....एक हौसला सा बना रहता है...लेकिन कब तक वो भी साथ दे.....समाज के अपने कायदे क़ानून हैं.....लेकिन सुंदर...ये समझ में नहीं आया की बिना कारण बताये या जुर्म बताये किसी को सजा देना क्या ठीक है....और वो भी उसको जो उसके उपर निर्भर हो.....वो भी पूरी तरह से.....शायद ठीक हो......पता नहीं सुंदर.....मैं इतना दुनियादार्री तो नहीं जानता हूँ....किसी को अपना मानता हूँ तो वो तुम हो और ज्योति......

पिछले महीने स्कूल का वार्षिक समारोह था..तबीयत ठीक ना होने की वजह से जा नहीं पाया....संपत राम आया था समारोह की तस्वीरें लेकर. ज्योति को उसमे देखा..वो बहुत सुंदर लग रही थी.....सुना सारे कार्यक्रम की बागडोर ज्योति के हाँथ में थी...मैं बहुत खुश हूँ...... लेकिन इजहार करना मैं ना सीख पाया....तुम्हारी अगर ज्योति से मुलाक़ात हो.....और 
हमारी बेखुदी का हाल वो पूंछे अगर,
तो कहना होश बस इतना है की तुमको याद करते हैं...

तुमको मेरे घर के पीछे वाली खिड़की तो याद होगी......जहाँ से घर के पीछे का खुला मैदान दिखाई पड़ता था.....दूर तक धूप ही धूप और एक नीम का पेड़...और मैदान से गुजरती हुई रेल की पटरी......सुंदर...मेरा जीवन भी उसी मैदान की तरह हो गया सूखा नीरस......और मेरे हृदय पर धड़ा धड़ा धड़ा धड़ा चलती हुई  रेल जो दिल को छलनी करती हुई चली जाती है और फिर देर तक सन्नाटा , सूनापन........

सुंदर कभी कभी अफ़सोस होता है की मैं अपने लिए क्यों नहीं जिया ....शुरू से ही , जीवन की शुरुआत से ही......कुछ ढूंढता रहा......

एक चेहरा साथ साथ रहा पर मिला  नहीं, 
किसको तलाशते रहे कुछ पता नहीं.....

ज्योति के साथ वो रिक्तता पूरी सी हो चली थी......जीवन मे रस और रंग दोनों का ही समावेश हो रहा था...लेकिन विधि ...उसको तो कुछ और ही मंजूर था....

जिसको तुम पूंछते हो , वो मर गया फ़राज़,
उसको किसी की याद ने ज़िंदा जला डाला
..............

बहुत तकलीफ है, सुंदर....दर्द बहुत है.....

उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ, 
हमें यकीं था हमारा कसूर निकलेगा. 

अब वक़्त-ए- रुखसत आ चला है........मालिन माँ की चिंता है.....बहुत परेशान है मुझको लेकर.....मुझसे कह रही थी की मैं ज्योति से बात करूँ क्या.....

मैंने मना कर दिया.......

मिली मुझे जो सजा वो किसी खता पे न थी फ़राज़,
मुझे पे जो जुर्म साबित हुआ वो वफ़ा का था।...

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी 

चलो ज़िन्दगी को मुहब्बत बना दें.......

चलो ज़िन्दगी को मुहब्बत बना दें.......


आजकल साहब बड़े मूड में हैं.........कहीं किसी  हँसीं  से तो पाला नहीं पड़ गया.........आज आनंद के साथ कई दिनों बाद घाट पर आई..... तो बिना कुछ पूंछे नाव वाले  को बुला लिया....और चल दिए.....boat-ride पर......कहने लगे कि लोग long drive पर जाते हैं.... हम आज long boat  ride पर चलते हैं.... ...लेकिन सच बोलूं.....तो मैं सपनो कि दुनिया में थी....शांत.... चारों तरफ माहौल शांत...ठंडी हवा.......और शबाब पर चांदनी.....आनंद आज पूरी तरह से गजलों के मूड में.......एक शब्द में अगर कहूँ...तो पूरा रोमांटिक माहौल.......

कुछ और बोलो......

क्या बोलूं......मैं इस माहौल को उतारने कि कोशिश कर रहा हूँ......

अगर हम कहें, और वो मुस्करा दें,
हम उनके लिए ज़िन्दगानी लुटा दें......

ज्योति.....दुआ करो...कि ये जो रिश्ता है...यूँ ही हरा-भरा बना रहे....विश्वास कि जमीन, और प्यार कि फुहारें..... कौन सा पौधा नहीं जम जायेगा......तुम ने रिश्तों को बनाने और बना कर निभाने.....कि आग में जिस तरह अपने आप को जलाया है.....वो मिसाल है...और इसिलए तो उस आग में  तप कर सोना बन गयी हो......तुम्हारी शान मे एक शेर पेश करूँ.....

इरशाद.....

तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था,कोई ना जान सका रखरखाव ऐसा था...
खरीदते तो खरीददार खुद ही बिक जाते, तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था.

सरकार....आज इतनी मेहरबानी....?

ये कम है. ...एक गजल तुम पे लिखूं, वक़्त का तकाजा है बहुत.....

बस करो....आनंद. मैं और सम्हाल ना पाउंगी......

मैं भूला नहीं हूँ...ज्योति......अभी एक साल पहेली ही....जो , मैं तो हादसा ही कहूंगा, तुमने और चाची ने बर्दाशत किया है.....जब रमन  आकर रहा था तुम्हारे पास....और परिणाम.....

आते - जाते हर दुःख को नमन करते रहे,
उंगलियाँ जलती रहीं, और तुम हवन करते रहे.....

इसीलिए.....मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ.....

चाहते नहीं हो...........?

क्या....... इज्ज़त करना....?

आनंद.....कितनी आसानी से नासमझ बन जाते हो तुम......लोग कहतें हैं कि तुम बहुत सीधे हो...

वो तो मैं हूँ....देखो जी....मैं चालाक नहीं हूँ.....ये इल्जाम नहीं लग सकता मेरे उपर कि मैं चालाक  हूँ.

हाँ...ये तो है......

ज्योति....
.सच्चा  प्रेम वही है, जिसकी त्रप्ति आत्मबली पर हो निर्भर,
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर.

आज सिर्फ आनंद को देखने का मन है......बहुत समय बाद आज आनंद ज़िंदा हुए हैं....मैं उनको रोकना नहीं चाहती नदी  कि तरह बहने दो उनको...आज ये खुल  रहे हैं.....देखतें हैं...इस खान में से मेरे लिए हीरा कब निकलता है.......

काफी देर हो गयी......भाई नाव घाट पर लगा दो....नहीं चाची....आज गाँव निकाला दे देंगी......

चलो...तुमको घर छोड़ दूँ.....

छोड़ दूँ........

तुम शब्दों के जाल में क्यों उलझाना चाहती हो मुझको.......

मैं.... शब्दों के जादूगर  तो तुम हो.......अभी तो मैं उस जादू से बाहर नहीं आ पाई हूँ....जो तुमने अभी बिखेरा है.

जादू शब्दों मे नहीं होता है....उन शब्दों को कहने वाले में होता है....लो और ये बात में किसको बता रहा हूँ...तुम तो खुद एक जादूगरनी हो...या कहूँ......

गुजरे जो मैकदे से तौबा के बाद हम,
कुछ दूर आदतन भी कदम लड़खड़ाये हैं. 


सच कह रहे हो आनंद......

तपस्वनी

तपस्वनी

तबियत से खानाबदोश हूँ , सो घूमता फिरता रहता  मन कहीं एक जगह नहीं ठहरता. हिमालय से मेरा विशेष लगाव है, शायद इसलिए की मेरा जन्म वहीं हुआ. नंदा देवी, त्रिशूल की बर्फ से ढकीं हुई चोटियाँ मुझे आज भी खींचती हैं. उतरांचल मुझे मेरा घर लगता है बाकी प्रदेशो मैं , मै अपने आप को मेहमान सा लगता हूँ.

खैर छोड़िए, मै भी क्या बात ले बैठा. मरे गाँव से कुछ दूर उपराड़ी नाम का गाँव है. देवदार के जंगलो के बीच एक तपत कुंड है जहाँ पर जमीन से इतना गरम पानी निकलता है की लोग पोटली मे चावल डाल कर उसमे उबाल लेते हैं. वहीं पर शिव का एक पुराना मंदिर है, जहाँ पर साधु-सन्यासियों का आना-जाना लगा रहता है. तपस्वी कई देखे लेकिन एक दिन अचानक एक तपस्वनी से मुलाकात हो गयी. न केसरिया कपड़े, न हाँथ मै माला, न गले मे रुद्राक्ष. ये कैसी तपस्वनी है? उत्कंठा बढ़ गयी.

शायद उस तपस्वनी ने मेरी उत्कंठा पढ़ ली. और मुझे पास बुलाकर पूंछा  क्या कुछ नया या अद्भुत देख रहे हो. क्या तपस्या गेरुए कपड़े पहन कर ही होती है.

नहीं...... मेरा जवाब था.

क्या आप ने घर परिवार त्याग दिया है..... मेरा स्वाभाविक सा सवाल.

नहीं.............. मेरा घर भी है और परिवार भी. मै अपनी सारी जिमेय्दारियाँ  निभाती हूँ. लेकिन कमल के पत्ते की तरह. सब मेरे अपने हैं , लेकिन कोई भी नहीं. तपस्या आग जला कर , हवन कर के होती हो.... ऐसा कोई नियम तो नहीं है. आग तो मैने भी जलाई है....... लेकिन अपने अंदर.

मै घर की तरफ वापस चल दिया. कुछ सोचता हुआ. क्या मतलब हुआ इसकी बात का...........? अपने अंदर आग जलाने का क्या मतलब होता है?

दुसरे दिन मेरी उन से फिर मुलाकत हुई. मुझे देख कर जोर से हंसी. अभी भी परेशान हो क्या.

नहीं परेशान नहीं.... थोड़ा आश्चर्य है.

वो क्यों.....?

आप तपस्वनी क्यों बनी?

मै...............? एक निशछल सी  हंसी.

तपस्वी तो तुम भी हो.

मै और तपस्वी.........गाँव मै जा कर मालूम करिए. तो मेरे बारे मे आप को पता चल जायेगा.

कौन किसी के बारे मे क्या सोचता है, ये जानना उतना जरूरी नहीं जितना ये जानना की तुम अपने बारे मे क्या सोचते हो............ एक सीधा सा तर्क.

तुम्हारे अंदर भी तो एक मुनि है. उसे जगाओ. तो तुम भी तो एक तपस्वी हुए. बोलो ठीक है की नहीं.

मै निरुतर.

मान लो तुम किसी चीज़ को पाना  चाहते हो, और वो तुम्हे नहीं मिलती. लेकिन दिल मे ता-उम्र उसकी तमन्ना बनी रहे. तो क्या तुम उस की तपस्या नहीं कर रहे हो, उसका ध्यान नहीं कर रहे हो ?  यही तो तपस्या है. जिस रोज़ दिल मे मालिक से मिलने की तड़प, जगह लेले,  तो तपस्या का रुख बदल जाता है. तपस्या तो इंतज़ार का दूसरा नाम है.

मै चुपचाप उसकी तरफ देख रहा था और वो निष्काम और निर्लिप्त सी बोलती जा रहीं थीं.

Monday, May 11, 2015

सुंदर लाल चला गया।.......

ज्योति लौट कर आई तो देखा मेज पर  रखा हुआ लिफाफा ................सोचती रही क्या कर।..पढूं या न पढूं।....  चलो पढ़ कर देखने में क्या नुकसान है. 

उसने लिफ़ाफ़े में से ख़त निकाला......

प्रिय मित्र, 

काफी समय से तुम से मुलाक़ात नहीं हुई  और मैं तुम्हे भूल गया हूँ ऐसा भी नहीं...

तुम तो मेरे सुख दुःख के सहभागी रहे हो....तुमने मेरे जीवन के अनेक उतार चढ़ावों को देखा है. तुम तो जानते हो सुंदर...मैं कितना अपने लिए जिया हूँ...बस अब और नहीं. अब चादर समेट लेने का वक़्त आ गया लगता है. ...पिछले इक महीने से vomiting में खून आ रहा है.....लगता है चाय और चुरुट ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया है. गुस्सा मत होना वैद्य जी के पास गया था...65 मिनट उनके साथ था.....साठ मिनट डांट पिलाई और पांच मिनट दवाई.....खांसी बढ़ गयी है और ज्वर भी लगातार बना रहता है....थकान बहुत है. खाने पीने से मन हट गया है. सुंदर....जीवन मे एकाकीपन भरता जा रहा है......इतनी चोटें खाई है सुंदर की अब और चोट खाने की हिम्मत भी नहीं बची है......कोई नहीं है.....सब अपने काम से काम से लग गए हैं....और कोई किनारा कर चुका है......२ महीने हो गए हैं घर से निकला नहीं हूँ.......वैद्य जी कह रहे हैं की हवा पानी बदलने की लिए कुछ दिन पास के गाँव हो आओ.......

ज्योति......हाँ ज्योति....अब चोंको मत.....अच्छी है अपने घर परिवार में मस्त है व्यस्त है....२ महीने पहले देखा था.....कब तक वो भी मेरी देखभाल करे.....कोई बच्चा तो नहीं हूँ.....लेकिन सुंदर.....वो मेरी बहुत अपनी है......वो साथ रहती है तो हिम्मत बंधी रहती है.....एक हौसला सा बना रहता है...लेकिन कब तक वो भी साथ दे.....समाज के अपने कायदे क़ानून हैं.....लेकिन सुंदर...ये समझ में नहीं आया की बिना कारण बताये या जुर्म बताये किसी को सजा देना क्या ठीक है....और वो भी उसको जो उसके उपर निर्भर हो.....वो भी पूरी तरह से.....शायद ठीक हो......पता नहीं सुंदर.....मैं इतना दुनियादार्री तो नहीं जानता हूँ....किसी को अपना मानता हूँ तो वो तुम हो और ज्योति......

पिछले महीने स्कूल का वार्षिक समारोह था..तबीयत ठीक ना होने की वजह से जा नहीं पाया....संपत राम आया था समारोह की तस्वीरें लेकर. ज्योति को उसमे देखा..वो बहुत सुंदर लग रही थी.....सुना सारे कार्यक्रम की बागडोर ज्योति के हाँथ में थी...मैं बहुत खुश हूँ...... लेकिन इजहार करना मैं ना सीख पाया....तुम्हारी अगर ज्योति से मुलाक़ात हो.....और 
हमारी बेखुदी का हाल वो पूंछे अगर,
तो कहना होश बस इतना है की तुमको याद करते हैं...

तुमको मेरे घर के पीछे वाली खिड़की तो याद होगी......जहाँ से घर के पीछे का खुला मैदान दिखाई पड़ता था.....दूर तक धूप ही धूप और एक नीम का पेड़...और मैदान से गुजरती हुई रेल की पटरी......सुंदर...मेरा जीवन भी उसी मैदान की तरह हो गया सूखा नीरस......और मेरे हृदय पर धड़ा धड़ा धड़ा धड़ा चलती हुई  रेल जो दिल को छलनी करती हुई चली जाती है और फिर देर तक सन्नाटा , सूनापन........

सुंदर कभी कभी अफ़सोस होता है की मैं अपने लिए क्यों नहीं जिया ....शुरू से ही , जीवन की शुरुआत से ही......कुछ ढूंढता रहा......

एक चेहरा साथ साथ रहा पर मिला  नहीं, 
किसको तलाशते रहे कुछ पता नहीं.....

ज्योति के साथ वो रिक्तता पूरी सी हो चली थी......जीवन मे रस और रंग दोनों का ही समावेश हो रहा था...लेकिन विधि ...उसको तो कुछ और ही मंजूर था....

जिसको तुम पूंछते हो , वो मर गया फ़राज़,
उसको किसी की याद ने ज़िंदा जला डाला
..............

बहुत तकलीफ है, सुंदर....दर्द बहुत है.....

उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ, 
हमें यकीं था हमारा कसूर निकलेगा. 

अब वक़्त-ए- रुखसत आ चला है........मालिन माँ की चिंता है.....बहुत परेशान है मुझको लेकर.....मुझसे कह रही थी की मैं ज्योति से बात करूँ क्या.....

मैंने मना कर दिया.......

मिली मुझे जो सजा वो किसी खता पे न थी फ़राज़,
मुझे पे जो जुर्म साबित हुआ वो वफ़ा का था।...

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी