Monday, January 31, 2011

क्या लिखूं....

क्या लिखूं....क्योंकि दिल में जो भावनाएं उठतीं हैं.....उनको शब्द देना संभव नहीं है....इसीलिए  तो कहतें हैं कि भावनाओं को सिर्फ समझा जा सकता है.....शब्दों कि अपनी भी एक सीमा होती है...उससे आगे वो भी असहाय हो जाते हैं.....

तुम तो जानती हो ना तपस्वनी...कि मैं This too shall pass में अखंड विश्वास करता हूँ...जीवन जीने का ये मन्त्र मेरे गुरुदेव ने ही मुझे सिखाया......और यही सत्य भी है....वक़्त के साथ सब से अच्छी बात यही तो है...कि गुजर जाता है...अच्छा हो तो भी गुजर जाता है और बुरा हो तो भी.....लेकिन जब तक वो गुजरने का दौर चलता है...तब तक होने वाली पीड़ा को जो सहन कर ले...वही तो इंसान है.....तुम जानती हो कि मैं हारने वालों में से नहीं हूँ.... मेरे पिता जी ने मुझसे एक बार कहा , जब वो मुझे  ज़िन्दगी कि जंग के बारे में बता रहे थे...कि either come on the shield or come with the shield.

मैं अपने लिए नहीं जीता....तपस्वनी. जब में उन लोगों कि तरफ देखता हूँ जो मुझसे जुडे हैं, और अगर वो कोई चीज़ मुझसे मांग लें और में पूरा ना कर पाऊं, तब जो टीस दिल में उठती है.....है राधा, वो अंतर को अंदर तक चीरती हुई चली जाती है......और तब मेरे अंदर लहू  ही लहू नज़र आता है...जो आँखों मे उतर आता है...क्रोध के रूप में....उनके उपर नहीं.....बल्कि अपने उपर.....और असफलता का भाव....मुझे तार तार कर देता है....

ये जो तुम आज पढ़ रही हो...ये मेरे जीवन का वो  पक्ष है...जिसकी तरफ मैं खुद देखने से डरता हूँ....कौन उन चीज़ों को देखना चाहेगा जो उसको भयभीत करती हों, स्वयं पे से उसका विश्वास कम करती हों, .....बोलो तो. लेकिन....अगर सफाई करनी है....उन चीज़ों से बाहर निकलना है...तो उनके अंदर घुस के, उनको बर्दाशत करते हुए...उन से निकलना तो पड़ेगा ही......दो चार तो होना  ही पड़ेगा....

पिता जी कहा करते थे कि William Shakespeare died at the age of 52 and George Bernard Shaw started writing at the age of 52....and both are legends.....तो किसकी किस्मत कब रुख बदलेगी....कोई नहीं जानता ...हमको अपने प्रयत्न में कमी नहीं करनी चाहिए....ईमानदार प्रयत्न....वही गीता का सार ..." कर्मण्येवाधिकारस्ते, माँ फलेषु  कदाचना"...सब सच है.....

मेरी लिए एक प्रार्थना करोगी...तपस्वनी.....अपने ख़ुदा से..... सिर्फ इतना कहना...कि जो लोग भी मुझसे जुड़े हैं....उनकी सारी तकलीफें, अल्लाहताला मुझे दे दे....और वो सदा मुस्कराते रहें....बस अल्लाह इतनी सी अर्ज़ सुन ले....

मेरी लिए इतना करोगी ना......बोलो तो.  

Sunday, January 30, 2011

बाकी फिर कभी....

ओह....डायरी में पन्ने भी खत्म हो रहे हैं....अब क्या बताऊँ..किसी किताब वाले कि दूकान पर जा कर अगर भिक्षा  में एक डायरी मांगूगा तो वो भी हंसेगा....क्या करूँ....आज सवेरे  ३.३० बजे आँख खुल गयी...ध्यान आदि से निवर्त हो कर सोचा कि चलो डायरी पूरी  कर लूँ. ध्यान इस विचार के साथ खत्म हुआ.....

तेरे जलवे अब मुझे हर सू नज़र आने लगे,
काश ये भी जो के मुझमे तू नज़र आने लगे.

मेरे यहाँ रहने से अंजलि को काफी काम पड़ गया है. छोटी सी रानी बिटिया...गर्म गर्म चाय ले कर आ गयी लो बाबा चाय लो.....पंडित जी भी चाय का ग्लास ले कर मेरे पास ही बैठ गए.....

सवेरे सवेरे कहाँ जाने कि तैयारी है....? उनका प्रश्न.

थोड़ा अहम कम करने जा रहा हूँ.....मेरा जवाब.

क्या मतलब...?

हाँ...पंडित जी.....कुछ दिनों से मंदिर में बैठे बैठे कुछ अहंकार सा आ गया है. सब कुछ बैठे बिठाए मिल रहा है, इसलिए...आज पास के गाँव में भिक्षा मांगने जा रहा हूँ.....ज्यादातर लोग, जो बचा हुआ होता है...वो भिक्षा में दे कर पुण्य कमाते हैं, कुछ गालियाँ देकर, और एक या दो ही होते हैं...जो अपनी जरूरतों को काट कर भिक्षा देते हैं...कई बार तो कुछ लोग कटाक्ष भी कर देते हैं.....और मैं...मेरे मालिक कि मर्जी कह कर मुस्करा देता हूँ. इससे अहम को कम करने में मदद मिलती है....मुझे ऐसा लगता है.

आज फिर स्वास्थ्य कुछ ढीला ही है....अंजलि बिटिया कि एक कप चाय ने काफी साथ दिया. चलते चलते कुछ थकान सी लगी तो पास के मकान  में कुछ देर विश्राम के लिया रुका. बारिश शुरू हो गयी है.

अब्बा देखो दरवाजे पर कोई भिखारी  बैठा है......   एक छोटे से बच्चे कि आवाज़ सुनाई दी.

जा.....ये रोटी दे दे उसको....अब्बा....हियाँ आवो. इतनी आवाज़ मैने सुनी.



मैं शायद थकान और ज्वर कि वजह से कुछ मुर्छित सा हो रहा था. आँख खुली तो एक मियाँ सामने बैठे हुए, मुझे घूर रहे थे....हुज़ूर क्या आप कि तबियत नासाज़ है.....उनका सवाल.

जी...मियाँ हरारत सी है....

तो कहाँ इस तूफानी मौसम में घूमने निकल पड़े.....तफरी कि लिए निकले थे या खुदकुशी करने....

मियाँ कि आवाज़ और बात करने का अंदाज कुछ साल पीछे खींच रहा था...लेकिन कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए मैं भी अनमना सा उनके सवाल सुन रहा था. मैं चुप......

बोलिए हुज़ूर.....जवाब दीजिये....

मैं मियाँ कि तरफ गौर से देखता रहा....तपस्वनी...जानती वो मियाँ कौन थे......वो थे सज्जाद  मियाँ. तुम को शायद उनकी याद ना हो..... याद है तुम्हारे घर के पड़ोस में जो मौलाना साहब रहते थे, सज्जाद उनका ही छोटा बेटा था. ...लेकिन सज्जाद तुमको छेड़ता बहुत था....इसलिए तुम उस से दूरी बना कर ही रखती थीं.

सज्जाद ने दो मोटी मोटी गालियाँ दी....और फिर खींच कर गले से लगा लिया और साले कि आँखों में आंसू भी आ गए, मेरे लिए....देखो ना वो मेरे लिए रो पड़ा. और सारे हाल जानने कि लिए सवाल दर सवाल करता चला गया. कहने लगा कि कहाँ ठिकाना है...मेरे ये कहने  पर में उपराड़ी गाँव के कृष्ण मंदिर में रुका हूँ....तो वो बोला....अबे....राधा भी तो वहीं रहती है.......तू मिला?

दोपहर हो गयी....बारिश कुछ कम हुई...आज पहली बार तबियत को लेके ना जाने से कुछ डर सा लगा..सो वापस मंदिर ही चल पड़ा. आज कि भिक्षा में मालिक ने सज्जाद मियाँ  के घर का खाना लिखा था...सो नसीब हो गया. लेकिन वो आज भी तुमको याद करता है तपस्वनी......याद है एक बार मैने तुमसे कहा था.....

दिन आ गए शबाब के आँचल संभलिये,
होने लगी है शहर में हलचल संभालिये.

बाकी फिर कभी...थोड़ा आराम करने का मन है....

Saturday, January 29, 2011

मानो या ना मानो.

मेरा परिचय भी तो तुम्ही ने मुझसे कराया था....नहीं मैं तो टुकड़ों में बँटी हुई ज़िदगी जी रहा था....मैंने अपनी ज़िन्दगी जी ही कब.....जब तुमने अपने आप को मुझको दिया...उस समय मैं ये सोच रहा था कि मेरा कौन सा टुकडा तुमको स्वीकार करे....बहुत मुश्किल होता किसी कि उपरी परत को चीर कर उसके अंदर जाना.....और फिर वहाँ से उसको पहचानना. किस के  पास इतना वक़्त है..... प्रेम भी तो घड़ी कि सुइयों के हिसाब से होता है......पता नहीं वो प्रेम होता है....या अग्नि की शांति.....प्रेम तो चोबीसों घंटे ता उम्र का होता है...ऐसा बड़े बुजुर्ग सिखा गए हैं.....और तुम जानती हो तपस्वनी....प्रेम भी आजकल कर्तव्य समझ कर होता है.....प्रेम के लिए प्रेम कहाँ होता है......वो बिरले ही होते हैं...जो प्रेम करते हैं, क्योंकि वो प्रेम करते हैं.

कल रात बहुत तेज तूफ़ान था.....हवा, बारिश और बिजली तीनो ने ही हंगामा मचा रखा था....पंडित जी, मैं और अंजलि मंदिर के बरामदे मैं बैठे हुए प्रक्रति का ये अद्भुत नज़ारा देख रहे थे.....और हम तीनो को उसको देखने का नज़रिया अलग था......अंजलि डर रही थी.....जब हवा की तेजी से बरगद का वो विशाल पेड़ लहरा रहा था, पंडित जी अपने कृष्ण की कृपा मान...सब कुछ देख रहे थे..और किसी का अनिष्ट ना इसकी प्रार्थना कर रहे थे....और मैं..अपनी तपस्वनी को देखने की ख़ुशी मैं...इसे प्रक्रति का उपहार मान रहा था.

कल दोपहर, तुम्हारे पति पंडित जी से मिलने आये थे. शायद मंदिर मे ३-४ कमरे बनाने का प्रस्ताव था. ताकि....जो लोग बाहर से आते हैं...उनके रुकने का बंदोबस्त हो सके. मुझसे भी दुआ-सलाम हुई. पंडित जी ने मेरा परिचय कराया....तुम्हारे पतिदेव ने मुझसे प्रश्न किया कि इस उम्र में संन्यास.....क्या कहीं आप अपनी जिम्मेदारियों से भाग तो नहीं रहे हैं. तुम्हारे पति के इस सीधे प्रश्न ने मुझे बहुत प्रभवित किया. सीधा सवाल, सीधे आदमी से....तुम समझ रही हो ना....सीधा सवाल , सीधे आदमी से.

मैने पूंछा कि ये आप कैसे कह सकते हैं कि मैं जिम्मेदारी से  भाग रहा हूँ..ये भी तो संभव  है कि मैं कोई जिम्मेदारी निभा रहा हूँ.....कोई ये कैसे तय कर सकता है कि अमुक आदमी जिम्मेदारियों से भाग रहा है या उनको निभा रहा है....

नहीं , नहीं.....इतनी कम उम्र मैं आप फ़कीर बन गए..इसलिए जिज्ञासावश पूंछ लिया....अगर आप को बुरा लगा तो माफ़ी चाहता हूँ.

अरे नहीं...भाई माफ़ी मांग कर मुझे लज्जित ना करिए....आप का प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है...और मैं इसका स्वागत करता हूँ. देखिये हम सब समाज का हिस्सा हैं....और जिस समय हम किसी के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर रहे होते  हैं....संभव है कि उसी समय हम किसी दूसरे कर्तव्य से विमुख हो रहे हों.....तो क्या ये जिम्मेदारी से भागना होगा....?

नहीं....

तो फिर ऐसी situation मे क्या करना चाहिए....?

Priorities fix करके अपनी ड्यूटी निभानी चाहिए.

exactly ....मैं इस वक़्त वही कर रहा हूँ. समाज, परिवार इन सब के बीच रहते हुए...हम ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारी अपने प्रति भी कोई ड्यूटी है.....ये स्वार्थ या कोई selfish approch नहीं है...मेरा ऐसा मानना है....अगर मैं आप को किसी चीज़ के लिए convenience करना चाहता हूँ, तो पहले मैं तो convenience हूँ. या अगर मैं ख़ुशी बांटना चाहता हूँ, तो पहले मेरा खुश होना या खुश रहना जरुरी है..नहीं तो वो एक दिखावा होगा, छल होगा....और हम सब इसी छल में अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं.... और दोष भगवान् के नाम. जिस तरह से हम अपनी ज़िन्दगी जीते हैं, तो हम दूसरों को भी तो उनकी ज़िन्दगी जीने दें.......जैसे वो चाहते हैं....क्यों हम लोग.....अपनी बेनामी शर्तें लगा देते हैं....   

Yes , I agree with you...तुम्हारे पति का जवाब. इसलिए मैं तो अपने परिवार के सदस्यों को पूरी स्वतंत्रता देता हूँ.

अरे.....please do not take  it personal. मैं तो एक आम सी बात कह रहा हूँ. .....जिसको हम अपने हिसाब से स्वतंत्रता कहते हैं...क्या ये संभव नहीं कि वही दूसरे के हिसाब से दासता हो.....जेल के अंदर कैदी भी तो आज़ाद होता है.....हम दूसरे कि स्वतंत्रता को अपने परिप्रेक्ष्य में क्यों देखते हैं....

पंडित जी...इस वार्तालाप को बड़े ध्यान से सुन रहे थे....और हर बात को अपने अनुभव कि कसौटी पर तौल रहे थे...ये में उनके हाव-भाव से जान सकता था. तपस्वनी....पिछले  कई दिनों से जब से तुम मंदिर आ रही हो...मैं तुमको देख रहा हूँ.....जितनी जेवरों से तुम लदी रहती हो.....ऐसा लगता है....कि किसी लक्का कबूतर को सोने से लाद दिया गया हो...सिर्फ उड़ने  कि मनाही  है.....

May I leave now with your permission ....तुम्हारे पति ने बड़े अदब के साथ मुझसे पूंछा.

Sure .... it was a pleasure to meet you . और मैं क्या कहता..उनके अदब का मैं कायल हो गया.

तपस्वनी...ज़िन्दगी तुम्हारी है....इसको जियो..जैसे तुम चाहती हो....इस पर अधिकार किसी का है तो सिर्फ जानकी नंदन का. अगर तुम किसी कि उत्तरदाई  हो तो सिर्फ उनकी.....मेरा मतलब ये नहीं कि बगावत कर दो...लेकिन ज़िन्दगी जियो.....तुम जब अपनी ज़िन्दगी जीती हो.....मैं भी ज़िन्दगी जीता हूँ....मानो या ना मानो.  

कुछ अनकही....

आज शाम बड़ी ठंडी हवा चल रही है.....मंदिर में कोई नहीं है.....पंडित जी किसी पास के मंदिर में कथा बांचने गए हैं.....और मुझ जैसे नास्तिक को मंदिर की देखभाल करने का कह गए हैं.....मंदिर के बाहर पोखरे में तैरते हुए आरती के दिए....कैसे जगमगा रहे, झिलमिला रहे हैं.....लगता है इस गाँव मे हर दूसरे दिन कोई त्यौहार होता है....एक मन कहता था की तुम भी आज मंदिर आओगी...लेकिन एक मन कहता था की तुम नहीं आओगी...क्योंकि तुम शुरू से ही मंदिर कभी पूजा करने के लिए तो गयी नहीं हो......

तुम जानती हो तपस्वनी...जिस दिन तुमने अंजलि के हाँथो रोटी और सब्जी भिजवाई थी....वो क्या बोली मुझ से.....कहने लगी " बाबा...ये लो मेरी दीदी ने आप के लिए भिजवाई है ये रोटी और सब्जी."...मैने पूंछा की कौन सी दीदी हैं....तो कहने लगी की वो शायद  आप को जानती हैं.....मैने पूंछा कैसे ...तो बोली...की जब मैने दीदी को बताया की आप ने कुछ खाया नहीं...तो वो नाराज़ हो गयीं......और कहने लगी की क्या करूँ में उनका.......शुरू से ही ऐसे हैं....बाबा...आप दीदी को जानते हैं क्या...? मैं उस बच्ची को क्या जवाब देता.....बोलो तो.

तपस्वनी....आजकल शरीर साथ नहीं दे रहा है.....रह-रह के ज्वर आ जाता है. परसों तुम मंदिर आई थीं..तुम्हारे साथ एक सज्जन भी थे....संभवत: तुम्हारे पति थे.....अच्छा लगा तुम दोनों को देख कर. तुम उस नीली साड़ी में ऐसी लग रहीं थीं....कोई परी उतर आई हो.....और गले में सफ़ेद मोतियों की माला. ....में थोड़ा संकोची स्वभाव का हूँ...इसलिए सामने ना आ पाया.....माफ़ करना...तुम बरगद के पेड़ की तरफ भी आईं थीं...लेकिन मैं वहाँ पर नहीं था....बाद मैं पता चला की तुम और तुम्हारे पति , इस मंदिर के managing trustee भी हो. .....अच्छा है..राधा यहाँ भी कृष्ण की देखभाल कर रही है.

रात के नौ बज गए हैं...पंडित जी अभी तक आये नहीं हैं......सब जा चुके हैं.....सब शांत....दिए अभी भी टिमटिमा रहे हैं....आज मंदिर में बहुत चढावा आया है...  सब कुछ वहीं कृष्ण के चरणों में रख दिया....पता नहीं क्यों...तपस्वनी...अब मन इस ज़िन्दगी से हट गया है....और दूसरी दुनिया में जाने को उतावला हो रहा है....तुम उस दिन जब मुझसे से मिली....तो तुम्हारे अंदर  भी मैने निर्लिप्तता का भाव महसूस किया. कैसे तुमने अपने अंदर २२ सालों से उस आग को जिन्दा रखा....जलती हुई शमा पर तो कई पतंगे कुर्बान हो जाते हैं...लेकिन तुम ने तो अपने आप को कुर्बान कर दिया...वो भी उस शमा पे जो कोई देख नहीं सकता....जो दिल के अंदर जलती रहती है...हर वक़्त, हर समय....

पंडित बाबा भी कई दिनों से कुछ कहना चाह रहे हैं...वो मेरा पास आते भी हैं, बैठते भी है....लेकिन वो नहीं कह पा रहे हैं, या पूंछ पा रहे हैं.....जो वो कहना या पूंछना चाहते हैं....मैं समझ रहा हूँ.....मुझे भान है इस बात का कि वो समझ रहे हैं कि इस फ़कीर कि तपस्वनी कौन है....तुमको वो अपनी बेटी मानते हैं....बहुत तारीफ़ करते हैं....अच्छा लगता है.....गाँव के लोग अब भी कितने सीधे होते हैं ना.....तपस्वनी.

मैं तुम्हारी तरफ से चिंतित रहता हूँ.... तुमको दिवाली के दिन  देखा था....मुँह कुछ और बोलता है और आंखे कुछ और....क्या तुम्हरे चारों तरफ कोई ऐसा नहीं जो तुमको जो तुम हो वो स्वीकार कर सके....लो पंडित जी आगये...और अंजलि भी.

आइये बाबा.....कैसा रहा आज का प्रवचन.

कैसा प्रवचन बेटा...वो तो ज्ञानियों का काम है. हम तो प्रेमी हैं......हम तो राधा और कृष्ण कि प्रेम कथा ही सुना सकते हैं.

मैं चुप...

बेटा.....इस मंदिर कि जो देखभाल करते हैं....उन्होंने एक दिन खाने पर बुलाया है...चलेगा...?

मैं क्या करूंगा जाकर....?

चल...मिल ले. " तुलसी इस संसार में सब से मिलिए धाये, ना जाने किस वेश मे नारायण मिल जाए."

वो तो ठीक है..बाबा..लेकिन...पंडित जी मेरी कशमकश को समझ रहे थे.

मैं तो उनको जानता नहीं.....ना वो मुझे.

क्या पता बेटा.....किस का किस से किस जन्म का नाता हो.....राधा बिटिया ने कहा है कि फ़कीर को भी ले कर आना , बाबा. ....और तू नहीं जानता कि वो कितनी जिद्दी है.....

हाँ बाबा...मै क्या जानूं....लेकिन आप तो जिद्द ना करो. .....लो अंजलि चाय ले कर आ गयी....लो बाबा चाय पियो...तुमको तो शाम से चाय नहीं मिली होगी.....? कितना ध्यान रखते हैं ये लोग........सब तुम पर गए हैं क्या....तपस्वनी.

तो तू नहीं जाएगा....

नहीं बाबा...मुझको माफ़ करो....मेरी तरफ से उनसे भी माफ़ी मांग लेना.

मैं जानता हूँ तपस्वनी तुम को गुस्सा तो बहुत आया होगा मेरे ना आने पर...लेकिन सिक्के का जब तुम दूसरा रूख देखोगी तब तुम मुझे माफ़ कर दोगी.

मिलना था इत्फ़ाक, बिछडना नसीब था

वो इतनी दूर हो गया, जितना करीब था....

कुछ अनकही....

Friday, January 28, 2011

दूसरा और तीसरा पन्ना

पन्ने दर पन्ने मैं अपनी ज़िन्दगी की किताब को खुद ही खोल रहा हूँ....इसको भी तो धूप और हवा चाहिए.

इतने सालों मे सब से जुड़ता हुआ , सब से अलग होता हुआ...मैं चलता रहा....तलाश निरंतर चलती रही...या यूँ समझ लीजिये की जैसे मेरे अंदर कोई sensor लगा हो....दिमाग किसी तरफ ले के चला ....मैं वहाँ पहुंचा....लेकिन दिल ने मना कर दिया और मैं आगे बढ़ गया. फिर तलाश ......कब तक आखिर , आखिर कब तक. ....लेकिन चलते रहना ही तो ज़िन्दगी है.

एक चेहरा साथ साथ रहा, पर मिला नहीं,
किस को तलाशते रहे कुछ पता नहीं.....

ये दूसरा और तीसरा पन्ना, मैं अपनी तपस्वनी को समर्पित कर रहा हूँ.......... आप को तपस्वनी से मिलवाता हूँ..... कैसे शुरू करूँ.....उसको शब्दों में बांधना तो वैसा ही होगा जैसे किसी पहाड़ी नदी पर बाँध बनाना.....मैं तो जानता भी नहीं था की वो एक तपस्वनी है....आम और ख़ास में अंतर करना मुझे नहीं आता था. मेरा स्वभाव तो ...उड़ते हुए धुंए की तरह था....जिधर हवा ले गयी, चले गए....कभी दीवार से टकराया , तो कभी गुलों के साथ हो लिया.....लेकिन एक दिन, जब उससे सामना हुआ....और उसको थोड़ा बहुत समझने का मौका मिला....तो दांतों तले ऊँगली दबानी पड़ गयी.....उसको जितना देखता हूँ.....और देखने का मन करता है....जितना समझता हूँ...और समझने का मन करता है. ....आज के जमाने में इतनी शिद्दत से प्यार करने वाला भी कोई हो सकता है.....सवाल क्यों पूंछता है पगले...जब जवाब तेरे सामने, तेरे पास और तेरे साथ है.

आज मंदिर में.....पंडित जी तपस्वनी के बारे में पूंछा तो क्या बोलता...लोग मुझे फ़कीर कहते हैं....उनका मुझे देखने का नजरिया सिर्फ इतना है..की मैं गाँव गाँव घूमता रहता हूँ....अपनी धुन में रहता हूँ.....जब पंडित जी ने पूंछा की तुम फ़कीर क्यों बन गए.....तो मैं क्या जवाब देता. मैं झूठ नहीं बोल पाता ...लेकिन अगर कोई सच बोलने से किसी पर रुसवाई के बादल छा जाए..तो ऐसे हालत में झूठ ना बोलकर , चुप रह जाना मैं उचित मानता हूँ...और चुप रह गया. जब पंडित जी ने सीधा प्रश्न  किया की क्या किसी को प्रेम करते हो...?

पता नहीं ...बाबा. ...ये तो अभी पता नहीं...लेकिन एक तपस्वनी ने मुझे खरीद लिया है....

क्या तपस्वनी यहीं रहती है.....बाबा का अगला सवाल था.

जान लीजिये वो कहीं आस पास है,
तन झूमने लगे जहाँ मन डोलने लगे....

ये मेरा जवाब था. .....पंडित जी की मुस्कराहट और आँखों की गहराई ने मुझे बता दिया की पंडित जी को अपने सवाल का जवाब मिल गया था. ...... जब तुम लगातार मंदिर आती रहीं......तो पंडित जी ने बहुत सरल तरीके से मुझसे एक दिन कहा.....की लग रहा है .....की फ़कीर की तपस्वनी मिल गयी है.....तो क्या मैं अब आगे चलूं ...पंडित जी. ...मैने पंडित जी से पूंछा.

ये मैं कैसे कह सकता हूँ.....मैं तो कृष्ण का पुजारी हूँ....मेरे लिए जहाँ ......कृष्ण वहीं राधा.......पंडित जी को लोग अनपढ़ समझते थे...लेकिन अनुभव की वो दौलत उनके पास थी....जिसे के आगे बड़े बड़े विद्ववान फीके पड़ जाते....उनकी अनुभवी आंखे सब देखतीं थीं.

राधा भी तो तपस्वनी ही थी या है.......पंडित जी ने मुझसे पूंछा.....

मैं उनके इस सवाल पर अवाक रह गया.....कितना सधा हुआ तीर छोड़ा था पंडित जी ने.....राधा वो भी थी....राधा ये भी है.....तपस्वनी वो भी थी..तपस्वनी ये भी है....मैं मंत्रमुग्ध पंडित जी की तरफ देखता रह गया..... रात काफी हो चली थी..लेकिन पंडित जी अपने अनुभव के धनुष पर कस कर आज सारे तीर छोड़ रहे थे...और मैं अपने ज्ञान को ढाल बना कर उनका सामना कर रहा था. ..लेकिन बिलकुल बुरा नहीं लगा....बल्कि ...माता-पिता के बाद....आज पहली बार किसी ने इतने आत्मीय तरीके से मुझे छुआ....

पहला पन्ना.....वो १२ पन्ने......

इसको आत्मकथा मत समझना...वो तो बड़े - बड़े लोगों की होती है... उसको लोग पढते हैं और कुछ सीखते हैं...ये तो मेरी डायरी के चंद पन्ने हैं......जो मेरे अंदर दबे-दबे सड़ने लगे हैं....मुझे अपने आप को सहना भी अब बोझ लगने लगा है..इसलिए सब कुछ कह कर, साफ- साफ़ कह कर, चला जाउंगा......कहाँ तक बोझ उठाऊं ...अपना....बोलो तो. कंधे थक गए हैं.....पैर जवाब देने लगे हैं...शरीर भी अब साथ नहीं देता, अब तो कंधो पर चलने का मन करने लगा है....बचपन बीत गया...लेकिन दिल से बचपना नहीं गया. दिल की कुछ तलाश करने की आदत से मैं आजिज़ आ गया हूँ....हाँ मैं आजिज़ आ गया हूँ. ..पता नहीं इसे क्या चाहिए...कुछ मिलता है तो ...नहीं ये नहीं...फिर तलाश पर निकल पड़ता है....

दिल भी एक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए, या कुछ भी नहीं.

हाँ..प्रेम की तलाश है इसको.....प्रेम की...प्रेम समझते हैं ना आप...देखिये आप लोग भी प्रेम को सीमित ना करिए...उसको जिस्म की सीमाओं तक ना बांधिए..तो एहसाँ होगा...परिंदे आसमाँ में उड़ते ही अच्छे लगते हैं...है ना...बोलो तो. जूनून और आंधी में फर्क तो तुम समझती ही होगी.... जूनून जब मौसम के सर पे सवार हो जाए तो आंधी बन जाता है...उसको रोकना किसके बस में है....लेकिन जूनून जब इंसान के सर पर सवार होता है......तब वो इंसान का इम्तेहान लेता है....मैं इम्तेहान देते-देते थक गया हूँ.....बहुत थक गया हूँ. अब सोने का मन करता है. किताब बन गया हूँ.....जिसके हाँथ लगा , उसने पढ़ा...कुछ ओराक (पन्ने) जो उसके मतलब के लगे, फाड़ लिए...किताब को छोड़ दिया....और कुछ लोगों ने चंद पंकित्यों को underline कर के छोड़ दिया.....

जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ....तो कितने बिखरे हुए कदम नज़र आते हैं....सब मेरे ही हैं....कुछ यहाँ, कुछ वहाँ, कुछ इधर, कुछ उधर....कोई सलीके से उठा कदम ही नहीं दिखाई पड़ता. .... बहुत बरस बीत गए....फिर एक तपस्वनी मिली...हाँ तपस्वनी...अब इस बात पर बहस ना की जाए , की इस जमाने में और तपस्वनी.... जी हाँ बिलकुल ठीक पढ़ रहे हैं...आप ..तपस्वनी. बस उसकी तपस्या वो नहीं जो जंगल में किसी पेड़ के नीचे बैठ कर होती है......उसने तो अपने दिल को ही जंगल बना लिया है....और वहीं तपस्या करती है. ...पता नहीं उसका आराध्य , उसकी इस तपस्या के लायक है भी की नहीं....

जी जरा मेरे झोली में से एक अलबम तो निकाल दीजिये, please .... thank  you . और इसमे लगी हुई तस्वीरों को देखिये....जी इसमे कुछ तस्वीरे आप को कटी हुई नज़र आएँगी....जी ...ये जो आप कटी हुई तस्वीरें देख रहे हैं...आप ये मेरी हैं.....जिसको आप लोग आनंद के नाम से जानते हैं....यूँ तो मेरे नाम के कई पर्यावाची  हैं....लेकिन वो ऐसे नहीं हैं जिनको यहाँ पर लिख सकूँ.....सब ने अपनी सहूलियत के हिसाब  से मेरे नाम रख लिए....अगर दिनकर, दिवाकर, रवि, भानु या भास्कर जैसे नाम होते तो लिख देता, लेकिन......यहाँ पर ये लेकिन ही तो सब कुछ कह देता है.....मैं अपनी समझ से जो सही लगा..करता रहा....जो राह सही लगी उस पर चलता रहा.....कभी टूटता, कभी जुड़ता , कभी बिखरता, कभी संवरता  ....लेकिन चलता रहा.....कभी दिल मुझे समझाता, कभी मै दिल को समझाता....चलता रहा....मंजिल का पता नहीं..लेकिन चलता रहा....अब मुझे पागल करार देने में आप संकोच नहीं करेंगे...मैं जानता हूँ...लेकिन क्या करूँ.....

 अब चलते चलते इतना दूर निकल आया हूँ.....की एक भी शजर नज़र नहीं आता है....जिसके नीचे बैठ कर चंद सांस ले लूँ.....अरे नहीं...अब मैं झूठ बोल रहा हूँ.....वो जिस तपस्वनी का मैने अभी उपर ज़िक्र किया है.....वो एक शजर नहीं है....वो एक पीपल का पेड़ है.....जिसने मुझे मेरी सांस ही नहीं लौटाई , बल्कि मुझमे ज़िन्दगी भर दी....बुरा ना माने तो एक बात कहूँ....जरा एक बार मेरे सीने पर हाँथ रख कर देखिये...हाँ...ये जो धडकन महसूस कर रहे ना आप....सरकार....... उसी तपस्वनी की दी हुई हैं.....उसने अपने आप को दे कर मुझे बचा लिया....वो ज़िन्दगी देती है. ...लेकिन एक बार फिर मैं अपाहिज बन गया हूँ......और नहीं तो क्या कहूँ..... बोलो तो.....?

उसकी आदत पड़ गयी थी.....अब उसकी कोई खबर नहीं है.....आजकल पिछुवा हवा भी तो नहीं चल रही है....जो उसकी खबर ले आये....मन परेशान है.....लेकिन मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता....ना...बिलकुल नहीं.....दर्द पी जाने की तो आदत पड़ गयी है....और उस पर मुस्कराहट ....पता नहीं ज़िन्दगी जी रहा हूँ या ज़िन्दगी कट रही है.....समझ में नहीं आ रहा है.....कोई खबर नहीं. ....ज़िन्दगी की.

एक जानदार लाश समझिये मेरा वजूद, अब क्या धरा है, कोई चुरा ले गया मुझे.
हो वापसी अगर तो इन्हीं रास्तों से हो, जिन रास्तों से प्यार तेरा , ले गया मुझे.

अब काफी वक़्त हो चला है...ना जाने कैसी होगी वो.....हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चाँद.

Thursday, January 27, 2011

मुसाफिर से सफ़र का हौसला नहीं छीना जाता.

तपस्वनी.....कितने युग बीत गए...पता नहीं......

आज मैं मंजिल पर पहुँच गया हूँ.....मंदिर में रुका.....तो जरा सा भी अजनबी सा वातावरण नहीं लगा. अचानक ही मन मे कुछ पंक्तियाँ घूम गयीं.....

जान लीजिये वो कहीं आस - पास है,
तन  झूमने लगे, जहाँ मन डोलने लगे.

तुमको सहेजने के चक्कर में, खुद को कई बार खोया.....कई बार तो जब खुद को ढूँढा तब तुमको ही पाया. और अब अगर तुम दूरी बनाओगी..तो....ख़ुदा जाने अंजाम क्या होगा. मंदिर पहुँच कर ये सोचा की कैसे पता करूँ तुम्हारे बारे में......कुसुम की वो बात याद थी की कृष्ण मंदिर के पास कहीं बड़ा सा बंगला है तुम्हारा..अब किस के दरवाजे पर जाकर तुम्हारा पता पूँछु....बोलो तो. तब मैने अपने दिल का सहारा लिया...और लो...तुम तो बालकोनी में ही दिख गयीं.......कहाँ हो.....

सब कुछ तो खो चुका हूँ.....तब तो तुमको पाया है....अब क्या तुम भी दूरी बनाने लगी हो.......

मुसाफिर से सफ़र का हौसला नहीं छीना जाता.



Thursday, January 20, 2011

दहलीज

नहीं है तुमको इजाज़त दहलीज पार करने की,
मत जिद करो, देखो मान भी जाओ,
जब तुम दहलीज पार करते हो,
मेरे उपर रुसवाई का एक पर्दा पड़ जाता है....
तुम अपने घर में ही रहो,
क्यों घर से बाहर जाना चाहते हो,
बाहर की दुनिया तुम्हारी अहमियत नहीं समझती,  
देखो खुल कर मैं नहीं समझा  सकता,
क्योंकि, तुम एक आंसू हो और मैं एक पुरुष.....
तुम जानते हो ना तुम्हारी दहलीज,
मोती बन कर बसो, वहीं रहो.
पुरुष की आँख में और आंसू.....
जरुर घडियाली होंगे....दुनिया है कुछ भी कह सकती है...




Wednesday, January 19, 2011

मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.....एक प्रयोग.

मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ,

तुमको अपने अंदर समाहित करके,
चक्षु जैसे आंसुओं को छुपाते हैं,
वैसे ही, मैं तुम को अपने छुपा के जीता हूँ.....मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.

रोज़ तुम मेरे मन के आँगन में उतरती हो,
सब कुछ कह देने के लिए,
सब कुछ दे देने के लिए,लेकिन....
तुम्हारे साथ,,,,,सच कहा तुमने,
मैं, मैं नहीं रहता,
तुम हो जाता हूँ....
जानता हूँ, तुम नहीं मानोगी....लेकिन, .....मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.

मैं पुरुष हूँ.....हाँ मैं पुरुष हूँ,
लेकिन पाषण नहीं हूँ....
ये समाज पुरुष प्रधान हो सकता है....
लेकिन मैं आज भी " यत्र नार्यस्तु, पुज्येंते, तत्र रमन्ते देवता:"
को मानता हूँ, विश्वास करता हूँ......मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.

जहाँ पर मैं अपने आप को खत्म महसूस करता हूँ,
वहाँ से तुम शुरू होती हो,
तभी तो मैं पूर्ण होता हूँ.....
शून्य तभी बनता है,
जब लकीर का एक सिरा , दूसरे से मिल जाता है......
आओ हम पूर्ण हो जाए....
मैं भी तुम से मैं तक का सफ़र रोज़ करता हूँ.....
मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.

इंतज़ार करता हूँ.....तुम्हारा
तुम भी तो......लेकिन तुम नहीं मानोगी.....
प्रेम में पतन नहीं, उत्थान होता है....
ख़ाक को बुत, बुत को देवता करता है इश्क,
इन्तेहा ये है की इंसा को खुदा करता है इश्क....

एक बार आओ ये प्रयोग करें,
कि हम दोनों मन से एक हो जाएँ....
ना तुम वापस जाओ, ना मैं वापस जाऊं...
तन ना सही, मन से एक जाएँ.....
आओ प्यार का वो फूल खिलायं,
जिसको मुरझाने का गम ना हो, डर ना हो.
मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.

तुम हो मेरे मन कि गहराइयों मे....उन गहराइयों मे, जहाँ जाने से मे खुद भी डरता हूँ....
लेकिन मैं तुम मे रहता हूँ......मैं जानता हूँ...कि तुम हंसोगी.....इनकार करोगी.....
सच्चाई के धरातल पर मैं रोज़ कई जंग लड़ता हूँ.....
और जीतता भी हूँ.....क्योंकि तुम शक्ति स्वरूपा मेरे अंदर समाहित हो......
मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.....एक प्रयोग.

Saturday, January 8, 2011

जाने क्यूँ....2

कहीं ऐसा तो नहीं है...हर्ष की प्रार्थना ने तुम्हारा प्रेम आग्रह.....स्वीकार नहीं किया इसलिए तुम ऐसे हो गए हो.....

नहीं ज्योति.....प्रेम किसी पर थोपा तो नहीं जा सकता......मान लो की तुम किसी को प्रेम करती हो.....अब ये कोई प्रेम का नियम तो नहीं है की वो भी तुमको प्रेम करे..........मुझे तकलीफ इस बात से हुई जब...उनके लेखनी, उनके विचारों...मे मुझे एक gap  दिखा.....जिसको, प्रार्थना ने स्वीकार भी किया...यहाँ पर उसकी ईमानदारी की मैं तारीफ़ भी करता हूँ....

तो तुम परेशान क्यों हुए......

मैं परेशान हुआ....ज्योति..जब कथनी और करनी में अंतर दिखा....मैं ऐसा नहीं हूँ.

हर आदमी एक जैसा नहीं होता हर्ष.........ज्योति और हर्ष के बीच चल रहे इस संवाद का मैं पूरा आनंद ले रहा था.

तो क्या लेखक की  समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है....अब मेरा दखल देना लाजमी हो रहा था.

हर्ष....जैसे मैं पहले भी तुमको समझा चुका हूँ....की हर लेखक समाज के लिए नहीं लिखता...कुछ लिखना है, इसलिए लिखतें  हैं....तुम प्रार्थना से प्रेम करते हो....तो करो.....क्योंकि सच्चा  प्रेम तो मुँह से निकले शब्द और कमान से निकले हुए तीर की तरह है....जो वापस नहीं आता. रही बात multiple  characters  की.... तो वो उनकी खुद की समस्या है.....हाँ ये जरूर है की जब तो वो इस समस्या से अच्छी तरह से निकल  ना जाएँ....   तब तक जो उनके करीब हैं...वो परेशान होते हैं...लेकिन प्रॉब्लम तो ये है की कभी कभी उनको ये लगता ही नहीं....की multiple personality या multiple characters एक हद तक पहुँचने के बाद एक बीमारी भी बन जाती है....जिसे medical terms मे personality disorder कहते हैं. 

मैं तुमको १०० रूपये का एक नोट दूँ और १०० रुपए के सिक्के....तो तुम किस को लेना पसंद करोगे....

१०० रुपए का एक नोट.....

क्यों....

कौन १०० रुपए के सिक्के जब मे रख कर घूमेगा..

yes ..... इसी तरह multiple personality को जीने से अच्छा है....एक किरदार को जीना...लेकिन ये बात मेरे या तुम्हारे समझने से solve नहीं होगी.....ये तो तब होगी जब इसको जीने वाला किरदार....इस बात को समझ ले....और अपने आप को ढूंढ कर निकाले.....

आनंद...तुम भी दार्शनिक हा गए....हो.....कहीं संसार से विरक्ति तो नहीं हो रही है....ज्योति की चुटकी....

हाँ...संगत का असर तो होगा ही....मेरा जवाब.

चलो...खाना लगा दिया है....मालिन माँ का आदेश.

चलो....खाना खा लें..नहीं तो मालिन माँ......

भाईसाहब एक बात बोलूं.....

आज्ञा है.....

जो आके रुके दामन पे सबा, वो अश्क नहीं है पानी है,
जो अश्क ना छलके आखों से उस अश्क की कीमत होती है....

मैं तो प्रार्थना से प्रेम करता हूँ. ...उसकी मर्जी वो जाने.....जाने क्यूँ....

अब इसके आगे सुनो....

ऐ-वाइज़े नादाँ करता है, तू एक कयामत का चर्चा ,
यहाँ रोज़ निगाहें मिलती हैं, यहाँ रोज़ कयामत होती है.......ये शेर ज्योति की नज़र...         

इति.

जाने क्यूँ.....

भाई साहब........एक जानी पहचानी सी आवाज़...

अरे.....हर्ष....तुम और यहाँ....? कब आये...?

आज सुबह.....

सूचना  दे देती होती...तो मैं स्टेशन आ जाता......आओ अंदर आओ.....अरे मालिन माँ.....जरा दो कप बढ़िया सी चाय बना दो आज......

आज ...का क्या मतलब ..क्या रोज़ अच्छी चाय नहीं बनाती हूँ.......

अरे नहीं मालिन माँ......तुम तो

अच्छा बैठ.....मैं बना कर लाती हूँ......

आओ हर्ष...बैठो......कैसे आना हुआ......

भाईसाहब.....कंपनी के काम से आया था.....तो सोच आप से भी मिलता चलूँ......

अरे...बहुत अच्छा किया....ना आते तो सजा मिलती.  और बताओ...घर में सब कुशल मंगल है.....

हाँ...सब ठीक है.

आजकल क्या लिख रहे हो......लिख तो रहे हो ना.....अरे मैं आप से हर्ष का परिचय करना तो भूल ही गया. ये हर्ष , मेरे बचपन का दोस्त है...दोस्त तो काफी थे....लेकिन ये अकेला है जो इतना दूर मेरे साथ चला है. लिखता है.....लेकिन सच लिखता है....आप को कल्पना लोक मे नहीं ले जाता है....

भाईसाहब...एक उपन्यास लिखने की सोच रहा हूँ.......

शुरुआत करदी......या अभी सब कुछ अंदर ही है......शीर्षक क्या है.....कुछ लोग शीर्षक सामने  रख कर तब लिखतें हैं...और कुछ सब लिखने के बाद सोचते हैं....की शीर्षक क्या हो.

नहीं  ... अभी तो सब अंदर है...भाई साहब अभी कुछ दिन पहले एक अजीब शख्स  से मुलाक़ात हुई.....उसको पढ़ा....और पढने के बाद...ऐसा लगा अंदर कहीं....की उसके तार कहीं मुझसे मिलते हैं.....सो मैं और पढने लगा उसको....फिर और....फिर और....और कब उसकी तरफ झुकाव हो गया....पता नहीं चला.......क्या आप ये मानते हैं....की इंसान का लेखन भी  उसके व्यक्तित्व  का आईना होता है.....लेखक जो सोचता है वही लिखता है.....वो ज्यादा  असर करता है....या जो कल्पना की दुनिया मे जा कर कुछ लिखे....पहले अपने आप को अपने प्रेमी से अलग करे....फिर दर्द भरी प्रेम की कविता लिखे और हकीकत मैं...उस का उससे, जो उसने लिखा, कोई सम्बन्ध ही ना.......वो ज्यादा असर करता है ......

देखो हर्ष ...लिखने के भी सब के अपने मापदंड होते हैं.....कुछ लोग शौकिया लिखते  हैं....कुछ लिखने के लिए लिखते हैं..कुछ वाह-वाही लूटने के लिए लिखते हैं......ये जो वाह-वाही लूटने वाले  होते  हैं...ये खतरनाक होते हैं......क्योंकि ये लोगों की नब्ज पहचान कर लिखते हैं...और सरल आदमी इनके बुने शब्दों के जाल में उलझ जाता है....और उसमे अपने आप  को देखने लगता है...जिसमे ये खुद नहीं होते....... और रही बात असर करने की.....तो बात जहाँ से निकलती  है....  वहीं असर करती है....जो दिमाग से निकलती है....वो दिमाग पे असर करती है...और जो दिल से निकलती है...वो दिल पे असर करती है....हाँ...इस पैमाने को समझने में थोड़ा वक़्त लग जाता है......वाह-वाही लूटने वाले , वाह-वाही से ही खुश हो लेते हैं...समाज के प्रति उनकी  क्या जिम्मेदारी  है....वो इस तरफ सोच नहीं पाते.....क्योंकि वो तो अपनी वाह-वाही से ही बाहर नहीं निकल पाते. ....मैं तो इसको पाठकों के प्रति धोखा मानता  हूँ.

मैं भी यहीं पर धोखा खा गया......

धोखा खा गया मतलब.....?

हाँ...मैने उस शख्स को पढकर...उसमे अपने आप को देखना शुरू कर दिया......फिर उनसे पत्र-व्यवहार भी शुरू हुआ....तब जाकर उनकी हकीकत सामने आई....जब उन्होंने खुद  ये स्वीकार किया...की जो वो लिखतीं है...उसका असलियत से कुछ लेना-देना है ही नहीं......वो तो खुद ये कहतीं हैं...की मैं अलग - अलग किरदार जीतीं हूँ.....और फिर अपनी तलाश करती हूँ....कौन से किरदार में वो अपने आप को ढूंढती हैं....कविता वाले....या हकीकत वाले.....

क्या तुम प्रार्थना की बात कर रहे हो.....मेरा प्रश्न हर्ष से.

आप को कैसे पता.....हर्ष का प्रश के उत्तर  में प्रश्न.

तुम ही ने तो बताया था...जब गाज़ियाबाद स्टेशन पर मिले थे.....

अरे हाँ..........हाँ वही.....प्रार्थना...बहुत हंसी मजाक हो लिया....लेकिन...किस तरह लोग multiple character मे जी लेते हैं.....घुटन नहीं होती उनको.....कब किसके सामने कौन से किरदार में पेश होना है...ये समस्या नहीं होती उनको.....

अरे नहीं......ये शौक धीरे-धीरे ......  आदत बन जाता है.....और फिर तो उनको खुद पता नहीं होता की कब उन्होंने किरदार बदल लिया. ..... और जब उनको घुटन महसूस होती है....तब तलाश शुरू होती है उनकी खुद को ढूँढने की.....और वो इतने किरदार अपने चारों तरफ गढ़ लेते  हैं हैं की ये समझ में नहीं आता की असल वो ....कौन सा किरदार में हैं......और आजकल तो ये फैशन सा बन गया है.....और मजे की बात ये ....की ये अपने आप को भगवान् की पहेली.... करार देते हैं...और खुश हो लेते हैं....

तो भाई साहब....क्या ऐसे लेखक या कवि.....समाज के प्रति अपने दाईत्व का निर्वाह करते हैं....

समाज के प्रति......अरे हर्ष.....ये लोग अपने लिए लिखते हैं.......ये अपने आप को समाज से अलग...भगवान् की अनुपम कृति समझते हैं.....और गर्व महसूस करते हैं....

ये लो चाय......खाने में क्या खाओगे.....? मालिन माँ का दखल..

खाने में खाना खाना खायेंगे...मेरा नटखट सा जवाब. ...... अरे माँ...कुछ भी बना दो....और हाँ ज्योति को भी मैने खाने पर बुलाया है......

बुलाया है....नहीं...बुलाया था....मैं यहाँ हूँ...मालिन माँ राम राम....

राम राम बेटी....कैसी है तू....

मैं ठीक हूँ.....

आओ ज्योति.....माँ ...एक कप चाय और....ज्योति के लिए भी....इनको पहचानती हो ज्योति....

ये....हर्ष.......तुम कहाँ से टपके.....और कब......हर्ष और ज्योति classmate रह चुके हैं.

Hello  ज्योति......आज ही आया.....तुम कैसी हो......लग तो स्वस्थ ही रही हो....सुंदर तो तुम हो ही है....

मैं ज्योति और हर्ष की इस नोक-झोंक का आनंद ले रहा था..और ठंड में अदरक और तुलसी की चाय का भी.

कैसे आना हुआ......ज्योति का सवाल ..हर्ष से......अब मेरा दखल लाजमी था.

ज्योति...मैं और हर्ष...आजकल के लेखकों के बारे में बात कर रहे थे....

कोई ख़ास वजह...ये topic कहाँ से उठ गया आज...?

हर्ष किसी कवित्री के शब्दों के जाल में उलझ गया...और प्रेम कर बैठा....और जब असलियत  में उन कवित्री महोदया से दो-चार हुआ....तो बिखर गया.

शब्दों के जाल ....मतलब.....ज्योति का सवाल हर्ष से.

ज्योति....मैं लिखता हूँ और पढता भी हूँ....इसी बीच एक कवित्री को पढ़ा..और कविता के द्वारा उनके विचारों से अवगत होने पर लगा की शायद मेरे हृदय के कुछ तार उनसे मिलते हैं......तो निकटता महसूस हुई....लेकिन जब पत्र-व्यवहार हुआ...तब उन्होंने खुद ये स्वीकार किया की ....जो वो लिखती हैं.....वो लिखने के लिए लिखतीं हैं....जिस प्रेम की वो बात करती हैं.....वो तो होता ही नहीं.....उनके हिसाब से प्रेम.....बेकार , बेदाम की चीज़ है...जो सिर्फ किताबों में ही मिलता है.

हर्ष......प्रशंसा...एक ऐसा यंत्र है....जो बड़े बड़े लोगों को गिरा लेता है.....मान लो तुम ने कुछ लिखा.....  जिस पर तारीफों के पुष्प बरसने लगे...वाह...क्या बढ़िया अभिव्यक्ति है......कितने सुंदर भाव हैं...कितना सुंदर वर्णन किया है....etc  etc.... तो तुम को इसका चस्का लग जाता है.....तो तुम वही लिखने लगते हो...जो लोग चाहते हैं....आनंद भी लिखतें हैं......लेकिन उनके लेखन पर तो तारीफों के पुष्प  नहीं बरसते....क्योंकि वो जो महसूस करते हैं वही लिखते हैं, जिससे खुद गुजरते हैं, वही लिखते हैं.....तो शब्दों के जाल से बाहर निकलो...और इंसान को पहचानो....

मैं आज ज्योति के इस स्वरुप को देख कर खुश था...ऐसा लग रहा था की आज काफी दिनों बाद उसको वो जमीन मिली हो....जिस पर उसका अधिकार हो. ....अच्छा लग रहा था....

तो भाईसाहब...क्या ऐसे लेखक समाज के साथ धोखा नहीं करते...?

हर्ष...धोखा..बहुत बड़ा शब्द है.......हाँ ये जरूर है.....की  हमारे समाज में कुछ लोग होते हैं...जो लेखों या लेखकों को आदर्श मानते हैं.....और उनको follow करते हैं..लेकिन काठ की हांडी एक ही बार आग पर चढ़ सकती है.....धीरे-धीरे..जब लोगों के सामने ये सच आता है की लेखक जो लिखता है...उसका खुद का उससे कोई सरोकार नहीं है....तो वो भी लोगों की नज़रों से गिरने लगता है.....एक pharase है ना इंग्लिश मे " pen  is mighter then sword ." ...कलम, तलवार से ज्यादा शक्तिशाली होती है....लेकिन जब कलम के उपर तारीफों के, पैसे की धूल जम जाती है तो उसकी धार कुंड पड़ जाती है..... फिर वो लेखक ... सिर्फ वो लिखता है...जो लोगों को पसंद हो....जैसे फिल्मो के गीतकार....

हाँ....अच्छा याद दिलाया आपने....फिल्मों के गीतकार  के उपर भी प्रार्थना ने कमेन्ट किया की वो बेचारे तो पैसे के लिए लिखते हैं....वरना रोटी कहाँ से खायेंगे.....

आजकल के गीतकार शायद इसलिए लिखते होंगे......लेकिन....मैं जानता हूँ....शहरयार...जिन्होने उमराव जान  की गजलें लिखी.....जब फिल्म के निर्माता ने उनसे कुछ change करने के लिए कहा ....तो शहरयार बिगड़ गए.....बोले मैं अपने आप को बेचता नहीं हूँ.....पाकीजा के गीतकार और संगीतकार....ने अपना सब कुछ दांव पे लगा दिया था...इस फिल्म में....और फिल्म के रिलीज़ होने से पहेली उनकी मौत हो गयी....आज हम लोग उनको याद करते हैं....लाजवाब गीत और संगीत के लिए...याद करो...." ये चिराग बुझ रहे हैं , मेरे साथ साथ जलते जलते, यूँ ही कोई मिल गया था....चलते चलते..."   खैर...ये वो मुद्दा है...जिस का कोई अंत नहीं.....

ज्योति....क्या प्रेम तर्क का विषय है......हर्ष , ज्योति से मुखातिब.

हर्ष...मैने ये तो सुना है...की नफरत मत  करो...अभी ये नहीं सुना की प्रेम मत करो.

क्या प्रेम सिर्फ...शरीर तक ही सीमित होता है......

प्रेम दिल में पैदा होता है..और दिल तक जाता है.....प्रेम के नाम पर वासना...ये आजकल का ट्रेंड है.....लेकिन शाश्वत सत्य तो यही है की प्रेम में अपने आप को दे दिया...तो फिर कहाँ वासना. बच्चे भी हमारे प्रेम से ही तो जन्म लेते हैं....नहीं तो क्या ये वासना नहीं.....संभव है की प्रार्थना जी भी किसी से प्रेम करती हों....और वहाँ पर उनको कटु अनुभव हुए हों....

जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जान था,
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है....

मैं अवाक सा ज्योति को निहार रहा था...आज ज्योति अपने रंग में थी.....

तो मैं क्या करूँ.....हर्ष का सवाल.

शब्दों के माया जाल को तोड़ो....और अपनी कलम पर वाह-वाही की धूल ना जमने दो....जैसा लिखते हो ...लिखो....सच लिखो....खूब लिखो..

भाई साहब....इस उपन्यास का नाम क्या दूँ......

जाने क्यूँ.....






 

Friday, January 7, 2011

बताओ तो......

आज तीसरा दिन है......कोई खबर नहीं है तुम्हारी.....तुम जानते हो मुझे चिंता होती है.....लेकिन....कुछ तो बात होगी इसलिए तुमने कोई सन्देश भी नहीं भेजा.....तुम पढ़ रहे हो ना......जब कोई तूफ़ान आता है....अपनों को अपनों की चिंता नहीं होगी तो किसे होगी.......बोलो तो.

मैं आप  का क्या करूँ......आप को तो इतना भी समझ मे नहीं आता की की चिड़िया के हाँथो ही  सन्देश भिजवा दो..गुस्सा तो आ रहा है..लेकिन क्या करूँ.....तबियत कैसी है तुम्हारी......आशा करतीं हूँ...की तुम अब पहले से कुछ ठीक होगे.....लेकिन तुम्हारी तबियत सी-सा की तरह उपर नीचे क्यों होती है......बताओ तो......

क्यों इतने बिखरे हुए रहते हो तुम.......मैं तुम्हारी पीड़ा समझती हूँ....

Wednesday, January 5, 2011

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं....

ज्योति.........ज़िन्दगी से बड़ी किताब और ज़िन्दगी से बड़ा शिक्षक नहीं मिलेगा....ज़िन्दगी हर मोड़ पर हम से ये कहती है....कि मुझे मोड़ने कि कोशिश मत करो....मै जैसी हूँ, मुझे वैसे ही स्वीकार करो. मुझे अपने रंग में ढालने के चक्कर में, कई लोग जाँ से चले गए....लोगों कि समझ मे सच्चाई तो आ गयी कि ज़िन्दगी कोई मंजिल नहीं , बल्कि रास्ता है.....जो अनवरत है....रास्ते नहीं बदलते...रास्ते पर चलने वाले बदलते रहते हैं....हाँ ऐसे लोग जरुर हुए हैं...जिन्होने अपने रास्ते खुद बनाये हों.....तुम उनमे से एक हो.....

आनंद...तुम मेरी बेवजह तारीफ़ मत किया करो.

बेवजह.....बेवजह तो मै कोई काम नहीं करता. क्या ये जरुरी है...कि हर चीज़ कि वजह का हम को ज्ञान हो...? नहीं ना....

तो मैं क्या करूँ.....जो मेरे साथ हुआ..क्या उसके पीछे  भी कोई वजह होगी.....?

बिलकुल.....भगवान ने तुमको ये सिखाने के लिए.....कि किसी पर भी आँख बंद कर विश्वास मत करो.....तुम को ये पाठ पढ़ाया है....अब ज्यादा कुछ कहूंगा तो तुम बुरा मान जाओगी...

आप कि कौन सी बात का बुरा माना है मैंने .....बोलो...बोलो तो.

हमेशा थोड़ी सी दूरी बनाये  रखो..रिश्तों मे भी..ताकि हवा का संचार हो सके...जहाँ हवा का संचार नहीं होता...वहाँ दम घुटने लगता है...वो चाहे कमरा हो या रिश्ते...तुम तो जानती ही जहाँ   गुड़  होगा ...चींटे भी वहीं आते हैं.....समझीं.....

शायद ठीक कह रहे हो......आनंद..तुम.

रिश्तों में दूरी का मतलब मनमुटाव नहीं....एक स्वस्थ दूरी. और जहाँ तक मैं तुमको जानता हूँ, समझता हूँ.... सच कहूँ...तो उतना तुम अपने आप को नहीं जानती हो. मुझे बड़ी ख़ुशी और अभिमान भी है अपने उपर.....कि तुमने इतनी बड़ी बात मुझे बताने के काबिल समझा....इतना विश्वास है तुमको मेरे उपर. मैं वाकई शुक्रगुजार हूँ...अल्लाह-ताला का.

तो अब मैं क्या करूँ ...आनंद? वो शख्स मुझे अकसर दिखाई पड़ता है....और जख्म फिर से हरे होने लगते हैं.....जख्मों मे टीस फिर से उठने लगती है.....बोलो मैं क्या करूँ...?

जो मैं कहूंगा..मानोगी..?

ऐसा क्यों कह रहे हो...?

क्योंकि मैं तुमको जानता हूँ..इसलिए ऐसा पूंछ रहा हूँ...

बोलो....

शरीर के जिस हिस्से में कैंसर हो जाता है...डॉक्टर उस हिस्से को काट कर अलग कर देता है....तुमको जो चोट लगी है...वो दिल पर लगी है....और दिल निकाल कर तुम अलग नहीं कर सकती हो....अपने मन के उस कोने में जहाँ वो इंसान घर कर के बैठा है.....उस को वहाँ से निकाल फेंको.....इस प्रक्रिया में दर्द भी होगा, क्योंकि वो इंसान कभी तुम्हारे घर का हिस्सा भी रहा है...लेकिन...वो भी हमारा ही अंग होता है...जिसको डॉक्टर काट कर निकाल देते हैं....जब धीरे - धीरे तुम बीमार अंग को काट फ़ेंक दोगी...तो वो तुम्हारे , खुद के लिए अजनबी हो जाएगा.....फिर वो चाहे सामने आ जाए.....तुम्हारे अंदर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं होगी...और जब प्रतिक्रिया ही नहीं....तो तुम शांत....और हाँ स्वस्थ भी....अच्छा कुछ दिन इस को कर के देखो....अगर बेहतर लगे तो जारी रखना....नहीं तो सितारों से आगे जहाँ और भी हैं.... 

हूँ........

क्या हूँ.....लंबा इलाज है..लेकिन अचूक इलाज है.....

तुम इतना सोचते हो ....आनंद?

ना जी ना.....मैं क्यों सोचने लगा......

मजाक मत करो....आनंद.

तो क्या करूँ.....बोलो तो.

तुमको सहानभूति की दो-चार वाक्य बोलूं....हाय राम....ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ......बल्कि मैं तो ये कहता हूँ......जो हुआ, सो हुआ, जब हुआ, तब हुआ.....छोड़ो ये ना सोचो....बस अपने हाव-भाव, अपनी body  language  से चोर को ये एहसास दिला दो...की...मुझे पता है की तूने चोरी की है...लेकिन जा....मैं चुप हूँ....क्योंकि तेरी यही सजा है.....ईसा मसीह  बनने की कोई जरूरत नहीं है, ना गाँधी....क्योंकि....सूअर के आगे मोतिया बिखेरना .....समझदारी नहीं, बेवकूफी की निशानी है.....ज्यादा हो गया क्या....?

आनंद तुम भी....ना.

चलो...अब ज्यादा ज्ञान देना ठीक नहीं होगा....

चाची.....भूख लगी है......दो रोटी मिलेगीं क्या....

हाय राम....कैसे माँग रहा आनंद बेटा.

अरे चाची माँगू नहीं तो क्या करूँ.....ये रानी लक्ष्मी बाई....तो हिल नहीं रही हैं....

माँ देखो लो......इनको.

माँ क्या देख ले ...वो तो कई सालों से मुझे देख रहीं है.....नूरजहाँ.

आनंद, आनंद....आनंद.

क्रमश: 2

असंभव......आनंद के मुँह से पहला शब्द जो निकला वो यही था. .....

मैं बहुत दिनों से आप से बताना चाह रही थी...लेकिन साहस ना बटोर पाई......की आप क्या सोचेंगे.....

मैं क्या सोचूंगा........अरे पगली......मैं एक बात जानता हूँ......की सूरज की तरफ मुँह कर के थूकने से अपना ही  चेहरा गंदा होता है.......चाँद को गाली देने  से , चाँद पर कोई असर होता है.....मुझे ये चिंता नहीं है....की उसने क्या किया....जिसको तुमने ऊँगली पकड कर चलना सिखाया.....मुझे चिंता ये है.....की मेरी छुई-मुई , जिसको अंदर से देखने की जहमत किसी ने नहीं उठाई.....उसका क्या हाल है.....कितनी बिखर गयी है....

तेरी मुस्कराहटें छीन कर जो चमन में गुंचे बिखर गए,
तो ये इम्तियाज़ ना हो सका , वो बिखर गए कि संवर गए.

सब तुम्हारी हंसी  में खो गए...... लेकिन......कोई तुम तक ना पहुँच पाया.

आनंद.....

हाँ ज्योति.....मैं नहीं बोलता हूँ.....लेकिन तुम्हारी एक-एक चीज़ों का , एक एक एहसासों का मुझे ध्यान है.....और मै ये भी जानता हूँ...की जिस दिन ये ज्योति जलेगी.....कुछ को रौशनी मिलेगी...और कुछ इस रौशनी मे चेहरा छुपाते नज़र आयेंगे. मुझे इंतज़ार है उस दिन का और उस ज्योति का.......शराफत वहीं तक ठीक है, जहाँ तक वो कायरता ना कहलाये.....
क्रमश: 

Sunday, January 2, 2011

क्रमश:

बिटिया......देख आनंद बाबू आयें हैं.......

मैं दौड़ती  हुई दरवाजे पर पहुंची.....आज दस दिन बाद आनंद मिला है....आओ आनंद अंदर आओ. मैं लगभग हाँथ खींचती हुई उनको अंदर ले आई. लेकिन पहली बार आनंद के हाँथो से अपने हाँथ पर एक मजबूत पकड़ महसूस करी.....अच्छा लगा.

चाची, राम- राम

आ आनंद बेटा.......कैसा है.

मैं ठीक हूँ....आप कैसे हो?

सब कृपा है......जानकी नंदन की.

चाची ये आप के लिए......

और मेरे लिए.....ज्योति का अपेक्षित सवाल.

तुम्हारे लिए................कोहिनूर के आगे सब फीका लगता है.....तुमको मैं क्या दे सकता हूँ.....लेकिन ये लो....बनारस  गया था..... वहाँ की साड़ी है...

ओ...माँ.....इतनी महंगी साड़ी......क्या जरूरत थी......

ज्योति.....तोहफे की कीमत नहीं, तोहफा देने वाली की नीयत देखी जाती है.

बैठो...आनंद....कैसा रहा बनारस निवास १० दिन का...?

बनारस तो मैं सिर्फ एक दिन के लिए गया.....वहाँ से कुछ दूर एक जगह है..चकिया....और चकिया में एक जगह है चंद्रप्रभा ...मैं वहाँ गया था......

चंद्रप्रभा.....वहाँ क्या है...?

वहाँ गंगा अकेली बहती है.....

अकेली...मतलब....?

मतलब उसके घाटों  पर व्यापार नहीं होता. सिर्फ गंगा है...और जंगल..और कुछ गाँव.

तुमको तो अपने मतलब की जगह मिल गयी.....

हाँ ज्योति......सोचा कुछ दिन अपने साथ रहूँ...इस बार. शहरों में  तो हिस्सों मे ज़िन्दगी जीनी पड़ती है. इंसान देख कर बात करनी पड़ती है.....सो....सोच की इस बार मैं और बस मैं...

तुम कैसी हो.......जहाँआरा...मेरा सवाल ज्योति से.

जहाँआरा....अब ये नया नाम.....ठीक हूँ....यही कह सकती हूँ......बाकी तो तुम सब जानते हो.
क्रमश: 

कारवां गुजर गया, ग़ुब्बार देखते रहे....

नहीं......तुम्हारी कोई  भी दलील मुझ पर असर नहीं करती....हर्ष. मैं ये नहीं कहती कि  प्रेम व्यर्थ है.....लेकिन तुम गलत जगह पर इसको ढूंढ रहे हो......इतना कह कर प्रार्थना तो आगे चली गयी .....

हर्ष वहीं खड़ा सोचता रहा....कि क्या प्रेम भी logic या तर्क का विषय बन गया है........उसने तो सिर्फ इतना सुना था कि प्रेम हो जाता है...प्रेम किया नहीं जाता.....इसलिए हर्ष ने प्रार्थना से अपने दिल कि बात कह दी......लेकिन प्रार्थना ने इतने दलील के बाण चलाये कि उस ने प्रार्थना से पूंछ ही लिया कि क्या हमारे रास्ते अलग हुए.........

पता नहीं...प्रार्थना का दो टूक उत्तर.

प्रार्थना के इस तरह दो टूक उत्तर हर्ष पहले भी सुन चुका था......लेकिन उसको अपने प्यार पर भरोसा था.....और वो समझता था कि प्रेम कि शक्ति......सर्वोच्च होती है......लेकिन ....जो उसको मिल रहा था......उस पर उसे यकीं नहीं हो रहा था.....कितनी आसानी से प्रार्थना ने हर्ष का प्रेम आग्रह ठुकरा दिया......एक तरफ तो प्रार्थना ने कहा कि मैं सब कुछ समझतीं हूँ.....जानती हूँ...और दूसरी तरफ.........इनकार.

नहीं सब बेकार है.....करे कोई और भरे कोई...प्रेम के नाम पर इतने छलावे  हो चुके हैं..... कि जो वाकई प्रेम करता हो...या करता है...वो भी कोडियों के भाव बिक जाता है.....जो सोच समझ कर किया जाता है...वो तो ऐयाशी होती है.......प्रेम मे कब बुद्धि का इस्तेमाल हुआ है.....

खैर.....कारवाँ गुजर गया , गुब्बार देखते रहे.......हर्ष ये कहता हुआ.....वापस लौट पड़ा.

Saturday, January 1, 2011

बोल राधा बोल....

Facebook या face is  a  book ....खैर मैं नामों के उलट-फेर में नहीं पड़ना चाहता....कहते हैं कि चेहरा दिल कि किताब होता है.....सही है , मानता हूँ.....लेकिन जब चाँद सामने न हो तो किसे पढ़ें और कैसे पढें.......

राधा.....तुम मेरे सामने नहीं हो.......बहुत दूर हो......लेकिन फिर  भी मैं तुम्हारे एक-एक विचार, एक-एक शब्दों को जोड़ कर मैं तुम्हारी तस्वीर बना लेता हूँ..... और फिर तुमको पढ़ लेता हूँ....और तुम को पढ़ना अब तो और भी आसान हो गया है......क्योंकि विचारों और शब्दों से बनी तुम्हारी तस्वीर में , मैं , अपने आप को भी पाता हूँ.... काफी हद तक पाता हूँ.....इसीलिए.....प्रेम करने लगा.....तुमको अपना हमख्याल पाता हूँ.....

कभी-कभी तुम बिलकुल करीने से, सजी संवरी नज़र आती हो.....और कभी-कभी एक बेचेनी नज़र आती है तुम मै.....कुछ ढूंढती हुई...कुछ तलाश करती हुई.......जैसे कह रही हो.....मुझे उपर से नहीं अंदर से देखो......मैं तुम्हारी हूँ.....क्या तुम मुझे प्यार नहीं कर सकते......जैसी मैं हूँ......क्यों तुम मुझे अपने पसंद के आकार में ढाल कर प्रेम करना चाहते हो.........राधा को राधा ही रहने  दो......और राधा को राधा की तरह ही प्रेम करो......

अच्छा...बोलो....मैने तुम्हारे फाके कि book को read किया ...वो ठीक है की नहीं........कुछ नहीं....काफी हद तक और कई बार ऐसा हुआ है...राधा...की लिखा तुमने....और कहानी मेरी बयाँ हो गयी...... हो सकता है...कि विचार भी आकर्षित करते  हों....और फिर वही आकर्षण प्रेम का रूप ले लेता हो......तो क्या गलत है इसमे......बोलो तो....? कम से कम ये जिस्मानी बन्धनों से तो परे होता है.....संभव है......कि जिस्म खूबसूरत न हो.....लेकिन विचारों कि ख़ूबसूरती.....जिस्मानी ख़ूबसूरती पर भारी पड़ती है......और जहाँ...जिस्म और विचार दोनों ही खूबसूरत हों......तो फिर सोने पर सुहागा......

तुम रोकती क्यों हो अपने आप को ............बोल राधा बोल....

एक पगली मेरा नाम तो ले शर्माए भी घबराए भी,
गलियों-गलियों मुझसे मिलने, आये भी घबराए भी.
कौन बिछुड़ कर फिर लौटा है, क्यों आवारा फिरते हो,
रातों को एक चाँद मुझे समझाए भी, घबराए भी....

जादू....

अजीब से कशमकश से दो-चार होता हूँ मैं.....जब विचारों की आंधी दिल-ओ-दिमाग पर काबिज होती है...तब शब्द मुट्ठी से रेत की तरह फिसलते हैं.....समझ में नहीं आता की कैसे भावनओं को कागज पर उकेरू.....तुम गूंगे का गुड हो......समझ रही हो न सखी......नहीं पता था की तुम इतनी अंदर तक समा चुकी हो......जल बिन मछली कैसे तडपती होगी...इसका कुछ तो अंदाज लग गया है मुझे.....हाँ राधा हाँ......

इतनी दिनों आने आप से अलग रहा...तुम ही तुम ख्यालों में छाई रहीं.....सिर्फ तुम.......तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता....बस इसी सीसे पर कभी उपर, कभी नीचे झूलता रहा....कई बार ऐसा भी धोखा हुआ है, चले आ रहे हैं वो नज़रे झुकाए.....सच प्यार जादू कर देता है.....राधा......