Saturday, September 12, 2015

ज़माने बीत गए , उसको देखा भी नहीं

ज़माने बीत गए , उसको देखा भी नहीं ,
हम उसे  भूल गए हो तो ऐसा भी नहीं।

जी हाँ  ....... मैं सुन्दर लाल "कटीला" हूँ  …… आनंद को दोस्त।

आनंद तो याद होगा आप को  .... जिसे आप कहते थे आशना  … जिसे आप कहते थे बावफा।  आज फिर आनंद  की डायरी हाँथ लग गयी , चलो पहले पन्ने से शुरू करते हैं , पहला पन्ना यानी  डायरी का  आखरी पन्ना।

"वक़्त काफी बीत गया , जिसको मेरे एक एक पल की खबर रहती थी और जिसके एक एक पल की खबर मुझको रहती थी  ………अब हफ्तों , महीनो और साल बीत गए लेकिन कोई खबर नहीं।  और कहते हैं न No news  is  good  news.

अक्सर राह चलते  दो तीन बार आमना सामना हुआ , कभी वो नज़र बचा कर निकल गयीं कभी हम नज़र चुरा कर निकल गये. 

वो मुझ से  मैं उससे जुदा हो गया, ज़माने का कर्ज़ा अदा हो गया।

वक़्त ने अजीब मक़ाम  पर ला कर खड़ा किया है।  एक वक़्त था जब अहबाब की भीड़ थी और आज दूर तक अकेलापन।  जिंदगी जैसे जून के महीने की तपती भरी दुपहरी।

मेरा दिल न हुआ दिल्ली हो गया।  उजड़ा - बसा , बसा-उजड़ा।  लेकिन किसी से गिला नहीं है  ……

मैं कैसे कह दूँ कि वो बेवफा है ,
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है।

कल अग्रवाल की दूकान के पास वाले बैंक में तुम मिली।  चंद मिनट की मुलाकात और ढेर सारी बाते करने को , बताओ मुमकिन था ?

नहीं न। .

इसलिए मैं चला आया था वहां से।

अगर कोई तुमको मुझसे बात करते देख लेता तो ? अल्ला अल्ला  ....... मेरा क्या लेकिन तुमको न जाने क्या क्या सुनना पड़ता।

 तुमको मालिन माँ की याद तो होगी , तीन महीनो से वो छुट्टी पर हैं, कमला के घर गयीं हैं उसके बेटा हुआ है।
जिंदगी चाय और चुरुट पर चल रही है।

काफी समय से कुछ लिखा नहीं है इसलिए विचारों का  जमावड़ा लग गया है कोई outlet नहीं।

ज़ब्त  .......... ज़ब्त और ज़ब्त।

वही फ़िर मुझे याद आने लगे हैं।
जिन्हे भूलने में ज़माने लगे हैं।

कल पंडित जी मिले थे।  तुम्हारे बारे में पूँछ  रहे थे।  बताओ मैं जवाब देता तो क्या देता ?

सो अनसुना कर दिया।

अंजलि पंडित जी की बिटिया याद है तुम्हे  ……? बड़ी हो गयी है और स्कूल में पढ़ाती है। पंडित जी बिस्तर से लग गए हैं।  कल मिलने गया था।  उम्र अभी 65 की है।

तुमने मन्दाकिनी को देखा है? जब पर्वत से निकलती है कैसी उछलती , बल खाती, शोर मचाती चलती है धीरे धीरे जब वो समतल में पहुँचती है तो शांत, धीर और गंभीर।

मेरे जीवन  मंदाकनी भी समतल में बह रही है ,  मालूम नहीं की सागर से मिलने में कितना समय और कितनी दूरी और बाकी  है।

मिलना यदि सम्भव हो।   

   

Thursday, September 10, 2015

अल्लाह रे ये कमसिनी

कुछ होश भी है ऐ दस्ते जुनू , देख क्या हुआ ,
दामन तक आ गया है गरीबाँ फटा हुआ।  

अल्लाह रे ये कमसिनी इतना नहीं ख्याल , 
मैयत पे आके पूँछते हैं इनको क्या हुआ।  

आओ "असीद" अब तो यही मशग़ला सही , 
इक रोये और  दूसरा पूँछे की क्या हुआ।