Wednesday, June 5, 2013

कुछ अनकही....

मेरा परिचय भी तो तुम्ही ने मुझसे कराया था....नहीं मैं तो टुकड़ों में बँटी हुई ज़िदगी जी रहा था....मैंने अपनी ज़िन्दगी जी ही कब.....जब तुमने अपने आप को मुझको दिया...उस समय मैं ये सोच रहा था कि मेरा कौन सा टुकडा तुमको स्वीकार करे....बहुत मुश्किल होता किसी कि उपरी परत को चीर कर उसके अंदर जाना.....और फिर वहाँ से उसको पहचानना. किस के  पास इतना वक़्त है..... प्रेम भी तो घड़ी कि सुइयों के हिसाब से होता है......पता नहीं वो प्रेम होता है....या अग्नि की शांति.....प्रेम तो चोबीसों घंटे ता उम्र का होता है...ऐसा बड़े बुजुर्ग सिखा गए हैं.....और तुम जानती हो तपस्वनी....प्रेम भी आजकल कर्तव्य समझ कर होता है.....प्रेम के लिए प्रेम कहाँ होता है......वो बिरले ही होते हैं...जो प्रेम करते हैं, क्योंकि वो प्रेम करते हैं.

कल रात बहुत तेज तूफ़ान था.....हवा, बारिश और बिजली तीनो ने ही हंगामा मचा रखा था....पंडित जी, मैं और अंजलि मंदिर के बरामदे मैं बैठे हुए प्रक्रति का ये अद्भुत नज़ारा देख रहे थे.....और हम तीनो को उसको देखने का नज़रिया अलग था......अंजलि डर रही थी.....जब हवा की तेजी से बरगद का वो विशाल पेड़ लहरा रहा था, पंडित जी अपने कृष्ण की कृपा मान...सब कुछ देख रहे थे..और किसी का अनिष्ट ना इसकी प्रार्थना कर रहे थे....और मैं..अपनी तपस्वनी को देखने की ख़ुशी मैं...इसे प्रक्रति का उपहार मान रहा था.

कल दोपहर, तुम्हारे पति पंडित जी से मिलने आये थे. शायद मंदिर मे - कमरे बनाने का प्रस्ताव था. ताकि....जो लोग बाहर से आते हैं...उनके रुकने का बंदोबस्त हो सके. मुझसे भी दुआ-सलाम हुई. पंडित जी ने मेरा परिचय कराया....तुम्हारे पतिदेव ने मुझसे प्रश्न किया कि इस उम्र में संन्यास.....क्या कहीं आप अपनी जिम्मेदारियों से भाग तो नहीं रहे हैं. तुम्हारे पति के इस सीधे प्रश्न ने मुझे बहुत प्रभवित किया. सीधा सवाल, सीधे आदमी से....तुम समझ रही हो ना....सीधा सवाल , सीधे आदमी से.

मैने पूंछा कि ये आप कैसे कह सकते हैं कि मैं जिम्मेदारी से  भाग रहा हूँ..ये भी तो संभव  है कि मैं कोई जिम्मेदारी निभा रहा हूँ.....कोई ये कैसे तय कर सकता है कि अमुक आदमी जिम्मेदारियों से भाग रहा है या उनको निभा रहा है....

नहीं , नहीं.....इतनी कम उम्र मैं आप फ़कीर बन गए..इसलिए जिज्ञासावश पूंछ लिया....अगर आप को बुरा लगा तो माफ़ी चाहता हूँ.

अरे नहीं...भाई माफ़ी मांग कर मुझे लज्जित ना करिए....आप का प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है...और मैं इसका स्वागत करता हूँ. देखिये हम सब समाज का हिस्सा हैं....और जिस समय हम किसी के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर रहे होते  हैं....संभव है कि उसी समय हम किसी दूसरे कर्तव्य से विमुख हो रहे हों.....तो क्या ये जिम्मेदारी से भागना होगा....?

नहीं....

तो फिर ऐसी situation मे क्या करना चाहिए....?

Priorities fix करके अपनी ड्यूटी निभानी चाहिए.

exactly ....मैं इस वक़्त वही कर रहा हूँसमाज, परिवार इन सब के बीच रहते हुए...हम ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारी अपने प्रति भी कोई ड्यूटी है.....ये स्वार्थ या कोई selfish approch नहीं है...मेरा ऐसा मानना है....अगर मैं आप को किसी चीज़ के लिए convenience करना चाहता हूँ, तो पहले मैं तो convenience हूँ. या अगर मैं ख़ुशी बांटना चाहता हूँ, तो पहले मेरा खुश होना या खुश रहना जरुरी है..नहीं तो वो एक दिखावा होगा, छल होगा....और हम सब इसी छल में अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं.... और दोष भगवान् के नाम. जिस तरह से हम अपनी ज़िन्दगी जीते हैं, तो हम दूसरों को भी तो उनकी ज़िन्दगी जीने दें.......जैसे वो चाहते हैं....क्यों हम लोग.....अपनी बेनामी शर्तें लगा देते हैं....  

Yes , I agree with you...तुम्हारे पति का जवाबइसलिए मैं तो अपने परिवार के सदस्यों को पूरी स्वतंत्रता देता हूँ.

अरे.....please do not take  it personal. मैं तो एक आम सी बात कह रहा हूँ. .....जिसको हम अपने हिसाब से स्वतंत्रता कहते हैं...क्या ये संभव नहीं कि वही दूसरे के हिसाब से दासता हो.....जेल के अंदर कैदी भी तो आज़ाद होता है.....हम दूसरे कि स्वतंत्रता को अपने परिप्रेक्ष्य में क्यों देखते हैं....

पंडित जी...इस वार्तालाप को बड़े ध्यान से सुन रहे थे....और हर बात को अपने अनुभव कि कसौटी पर तौल रहे थे...ये में उनके हाव-भाव से जान सकता था. तपस्वनी....पिछले  कई दिनों से जब से तुम मंदिर रही हो...मैं तुमको देख रहा हूँ.....जितनी जेवरों से तुम लदी रहती हो.....ऐसा लगता है....कि किसी लक्का कबूतर को सोने से लाद दिया गया हो...सिर्फ उड़ने  कि मनाही  है.....

May I leave now with your permission ....तुम्हारे पति ने बड़े अदब के साथ मुझसे पूंछा.

Sure .... it was a pleasure to meet you . और मैं क्या कहता..उनके अदब का मैं कायल हो गया.

तपस्वनी...ज़िन्दगी तुम्हारी है....इसको जियो..जैसे तुम चाहती हो....इस पर अधिकार किसी का है तो सिर्फ जानकी नंदन का. अगर तुम किसी कि उत्तरदाई  हो तो सिर्फ उनकी.....मेरा मतलब ये नहीं कि बगावत कर दो...लेकिन ज़िन्दगी जियो.....तुम जब अपनी ज़िन्दगी जीती हो.....मैं भी ज़िन्दगी जीता हूँ....मानो या ना मानो


ओह....डायरी में पन्ने भी खत्म हो रहे हैं....अब क्या बताऊँ..किसी किताब वाले कि दूकान पर जा कर अगर भिक्षा  में एक डायरी मांगूगा तो वो भी हंसेगा....क्या करूँ....आज सवेरे  .३० बजे आँख खुल गयी...ध्यान आदि से निवर्त हो कर सोचा कि चलो डायरी पूरी  कर लूँध्यान इस विचार के साथ खत्म हुआ.....

तेरे जलवे अब मुझे हर सू नज़र आने लगे,
काश ये भी जो के मुझमे तू नज़र आने लगे.

मेरे यहाँ रहने से अंजलि को काफी काम पड़ गया हैछोटी सी रानी बिटिया...गर्म गर्म चाय ले कर गयी लो बाबा चाय लो.....पंडित जी भी चाय का ग्लास ले कर मेरे पास ही बैठ गए.....

सवेरे सवेरे कहाँ जाने कि तैयारी है....? उनका प्रश्न.

थोड़ा अहम कम करने जा रहा हूँ.....मेरा जवाब.

क्या मतलब...?

हाँ...पंडित जी.....कुछ दिनों से मंदिर में बैठे बैठे कुछ अहंकार सा गया है. सब कुछ बैठे बिठाए मिल रहा है, इसलिए...आज पास के गाँव में भिक्षा मांगने जा रहा हूँ.....ज्यादातर लोगजो बचा हुआ होता है...वो भिक्षा में दे कर पुण्य कमाते हैंकुछ गालियाँ देकरऔर एक या दो ही होते हैं...जो अपनी जरूरतों को काट कर भिक्षा देते हैं...कई बार तो कुछ लोग कटाक्ष भी कर देते हैं.....और मैं...मेरे मालिक कि मर्जी कह कर मुस्करा देता हूँ. इससे अहम को कम करने में मदद मिलती है....मुझे ऐसा लगता है.

आज फिर स्वास्थ्य कुछ ढीला ही है....अंजलि बिटिया कि एक कप चाय ने काफी साथ दियाचलते चलते कुछ थकान सी लगी तो पास के मकान  में कुछ देर विश्राम के लिया रुकाबारिश शुरू हो गयी है.

अब्बा देखो दरवाजे पर कोई भिखारी  बैठा है......   एक छोटे से बच्चे कि आवाज़ सुनाई दी.

जा.....ये रोटी दे दे उसको....अब्बा....हियाँ आवो. इतनी आवाज़ मैने सुनी.



मैं शायद थकान और ज्वर कि वजह से कुछ मुर्छित सा हो रहा थाआँख खुली तो एक मियाँ सामने बैठे हुए, मुझे घूर रहे थे....हुज़ूर क्या आप कि तबियत नासाज़ है.....उनका सवाल.

जी...मियाँ हरारत सी है....

तो कहाँ इस तूफानी मौसम में घूमने निकल पड़े.....तफरी कि लिए निकले थे या खुदकुशी करने....

मियाँ कि आवाज़ और बात करने का अंदाज कुछ साल पीछे खींच रहा था...लेकिन कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए मैं भी अनमना सा उनके सवाल सुन रहा था. मैं चुप......

बोलिए हुज़ूर.....जवाब दीजिये....

मैं मियाँ कि तरफ गौर से देखता रहा....तपस्वनी...जानती वो मियाँ कौन थे......वो थे सज्जाद  मियाँ. तुम को शायद उनकी याद ना हो..... याद है तुम्हारे घर के पड़ोस में जो मौलाना साहब रहते थे, सज्जाद उनका ही छोटा बेटा था. ...लेकिन सज्जाद तुमको छेड़ता बहुत था....इसलिए तुम उस से दूरी बना कर ही रखती थीं.

सज्जाद ने दो मोटी मोटी गालियाँ दी....और फिर खींच कर गले से लगा लिया और साले कि आँखों में आंसू भी गए, मेरे लिए....देखो ना वो मेरे लिए रो पड़ाऔर सारे हाल जानने कि लिए सवाल दर सवाल करता चला गया. कहने लगा कि कहाँ ठिकाना है...मेरे ये कहने  पर में उपराड़ी गाँव के कृष्ण मंदिर में रुका हूँ....तो वो बोला....अबे....राधा भी तो वहीं रहती है.......तू मिला?

दोपहर हो गयी....बारिश कुछ कम हुई...आज पहली बार तबियत को लेके ना जाने से कुछ डर सा लगा..सो वापस मंदिर ही चल पड़ा. आज कि भिक्षा में मालिक ने सज्जाद मियाँ  के घर का खाना लिखा था...सो नसीब हो गया. लेकिन वो आज भी तुमको याद करता है तपस्वनी......याद है एक बार मैने तुमसे कहा था.....

दिन गए शबाब के आँचल संभलिये,
होने लगी है शहर में हलचल संभालिये.

बाकी फिर कभी...थोड़ा आराम करने का मन है....

आज शाम बड़ी ठंडी हवा चल रही है.....मंदिर में कोई नहीं है.....पंडित जी किसी पास के मंदिर में कथा बांचने गए हैं.....और मुझ जैसे नास्तिक को मंदिर की देखभाल करने का कह गए हैं.....मंदिर के बाहर पोखरे में तैरते हुए आरती के दिए....कैसे जगमगा रहे, झिलमिला रहे हैं.....लगता है इस गाँव मे हर दूसरे दिन कोई त्यौहार होता है....एक मन कहता था की तुम भी आज मंदिर आओगी...लेकिन एक मन कहता था की तुम नहीं आओगी...क्योंकि तुम शुरू से ही मंदिर कभी पूजा करने के लिए तो गयी नहीं हो......

तुम जानती हो तपस्वनी...जिस दिन तुमने अंजलि के हाँथो रोटी और सब्जी भिजवाई थी....वो क्या बोली मुझ से.....कहने लगी " बाबा...ये लो मेरी दीदी ने आप के लिए भिजवाई है ये रोटी और सब्जी."...मैने पूंछा की कौन सी दीदी हैं....तो कहने लगी की वो शायद  आप को जानती हैं.....मैने पूंछा कैसे ...तो बोली...की जब मैने दीदी को बताया की आप ने कुछ खाया नहीं...तो वो नाराज़ हो गयीं......और कहने लगी की क्या करूँ में उनका.......शुरू से ही ऐसे हैं....बाबा...आप दीदी को जानते हैं क्या...? मैं उस बच्ची को क्या जवाब देता.....बोलो तो.

तपस्वनी....आजकल शरीर साथ नहीं दे रहा है.....रह-रह के ज्वर जाता है. परसों तुम मंदिर आई थीं..तुम्हारे साथ एक सज्जन भी थे....संभवत: तुम्हारे पति थे.....अच्छा लगा तुम दोनों को देख कर. तुम उस नीली साड़ी में ऐसी लग रहीं थीं....कोई परी उतर आई हो.....और गले में सफ़ेद मोतियों की माला. ....में थोड़ा संकोची स्वभाव का हूँ...इसलिए सामने ना पाया.....माफ़ करना...तुम बरगद के पेड़ की तरफ भी आईं थीं...लेकिन मैं वहाँ पर नहीं था....बाद मैं पता चला की तुम और तुम्हारे पति , इस मंदिर के managing trustee भी हो. .....अच्छा है..राधा यहाँ भी कृष्ण की देखभाल कर रही है.

रात के नौ बज गए हैं...पंडित जी अभी तक आये नहीं हैं......सब जा चुके हैं.....सब शांत....दिए अभी भी टिमटिमा रहे हैं....आज मंदिर में बहुत चढावा आया है...  सब कुछ वहीं कृष्ण के चरणों में रख दिया....पता नहीं क्यों...तपस्वनी...अब मन इस ज़िन्दगी से हट गया है....और दूसरी दुनिया में जाने को उतावला हो रहा है....तुम उस दिन जब मुझसे से मिली....तो तुम्हारे अंदर  भी मैने निर्लिप्तता का भाव महसूस किया. कैसे तुमने अपने अंदर २२ सालों से उस आग को जिन्दा रखा....जलती हुई शमा पर तो कई पतंगे कुर्बान हो जाते हैं...लेकिन तुम ने तो अपने आप को कुर्बान कर दिया...वो भी उस शमा पे जो कोई देख नहीं सकता....जो दिल के अंदर जलती रहती है...हर वक़्त, हर समय....

पंडित बाबा भी कई दिनों से कुछ कहना चाह रहे हैं...वो मेरा पास आते भी हैं, बैठते भी है....लेकिन वो नहीं कह पा रहे हैं, या पूंछ पा रहे हैं.....जो वो कहना या पूंछना चाहते हैं....मैं समझ रहा हूँ.....मुझे भान है इस बात का कि वो समझ रहे हैं कि इस फ़कीर कि तपस्वनी कौन है....तुमको वो अपनी बेटी मानते हैं....बहुत तारीफ़ करते हैं....अच्छा लगता है.....गाँव के लोग अब भी कितने सीधे होते हैं ना.....तपस्वनी.

मैं तुम्हारी तरफ से चिंतित रहता हूँ.... तुमको दिवाली के दिन  देखा था....मुँह कुछ और बोलता है और आंखे कुछ और....क्या तुम्हरे चारों तरफ कोई ऐसा नहीं जो तुमको जो तुम हो वो स्वीकार कर सके....लो पंडित जी आगये...और अंजलि भी.

आइये बाबा.....कैसा रहा आज का प्रवचन.

कैसा प्रवचन बेटा...वो तो ज्ञानियों का काम है. हम तो प्रेमी हैं......हम तो राधा और कृष्ण कि प्रेम कथा ही सुना सकते हैं.

मैं चुप...

बेटा.....इस मंदिर कि जो देखभाल करते हैं....उन्होंने एक दिन खाने पर बुलाया है...चलेगा...?

मैं क्या करूंगा जाकर....?

चल...मिल ले. " तुलसी इस संसार में सब से मिलिए धायेना जाने किस वेश मे नारायण मिल जाए."

वो तो ठीक है..बाबा..लेकिन...पंडित जी मेरी कशमकश को समझ रहे थे.

मैं तो उनको जानता नहीं.....ना वो मुझे.

क्या पता बेटा.....किस का किस से किस जन्म का नाता हो.....राधा बिटिया ने कहा है कि फ़कीर को भी ले कर आना , बाबा. ....और तू नहीं जानता कि वो कितनी जिद्दी है.....

हाँ बाबा...मै क्या जानूं....लेकिन आप तो जिद्द ना करो. .....लो अंजलि चाय ले कर गयी....लो बाबा चाय पियो...तुमको तो शाम से चाय नहीं मिली होगी.....? कितना ध्यान रखते हैं ये लोग........सब तुम पर गए हैं क्या....तपस्वनी.

तो तू नहीं जाएगा....

नहीं बाबा...मुझको माफ़ करो....मेरी तरफ से उनसे भी माफ़ी मांग लेना.

मैं जानता हूँ तपस्वनी तुम को गुस्सा तो बहुत आया होगा मेरे ना आने पर...लेकिन सिक्के का जब तुम दूसरा रूख देखोगी तब तुम मुझे माफ़ कर दोगी.

मिलना था इत्फ़ाक, बिछडना नसीब था

वो इतनी दूर हो गया, जितना करीब था....


कुछ अनकही....