Saturday, August 21, 2021

 आपने पहाड़ी नदी देखी है ? जरूर देखी होगी। 

लेकिन कभी किसी टूरिस्ट प्लेस से हटकर जंगल में बहती हुई नदी सुनी है ?

Excuse me ! बहती हुई सुनी है ! मतलब। 

जी हाँ पानी के बहने की आवाज़। चट्टानों के बीच ऊपर से नीचे गिरते हुए पानी की आवाज़ ! जिसको तमाम लेखक और कवि कल-कल , छल -छल कह के सम्बोधित करते आये हैं। ऑफिस का काम , शाक भाजी लेने का दबाव , ऑफिस से लौटते हुए शाम की चाय के साथ गरम गरम समोसे खाने की फ़िक्र वग़ैरह वग़ैरह। अरे इन सब को छोड़ कर कुछ दिन प्रकृति के साथ बिताने आओ , अपने आप से मिलने के लिए आओ , अपने आप से बात करने के लिए आओ , शांति और ठहराव क्या होता है , आओ उसे अनुभव करने के लिए आओ।  पुराने ज़माने में ऋषि मुनि यूँ ही हिमालय में नहीं वास करते थे।  कुछ न कुछ कारण होता था , आओ उस कारण को ढूंढने के लिए आओ।  

ऊपर जो कुछ भी मैंने लिखा है उसकी सत्यता जाँचने के लिए आओ। 

चीड़ के जंगल में चीड़ के पेड़ों से बहते  हुए तेल की सुंगध जब हवा में घुलकर बहती है तो वो अद्भुत होता है।  जब बुरांस के पेड़ नहीं नहीं बुरांस के जंगलों में बुरांस के लाल लाल फूल खिलते हैं तो किसी शराब से कम नहीं होते।  

ख़ैर , बात शुरू हुई थी कि अभी कितना चलना बाकी है।  और मैं ये कभी तय नहीं कर पाया।  जहाँ चलने के लिए निकलता हूँ वहाँ पहुँच कर सोचता हूँ कि अब ?  सितारों से आगे जहाँ और भी हैं।  यात्रा चाहे अंदर की हो या बाहर की, होती अनंत की ओर ही है। 

हमने जा कर देख लिया है राह गुज़र के आगे भी ,

राहगुज़र ही राहगुज़र है राहगुज़र के आगे भी। 

 होता क्या है न कि हम अपनी बनाई दुनिया में इतने डूब जाते हैं कि हमें कहीं जाना भी है ये तक भूल जाते हैं।  आए कहाँ से इसका तो इल्म ही नहीं है। बा ख़ुदा। घर की तो याद भी नहीं आती।  

अपनी बनाई दुनिया?

जी , चौंकिए मत। अपनी बनाई दुनिया ने ही हमें मार डाला है। 

मुआफ़ कीजिएगा।  बात समझ में नहीं आई। 

 देखिये ख़ुदा ने एक दुनिया बनाई , ठीक है। 

जी 

हमको इस दुनिया में भेजा। और तमाम लोगों को भेजा।  कई रिश्ते बनाए।  माँ का, बाप का, भाई का, बहन का , दोस्त का , पति का पत्नी का , माशूक और माशूक़ा का वगैरह वगैरह।  ठीक है ?

जी 

हमने इस सामजिक रिश्तों के इर्द -गिर्द अपनी दुनिया बना ली।  और इसी में डूब गए। और फिर तमाम जरूरियात को पूरा करने के लिए काम किया , पैसा कमाया , शादी , बच्चे , बच्चों की लिखाई पढ़ाई , बच्चों की  शादी वगैरह वगैरह।  ठीक है ?

जी 

ये हमारी अपनी बनाई हुई दुनिया है।  

लेकिन ये जरुरी भी तो है। 

जी नहीं। 

मतलब ये जरुरी नहीं बल्कि निहायत जरुरी है।  

फिर ?

 जी अब आती है मसले की बात। अपनी और घर वालों , समाज की तमाम जरुरियातों को पूरा करते करते हम ये समझ बैठे कि हम सबके कर्ता धर्ता हैं। 

तो गलत क्या है ?

आगे जारी है.........   

 

Friday, August 20, 2021

 चलते चलते शाम होने को आई लेकिन जाना काफी दूर भी था , चलता न रहता तो और क्या करता।  रास्ते  में रुक के दम ले लूँ मेरी आदत नहीं , लौट कर वापस चला जाऊँ मेरी फितरत नहीं। लेकिन जब मंज़िल का तसव्वुर ज़हन पर ग़ालिब हो तो पैर का दर्द मायने नहीं रखता।  बक़ौल शायर 

ठहर  के पैर से काँटा निकालने वालों 

ये होश है तो जुनूँ क़ामयाब क्या होगा। 

ओहो , तो आज जनाब बग़ावत के मूड  में हैं।  

नहीं बग़ावत तो मेरी ख़ुद से है।  और वो भी आज से नहीं कभी से है।  जानती हो जब मैंने अपने पीर का वो ख़त या ख़त का वो हिस्सा या सुतूर (लाइन्स) पढ़ा जहाँ जनाब ने फ़रमाया कि मर्द तो वही है जो इक बार कुछ ठान ले  उनको अंजाम तक पहुँचा कर ही दम ले। तो ये लाइन एक मीज़ान (तराजू) बन गयी, जिस पर हर रोज़ मैं अपने आप को तौलता हूँ और हर रोज़ हल्का ही पाता हूँ।  और ये चीज़ मेरे अंदर ख़ुद बग़ावत पैदा  करता है। रोज़ मेरा ज़मीर मुझसे सवाल करता है , रोज़ मुझ पर हँसता है।  और मैं कमबख़्त मारा हार के लौट आता हूँ। 

लेकिन आप की हिम्मत तो माशा-अल्लाह सलामत है।  ये काफी नहीं है क्या ?

मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवाज़ , हिम्मत सलामत है ये मेरे गुरु महाराज, मेरे साहिबे - आलम  का करम है लेकिन उसकी इस रहमत को ज़ाया नहीं करना , ये मेरी जिम्मेदारी है। जिंदगी का कौन सा लम्हा आख़िरी है नहीं पता।  इसीलिए साहिब ने फ़रमाया कि जिंदगी ऐसे जियो जैसे अगले लम्हे में क़ज़ा रखी है। 

तेरे क़दमों पे सर होगा , कज़ा सर पे कड़ी होगी , जिंदगी हो तो ऐसी हो।  

क्या यार क्या लिखने बैठा और क्या लिखने लगा।  खैर !

अभी और भी है.........       

   

   


Thursday, August 19, 2021

 हाँ तो जनाब तफ़सीले से समझाने वाले थे इधर उधर मतलब ! सुन्दर लाल सवाल।  

अमां बताते हैं , ज़रा बैठिए , सांस तो लीजिये।  ये क्या हमेशा घोड़े पे सवार आते हैं! मेरा जवाब। 

अच्छा जी !

हाँ जी ! ये लीजिये दाएं हाथ से हुक़्क़ा खेंचिये और जरा बाएँ हाथ से पानदान उठा दीजिये। 

ये लीजिये। 

जी शुक्रिया।  मैंने पानदान खोलकर पान लगाते हुए सुन्दर लाल को जीवन का फ़लसफ़ा समझाना शुरू किया। 

ओह सुन्दर लाल का तारुफ़ (परिचय) तो मैंने कराया ही नहीं।  सुन्दर लाल मेरा बचपन का दोस्त है और यहाँ जल विभाग में कर्मचारी है।  पूरा नाम सुन्दर लाल श्रीवास्तव है लेकिन श्रीवास्तव वो नहीं लिखता है उसकी जगह "कटीला" लगाता है यानी पूरा नाम सुन्दर लाल "कटीला"। अब थोड़ा सा उनका ख़ाका भी खींच दूँ।  मझोला कद , कायस्थ वालों रंग यानि की थोड़ा दबा हुआ। आँखे चमकीली।  ख़ासियत - होंठो के दोनों किनारों से बहता हुआ पान।  दबा हुआ रंग और पान की लाली , शायद इसीलिए "कटीला" लिखने लगा था। 

ख़ैर किरदारों का तारुफ़ भी लाज़िमी होता है।  आगे देखते हैं कितने क़िरदार टकराते हैं।  

हाँ तो सुंदर लाल , ये जो इधर उधर लिखना होता  है न , ये बकवास नहीं होती है, ये जिंदगी का फ़लसफ़ा होता है।जरा सोच के देखो कितने लम्हे हम तफ़रीह के लिए निकालते हैं।  हमेशा कोई न कोई काम।  घर से बाहर निकले तो किसी काम से।  किसी से मिलने गए तो किसी काम से।  कोई हम से मिलने आया तो किसी काम से।  सुन्दर लाल ये बताओ कि तुम यूँ ही बिना किसी काम घर से बाहर कब गए थे कि चलो आज जंगल की तऱफ घूम आएँ , आज जरा शहर से बाहर निकल कर नदी तऱफ  हो आएँ।  आज गाड़ी  उठाकर पहाड़ों निकल जाएँ , बस यूँ ही। धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो। 

नहीं याद है।  

मालूम है। हर इंसान अपने अपने तरीके से अपने आप को बहलाता है और उसको चाहिए भी। आजकल हर चीज़ में पैसा लगता है , मैं जानता हूँ।  लेकिन ये किस कम्बख्त ने कहा कि तफरीह करने का मतलब स्विट्ज़रलैंड जाओ।  

लेकिन ये बताओ कि इधर उधर लिखने का क्या मतलब है ?

हम्म्म्म , सुनो ! क्या तुम हर वक़्त रुहानी किताबें  पढ़ते रहते हो ?

नहीं 

क्या तुम हर वक़्त अपने ऑफिस से मुताल्लिक चीज़ें पढ़ते रहते हो ?

नहीं 

इसका मतलब है कि तुम कुछ इधर उधर की किताबें  रिसाले भी पढ़ते हो।  क्यों ?

क्योंकि हमारे दिमाग को भी कुछ हल्की ग़िज़ा चाहिए होती है।  ऐसे ही मेरे भाई , हमेशा लेख लिखते लिखते , कहानियाँ लिखते लिखते , रिपोर्टिंग लिखते लिखते , मतलब की बात लिखते लिखते मेरा दिमाग़ भी थक जाता है।  लेकिन लिखना मेरा पेशा नहीं शौक़ है तो जब मैं कुछ ऐसा लिखता हूँ जिसका मतलब शायद कुछ न हो , लेकिन मेरा शौक़ तो पूरा होता है।  लेकिन इस बे-मतलब की बात में कहीं न कहीं कोई न कोई मतलब की बात निकल जाती है। इधर उधर से मतलब कुछ हल्का , जो अच्छा लगे। 

हम्म्म्म 

अरे उठिये और थोड़ी सी स्ट्रेचिंग करके ज़रा अपने चारों तरफ बिखरी कुदरती ख़ूबसूरती का लुत्फ़ उठाइये।  आपने आखिरी समय गौरैया कब देखी थी ? फ़ाख्ता देखी है आपने ? आपने नदी के किनारे पानी पैर डालकर कोयल को कब सुना था ?  जंगल में किसी खंडहर होते हुए मंदिर में बैठकर अपने आप से और कुदरत से बातें कब करीं थीं ? याद नहीं होगा न ?

कैसे याद होगा।  हम घर से बाहर निकलते हैं तो कुत्ते को घुमाने का काम।  सब्जी भाजी लाने का काम , बच्चो ने कुछ मँगवाया है वो काम ,  दवाई लानी है वो काम , राशन खत्म हो  घर में वो लाना है सो वो काम। सुबह काम शाम काम। 

सोचो सुन्दर लाल सोचो।       

  


Wednesday, August 18, 2021

आज कलम उठाई कि चलो कुछ लिखा जाए।  कोई नया मुद्दा दिमाग को सूझा क्या ! 

नहीं बिलकुल नहीं , कसम से कतई नहीं। 

फिर आज लिखने का मूड क्यों  बन आया जनाब ?

क्या ये जरुरी है कि हमेशा कोई मुद्दा हो तभी लिखा जाए ? कभी कभी कुछ यूँ ही या यूँ भी लिखा जाना चाहिए।  माँ कसम सच कह रिया हूँ। 

कुछ इधर की कुछ उधर की। कुछ यहाँ की कुछ वहाँ की।  समझ रहे हैं न आप ?

जी बिलकुल समझ रहे हैं  जो आप कह रहे हैं और या अल्लाह यक़ीन  मानिये जो आप नहीं कह रहे हैं वो भी हम समझ रहे हैं। 

बाख़ुदा बड़ा ज़हीन दिमाग पाया है आपने !

अच्छा जी 

हाँ जी। 

देखिये आप मुझे इधर उधर की बातों में भटका रहे हैं।  मैंने कुछ लिखने के लिए कलम उठाई है आज। 

लो कल लो बात।  अभी ख़ुद ही तो कह रह थे कि इधर उधर की बातें लिखेंगे। 

अरे तो इधर उधर का लिखने का मतलब बकवास थोड़ी लिख देंगे।  हाँ नहीं तो।  अरे हम कोई प्रधान मंत्री थोड़े ही है कि जो मुँह में आया बोल दिया , पीछे से सारा मंत्रीमंडल लगा है लोगों को समझाने।  

अच्छा जी।  तो आपका इधर उधर से क्या मतलब है , ज़रा तफ्सील से समझायेंगे ?

समझायेंगे समझायेंगे और हम नहीं समझायेंगे तो कौन समझायेगा।  हमारे पीछे कोई आत्रा या पात्रा तो नहीं है जो नौटंकी करके आपको समझा दे। 

क्रमश: 



Friday, February 14, 2020

बारिश जोरों से हो रही थी और आनंद हाथ में चाय का गिलास लिए मंदिर के बरामदे में ही बैठ गया।  बरामदे में जलती हुई लालटेन की रौशनी और बारिश के पानी में एक अजीब सा सामंजस्य सा महसूस हो रहा था।  ऐसे में मन में विचारों के मानो पंख लग गए हों।  आज आनंद का अपने आप से सामना , न , न, न बातचीत करने का मन हो गया।  और जब अपने आप से बातचीत होती है तो उसको  सुनने के लिए कलेजा चाहिए होता है क्योंकि अक्ल कहती है दुनिया कि दुनिया मिलती है बाज़ार में, दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिये। लीजिये ख़ुद से गुफ़्तगू का लुत्फ़ आप भी उठाइए , आप क्यों बचे रहें।

आनंद, क्या तुम एक दिल फेंक आदमी हो ? 

नहीं।

कोई जल्दी नहीं है आनंद , सोच के जवाब दो।  अपने आपको बचाने के लिए जवाब न दो।  और किससे बचाओगे ? ख़ुद  को ख़ुद से ?

नहीं नहीं ऐसा नहीं है। कई दिनों से मेरे अंदर भी ख़ुद को जानने की जद्दो -जहद चल रही है।  मैंने ख़ुद  भी कई बार पूछा क्या मैं दिल फेंक आदमी हूँ , तो यकीन मानो  जवाब नहीं में ही मिला। 

फिर ?

फिर ... पता नहीं।  और जो मैं अपने आप को समझता हूँ उसको हर्फ़ों में बांधना।  बहुत मुश्किल है।  और अगर मैं कहूँ कि मुश्किल नहीं तो अगर सफ़ों पे लिखूँ  तो कोई यकीन नहीं करेगा।  हाँ सच में यकीन नहीं करेगा। किसी चीज़ की तलाश, किसी चीज़ की जुस्तजू मुझे यहाँ से वहाँ , इस शख़्स से उस शख़्स तक घुमाती रही शायद।  मेरे नैना सावन भादों फिर भी मेरा मन प्यासा।  प्रेम , प्यार , मुहब्बत ये लफ्ज़ बहुत बार सुने, कई बार कहे लेकिन सच कहूं ये नहीं समझ में आया कि मुहब्बत है क्या। 

तसव्वुर में कोई रहता है लेकिन वो कौन है  , ये समझ में नही आया। तबियत कुछ ढूंढती है लेकिन क्या , नहीं मालूम।  एक चेहरा साथ साथ रहा पर मिला नहीं , किसको तलाशते रहे कुछ पता नहीं।

क्रमश:

Wednesday, January 29, 2020


अरे बातों बातों में वक़्त कितना निकल गया पता ही नहीं चला। घड़ी देख चौंकते हुए आनंद ने कहा। बिजली चमक रही है लगता है बारिश होने को है।  अब चलूँगा।  माता जी अभी आज्ञा दीजिये आप भी गंगा। और हाँ सेवक काका से कह दीजियेगा मंदिर में भूत नहीं मैं रह रहा हूँ फ़िलहाल। 

एक ठहाका सबका। 

भूत कैसा भूत ? माता जी का स्वाभाविक सा सवाल।  स्वाभाविक यूँ कि उनको पिछली बातों का ज्ञान न था जो सेवक काका से हुई थीं , यहाँ आते वक़्त।

गंगा ने साड़ी बातें संक्षेप में माता जी को बता दीं। 

अरे वो मुआ किस भूत से कम  है।  माता जी सीधा सा संवाद।

आनंद घर से निकल पड़ा १०० कदम भी न गया होगा की पीछे से किसी ने कंधे पर  हाथ रखा।

कौन है !!!

मुड़कर देखा तो गंगा।  डर गए न।  लीजिये छाता लेते जाइये बारिश के आसार हैं और हाँ वापस देने खुद ही आइयेगा।

छाता ले आनंद चल पड़ा आगे।  वो इतना तेज चल रहा था की जैसे वाकई डरा हुआ हो। 

अरे आनंद बाबू !!! एक स्वर कानों से टकराया।

दाईं तरफ मुड़  के देखा तो किशोर था।  किशोर माने पान की दूकान वाला। 

अरे किशोर तुम यहां। आज दूकान बंद है।

हां बाबू आज जल्दी बंद कर दी मौसम खराब है कहीं झड़ी लग गयी तो घर तक पहुंचते पहुँचते छपर छपर हो जायेगी हालत।  जेब से चुरुट का पैकेट निकाल कर आनंद से कहा " लो बाबू आज शाम आप आये नहीं और मुझे जल्दी निकलना था, सो सोचा की मंदिर जा कर दे दूँ , वहां पता चल की आप गंगा बिटिया के साथ गए हो, सो इधर से निकल रहा था की कहीं रास्ते में टकरा गए तो डिब्बी आपको दे दूँ।

अरे किशोर इतनी तकलीफ उठाने की क्या जरुरत थी? भाई तकलीफ के लिए माफ़ी। 

अच्छा दखो बूंदाबादी शुरू हो गयी है।  तुम भी चलो और मैं भी।  और हाँ इसके पैसे कलआकर  दे दूंगा।

ठीक है बाबू।

मंदिर के बरामदे में पहुँच कर घड़ी देखी अरे बाप रे २५ मिनट लग गए।  दूर तो है। 

कुर्ता उतार खूंटी पे टांग दिया और लालटेन की लौ थोड़ी बढ़ा दी।  आनंद दीवार का सहारा ले मंदिर के बरामदे में बैठ गया और बारिश देखने लगा।  हवा में झूमते चीड़ के पेड़।  एक अजीब सा उल्लास , एक अजीब सी ख़ुशी।  लेकिन सब कुछ सुंदर बहुत  सुंदर। पहाड़ों में अन्धेरा जल्दी हो जाता है रात देर से होती है। पहाड़ खींचते हैं आनंद को अपनी ओर।  वो यहाँ आता है अपने आप से भाग कर नहीं।  कहीं आप ये राय न बना लें कि अपने आप से भागकर , जिम्मेदारियों से भाग कर यहाँ रह रहा है।  न ऐसा कुछ नहीं है। 

टाइम ज्यादा नहीं हुआ था करीब ८:३० बजे थे बारिश भी धीमी हो चली थी। 

आनंद बाबू ऊपर वाले ने आज खाना तो अच्छा खिलवा दिया लेकिन चाय का इंतज़ाम तो खुद ही करना पड़ेगा प्यारे।  वो उठा और चाय बनाने के लिए चूल्हा जलाया , पानी भी चढ़ा दिया।  चाय का गिलास लेकर वो फिर बरामदे में आकर बैठ गया।    
    


Friday, January 24, 2020


हम्म्म , बात तो आप ठीक कह रहे हैं। 

हां और मेरी बड़ी तमन्ना है गंगा की हमारे बच्चे पढ़ने की आदत डालें। 

बात तो सही है आनंद लेकिन एक बात है।

क्या ?

वातावरण , घर का वातावरण , परिवार का वातावरण।

हम्म्म , सही है गंगा , वातावरण तो मुख्य है।  तो क्या करें बताओ।

लीजिये घर आ गया।  आइये अंदर आइये।

आ गयी बेटी तू।  गंगा की माँ का स्वर।

हाँ माँ , इनसे मिल।

अरे आनंद जी।  माँ जी का स्वर पुन:

अब तू पूछेगी अरे माँ  तू जानती है इन्हें।  है न।

हाँ वो तो स्वाभाविक है। तू जानती है इन्हें ?

और आनंद जी आप भले ही कुछ बोल या पूछ न रहे हों लेकिन बेटा तेरी आँखें यही पूछ रहीं हैं। 

बैठ। 

गंगा और आनंद दोनों बैठ गए। 

माँ तू कैसे जानती है ?

अरे ये पुराने वाले शिव मंदिर में रहते हैं।  हैं न आनंद।

हाँ माँ जी। 

अरे इतनी हैरान परेशान करने वाली कोई बात नहीं है।  मंदिर के पास जो हाट लगती है , वहाँ गयी थी तो रामेसर की बहु भी साथ थी।  उसका बेटा पढ़ने जाता है इनके पास। उसी ने बताया था , हाट करने के बाद वो सुनील को लेने मंदिर गयी इनके पास तो मैं  भी साथ थी , वही देखा था।  मधु बता रही थी की बस ध्यान में बैठे रहते हैं।  कई दिन तो उसने  खाना भी भिजवाया है।  स्वामी जी को।  माँ हँस पड़ी। 

हाथ मुंह धो ले चाय बन गयी है। 

चाय !! अभी तो घर में घुसे १० मिनट भी न हुए तूने चाय भी बना ली !!!

हाँ मुझे मालूम था की तुम लोग आ रहे हो। 

अच्छा !!! अब ये किसने बताया तुझे।  गंगा का सवाल माँ से।

सेवक राम जी ने बताया होगा , जवाब आनंद का

सही जवाब ! माँ की स्वीकारोक्ति।

तीनो खिलखिला के हँस पड़े।  
  
 ले चाय ले।  तू गिलास में चाय पी लेगा न?

जी शौक से।

माँ कुछ खाने को लेने चौके में चली गयी।

आनंद हमारे यहां पहाड़ में तू करके बात करते हैं।  इसलिए बुरा न मानियेगा माँ आपको तू कह के सम्बोधित कर रही हैं। 

जी नहीं मानूँगा। बिलकुल नहीं मानूँगा , कतई नहीं मानूँगा। लेकिन आप की जानकारी के लिए बता दूँ कि मेरी पैदाइश पहाड़ की है और schooling भी।  अत: हे गंगे मुझे पहाड़ संस्कृति , रीति - रिवाज़ थोड़े बहुत पता हैं।