Wednesday, March 31, 2010

ईमान के शीशों पे बड़ी गर्द जमी है.

ऐ- मालिक , बरस जाये यहाँ नूर की बारिश, 
ईमान  के शीशों पे बड़ी गर्द जमी है.  
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होने लगी है शाम चलो मैकदे चलें,
याद आ रहा है जाम, चलो मैकदे चलें.
दैरों-हरम पे खुल के जहाँ बात हो सके,
है एक ही मुकाम, चलो मैकदे चलें.
अच्छा नहीं पियेंगे , जो पीना हराम है,
जीना न हो हराम, चलो मैकदे चलें
ऐसे फिजां मे, लुत्फे-इ-इबादत न आएगा,
लेना है उसका नाम, चलो मैकदे चलें


Tuesday, March 30, 2010

एक जरा सा दिल टूटा है, और तो कोई बात नहीं.....

भगवान् के  काम, समझ से बाहर के होते हैं. दुनिया बनाई, समझ मे आती है. लोग बनाये , समझ मे आता  है. दिमाग दिया, समझ मे आता  है. अब दिल बने की क्या जरूरत थी, ये बात मेरी समझ से परे है. अरे जब दिमाग दे दिया था तो उसी में कुछ ऐसा इंतजाम कर देता जो दिल का काम भी करता रहता था. वो तो बड़ा कारसाज़ है कर देता तो आज कितने लोग कितनी तकलीफों से बच जाते. दिल का दौरा नहीं पड़ता, दिल टूटा नहीं करते, लोगों को दिल से खेलने का मौक़ा नहीं मिलता. न दिल होता , न भावनायें होती, न संवेदनाएं होती. आदमी कितना सुखी होता. वफ़ा ये बेवफा जैसे अलफ़ाज़ ही ईज़ाद न हुए होते. न प्यार, न मुहब्बत, न नफरत -- कुछ नहीं. दुनिया कितनी सुंदर होती. न मंजनू होता, न रांझा.

खैर , अब इसके दुसरे पहलू को देखते हैं. अगर दिल बना ही दिया , तो फिर लोग भी  दिलदार होने चाहिये. आज के लोगों, जो दिल होने का दावा करते हैं, वो कहानी याद आती है, जब एक गीदड़ ने शेर की खाल पहन ली और अपने आप को शेर समझने लगा. आज के लोगों ने ईश्वर के घर को (दिल मे ईश्वर का निवास होता है) , तिजारत का सामन बना दिया, Business का सामन बना दिया, खेलने का खिलौना बना दिया, तोड़ने का सामन बना दिया, बस दिल को दिल ही  न बना पाये. लेकिन दावा पूरा है, की हमारे  पास भी दिल है......................  अपना दिल , दिल, दूसरे का दिल, पेप्सी का ग्लास - Use & Thorw.

अच्छा, भगवान् भी तो ऐसे लोगों का हिसाब रखता होगा? जैसी करनी, वैसा फल. आज नहीं तो निश्चित कल. ये मैने एक बस मे लिखा हुआ देखा था. लेकिन ये दिल के व्यापारी, खुश बड़े देखे हैं मैने. क्योंकि दिल एक ऐसी चीज़ है, एक ऐसी commodity है जिसके ग्राहक और खरीददार मिलते भी थोक में हैं. एक ढूँढो , मिलते हैं हजारों. ये दिलों के व्यापारी. ये एक खटमल - मच्छर  की तरह होते हैं. जो अलग - अलग लोगों का खून पीना पसंद करते  हैं. ये देखने मे काफी मिलनसार और मीठा बोलने  वाले होते हैं. हमदर्दी का मरहम हाँथ मे और आस्तीन मे खंजर छुपा कर रखते है. सर पे हाँथ फेरते हैं और पीठ पे वार करते है.

ये तो हुई बात उन लोगों की जिन के लिए दिल एक commodity है. अब जरा उन लोगों का हाल देखते हैं जो दिल को दिल मानते हैं. ऐसे लोग कम तादाद मे मिलते है. और ये लोग पिछडे  वर्ग मे गिने जाते हैं. इनको कुछ लोग दकियानूस के नाम से पुकारते हैं. ये लोग दुसरे के दिल के खातिर अपने दिल पे कुछ भी सहन करने के ताकत रखतें हैं. दुसरे की ख़ुशी की खातिर , अपनी खुशियों को कुर्बान करना, इन लोगों के बाएं हाँथ का खेल होता है. ये अपने दिल को पेप्सी का ग्लास, और दूरी को दिल को कांच का ग्लास समजने की गलती अक्सर करते है. इन लोगों की आंखे हमेशा  सूखी रहती है. दिल रोता है. ये लोग एक जोंक की तरह होते हैं, जिसको चिपक गये , चिपक गये. वहां से हटाया , तो मौत. और उस मौत को ये मौत नहीं मानते, कहते हैं की हम उनके दिल में तो ज़िंदा हैं. अरे भाई जिसके  दिल मे ज़िंदा होने की बात कर रहे हो, ये तो तय कर लो की उनके दिल है भी या नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं की शेर की खाल मे गीदड़ हो.

तोड़ो, फेंको करो कुछ भी, दिल हमारा है, क्या खिलोना है.......

Monday, March 29, 2010

हे राम , ये मैने क्या किया.....................

अगर ईश्वर विलाप कर सकता या अफ़सोस कर सकता तो अपनी बनाई हुए दुनिया को देखा कर उसके मुँह से यही निकलता -----"हे राम ये मैने क्या किया.......................".

Thursday, March 25, 2010

आओ राजनीति करें.....

मेरा बड़ा मन था कि में भी राजनीतिज्ञ बनूँ, नेता बनूँ और देश के लिए कुछ करूँदेश सेवा के लिए नेता बनना तो जरूरी हैं, कई बार सोचा कि चुनाव लडूं, लेकिन कमबख्त जेब नहीं इज्ज़ाज़त देतीसोचता हूँ अपने चुनाव के लिए किसी बड़े कोर्पोरेट कंपनी से बात करूँआज कल तो हर चीज़ मे प्राइवेट के भागदारी होती है, इस मे कुछ हर्ज़ मुझे नज़र नहीं आता और बड़े बड़े लोगो के चुनाव का खर्चा भी तो प्राइवेट कंपनी उठाती हैंबोलो हाँ कि ना? लेकिन मै कोई नामी गिरामी नेता तो हूँ नहीं या सिनेमा का एक्टर  या खिलाड़ी, जिस पर पैसा कोई लगाये. मै तो इंसान हूँ और इंसानों पे पैसा कौन लगता है आजकल?

लेकिन आज कल के आदरणीय नेताओ को देखकर तो नेता शब्द गाली लगने लगा है. आज कल कि राजनीति तो गुंडों,मवालियों या जोकरों का अड्डा है. और संसद सबसे बड़ा अखाड़ा. सोचता हूँ एक बार नेता बन जाऊं, पांच  सालों के लिए, उसके बाद संन्यास. जी हाँ..... पांच साल मै इतना तो कमा ही लूंगा
आप क्या राय देना चाहेंगे?

चलो बाँट लेते हैं अपनी सजाएँ

 जो मै ऐसा जानती , प्रीत करे दुःख होये,
नगर ढिंढोरा पीटती , प्रीत न करियो कोए.


लेकिन मै प्रीत या प्रेम के विरुद्ध नहीं हूँ , यदि वो प्रेम है.

क्योंकि प्रेम का दर्द ............... अल्लाह........ इस का मज़ा ही कुछ और है. जिसने भी प्रेम किया होगा, वो मेरी इस बात से सहमत होगा. इस आग मे जलने का मज़ा ही कुछ और है.

 " उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले" .

कितना सही और कितना सच कहा ग़ालिब ने. इस आग मे जलना, वो भी उसके हाँथो जिसे हम प्रेम करते हों, किस्मत वालों को ये दर्द नसीब होता है.


मेरा दिल , जो हैं न, धडकता बहुत है. लोग कहते हैं बीमारी है, मै कहता हूँ मुझे ज़िंदा होने का एहसास दिलवाता हैं ये दिल. हर धडकते हुए पत्थर को लोग दिल समझते हैं, उम्र  बीत है दिल को दिल बनाने में. . और जब भी उसकी याद आती है, तब जो दर्द उठता है , वल्लाह.............. क्या मज़ा देता है. और जानते हो, जब तुम ये दर्द किसी के साथ बाँट न सको और सारा का सारा दर्द अकेले ही बर्दाशत करना पडे.  ये मज़ा दुगना हो जाता है


मेरे मित्र श्रीमान सुंदर लाल जी कटीला, मेरी इस बात से बड़े खफा - खफा से रहते हैं की तुमको जो बात कहनी है सीधे कहो.... भूमिका क्यों बांधते हो. मै उनको कैसे समझाऊं कि-


कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है,
ये सलीका हो, तो हर बात सुनी जाती है.








Wednesday, March 24, 2010

ये हमारे नेता हैं........

ये हमारे नेता हैं........ महिलाओ के संसद मे आरक्षण हो जाने से इनकी तो नानी मर गयी..... ऐसा लग रहा  है.  बेचारे अपना काबू खो बैठे हैं और जो अनाप शनाप उनके मुँह मे आ रहा बोल रहे हैं या  बक रहे हैं , ये निर्णय आप के उपर. महिलाओ के बारे मे उनकी सोच पता चल रही है. लेकिन खामोश....... ये हमारे नेता हैं. 

और मजे कि बात तो देखिये , उनके प्रवक्ता उनकी वकालत कर रहे हैं. क्या ये मुर्दों कि संसद है? इतना गुर्दा इनमे नहीं है कि कि गलत बात को गलत कह सकें, चाहे वो पार्टी के नेता ही कह रहे हों? पिछलग्गू, चाटुकार, भ्रष्ट और गुंडों कि पनाहगाह बन गयी है हमारी संसद. जो तिहाड़ या किसी और जेल मे हैं, वो थोडे से बदकिस्मत नेता हैं.

चलो वो तो जो कर रहे हैं, कर रहे हैं, हम क्या कर रहे हैं? हमीं तो उनको वोट देकर संसद मे भेजते हैं. रुपयों कि माला पहनाते हैं. खून मे तोलते हैं. और फिर गालियाँ देते हैं. गुर्दा तो हमारे अंदर भी नहीं हैं, ये मुट्ठी भर  नेता (मजबूरी मे मैं नेता का शब्द इस्तेमाल कर रहा हूँ, क्योंकि एक पब्लिक फोरम पे असभ्य भाषा का प्रयोग वर्जित होता है) हमारी मजबूरी हैं, या जरुरत - सोचना  पड़ेगा. हमारी क्या मजबूरी है जो सब कुछ जानते  हुए भी हमको इनको चुनना ही पड़ता है- शायद कोई भी पढ़ा लिखा शरीफ राजनीति मे नहीं जाना चाहता है, क्योंकि वो गाली गलोज नहीं कर सकता, माइक नहीं तोड़ सकता , असभ्य टीका टिप्पड़ी नहीं कर सकता. तो इसका मतलब हमें इन गुंडों और मवाली जैसे नेताओ को झेलना ही पड़ेगा. क्यों मै सच कह रहा हूँ , न?

और अगर कोई आवाज़ उठाने कि कोशिश करता है तो उसकी माँ, बीबी और बेटियों का जीना हराम कर देते हैं ये नेता और इनके गुर्गे.

लेकिन ये हमारे नेता हैं......... इसीलिए ये हमारे नेता है.

पूंछते हो हाल मेरे कारोबार का, आइने बेचता हूँ मैं, अंधो के शहर  में.

Tuesday, March 23, 2010

हमको फिर एक विवेकानंद चाहिए

बहुत डांट पड़ी, बहुत ताने सुनी इस बात पर की मै ब्लॉग अपने उपर या सुंदर लाल के उपर ही क्यों लिखता हूँ. सामाजिक समस्याओं के बारे मैं क्यूँ नहीं लिखता हूँ. मै कहता हूँ किस समस्या के उपर लिखूं? अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता है. रुपयों की माला के उपर लिखूं या पुलिस अधिकारी ने जो बलात्कार किया उसके उपर लिखूं? नेताओ के उपर लिखूं या IPL मै बह रहे पैसे के बारे मैं लिखूं? सब के उपर हमारे मीडिया ने आँख गड़ा ही रखी हैं. फिर भी क्या हो गया.

हम भारतीयों की एक कमजोरी को सारे राजनेता बखूबी जानते हैं कि ये कुछ दिन तक हल्ला मचाती है फिर शांत हो जाती है या आश्वासन कि एक रोटी इसके सामने फ़ेंक दो, ये दुम हिलाने लगती है. कुम्भकरण तो ६ महीने ही सोता था, लेकिन हम लोग सोते ही रहते हैं. हम कब जागेंगे, ये तो भगवान् भी नहीं जानता. रोज़ सवेरे हमारी आँख खुल जाती है, और हम अपने अपने काम मे लग जाते हैं, इसको अगर हम जागना कहते  हैं, तो भगवान् भी हमारी सहायता नहीं कर सकते. 

जिस देश मे कसाब जैसे आतंकवादी को बचाने के लिए भी वकील तैयार हो, वहां का राम भी रखवाला होने को तैयार नहीं होगा. जहाँ रक्षक ही भक्षक बन गए हो, वहां मै अकेला क्या कर लूंगा.

क्या कोई अंत है इसका??? जब तक कोई ऐसा इंसान न पैदा हो जिसमे आत्मा को झकझोर ने कि काबलियत हो, हम नहीं जगने वाले.

ऐ- काश बरस जाये यहाँ नूर कि बारिश ,
ईमान के आइने पे बड़ी गर्द पड़ी है.

हमको फिर एक विवेकानंद चाहिए.

अगर हम कहें और वो मुस्करा दे...

वो हंसी बांटता  है. क्या वो जोकर है?  जी हाँ मैं अपने मित्र सुंदर लाल जी के बारे मै आपकी राय जानना चाहता हूँ. पिछले कुछ दिनों से वो काफी परेशान है, उलझा हुआ है. मैने सुलझाने कि कोशिश करी तो मै खुद उलझ गया.

जी हाँ, सुंदर लाल कि एक आदत है कि वो जहाँ बैठता है, लोग हंसते ही रहते हैं. उसको बड़ा अच्छा लगता है.  किसी उदास चेहरे पे अगर वो एक हंसी की लकीर खींच पाये तो समझता है की आज दिन अच्छा बीता. उसको लगता है खुदा की दी हुई जिन्दगी मे, कम से  कम एक दिन तो काम आया.  किस्मत के नाम को तो सब जानते हैं लेकिन, किस्मत मे क्या लिखा है, अल्लाह जानता है.  तो फिर डर कैसा. जितने दिन खुशीयाँ बाँट सकते हो, बाँट लो, न जाने कब बुलावा आ जाये.

घर से बहुत दूर है मंदिर, चलो यूँ कर लें.
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये.

सुंदर  लाल, अपने आप मे भूल-भुलइया है. क्योंकि किसी का दर्द बांटने का सुख  क्या है , वो सिर्फ वही जानता होगा जिसने दर्द भोगा होगा. दर्द होता रहे और आप अगर मुस्करा सकते हैं तो आप इंसान हैं और उसमे भी अगर आप दुसरे का दर्द बांटने की हिम्मत रखते हैं, तो आप इस दुनिया के नहीं हैं. जी हाँ , मै सच कह रहा हूँ.

उन घरों मे जहाँ मिटटी के घड़े रहते हैं,
कद मे छोटे हों, मगर लोग बड़े रहते हैं.

सुंदर लाल वो इंसान है, जिसको लोगो ने जम कर इस्तेमाल किया है, उसकी मासूम सी भावनाओं के साथ खेला है, लेकिन सुंदर लाल ने हंसने और हँसाने की वो ढाल इस्तेमाल करी की लोग उलझ के रह गए. कई गलतफहमियों को जन्म देती है उसकी हंसी,मगर वो बेपरवाह.

मैने ज्यादा जोर देकर जानने की कोशिश करी, उसके परिवार वालो के बारे मे जानने की कोशिश करी ,  तो बोला:-

समझोतों की भीड़ भाड़ में, सबसे रिश्ता टूट गया,
इतनी घुटने टेके हमने, आखिर घुटना टूट गया.
देख शिकारी तेरे कारण, एक परिंदा टूट गया,
पत्थर का तो कुछ न बिगड़ा, लेकिन शीशा टूट गया.

मैने पूंछा,  शिकारी कौन है? 

वो देखो बचे खेल रहे हैं आओ उनके साथ खेलें. वो बोला.

Friday, March 19, 2010

बिक गए बाज़ार में.....

एक पुरानी फिल्म का शीर्षक था " दूल्हा बिकता है" , नहीं ऐसे बात नहीं है कि दूल्हा अब नहीं बिकता है, अब तो और भी ऊँचे दाम पर बिकता है. लेकिन अब बिकने वालों की कतार मे सिर्फ अकेला दूल्हा ही नहीं है. दाम लगाईये , देखिये क्या - क्या नहीं बिकता है.   

प्यार, मुहब्बत की कीमत तो कई बार लगती है और उसके अच्छे खरीदार भी मिल जाते हैं और अच्छे व्यापारी भी. सबसे सफल व्यापारी वो माना जाना चाहिये जो कितने लोगो की संवदनाओ को बेच चुका हो. और नए ग्राहक भी उसको मिल जाते हों. जो बिकने को तैयार न हो, उन्हें  या तो खोटा सिक्का समझा जाता है , या नाकारा. ऐसे माहोल मे वो लोग क्या करें. क्योंकि वो लोग अपनी खुद्दारी के साथ बिकना चाहते हैं. 

उसूलो पे जहाँ आंच आये, टकराना जरुरी  है, 
जो जिन्दा हैं तो ज़िंदा नज़र आना जरुरी है.

सच कहूंगा, एक बार मैने भी बिकने की कोशिश करी, और में बिका भी. लेकिन मै खोटा निकला. क्योंकि मेरे खरीददार ने मुझे ६ महीने इस्तेमाल करने के बाद, रद्दी घोषित कर दिया. हालांकि मै अपने खरीददार को भी बुरा नहीं कहता , क्योंकि, मैने ही उससे कहा कि

" दुनिया को ये कमाल भी कर के दिखाइये ,
मेरी ज़बीं पे अपना मुक्क्क़दर सजाइए ,
लोगों ने मुझ पे किये हैं जफ़ाओं के तजुर्बे,
एक बार आप भी तो मुझे आजमाइए"  

लेकिन साहब, मै इस बाज़ार से थोड़ा निराश हूँ. क्योंकि यहाँ पे सारे धान पांच पसेरी ही तोले जाते हैं.

चाहत के बदले में हम तो बेच दे अपनी मर्जी तक,
कोई मिले तो दिल का गाहक, कोई हमे अपनाये तो.  

Thursday, March 18, 2010

मेरा भारत महान

क्या सवेरा हो गया? उसने बिस्तर पर करवट बदलते हुए पूंछा
मुंह से चादर हटाओ और देखो, पत्नी ने कुछ प्यार और कुछ ताने के साथ जवाब दिया.
उसने चादर हटा कर खिड़की से बाहर देखा तो उसको अंदाज़ हो गया कि जिस जगह पर सूरज है, कम से कम आठ तो बज ही गए हो गए होंगे.
एक कप चाय आप के हाँथो से मिल जाये तो मेरा सवेरा हो जाये. उसने रोमांटिक होते हुए, पत्नी से कहा.
पत्नी ने भी समझ लिया कि साहब आज दार्शनिक मूड मे उठे है. ओह, आज तो शनिवार है, आप कि छुट्टी है तभी साहब आराम से हैं नहीं तो अब तक तो तैयार हो कर ऑफिस जाने के लिए पदयात्रा कर रहे होते.

खैर, पत्नी ने चाय बनाई एक कप मेरे लिए और एक कप अपने लिए भी. और हम दोनों सवेरे कि चाय का आनंद ले रहे थे. पत्नी ने हाँथ मे अखबार थमा दिया और मेरा दिन बर्बाद हो गया. इसलिए नहीं कि पत्नी ने अखबार दिया, बल्कि इसलिए कि अखबार की खबरें , TV कि खबरें मुझे असहाय होने का एहसास दिलवाते हैं. क्योंकि आधे से ज्यादा अखबार तो ऐसी खबरों से भरा होता है जिन को पढ़ कर मेरा खून खौलता है लेकिन मै कुछ भी नहीं कर सकता. और जो कर सकते है , वो करते नहीं है.

मुझे तकलीफ होती है ये देखकर  कि एक ईमानदार  पुलिस वाला एक हत्या के आरोपी नेता को सलाम कर रहा है. एक आयकर विभाग के ईमानदार अफसर एक भ्रष्ट नेता कि जी हुजूरी मे लगा हुआ है. एक ६२ साल का बूढ़ा, अपनी पेंशन  के लिए अफसर को रिश्वत देने के लिए पैसो के इंतजाम मे लगा हुआ है. गाँव कि औरते पानी के लिए मीलों दूर जा रही है और आदमी चौपाल पे बैठकर हुक्का पी रहा है. पास के गाँव मे नेता माइक  पे चिल्ला रहा है. दूर शहर मे दलितों की  देवी को लाखो-करोड़ों की माला पहना कर उसका  अहंकार संतुष्ट किया जा रहा है. गोवा मे हमारे विदिशी महिला अतिथि का बलात्कार कर के उसकी हत्या कि जा रही है. संसद मे माइक तोडे  जा रहे हैं.  जूते फेंके जा रहे हैं, पुरुष सांसद महिला आरक्षण बिल के साथ भी बलात्कार कर रहे हैं.  करोड़ो का गेहूं सड़ रहा है, खाद्य मंत्री ने उसकी जांच के लिए कमेटी का गठन करने का आश्वासन दे दिया है. विपक्ष शांत हो गया है. पुलिस का बड़ा अफसर, अपनी बेटी के उमर कि एक बच्ची के साथ बलात्कार करने की कोशिश करता है.

टीवी पर विज्ञापन आ रहा है " मेरा भारत महान" .

कभी कभी यूँ भी हमने, अपने दिल को समझाया है

आज कुछ लिखने का मूड नहीं है. काम करने का मूड नहीं है. आज थोड़ी सी निराशा है, थोड़ी सी उदासी है. और इसका भी एक रंग होता है. इसका अपना मज़ा होता है. कभी कभी मन करता है कि चुपचाप अकेले  में  बैठूं और सिर्फ अपने उपर सोचूं. ये भी जरुरी है. कहाँ तक सोचूँ दुनिया के बारे में, दुनिया के लोगो के बारे में, समाज के बारे मे.

मेरे एक अभिन्न मित्र है, जी वही, ठीक पहचाना आप ने. श्री सुंदर लाल जी " कटीला" उन्होने एक बार मुझसे कहा कि " आप ने कभी सोचा  कि मुझ मे और आप मे क्या फर्क है?"  मैने आंखे बड़ी करते हुए , उत्सुकता के साथ पूंछा क्या फर्क है? वो बोला- "आप दिल से काम करते हो, मै दिमाग से काम करता हूँ". बात आई - गयी हो गयी. लेकिन मुझे सोचने पे मजबूर  कर गयी. शायद उसका विश्लेषण सही था.

मैने उससे पूंछा " तो दिल से काम करने मे हर्ज़ क्या है"? वो बोला " हर्ज़ कुछ नहीं है, बस इसी तरह परेशान रहा करो". " अंधो के शहर मे आइने क्यों बेचते हो? उसने मुझसे पूंछा. मै कुछ देर चुप रहा, मुझे लगा कि वो सही पूंछ रहा है.  मैने कहा कि भाई सबका अपना - अपना स्वभाव होता है. मेरी बात पूरी भी नहीं हो पाई कि वो बोला " मै जानता था कि आप यही जवाब दोगे" . अरे स्वभाव तो बदलना पड़ता है. आप अरूप को देखो, वो भी तो आप जैसा ही था, और अब क्या है उसका स्वभाव? लोग डरते है उससे. क्योंकि वो भी लोगो को इस्तेमाल करने का हुनर सीख गया है और उस हुनर को  बखूबी इस्तेमाल करता है. वो चीजों से प्यार करता है और इंसानों को इस्तेमाल. भाई मेरे ये दुनिया है.

 आप तो अंग्रेजी के विद्वान हैं, आप ने तो वो कहावत सुनी होगी " casting pearls before swine". मै ये नहीं कहता कि आप भी अरूप जैसे बन जाओ, लेकिन इंसान को पहचानना तो सीख लो. अरे लात मारो दुनिया को, और दुनिया आप की जेब मे होगी.
दुनिया जिसे कहते  हैं, जादू का खिलौना है,
मिल जाये तो मिट्टी है, खो जाये तो सोना है.

मैने कहा " सुंदर लाल, आज क्या मुझ को बदल ही डालोगे"? भाई मै करूँ तो क्या करूँ. अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया से, कहीं हो जलता मकाँ, अपना घर लगे है मुझे?  हाँ इतना जरूर है कि मै चेहरा देख कर लोगो पे भरोसा कर लेता हूँ, ये मेरी कमजोरी जरूर है. भगवान् से प्रार्थना करो कि मुझे भी पत्थर बना दे. मेरी तो भगवान् से यही इल्तजा  है कि " या धरती के जख्मो पर मरहम रख दे, या मेरा दिल पत्थर कर दे , या अल्लाह".

शायद , सुंदर लाल ठीक ही कह रहा है. अगर दुनिया मे रहना है तो इसके काएदे क़ानून सीखने पड़ेंगे. आप लोग मुझे क्या राय देना चाहेंगे.................

कभी कभी यूँ भी हमने, अपने दिल को समझाया है,
जिन बातो को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है.

Wednesday, March 17, 2010

अखिलेश्वर हैं अवलंबन को........

कहते हैं " तलवार से ज्यादा ताकत कलम मे होती है" . सुना तो मैने भी है. लेकिन आजकल कलम पे भी व्यसाय कि गर्द जम गयी है. मेरी कलम मुझे  कितना पैसा दिलवा सकती है, ये भी एक सोच पैदा हो गयी है या हो रही है. मै जब भी कुछ लिखता हूँ तो ये मान कर लिखता हूँ कि exceptions are every where. इसलिए मेरी बात को व्यक्तिगत न लीजिये तो एहसान होगा.

लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि " कुछ तो है बात के तहरीर मे तासीर नहीं, झूठे फनकार  नहीं हैं तो कलम झूठे हैं" वो कलम कहाँ गयी , वो फनकार कहाँ गए जिनकी कलम आग लगा देती थी. कहीं न कहीं कुछ तो चूक हो रही है. हम अपने चारो तरफ होते हुए भ्रष्टाचार   को देखते है और उसके साथ जीते हैं और फिर दम घुटने कि शिकायत भी करते हैं. हम samjhotay  करते करते इतनी झुक गए हैं कि ये भूल गए कि " इंसान भगवान् कि  सर्वश्रेष्ठ कृति है." चलिये मे थोड़ा सा दार्शनिक हो जाता हूँ. अगर एक बार भी हम ये मानते हैं कि भगवान्  हमारे अंदर है, तो फिर ये भी मानना पड़ेगा कि उसकी शक्ति भी हमारे  अंदर है. तो फिर हम टूट क्यों जाते हैं, झुक क्यों जाते हैं.  

हमारी हालत बिलकुल वैसी हो गयी है जैसे शेर  का  बच्चा , भेड़ो के बीच रहकर ये भूल गया कि वो शेर का बच्चा है.   क्या कोई रास्ता नहीं है. नहीं,  रास्ता तो है लेकिन उसपे चलने वाले कलेजे नहीं रहे. गुंडों का डर, नेताओ का डर, माफिया का डर, पुलिस का डर, अदालत से मिलने वाली तारीखों पे तारीखे का डर. कितने डर से लड़े कोई.

मै आहवाहन करता हूँ मेरे मित्रो का जो मेरे साथ सहमत हो कि आइये हम लोग कुछ नहीं तो कलम से एक ईमानदार कोशिश तो करे. सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद  नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये.

आगे .......... अखिलेश्वर हैं अवलंबन को........ कोई शक ????????

Tuesday, March 16, 2010

नारी तुम केवल श्रधा हो....

नारी तुम केवल श्रधा हो.... इसमे कुछ भी असत्य नहीं है.

लेकिन मै अपनी बहनों से ये जरूर जानना चाहता हूँ कि कहाँ है वो नारी जिसको हमारे शास्त्रों मे शक्ति स्वरूपा कह गया है. कहाँ है वो नारी जो पत्नी बन कर अपना सर्वस्व दे देती है, जो माँ बन कर नयी जिन्दगी देती है, यमराज से सत्यवान को वापस भी लाती है और दुर्गा बन कर महिषासुर का वध भी करती है.

इस पुरुष प्रधान समाज मे मेरी बहनों, आप को अपनी जगह, फिर से हासिल करनी होगी. जब तक महिषासुर मरेगा नहीं, समय बदलेगा नहीं. कब तक आप पुरुषो कि ज्यादतियों को बर्दाशत करेंगी. किस के सहारे  बैठी है आप लोग या हम लोग. क्या उपर से कोई दुर्गा जन्म लेगी? क्या कोई अवतार जन्म लेगा? दुर्गा तो आप के अंदर ही है, उसे बाहर आने का वक़्त है.

कैसा समाज है हमारा? नौ साल कि बच्ची के साथ बलात्कार होता है, हम चुपचाप देखते है. क्यों.......? क्योंकि वो हमारी बच्ची नहीं है. हमारा अभिजात्य वर्ग चाय के कप के साथ अखबार पढता है और चुप रहता है. हमारे नेता  उसको राजनीति कि रोटियां सेंकने का माध्यम बनाते है. हमारे नेता हमको इंसान नहीं अपना वोट बैंक मानते हैं और हम गर्व करते हैं कि चलो हम तो पिछडे वर्ग मे आते हैं, हम तो माध्यम वर्ग मे आते है आदि आदि .....

तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत कि मुहाफ़िज़ है, तू इस नश्तर कि तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा  था. 

क्यों आप के दिलो दिमाग से ये बात उतर गयी है जो हाँथ थपकी देकर बच्चे को सुला सकती है वही हाँथ जरुरत पड़ने पर जान भी ले सकती है. किस बात का इंतज़ार कर रही हैं आप लोग................ बहनों हम लोगो के सामने रानी लक्ष्मी बाई का भी उदहारण है जिन्होने  बच्चे को पीठ पे बाँध  कर दुश्मन से लोहा लिया था. अगर हम पन्ना ढाई को जानते है तो रज़िया सुलतान को क्यों भूल जाते हैं. आप के अंदर दोनों हैं........ उठो और अपने आप को पहचानो .............. अगर आप को मुझमे  भी महिषासुर  नज़र आता है तो शुरुआत मुझसे  ही सही...... 

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था.

आप आगे बढ़ो, दूसरों कि तरफ मत देखो कि कोई और आगे बढेगा तो हम भी आगे बढ़ेंगे. जब तक हम दूसरों कि तकलीफ को अपनी तकलीफ नहीं समझेंगे , हमारे अंदर खून नहीं खौलेगा. जब तक हम अपने आप को दुसरे से अलग कर के देखते रहेंगे ......................... पुरुष समाज आप पे राज करता रहेगा. महिषासुर जिन्दा रहेगा. इज्ज़त लुटती  रहेगी, बहने अपमानित होती रहेंगी, बहुएं जलती रहेंगी,

अब आप सोचो................... कि आप क्या चाहती है.

कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में.....

अरे................... कोई इंसान है यहाँ.


ये पुकार बड़ी अजीब सी लगती है. सोचने वाले ये भी सोच सकते हैं की ये कैसा अजीब आदमी है . चारों तरफ इंसान ही इंसान हैं उसके बाद भी ये इंसान को ढूंढ रहा है.

जी हाँ मै इंसान को ढूंढ रहा हूँ. इसीलिए तो मै कहता हूँ
" कैसी चली है अब के हवा, तेरे शहर में,
बंदी भी हो गए हैं खुदा, तेरे शहर में. "


आदमी तो मिलते हैं, इंसान नहीं. जो भी मिलता है, फरिश्तों की तरह मिलता है. क्या तेरे शहर मै इंसान नहीं है कोई?

मेरे अंदर इतना बिखराव है की अगर अपने आप को समटने के कोशिश भी करता हूँ तो समझ   मे नहीं आता की कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पे रुकूँ.
चंद जख्मी को छिपाना हो तो कोई बात नहीं, पट्टियां जिस्म पे बांधू, तो कहाँ तक बांधू.

Monday, March 15, 2010

चलती फ़िरती शराब देखी है......

हर अदा कामयाब देखी है, गर्दिशों का जवाब देखी है,
हमने कल रात मैकदे मै न पी, बात करती शराब देखी है.

Thursday, March 11, 2010

श.......... वो सो रहा है.

गौर से देखो कैसी शांति है उसके चेहरे पे. कोई भी उसको देखकर ये कह सकता है-


उस तशना लब कि नींद न टूटे दुआ करो,
जिस तशना लब को ख्वाब मे दरिया दिखाई दे.

सो ने दो उसको....... आज काफी दिनों बाद नींद आई है उसको क्योंकि अब उसके पास खोने को कुछ भी नहीं बचा है. अभी तक तो वो अपने आप को बहुत संभाल के रखता था, क्योंकि वो अपने आप को किसी कि अमानत मानता था. अब जो उसके पास है वो कोई छीन नहीं सकता और उससे बड़ी कोई दौलत नहीं. जिसकी वो अमानत था, उसने छोड़ दिया है उसको. कल शाम, वो गाँव वाले पीपल के नीचे बैठा था, और गा रहा था-
 जिन्दगी से बड़ी सजा ही नहीं, और क्या जुर्म है पता ही नहीं.
इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मै, मेरे  हिस्से में कुछ बचा ही नहीं.
लोग उसको पागल कहने लगे हैं क्योंकि वो गाँव मे बच्चो को प्रेम का पाठ पढ़ाता है. वो सब के दुःख-दर्द मे शरीक होता है.  एक दिन वो सुंदर  लाल को समझा रहा था " अमीर वो नहीं है जिसके पास बहुत धन दौलत है, बल्कि अमीर वो है, जिसके पास खोने को कुछ भी नहीं है".  

मै भी उसको काफी समय से देख रहा हूँ. वो कितनी दोहरी जिन्दगी जी रहा है, ऐसा मेरा मानना है, ऐसा मुझे लगता है. सोचा चलो उससे दोस्ती करी जाये. लेकिन उसमे भी वो चालाकी कर गया. दोस्ती तो करी और मुझसे मेरे बारे मे सब कुछ पूंछ लिया, जान लिया अपने बारे में कुछ कहने के बजाय , सिर्फ इतना कह दिया - मेरे कलम पे जमाने कि गर्द ऐसी गिरी, मै अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारों. 

मेरे बारे मे क्या जानना चाहते हैं आप. मैं भी आप लोगो जैसा था........................हमेशा अपने आप को अपने साथ रखता था, और अपना बोझ  ढोता था.

आंसुओ  कि जहाँ पायेमाली रही, ऐसी बस्ती चिरागों से खाली रही,
दुश्मनो कि तरह उस से लडते रहे, अपनी चाहत भी कितनी निराली रही.

Sunday, March 7, 2010

महिला दिवस ..........माँ............ तुझे सलाम.

अजीब आदमीयों को हर चीज़ अजीब ही लगती होगी. क्या ये सच है? नहीं...... मेरा ऐसा कहने के पीछे भी एक कारण है. मैने अक्सर देखा है सडको पर पोस्टर या बेनर  लगे हुए " हिंदी पखवाड़ा" ,     " सड़क सुरक्षा सप्ताह" आदि...... 

इसने मुझे अक्सर सोचने पे मजबूर किया कि के जब सरकार हिंदी पखवाड़ा घोषित करेगी तभी हम हिंदी का प्रयोग करेंगे ? जब सड़क सुरक्षा सप्ताह घोषित किया जाएगा, तभी हम सड़क पर सुरक्षित चलेंगे? मैं हमेशा महिला को एक बड़ी अजीब सोच के साथ देखता हूँ. ईश्वर के बाद अगर कोई जिन्दगी देता है तो वो महिला ही है. जरा शांत दिमाग के साथ बैठ के सोचिये कि कितने बड़ी नेमत दी है भगवान् ने नारी को---- जिन्दगी देने की. शायद  तभी  हमारे  वेदों मे भी लिखा  गया " मात्र देवो भव". मेरे  दोस्तों जरा अकेले  मे बैठकर  " माँ" इस शब्द पर गौर करिए और सोचिये.

बहुत बड़ी विडंबना हैं हमारे समाज की हमने "महिला " को भी राजनीति की रोटियां सेंक ने मे इस्तेमाल किया है.  मैं और कुछ नहीं लिख सकता . जगजीत सिंह साहब की एक ग़ज़ल उद्धत करना चाहूंगा-

हिजाब-इ-फितना परवर , अब उठा लेती तो अच्छा  था.
खुद अपने हुस्न को पर्दा बन लेती तो अच्छा था.
तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है.
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था.
तेरे  माथे का टीका , मर्द की किस्मत का तारा है,
अगर तू साजे -इ-बेदारी उठा लेती तो अच्छा था.
तेरे माथे पे  ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था.


माँ................... तुझे सलाम.

Friday, March 5, 2010

दुखवा मैं का से कहूँ मोरी सजनी.....

दुखवा मैं का से कहूँ मोरी सजनी, भर पाई मैं हो कर इनकी पत्नी...... ये जो हैं न, अब मैं क्या कहूँ. न इधर के हैं ,न उधर के. इनको पैदा होना चाहिए था द्वापर या त्रेता युग में और हो गए कलियुग में. चलो कोई बात नहीं, पैदा होने पर मेरा कोई कण्ट्रोल तो है नहीं, लेकिन हे भगवान्, अगर इनको कलियुग में पैदा करना था तो कलियुग वाले गुण भी तो दिए होते. गुण सतयुग वाले और जन्म कलियुग में . होगई न इनकी जिन्दगी बेकार. और इनके साथ साथ मेरी भी.

कमाल के आदमी हैं ये. मैं सही कह रही हूँ. आज के दौर में भी ये, औरों के बारे में सोचते हैं. अरे.... जहाँ अपने अपनों का गला काटने में गुरेज नहीं करता, वहां जब ये दूसरों के बारे में सोचते हैं, तो बताओ , हे सखी, मैं करूँ तो क्या करूँ. मैने  कई बार सोचा कि इनको दुनियादारी सिखा कर, इंसान बना लूँ, लेकिन नहीं. मुझे अचरज होता है इनको देख कर. लोग इनको इस्तेमाल कर के , दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फ़ेंक देते है, और ये हज़रत, उनको शुक्रिया अदा करते हैं, और लो कर लो बात, उल्टा  मुझे समझाते है, कि देखो, वो ऐसे हैं तो वो हैं, मैं किसी के लिए अपने आप को क्यूँ बदलूं. कसम से मेरे तन बदन  मे आग लग जाती है.

जब मैं इनको समझाने बैठती हूँ तो ये इतनी नादानी से मेरी बात सुनते हैं, जैसे इनको कुछ पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है. इतनी चोट खा चुके हैं , अपनों के हाँथो लेकिन, पता नहीं कौन सी मिटटी से बनाकर भेजा है उपर वाले ने. कोई चीज़ इनको विचलित नहीं करती. ये तो हांथी के जैसे है. हांथी चलता रहता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं. कौन इनको क्या कर रहा , क्या कह रहा है कोई फर्क नहीं, जो सोच लिया वो करना है.

किताबें पढ़ना, लेख लिखना, ग़ज़ल सुनना, शेर सुनना, बच्चो के साथ खेलना, रोते को हँसाना, निराशा को आशा में बदलना,  मरते हुए को जिन्दगी देना यही इनका काम है. खाना मिला तो ठीक नहीं मिला तो ठीक. क्या करूँ मैं इनका-- बोलो रे सखी बोलो.

इनसे ज्यादा कुछ कहो तो एक ही लाइन --- मैं इस जमाने के लायक कैसे बनूँ, इतना छोटापन मेरे बस का नहीं.

न चिड़िया की कमाई है, न कारोबार है कोई,
मगर वो हौसले से आबोदाना ढूंढ लेती है.

भगवान् ही जाने................ इनका क्या होगा............ मुझे ये अच्छे भी लगते हैं.

Thursday, March 4, 2010

किस जमाने के आदमी तुम हो....... एक संवाद

" दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदे...........
 किस जमाने के आदमी तुम हो ??????? 
एक गहरी सांस भरकर सुंदर लाल मुझसे  मुखातिब हुआ और दो चार प्यार भरी गालियाँ देकर बोला आप न कुत्ते की पूंछ हैं न वो सीधी हो सकती है, और न आप.

मैने कहा, सुंदर लाल अब हुआ क्या है वो भी बता दो. तानेबाजी से क्यों काम चला हो रहे हो.

उसने  पूंछा  भाईसाहब, आप दिमाग के इस्तेमाल से परहेज क्यों करते हैं.  इतनी चोट खा चुके है, फिर भी आप नहीं सीखते हैं.
 मैने  कहा - फसले- गुल आई, तो फिर एक  बार असीराने-वफ़ा, 
                   अपने ही खून के दरिया मे नहाने निकले.  
सुंदर लाल, क्यों आप लोग मुझे बदलना चाहते है. अरे ठीक है हर आदमी अपनी अपनी  सोच के हिसाब से व्यवहार करता है. मैं तो उनको भी दोष नहीं देता. तो आप लोग क्यों  चाहते हैं कि मै अपने आप को बदल लूँ. तुम लोग दूसरों के व्यहार को इतनी अहमियत क्यों देते हो कि वो तुम्हारे उपर हावी हो जाए और हमको अपना स्वभाव बदलने को मजबूर करे.
"  मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे समुंदर  जो मेरी तलाश मै है. "

सुंदर लाल को एक झटका लगा. उसका चेहरा देख कर मै समझ सकता था कि वो मुझसे सहमत है. दूसरो से चोट खा के सावधान हो जाना गलत नहीं है, लेकिन उसके लिए अपने आप को बदल लेना, गलत है. क्योंकि आप के बदल जाने से कई ऐसे भी लोग होते हैं , जिन्हे आप का स्वभाव अच्छा लगता है, फिर वो भी आप से दूर हो जाते हैं. समझे श्रीमान सुंदर लाल जी. तुम को साधू और बिच्छू  वाली कहानी तो याद होगी. एक साधू नदी में नहा रहा था और नदी में एक बिच्छू बहता हुआ जा रहा था. साधू ने उसी अंजुली मै भर कर बाहर निकालने कि चेष्टा करी तो बिच्छू ने डंक  मार दिया, और वापस नदी में गिर पड़ा.  साधू ने फिर उसे बाहर निकालने कि कोशिश  करी फिर वही हुआ. लगातार तीन-चार बार यही होने के बाद, साधू ने बिच्छू को नदी से बाहर निकाल कर बचा लिया. 

एक आदमी ये सब देख रहा था. उसने साधू से पूंछा कि जब वो बिच्छू बार बार आपको डंक मार रहा था, तभी आप उसको बचाने कि कोशिश क्यों कर रहे थे. 
साधु ने  जवाब दिया- जब वो जानवर हो कर अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा था, तो मै इंसान हो कर अपना स्वभाव क्यों छोडू?

सुंदर लाल कहने लगा कि भाईसाहब दर्शन से जिन्दगी नहीं चलती. मैने कहा सुंदर लाल, ये दर्शन नहीं , ये सच है. भाई मै जैसा हूँ, वैसा ही हूँ. जो मेरे स्वभाव से मेल खायेगा, मेरे साथ रहेगा, जो नहीं , वो नहीं. इसमे इतना सोचना समझना क्या.  

सुंदर लाल, मेरे जीवन का दर्शन बहुत सीधा है, प्यार बाँटते चलो......

वो अपने वक़्त के नशे में , खुशियाँ  छीन ले तुझसे,
मगर तुम जब हंसी बांटो, तो उसको भूल मत जाना.

यही है मेरी जिन्दगी और इसको जीने का तरीका.......





मैं सस्ता हूँ.....

अभी कुछ देर पहले श्रीमती जी बाज़ार से आई हैं, मेज के उपर थैला रखकर उनके मुंह से एक ही वाक्य निकला     " हाय महंगाई" . मैने उनकी तरफ देखा , उन्होने मेरी तरफ देखा और मैने कहा " भगवान् है" . वो बोली अब भगवान् क्या करेगा . वो तो है ही. मैने कहा तुम समझी नहीं. जिस कदर आग लगी है महंगाई की, उस दौर में हम लोग दो टाइम खाना खा रहे है ये किसी चमत्कार से कम नहीं है. एक जमाना था जब गरीब आदमी रोटी और प्याज खा कर काम चला लेता था, आज कल वो अमीरी की निशानी बन गया है.

मेरे अभिन्न मित्र सुंदर लाल "कटीला" ने तो अपनी बैठक मे प्याज , आलू, टमाटर आदि से सजावट कर रखी है. जब मैने उनसे इसका कारण पूछा तो वो बोले भाईसाहब ये कीमती सब्जी है, और कीमती चीजों से घर सजाया है, आप को क्या आपत्ति  है. मैने कहा नहीं भाई आपत्ति नहीं , थोड़ा नया सा लगा तो पूछ लिया. वो बोला भाईसाहब, ये सरकार जो न करवाये कम है.  उसने मुझे ये ज्ञात करवाया की, भाईसाहब आपने शायद  गौर नहीं किया कि सब्जी का अगर आप रेट पूछे तो सब्जी वाला भी पाव भर का ही रेट बताता है. कहीं न कहीं उसको भी डर रहता होगा कि अगर किलो का रेट बता दिया तो ग्राहक भाग न जाये.

अब तो पेट्रोल का रेट भी बढ़ा दिया है, सरकार ने. सोचता हूँ कि ऑफिस जाने के लिए स्कूटर छोड़ कर , बस से जाऊं. लेकिन कमबख्त बस का किराया भी महँगा हो गया. काश बैलगाड़ी का जमाना फिर से लौट कर आता. बैलगाड़ी को ऑफिस में पार्क करता. हरी - हरी घास बैल खाते. कितना अच्छा लगता. मेरी तो पहुँच नहीं है, कोई मेरी पीड़ा आदरणीय प्रधान मंत्री जी को भेज सकता है???

एक दिन सुंदर लाल सपरिवार मेरे घर आ धमका.  श्रीमती जी ने खाने मे अरहर की डाल बना दी तो सुंदर लाल ने एक कटाक्ष कर ही दिया " ऊँचे लोग ऊँची पसंद" , जबकि उसको पता नहीं था की जब कोई मेहमान खाने पे आता है, तभी हम लोग अरहर कि दाल खाते है.

मेरे  अंदर बड़ी अजीब - अजीब से विचार आते है, जैसे क्या मनमोहन सिंह जी की पत्नी को पता होगा कि आलू या प्याज, या टमाटर या तेल, या आटे, या दाल का भाव क्या है. मुझे शक है. मै भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवान् मुझे अगले जन्म मे कोई सब्जी बना कर भेजना. एक बार ही बिकुंगा लेकिन महंगा बिकुंगा और एक बार कटने के बाद तो मुक्ति.

अभी तो आलू, प्याज, आटे, तेल के मुकाबले  में मैं ही सस्ता हूँ........

Wednesday, March 3, 2010

जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ....................

देखिये मेरी बात का गलत मतलब मत निकालिए. . क्योंकि
सच्ची बात कही थी मैने , लोगो ने सूली पे चढ़ाया,
मुझको जहर का जाम पिलाया, फिर भी उनको चैन न आया.

मैं और मेरा दोस्त सुंदर लाल दोनों उस वर्ग में आते है, जो ये महसूस करते हैं कि ईश्वर ने अगर दुनिया में भेजा है तो कुछ करने के लिए ही भेजा होगा. न कि स्वार्थी की तरह अपने लिए जियो. वो तो जानवर भी करते हैं. हम सभी अपने चारो तरफ गलत होता हुआ देखते हैं, लेकिन जुबान खोलने से डरते हैं. जमाना बाहुबलियों का है. और अगर घर मे बीबी , बच्चे हैं तो हम नपुंसक बन जाते है.  जानते हैं कि गलत है, फिर भी बर्दाशत करते है. आवाज़ उठाने से डरते हैं. इसलिए नहीं कि हम सब डरपोक हैं, बल्कि इसलिए कि कल घर पे गुंडों का सामना कौन करे.

आजकल तो गुंडे भी वर्दी मे घुमते हैं. कोई जात के नाम पर रोटिया सेंक रहा है, कोई भाषा के नाम पर. क्या आप मेरी बात से सहमत हैं? मुझको नहीं लगता कि भगवान् ने आदमी मे कोई भेदभाव रखकर उसको बनाया होगा. लेकिन हमने इंसान के साथ इंसानियत  को मार डाला. मुझे याद आता है निदा फाजली साहब का एक शेर-
" हिंदु भी मजे मैं हैं, मुसल्मा भी मजे मे,
इंसान परेशान है, यहाँ भी , वहां भी. "

मुझको गुस्से के साथ साथ तरस भी आता है उनलोगों पे, जो इन राजनितिज्ञो के हाँथ का खिलौना बन कर खेलते हैं. कोई राम के नाम पर लड़ता है और तो कोई रहीम के नाम पर और मजे कि बात ये हैं कि उसके बाद उपदेश भी देते हैं कि सब का मालिक एक. और हम सब सुनते भी हैं, तालियाँ भी बजाते है. क्यों नहीं हम उन पर जूता फेंकने कि हिम्मत रखते ?  ऐसा हम सब के साथ होता है कि कोई दुर्घटना देखते है तो वहां से बच कर निकलने कि सोचते है, क्यों ?????  क्योंकि पुलिस का सामना कौन करे. पुलिस वालों कि गन्दी जुबान कौन सुने?  अपनी इज्ज़त अपने हाँथ, और इसीलिए वहां से बच निकालने मे ही हम अपनी भलाई समझते हैं. और भलाई है ही उसमे. कोई आरुशी मरती है तो हम को उसमे अपनी बेटी नज़र नहीं आती. कोई रुचिका अपमानित होकर आत्महत्या कर लेती है, हम बेचारी  कह कर चुप हो जाते है. क्या हो गया हम सब को ???????  एक लड़की का बलात्कार होता है और उसके बचाव मे वकील खडा हो जाता है. मुझे तो शर्म आती उस वकील पे.

" शहर मे हादसों के लोग आदी हो गए, एक जगह एक लाश थी और कोई हंगामा न था.
दुश्मनी और दोस्ती पहले भी होती थी मगर, इसकदर माहौल का माहौल जहरीला न था.

कब तक हम ये सब देखकर चुप रहंगे. क्या हम सब के अंदर अंतरात्मा  मर  गयी. क्या हम सिर्फ चार दीवारी को ही अपना घर मानते  रहंगे ??  क्या हम इन सब से बाहर आना नहीं चाहते या बाहर आने से डरते हैं. किसी न किसी को तो ये बीड़ा उठाना ही पडेगा. कब तक हम दूसरे की तरफ देखंगे ????

झूठी सच्ची आस पे जीना, कब तक आखिर आखिर कब तक,
मय की जगह खूने दिल पीना, कब तक आखिर, आखिर कब तक.
सोचा है अब पार उतरंगे, या टकरा कर डूब मरेंगे ,
तूफानों कि ज़द पे सफीना, कब तक आखिर , आखिर कब तक.

मेरे दोस्तों, एक बार अपने आप से हम सभी को पूछना पड़ेगा, क्या हम ज़िंदा हैं ??  क्या हमारे सीने मे दिल है ??  दिल है तो दूसरे की तकलीफ में रोता क्यों नहीं ??  अगर हम ज़िंदा हैं तो हम में प्रतिक्रया क्यों नहीं  होती ????

मै अपने आप को अपने उन सभी भाइयों और बहनों को समर्पित करता हूँ, जो मेरी सेवा लेना चाहे.

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है, कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
तेरे सीने मे नहीं, तो मेरे सीने सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.

आएये, आप का स्वागत है. जो घर फूंके  आपना, चले हमारे साथ....................

Tuesday, March 2, 2010

गुमशुदा की तलाश


माँ............ आज फिर पापा लेट आयेंगे क्या? बिटिया ने पूंछा

मैं क्या बताऊँ.... वो मुझ से कह के गए नहीं हैंएक ठंडा सा जवाब मिला माँ से

मेरा इतना सारा होम वर्क पड़ा है और पापा का कुछ पता नहींबिटिया की शिकायत थी

तुम को अपने होम वर्क कि चिंता है, यहाँ घर के सारे काम लटक रहे हैं, लेकिन साहब को जब घर के बारे मैं सोचने का वक़्त मिले तभी तोउनको तो दुनिया कि ज्यादा चिंता है अपने घर में चाहे आग लगी होएक विश्लेषक आलोचना

आप सोच रहे होंगे कि अब ये क्या शुरू कर दिया मैनेघर कि बाते भी मैं ब्लॉग पे लिखने लगानहीं ऐसा कुछ नहीं हैये मेरे मित्र सुंदर लाल के घर का छोटा सा दृश्य हैऔर ये रोज़ का हैमै सुंदर लाल को अच्छी तरह जानता हूँ, समझता हूँलेकिन, सुंदर लाल को एक पिता कि तरह उसकी बेटियाँ जानती हैं, पति के रूप मे उसकी पत्नी जानती है, लेकिन सुंदर लाल को सुंदर लाल के रूप मे कोई नहीं जानता और ही कोई जानना चाहता हैवक़्त किस के पास है जो इंसान को इंसान के रूप मे समझे। कोई पति, कोई पिता, कोई दोस्त, कोई पेप्सी के प्लास्टिक के ग्लास कि तरह होता हैइंसान बचा कहाँ हैबेचारा सुंदर लालवो तो एक रोबोट बन गया

" चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला
मेरी आवारगी ने मुझको क्या से क्या बना डाला"।

कल मिला था सुंदर लाल, हंस रहा थामैने पूंछा क्या बात है भाई, बड़े खुश होतो एक दार्शनिक कि तरह जवाब दिया- मैं तो हर वक़्त हंसता हूँ, यारकभी हालात पर और कभी खुद परभाई, रोने से फायदा क्याकौन समझता है यहाँ परसब अपना अपना काम निकालते हैंमेरी बेजुबान आँखों से जो गिरे हैं चंद कतरे, जो समझ सको तो आंसू, समझ सको तो पानीड्यूटी - ड्यूटी-ड्यूटी- यही तो जिन्दगी हैजज़्बातों की कद्र कहाँ होती है बाज़ार मेमैं सुंदर लाल का मुहं देखता रहावो एक दार्शनिक की तरह बोलता ही जा रहा थाजैसे कोई बाँध टूट रहा होमैं भी चुप था, और सुंदर लाल को, सुंदर लाल की तरह महसूस करने कि कोशिश कर रहा था

"बहुत गहरी चोट लगी है ", मैने पूंछावो मेरी तरफ घुमा, कुछ देर तक मेरी आँखों मे आंखे डालकर देखता रहा, फिर मुस्करा कर बोला " कुछ तो नाज़ुक मिजाज हैं हम भी, और ये चोट भी नई है अभी" , मैने कहा, यार, शेर सुना कर कब तक अपने आप को छुपाते रहोगे"   बोलो मेरे भाई बोलो, ये जमाना समझता नहीं है, सुनता है, और वो भी सिर्फ वो बातें जो उसके मतलब की  होती हैं

सुंदर लाल ने जवाब दिया - बड़े भाई, अगर हम भी आम लोगो जैसे बन जायें , तो क्या फर्क है उनमे और मुझमे. मुझे तकलीफ कम और आश्चर्य ज्यादा है. क्योंकि लोग ऐसे भी होते हैं, ये किताबो में पढ़ा था, पहली बार सामना हुआ. मजा आता हैं उन लोगो का सामना करने मे. जिनकी खातिर कभी इलज़ाम उठाये हमने, वही पेश आए  हैं इन्साफ के शाहों कि तरह. जब चोट उनसे लगती है जिनसे उम्मीद हो, तो तकलीफ कम होती हैलेकिन जब चोट उनसे लगती है, जो "अपने" हो , तो दर्द बर्दाश्त  के बाहर हो जाता हैऔर रही बात जमाने कि तो सुनो जमाने कि चिन्ता मैने कभी नहीं की. हाँ इतना जरूर सीख लिया कि वो कौन से लोग होते हैं जो चोट खा कर भी दुआ ही देते हैं, कि खुश रहो. में तो उनको इतना ही कहता हूँ, कि " आओ सिकंदर - - हुनर आजमाए, तुम तीर आज़माना, हम जिगर आजमाए।"

सुंदर लाल मुझे अपने जीवन का दर्शन समझा कर और झूठा बहाना बना कर की जरूरी काम है, चला गया. मैं वही खड़ा खड़ा सोचता रहा, कि ये आदमी किस मिट्टी का बना है. जिनसे चोट खाता , उन्हीं से जा कर पूंछता है- कोई तकलीफ तो नहीं हुई आप को. और अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका दिल टूटा.............