Monday, April 4, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 10

जवाब दूँ या न दूँ।
दूँ तो क्या दूँ और न दूँ तो बद अख़लाक़ी होगी।
मेज पर रखे ज्योति के पत्र को देख कर आनंद की प्रतिक्रया।

उठो  मयकशों ताज़ियत को चलें
ख़ुमार आज से पारसा हो गया ।

मालिन मां जरा कागज़ कलम दे दीजिये।

प्रिय ज्योति जी ,

आप का ख़त मिला , लेकिन ,

इसमें कोई शिकवा , न शिकायत न गिला है ,
ये भी कोई ख़त है की मुहब्ब्त से भरा है।

हालत ये है कि अगर लिखूं तो बहुत कुछ नहीं तो कुछ भी न लिखूं।  क्या लिखूं ? आप ने जो किया , वो किया , सो किया। अब ये सब  सोच के क्या फायदा ? यूँ होता तो क्या होता , वो होता तो  क्या होता।

जाने भी दो यारों।   

हमको किस ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही,
किसने तोड़ा दिल हमारा , ये कहानी फिर सही।

मैं वापस आ गया हूँ और आराम से हूँ। आराम से अपने सामने खेल और तमाशे होते हुए देखता रहता हूँ और आनंद लेता हूँ।  सभी कुछ वही है।  बस आंखे  तालाब नहीं हैं , फिर भी भर आती हैं , और इंसान मौसम नहीं है फिर भी बदल जाता है।  और इलज़ाम वक़्त के नाम।   वक़्त बुरा था, वक़्त अच्छा था , आदि आदि  . . . . .you know .


आशा करता हूँ स्कूल अच्छा चल रहा होगा।

माता  जी को मेरा प्रणाम।

आनंद।

मालिन माँ    . . .


हाँ  . .

ये पत्र रामदीन काका को दी दीजियेगा।

और मुझे खाना दे दीजिये।

रात काफी हो चली थी और आनंद बिस्तर में चला गया।

खिड़की से जाड़े की रात और गहरे नीले आसमान पर चमकता हुआ चाँद और बिखरे हुए तारे।

                                                                                                                                             क्रमश:


 
   

Wednesday, March 30, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 9

आनंद घर आना  . . .

निमंत्रण के लिए धन्याद  . .  .

धन्यवाद का मतलब , आप नहीं आओगे ?

अरे. हमने तो एक बात की, तुमने कमाल कर दिया।

अच्छा चलती हूँ।

और राधा चली गयी।

आनंद अकेला बैठा रहा और आनंद भी तो अकेले रहने में ही मिलता है।  साथी होने पर मुझे अपने पर भी यकीन नहीं होता।

खाना खाने आओ भइया  .  . . अंजलि की गुहार।

आता हूँ।

पंडित जी भी बैठे  .  ..  . आज कितने दिनों बाद आनंद  खाना खा रहा हूँ।

पंडित जी और पंडित जी की बातें

भोजन से निपटकर आनंद ने विदा मांगी।

आ गया बेटा  .  . .  . .

हाँ।

रामदीन ये चिट्ठी दे गया है।

चिट्ठी ?

और हाँथ में सैलाब था।

चिट्ठी ज्योति की है  , ये आनंद को पता था.

आनंद ,

5  साल होने को हैं।  माँ याद करती हैं पूंछती हैं की आनंद कहाँ है क्यों नहीं आता अब। बताओ मैं क्या जवाब दूँ ? क्या समझाऊँ उन्हे , क्या छुपाऊँ , क्या बताऊँ।  अरे मैंने ये तो पूछा ही नहीं कि आप कैसे हो।  चलो अब बता दो लेकिन जो कहोगे सच कहोगे।

कितनी अजीब सी बात हैं न, 5 साल बीत गए।  कहाँ पाँच घंटे नहीं बीत पाते थे।  वक़्त बदल  गया या हम ,पता नहीं।  या वक़्त के पाटों के बीच हम पिस गए। गाँव छोड़े हुए काफी वक़्त बीत गया , अम्मा भी अब  साथ ही रहती हैं। लेकिन याद आता है गाँव का वो पनघट, वो स्कूल , वो मंदिर , वो नदी का किनारा , वो सरजू की नाव , सब याद आता है. मैं कुछ भी भूली नहीं हूँ आनंद.

वो चमन की सैर, वो फूलों का बिस्तर याद है,
हमको अपने दौर का इक इक मंज़र याद है।

लेकिन कहीं कुछ तो हुआ।  ख़ैर मैं तो जानती हूँ लेकिन तुम बहुत सी बातों से अंजान हो।  उठते होंगे प्रश्न तुम्हारे ज़हन में और लाज़मी भी हैं।  शायद मुझसे तुम्हे कुछ  शिकवा भी हो और गिला भी और शायद तुम मुझे गलत भी समझ रहे होगे।  

कभी वक़्त मिलेगा तो समझाऊँगी।  अभी रूकती हूँ।  रामदीन काका गाँव वाले घर में ही रहते हैं. अगर समझो तो पत्र का जवाब उन्ही को  दे देना।

क्या लिख के पत्र समाप्त करूँ , चलो

ज्योति।

आनंद ने पत्र को मेज पर रखा और चुरुट निकाली , जलाई और एक लंबा कश ले कर वही पास में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।

आये हैं समझाने लोग , हैं  कितने  दीवाने लोग.
वक़्त पे काम नहीं आते हैं , ये जाने पहचाने लोग।

                                                                                                                                 क्रमश:



   



Tuesday, March 29, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 8

लेकिन आनंद आपकी दुआ के लिए मेरे हाथ हमेशा उठे।

ये तो मेहरबानी है आप की लेकिन अगर बुरा न मानो तो एक बात कहूं।

बोलिए  .  .

One hand which comes for help is better then 100 hands raised in prayers. मुझे याद हैं वो दिन , समाज ने मेरे बहिष्कार सा  कर  दिया था, मेरे पास आ कर लोगों ने अपने घर आने से मना कर दिया था. जानती हो क्यों ? क्योंकि लोगों ने मुझसे कोई बात नहीं clear करी।  किसी ने कहा ,किसी ने सुना और किसी ने विश्वास कर लिया।
राधा,
अपने दिल की किसी हसरत का पता देते हैं ,
मेरे बारे में जो अफ़वाह उड़ा देते हैं।

अफवाहों का शिकार आदमी कैसे होता है , मैँ दो-चार हुआ हूँ इस चीज़ से।  Joker तो जानती हो न।  शुरू -शुरू में बच्चों के चेहरे पे उदासी और ख़ामोशी कैसे कलेजा चीरती थी , मैने महसूस किया है। उनको हँसाने के लिए उनके सामने नाचना , उल्टी सीधी  हरकते करना , उनके साथ खेलना और जानबूझ कर  हारना , सब किया मैंने।  दर्द और चोट को सीने में रखते हुए ,मुस्कराना , आज भी करता हूँ और अब  तो इस कला में महारत हासिल कर ली है।     

हालत कुछ ऐसे हो गए थे , आनंद।

मैं तुमको या किसी और को दोष नहीं दे रहा हूँ।  अगर ये वक़्त न आता तो मुझे अपनी ताक़त का अंदाजा न हो पाता। I am grateful to all who refused to help me, because of that I could do it myself.
लेकिन

हमारे क़त्ल की साज़िश तो दुश्मनों ने की ,
मगर कहीं कहीं तुम्हारा भी नाम आता है।


फिर ख़ामोशी।

मंदिर में आरती खत्म हो चुकी थी।  शान्ति: शान्ति: शान्ति:

तभी अंजलि प्रकट हुई और चुटकी लेती हुई बोली , चाय रख दूँ अगर आप लोगो के बीच की ख़ामोशी भंग न हो।
आप लोग बात नहीं करते हो या खामोश रह कर  बात करते हो।  समझ में नहीं आता।

चुप रह , ज़्यादा समझने की कोशिश मत कर।  राधा ने अंजलि के सर पर हलके से मारते हुए कहा।

अंदर चलो बाबा बुला रहें हैं।  बाहर ठंड बढ़ रही है , लेकिन आप लोगों तो पता ही नहीं चला होगा।  अंजलि ने फिर चुटकी ली।

चल चाय अंदर ही रख दे , वहीँ आते हैं।

तीनो लोग अंदर कमरे में आ गये।

आओ बेटा  . . . . पंडित जी का आत्मीय स्वर। आज ये मंदिर कितना चहक रहा है।

जाड़े की शाम , अदरक और तुलसी की चाय ,अपनों का साथ , वो कहते हैं न  . . . .

हांथ में शराब , बगल में शबाब ,
जन्नत इसके आगे खत्म।

बाबा कुछ दिन यहीं मंदिर में रुक सकता हूँ ? आनंद का आग्रह पूर्ण सवाल।

कुछ दिन क्यों ? जितने दिन रुकना है उतने दिन रुक।

बाबा मैं खाना भिजवा दूंगी , आप मत बनाना। चाय खत्म करके कप नीचे रखते हुए राधा ने कहा।  अभी चलती हूँ।

ठीक है बिटिया। पंडित जी राधा से।

घर आना आनंद। राधा आनंद से।
                                                                                                                                 क्रमश:




 




   

Monday, March 28, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 7

शाम ठंडी हो चली थी, रिश्तों की तरह।

आनंद ने हँसते हुए पास पड़ी कुर्सी की तरफ ईशारा करते हुए कहा कि बैठ जाओ या मैं आप के अदब में खड़े हो कर ही बात करूँ।

राधा मुस्कराई और कुर्सी में बैठ गयी।  आनंद भी आराम कुर्सी में  बैठ गया।

और सुनाई  . . .  क्या हाल चाल हैं आपके ,एक लम्बी साँस लेते हुए , बात शुरू करने ले लहज़े में आनंद ने राधा से पूँछा।

सब ठीक है।  एक रटारटाया जवाब, राधा का।

आप बताइए , राधा का प्रश्न , वो कुछ जानना चाहती है, लेकिन खुल के पूँछ नहीं पा रही है।

क्या जानना चाहती हो ? आनंद ने जवाब में कहा।

क्या अब सिर्फ ओपचारिकता रह गयी है , इस रिश्ते में ?

बहुत  जल्दी है अभी ऐसा कुछ कहना लेकिन  गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोर , लाख करो कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है. 

हम्म्म्म  . . . .  .

कुछ पूँछना था आप से।

तो पूँछिये।

आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?

राधा , क्या सोचूं। और जब  तक तथ्यों का पता न हो तो खाली assumptions बनाने से क्या हासिल होगा। ऐसा हुआ होगा , या वैसा हुआ होगा , इसलिए ये हुआ या वो हुआ. जब तक ये न पता की आप ने ऐसा किया तो क्यों  किया , तब तक क्या राय बनाऊं। लेकिन बिना किसी गलती के किसी को दण्ड दे देना , क्या उचित होता है? जो मेरे साथ हुआ।  आप के पतिदेव ने मुझसे कहा की मैं आप के घर न आऊं।  मैंने स्वीकार किया।

मैं कैसे कहूं की वो बेवफा है ,
मुझे उसकी मजबूरीयों का पता है।

आप एक भद्र महिला हैं।  और क्या कहूं।

ये सुनकर दोनों बड़ी शोर से हँसे और देर तक.

मैं एक बात पूँछू अगर आप इजाज़त दे, आनंद राधा से।

बिलकुल  . . .  . राधा की आज्ञा।

मैं आप को आप कह के सम्बोधित कर  रहा हूँ , पहले तुम कह के बात करता था।  ये आप को अटपटा नहीं लग रहा है?

लगता है और लग रहा है।

आपने कभी जाहिर नहीं किया।  . . . .

दोनों चुप।

वो ग़ज़ल तो सुनी होगी आपने  . . . .

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकक्लुफ् मिट गए,
आप से फिर तुम हुए , फिर तू का खुँवाँ हो गए।

हम तो उलटी ग़ज़ल गाने लगे  . . . . तू से तुम और फिर आप  .  . . .

 राधा मुस्करा दी।

तो क्या अब सिर्फ औपचारिकता ही रह गयी है ? आत्मीयता नहीं।  राधा का सवाल आनंद से।

आप मुझसे मिलने आज यहाँ आईं हैं , ये आत्मीयता ही है।  लेकिन जब रिश्तों पर वक़्त की जंग लग जाती है तो उसको साफ़ करने में भी वक़्त लगता है। और ये दोनों तरफ से होना चाहिए।  आप को याद होगा एक वक़्त था जब हम लोग घंटो बात करते थे और कौन से बात हमने नहीं की। लेकिन आज हालत ये है की दिन बीत जातें हैं , हफ्ते बीत जाते हैं , किसी को किसी की कोई ख़बर नहीं।

समझौता जो करते हैं , मुहब्ब्त नहीं करते।

आप टूटे नहीं।

वक़्त ने और लोगों ने कोशिश तो काफी करी लेकिन रखते हैं जो औरों के लिए प्यार का जज़्बा , वो लोग कभी टूट कर  बिखरा नहीं करते।                                                                                                                                                                                                                                                                    क्रमश:



  

Thursday, March 24, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 6

क्या कह रही है तू ?

हाँ दीदी ,मुझे पता है की मैं क्या कह रही हूँ।  वो मंदिर आये थे. बाबा से मिले , चाय पी , काफी देर बैठे। हीर चली गए।  बाबा ने कहा है की शाम को आरती में आना।

क्या कहा उन्होंने ?

कहा तो कुछ नहीं ,मुस्कराए और चल दिए। अच्छा तो ऐन चलती हूँ , दीदी।

राधा  . . . . .  हँसे की रोये ? विश्वास करे की न करे।

क्या मंदिर जा कर  पंडित से पूंछू ? राधा का अपने आप से सवाल।

क्यों क्या करेगी पूँछकर ?

अरे ! करना क्या है।

इसी उहापोह में वक़्त की रेत हाँथ से फिसल गयी और शाम आ पहुंची।

मैं मंदिर जा रही हूँ, राधा ने निर्मला से कहा और निकल गयी.

हालाँकि मंदिर ज़्यादा दूर नहीं था लेकिन वक़्त इस वक़्त नहीं कट रहा था , वैसे रुकता नहीं है।  लेकिन अपने आप में राधा भी जानती थी की वक़्त बहुत गुज़र गया है पता नहीं आगे क्या होगा।  5 साल बीत गए।  कुछ इमारतें खंडहर बन गईं और कई रास्तों की दिशा बदल गईं , कई दरख़्त सूख गए.....

मतलब बहुत कुछ हुआ , शाम की आरती का आवाज़ राधा के कानों में पड़ी , अरे मंदिर आ गया।

 आ गयी बेटी , पंडित जी मंदिर के बाहर ही मिल गए, लगा जैसे उसी का इंतज़ार कर रहे हों।

नमस्ते  ..... राधा का अभिवादन।

खुश रह बिटिया।

आ. . . .

पंडित जी राधा का हाँथ पकड़ कर  लगभग दौड़ते हुए चल रहे थे। पंडित जी ने राधा को कुर्सी पर बैठाया और स्वयं मंदिर में चले गए. राधा वहां बैठी सब तरफ देखती रही। आज मंदिर में रौशनी भी ज्यादा थी और आरती का स्वर भी स्वरमय था. पत्ते के दोनों में चिराग पोखरे के पानी में तैर रहे थे।  घंटे और घड़ियाल की आवाज़ दूर दूर तक जा रही थी , कुछ तो अलग था आज माहौल में. अचानक राधा की नज़र बरगद के नीचे पड़ी आराम कुर्सी पर जा टिकी।  राधा ठिठक कर  खड़ी हो गयी और कुर्सी तक गयी और.  . . . . . . .

आनंद आंखे बंद करे अधलेटा था।

तुम आ गईं  . . .  .. .

ये किसकी आवाज़ है राधा ने मुड़कर देखा , आसपास कोई नहीं था.

बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं।

नमस्ते राधा जी  . . . .  आनंद ने अदब से कुर्सी से खड़े होते हुए राधा से कहा।

कैसे हैं  . . .  . राधा का सवाल।

तुम्हारी कठिन सवाल पूंछने की आदत नहीं बदली , राधा।

तो और क्या पूंछू , आप ही बता दीजिये। राधा ने आनंद से थोड़ा क्रोधित हुए कहा।

कब आये और कहाँ थे ?

कल आया और कहाँ था , क्या बताऊँ।  वक़्त इतना बीत गया है की याद भी नहीं।

आप कैसीं हैं ?

मैं ठीक हूँ।

फिर सन्नाटा।

वक़्त की रफ़्तार और हालत ने एक रिश्ते को तुम से आप तक ला दिया।  और मैं इसको एक हानि मानता हूँ।जब औपचारिक्ताएँ किसी भी रिश्ते के बीच पसर जाती हैं तो परिणाम  . . .   फिर सन्नाटा, ही हुआ करता है. कोई शख्स जो की कभी अपना रहा हो और जब उसके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़े , तो समझ लेना चाहिए की उस रिश्ते की उम्र पूरी चली है।

                                                                                                                              क्रमश:









Monday, March 21, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 5

नहीं मेरी मुलाक़ात नहीं हुई , राधा  से.

हालांकि आनंद के इस जवाब पर पंडित जी और अंजलि हल्क़े से चौंके ज़रूर , लेकिन अब सब कुछ पहले जैसा नहीं था , इसलिए कुछ पूँछा नहीं।  और पूँछते भी तो क्या ? वो दोनों तो प्रत्यक्ष गवाह थे और हर चीज़ से आगाही थी उनको।  और कौन सी नयी चीज़ हुई थी ,

यूँ तो हर रिश्ते का अंजाम यही होता है ,
फूल खिलता है , महकता है बिखर जाता है।

अब तो यही रहोगे ? पंडित जी का आनंद से प्रश्न।

आनंद मुस्कराया और बोला पंडित जी :-

अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं ,
रुख हवाओं का जिधर का है , उधर के  हम हैं।

अच्छा लग रहा था यूँ आनंद का, धीरे धीरे ही सही लेकिन अपने आपमें लौटना।

हाँ अभी तो यही हूँ।

काम काज क्या कर रहा है आज कल ?

अभी तो कुछ नहीं. लेकिन अब सोचा है की जो थोड़ी बहुत जमीन पड़ी है उसमें कुछ खेती-बाड़ी करूँ।

ख्याल अच्छा है।

दोपहर हो चली थी , आनंद सवेरे का निकला हुआ था।

अच्छा पंडित जी अब आज्ञा दीजिये , चलता हूँ।

ठीक है बेटा। शाम को आरती के वक़्त आना।

आनंद ने पंडित जी की तरफ देखा , मुस्कराया और विदा ली।

आनंद  . .  ..  . रामदीन आया था।  मालिन माँ का सूचना देता हुआ स्वर।

अच्छा। कैसे  आया ?

कैसे मतलब ? उसको पता चला की तू आया है , सो मिलने आया था।

खाना बन गया है। अगर तू अभी खाए तो परस दूँ , नहीं तो मैं जरा हाट तक जा रही हूँ।  घंटा भर लगेगा।

लौट आओ तभी खा लूंगा।

आनंद बरामदे में पड़ी आराम कुर्सी पर ही बैठ गया। हालाँकि सर्दी की ठंडी हवा शूल की तरह चुभ रही थी। उसने एक चुरुट निकाली और धुआँ ही धुआँ। पंडित जी का शाम की आरती में आने का न्यौता।  जाउँ मैं  या न जाउँ। आनंद उठा और कमरे मैं जा कर सो गया।  उठा  . . . . .  तो सूरज पश्चिम की तरफ काफी दूर निकल गया था.

दीदी  . . . .  . दरवाजे पर आवाज़ सुनकर राधा ने दरवाज खोला और अंजलि को देख कर खुश हुई    . . .   अरे आज दीदी की याद कैसे आ गयी?

दीदी आज शाम आरती के लिए आओगी ?

अंजलि की आवाज़ में ख़ुशी , उत्सुकता , हाँफना सब कुछ ही  था।

अरे क्या हुआ ,पगली कुछ बताएगी भी।

दीदी  . . .  शाम को मंदिर आओ न।

अरे ठीक है  . .  आउंगी ,लेकिन हुआ क्या ,ये तो बता।  बड़ी खुश नज़र आ रही है।

दीदी फ़कीर आया है।

क्या ?????
                                                                                                                                क्रमश:














कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 4

पंडित जी आनंद को देखते रहे और आनंद पंडित जी को , आगे बढ़कर आनंद ने पंडित जी के पैर छुए और पंडित जी ने आनंद को सीने से लगा लिया।  ये वो पल थे जहाँ सिर्फ आँखों से बात हो रही थी , आँसुओं से बात हो रही थी , शब्द अनुपस्थित थे  लेकिन हर कोई बोल रहा था , हर कोई सुन रहा था और हर कोई समझ रहा था. आनंद आगे बढ़ा और प्यार से अंजलि के सर पर हाँथ रख कर पूंछा कैसी है?

अंजलि आनंदसे लिपट कर रोने लगी।  पंडित जी ने वहीँ बरगद के नीचे खाट बिछा दी और दोनों वहीँ बैठ गए।  बिटिया जरा दो कप चाय तो बना ला और देख तो कुछ खाने को है ?

अंजलि चल गयी.

कैसा है बेटा ?

ठीक हूँ , पंडित जी।

आप कैसें हैं , काफी कमजोर हो गऐं  हैं।

बेटा , अब 66 का हो गया हूँ।  अब भी अगर वक़्त अपने निशाँ नहीं छोड़ेगा तोफिर कब ? भाई घोडा बूढ़ा हो चला है ,पता नहीं सवारी कब साथ छोड़ दे।

अरे छोड़िये पंडित जी , अभी तो आप जवान हैं।  थोड़ा सा आनंद का एक परिचित अंदाज़ दिखा।

कैसी रही तुम्हारी यायावरी ?

एक मुस्कराहट आनंद के चेहरे पे तैर गयी।  काफी अनुभवी बना दिया है मुझको , अब मैं भी थोड़े अभिमान के साथ कह सकता हूँ की ये बाल धूप में ही सफ़ेद नहीं किये हैं। लेकिन मैं मूर्ख था पंडित जी।

क्यों?

बुद्धिमान तो वो होते हैं जो दूसरों की अनुभव से सीख लेते हैं , और मूर्ख वो जो आग गर्म है , ये जानने के लिए , आग में हाँथ डाल कर उसका अनुभव करते हैं।

ये मूर्खता नहीं है आनंद , अगर स्वर्ग  देखना है तो मरना तो पड़ता है।

हम्म्म।

क्या बात है, आनंद , कुछ तल्ख़ी सी क्यों है जबान में और शब्दों में ढीलापन , क्यों?

नहीं , नहीं , तल्खी नहीं।  उचाटपन सा जरूर है।  बहुत समय हो गया स कुछ अपने अंदर रखते रखते।
कब तक आख़िर , आख़िर कब तक।

झूठी सच्ची आस पे जीना , कब तक आख़िर , आखिर कब तक,
मय की जगह खूने दिल पीना , कब तक आख़िर , आखिर कब तक।

आनंद भैया चाय  . . . . . . .  अंजलि का आगमन।  अंजलि 21 की हो चली है।

आनंद भैया  . . . .  आप राधा दीदी से मिले।  एक साधारण सा सवाल। क्या सवाल साधारण था ?

आनंद को जवाब देने में कुछ देरी और पंडित जी ने आनंद की तरफ देखा।  दोनों की आँखे मिलीं   . . . . . .  .

                                                                                                                                       क्रमश:

 


  


Saturday, March 19, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता ..........3

अच्छा , चाचा अब इजाज़त दीजिये , इंशाल्लाह फिर मुलाकत होगी और खाला चाय के लिए शुक्रिया।

सलाम करके आनंद वहां से चल दिया।  चलता रहा और चलता रहा. जब उद्देश सामने हो या गंतव्य सामने हो तो चल ने का अंदाज़ में और जब गंतव्य सामने न हो तो चलने के अंदाज़  में फर्क होता है , ये तो मानते हों न आप।  यही फर्क आज आनंद के चलने में था।  वो चल रहा था लेकिन उसे कहीं जाना न था. पंचो वाला पीपल भी निकला गया , सरजू की चाय की दूकान भी निकल गयी।  सूरज भी धीरे धीर सर पर आ रहा था. आनंद

अरे आनंद बाबू !!!

अचानक कान में पड़ी इस आवाज़ ने आनंद को रोका , उसने मुड़  कर देखा तो धनीराम।

अरे धनीराम ! कैसे हो भाई ? आनंद ने पूंछा।

मैं ठीक हूँ , आनंद बाबू।  आप कैसे हैं ?कब आये ? चिट्ठी न कोई सन्देश ? सब कुशल तो है न।

अरे भाई ...... रुको , रुको।  सांस तो ले लो।  आनंद ने हँसते हुए कहा।

अरे मैं धनीराम का परिचय तो कराना भूल गया।  वो नाव का मालिक है , जिस पर कभी आनंद और ज्योति जाया करते थे.

सब ठीक है भाई।  कुछ समय के लिए शहर चला गया था।  अचानक मन उखड़ गया शहर से।  तो वापस चला आया।  अपनी मिट्टी अपनी ही होती है।

बाबू जी ज्योति बिटिया कैसी हैं ? एक innocent सा सवाल।

और आजकल या अब  सिर्फ यही सवाल है जहाँ और जिस पर आनंद चुप रह जाता है.
 
भाई काफी समय से मुलाक़ात नहीं हुई है इसलिए पता नहीं।

एक दिन चाची मिलीं थीं बाज़ार में।  धनीराम ने कहा।  लेकिन में थोड़ा जल्दी में था इसलिए नमस्ते कर
के निकल गया।

ह्म्म्म्म्म। ...... 

अच्छा भाई अभी चलता हूँ।  फिर आऊंगा सैर के लिए।

जी आनंद बाबू।

आनंद फिर चल दिया।

वो बरगद तो बड़ा जाना पहचाना सा लगता है , रेल की पटरी पार कर के आनंद थोड़ा आगे बढ़ा ही था तो सब कुछ तो वैसा ही था।  वही बरगद , वही पोखरा और वही कृष्ण  मंदिर। दिन का समय था , तो शान्ति पसरी हुई थी चारों तरफ. बीच बीच में किसी गाड़ी  की आवाज़ सन्नाटे को चीर जाती थी।  आनंद वहीँ बरगद के नीचे बैठ गया।  पोखरे का शांत पानी।  उफ्फ्फ  . . . . . . . . बहुत सारी यादें , मतलब बहुत सारी इस जगह से जुडी थीं।

पिता जी   . . . . . . . . . . . . . . आनंद भैया।

अब ये आवाज़ किसकी थी और पिता जी कौन हैं , क्या भी बताने की जरूरत है ? चलिए बताता चलता हूँ।  वो आवाज़ अंजलि की थी और पिता जी , पंडित जी हैं , जो इस मंदिर के पुजारी हैं।

कुछ समय बाद पंडित जी , अंजलि और आनंद आमने सामने थे।  तीनो चुप।  जहाँ पर आँखों से बातें हो रहीं हों , वहां शब्दों का प्रयोग अनुचित है।

बोलो अनुचित  है न ?

                                                                                                                                  क्रमश :




Thursday, March 17, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता ..........2

सूरज सर पर चढ़ आया था।

आनंद की  आँख खुली , हड़बड़ा के  उठ के बैठ गया , इतनी देर तक मैं कैसे सो गया , ये क्या हो गया मुझे।

चाय बन गयी है बेटा , मालिन माँ का स्वर।

आता हूँ।

बरामदे में पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गया , मालिन माँ ने चाय दे दी।  तबियत तो ठीक है न, बेटा ?

क्यों , ऐसा क्यों पूँछा ? आनंद ने सवाल के जवाब में सवाल किया।

नहीं , जब से तू आया है कुछ बुझा बुझा सा है , इतनी देर तक कभी तू सोया नहीं।  सवेरे रामदीन आया था।  पूँछ रहा था  तेरे बारे में , मैंने कह दिया अभी तो आनंद सो रहा है।  कहा तो नहीं उसने कुछ, लेकिन चौंक जरूर गया।
मलिन माँ का observation कुछ ठीक ही था।  लेकिन बुझा सा नहीं हूँ मैं।

लेकिन वही दरो दीवार , वही रास्ते , वही पगडण्डी और वही लोग ........ कुछ अपरिचित से लग रहे थे।

नाश्ते में हरी मटर और चूड़ा बना दूँ। मालिन का सवाल

हूँ  ....... आनंद का जवाब।

नाश्ता करके आनंद गाँव में घूमने निकल पड़ा।

वो चमन की सैर , वो फूलों का बिस्तर याद है ,
हुमको अपने दौर का एक एक मंजर याद है।

सर्दी की सुबह , सूरज की चमक से ओस की बूंदें ऐसी चमक रहीं थीं जैसे कुदरत ने हीरे ही बिखेर दिए हैं।  इसहाक  मियाँ के खेतों से आनंद निकला , तो खेंतों में हरे  चने की खुशबू ने रोक लिया , वहीँ मेड़ पर बैठ गया आनंद और चने खाने लगा। कमबख्त दिल।  पल में बरसों पीछे चला जाता है।  यादों का दायरा भी अजीब है।  कभी मन पर बोझ डाल कर उसे डुबो देना चाहती हैं और कभी वही डूबता हुए मन को सहारा भी देतीं हैं।

लो भाई , गर्म गर्म खांड पियो। . अचानक पीछे से आवाज़ आई।

मुड़ कर देखा तो इसहाक मियाँ ख़ुद खांड का गिलास ले कर खड़े थे।

तसलीम , चाचा।  आनंद का अभिवादन।

उम्र दराज़ हो आनंद।  चाचा की दुआ।

कैसा है ?

ठीक हूँ। आप कैसे हैं ?

करम है अल्लाहताला का।

घर में सब कैसे हैं ?

सब ठीक हैं।  रज़िया का निकाह हो गया , पड़ोस वालें गाँव में , उसके शौहर का छोटा मोटा अपना काम है।  ख़ुश  है।  मासीर मियाँ रोज़गार के चक्कर में शहर में हैं , महीने में एक-दो बार आते जाते हैं. यहाँ पर तो मैं हूँ और तुम्हरी खाला।

बड़े दिन बाद आया तू , बेटा ?

हाँ , चाचा।  ज़मीन से भाग कर हमे लगता है की हम अपने आप से भाग लेंगे।  लेकिन पट्टियां जिस्म पे बांधू तो कहाँ तक बांधू।

चल घर चल , खाला  भी तुझे देख कर खुश हो जाएगी।  और एक एक कप चाय हो जाएगी.

दोनों चल पड़े। रास्ते खामोश।

ज्योति से मिला ? चाचा का अचानक दागा  हुआ प्रश्न।

आनंद ने चाचा की तरफ देखा और सोच में पड़  गया क्या जवाब दूँ।

  ऐसे क्या देख रहा है।  क्या मैं  जानता नहीं हूँ।

नहीं नहीं चाचा ,ऐसी बात नहीं है।  पहले जान पहचान तो कर लूँ ज़मीन से।

ह्म्म्म्म्म......दिल पे चोट खायी है मियाँ।

दिल के किस्से कहाँ नहीं होते ,
हाँ सभी से बयाँ नहीं होते।

आनंद इसहाक मियाँ की तरफ देख कर हंस पड़ा।  बोला।

लोग कहते हैं मुहबत में असर होता है ,
कौन से शहर में होता है , किधर होता है।


दोनों हँस पड़े।

अरे........ शाहीन  बेगम, देखिये कौन तशरीफ़ फ़रमा हैं आज. इसहाक मियाँ ने अपनी बेगम को आवज़  दी।

अरे आनंद बेटा।  खाला ने गले से लगा लिया और आनंद की झोली दुआओं से भर दी।

आदाब खाला।  आधा झुक कर आनंद ने खाला का सलाम किया।

बेगम , आनंद तो हमारे खेत में घास चर रहे थे ,मैं ले आया इनको घर पर एक कप चाय के लिए।

तीनो खिलखिला के हंस पड़े।



                                                                                                                              क्रमश:






 

Monday, March 14, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता ..........

धीरे धीर गाड़ी स्टेशन पर रुकी।  स्टेशन पर चहल-पहल बढ़ी।  चाय वाले के आवाज़ भी सुनाई पड़ने लगी और गर्म समोसे वाले की भी। आनंद डिब्बे से उतरा और पास में पड़ी बेच पर बैठ गया। थोड़ी देर में इंजन ने सीटी दी और चंद मिनटों में स्टेशन पर फिर से सन्नाटा छा गया।

वही स्टेशन , वही भवानी काका की चाय की दुकान , चंद इक्के -ताँगे वाले।  आनंद धीरे धीरे बाहर की तरफ चलने लगा , रिक्शा किया और घरकी तरफ चल पड़ा।  कितने समय बाद घर लौटा हूँ ? आनंद का अपने आप से सवाल।  कुछ भी नहीं बदला , इतने समय में।  घर के सामने छोटा सा बगीचा , अभी हरा भरा है , कोई तो इसकी देखभाल कर रहा है , ग़ुलाब अब भी खिले हुए हैं।  गुलमोहर के पेड़  से फूल ऐसे गिरे हैं की तमाम रास्ता ही लाल हो गया।  बरगद के पेड़ पर झूला अब भी पड़ा हुआ है , लेकिन कोई झूलने नहीं आता। आनंद ने घर की सांकल छनछनाई , लेकिन कोई नहीं आया , हल्का सा धक्का देने से ही द्धार  खुल गए और आनंद घर में घुसा , सब चीज़ें वैसी की वैसी ही तो रखीं थीं।

आ गया बेटा।  पीछे से एक आत्मीय स्वर सुनाई पड़ा। मालिन माँ , जिनकी कमर अब झुक गयी थी , हाँथ में झोला उठाये , घर में घुसीं. आनंद को गले से लगाकर रो पड़ीं।  कितना बदल गया है रे तू ? कितना चुप।  मैं सब जानती हूँ।  आ बैठ।  हाँथ मुंह धो ले और पहले गुड का सरबत पी ले।  ढेर सारी बाते करनी हैं तुझसे। आनंद ने मालिन माँ के पैर छुए और वही पास पड़ी आराम कुर्सी पर पसर गया।  थक गया था।

मालिन माँ , एक कप चाय पिला दो पहले।  तो कुछ आराम मिले।  सर में हल्का सा दर्द और भारीपन है।  आनंद ने मालिन माँ से कहा।

अभी देते हूँ बेटा।

तेरे जाने के बाद मैं यहीं रहती थी।  तेरा बगीचा , देखा तूने , वैसा ही है।  रामसरन , हामिद, पंडित जी , अंजलि, रवि, अविनाश सब पूछते थे तेरे बारे मैं। आनंद सुन रहा था , लेकिन वो शून्य में ऐसे देख रहा था जैसे सामने  पटल पर कोई पिक्चर चल रही हो।  सालों साल पुरानी।

ले बेटा चाय ले। और नहा कर थोड़ा आराम कर ले।

हाँ , मालिन माँ थक गया हूँ।

स्कूल कैसा है , मालिन माँ ? आनंद का प्रश्न।

ठीक है. अब तो  काफी बच्चे हो गएँ हैं। दो महीने पहले कोई आया था स्कूल में, बड़ी रौनक थी , रंगीन बत्तियां भी जल रही थीं. कोई जलसा था शायद।
 

ज्योति की कोई ख़बर है तुझे ? आनंद से मालिन माँ का सीधा सवाल.

आनंद ने मालिन माँ की तरफ देखा और मुस्करा दिया।  सुंदर लाल आया था कभी मेरे जाने के बाद ? बात घुमाने के आदत आनंद की

तेरी आदत नहीं गयी , मुस्कराहट में दर्द छुपाने की।  मालिन माँ का सालों का अनुभव बोला.

रामदीन आता -जाता रहता है सो खबर मिलती रहती है ज्योति बिटिया की।

आनंद ने सिगरेट जलाई और एक तरकीब में उड़ते हुए धुएँ की तरफ देखता रहा।

कुछ दर्द ऐसे होतें हैं जो कभी नहीं भरते

ज़ब्ते ग़म कोई खेल नहीं है तुम्हें कैसे समझाऊं ,
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है।
                                                                                                                                             क्रमश :