Tuesday, December 27, 2011

कोई जाने ना......

चलो ज्योति थोड़ी देर टहल के आते हैं.......तुम्हे देर तो नहीं हो रही है...?

नहीं...नहीं...चलो......लेकिन तुम कुछ गर्म पहन लो.....

हाँ.....वो शाल दे दो....जरा...

मालिन माँ...मैं जरा घूम ने जा रहा हूँ......

अच्छा......

तुम हमेशा घूमने के लिए यहीं क्यों आते हो......आनंद....

ज्योति...एक अजीब सा सुकून मिलता हैं यहाँ...पर.....इस टीले पर बैठ कर....नीचे बहती गंगा...दिल-ओ-दिमाग मे एक अजीब सी शान्ति देती है.....और ये मंदिर.....बहुत शांत है.....गाँव से थोडा दूर है..इसलिए  लोगो की आवाजाही भी कम रहती है.....

तुमको अकेलापन पसंद है...आनंद..?

हाँ...ज्योति.....

लेकिन यारों दोस्तों में बहुत हंसी मजाक करते हुए देखा है मैने....

क्या हर हंसी के पीछे ख़ुशी ही  होती है.....ज्योति..?

ग़म छुपाते रहे मुस्कुराते रहे, महफ़िलों-महफ़िलों गुनगुनाते रहे
आँसुओं से लिखी दिल की तहरीर को, फूल की पत्तियों से सजाते रहे....


क्या बात है.....आनंद..कुछ परेशान हो....


नहीं ज्योति ...परेशान नहीं ...कहते हैं रात जितनी गहरी होती है...सितारे उतने ही साफ़ दिखाई पड़ती हैं.......और जाड़ों की रात....कभी छत पर जाकर आसमान को देखो....कितनी शान्ति , कितना सुकून मिलता है......वो देखो...चाँद के पास चमकदार तारा देख रही हो...ज्योति.....

हाँ.....

वो शुक्र है.... जिसको English में Venus कहते हैं....कहते हैं ना  men are from  Mars , Ladies are  from  Venus ...


अच्छा जी.....ऐसा क्यों....

क्योंकि Venus is  the  goddess of  beauty ....

ओहो....

हाँ जी......

आनंद...तुम इतने बात करने वाले हो...जब चुप रहते हो....तुमको घुटन नहीं होती......

होती है......बिलकुल होती......है...सर में भारीपन भी होता....लेकिन क्या करूँ.....किसको आती है मसीहाई..किसे आवाज़ दूँ.......

बिलकुल अकेले हो ना.....आनंद.....

हाँ......बिलकुल....अकेला...ज्योति....लेकिन....निराश नहीं.....हारा हुआ नहीं....हाँ थक जाता हूँ..कभी कभी....

ज्योति...तुमको डर  नहीं लगता.....

किस बात का डर.....आनंद..?

मेरे साथ इस बेनामी रिश्ते का डर.....

आनंद......ये जो नदी है......इसके दो किनारे हैं.....ये कभी मिल नहीं सकते ...लेकिन कभी एक किनारे की नदी भी नहीं होती...और रही बात....दुनिया से डर की......तो किस बात का डर.....मैं तुम्हारे  साथ रहना कोई पाप नहीं समझती.....कोई गलत नहीं समझती.....कोई दुसरा क्या समझता है...क्या सोचता है....यर मेरी सरदर्दी तो  नहीं है.....खैर ये बात practical नहीं है......संतुलन, balance ...ये बहुत अहम होता है..आनंद. अगर मैं अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभा कर..कुछ समय तुम्हारे साथ बीतती हूँ.....अपने आप से जुडती हूँ, अपने real self को पाती हूँ.....तो किसी का क्या नुकसान ...... ये दुनिया, ये समाज.............समाज ...आनंद किस समाज की बात  करते   हो तुम......ये बना है की आदमी को अकेलेपन से बचा सके लेकिन......छोड़ो न आनंद ....इस समाज और दुनिया की  बातें.....

ज्योति.....हंसी आती है......अपने हालत पर, दुनिया पर और समाज पर.....

वो देखो एक नाव वाला कितनी मस्ती से गाता हुआ जा रहा है.......ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में.....सागर मिले कौन  से जल में...कोई जाने ना.......

ठंड बढ़ रही है..चलो वापस चलें.....

वापस तो जाना है ......आनंद.

Wednesday, December 21, 2011

प्रेम-2

आनंद.....कब तक चुपचाप कोई जले ?

ज्योति.....इसकी कोई सीमा नहीं है.

अच्छा आनंद...एक बात सच सच बताना.....

बोलो......वैसे भी मैं झूठ नहीं बोलता.....

तुम्हारी जिन्दगी में  मेरा स्थान क्या है......

ज्योति.....ये सवाल तुमको पूंछना पड़ रहा है....????

मुझे गलत मत समझना आनंद.....

अरे नहीं....ऐसा नहीं है.

ज्योति...ये बहुत कठिन और आसान सवाल है..कठिन इसलिए....क्योंकि कुछ लोग किसी की जिन्दगी में वो स्थान रखते हैं ....जो परिभाषित नहीं किया जा सकता. जिसको शब्दों में बांधने की कोशिश उस इंसान के साथ अन्याय होता है.....और आसान इसलिए...की तुम मुझ पर विश्वास करती हो..तो में जो कुछ भी कह दूंगा..तुम मान लोगी....हाँ अगर वो अतिशोयोक्ती न हो....है कि नहीं......

तुम बोलो आनंद......

क्या बोलूं....ज्योति.....अब अगर हवा इंसान से पूंछे कि उसके जीवन मे उसका क्या स्थान है...या खुशबू अगर फूल से पूंछे कि उसके लिए खुशबू का क्या महत्व है...तो बताओ कोई जवाब दे तो क्या दे....तुम्ही बताओ...मैं कुछ  भी भूला नहीं हूँ....किन किन और जिन जिन हालातों से मैं गुजरा हूँ.....उसमें तुम्ही थीं जो मेरे साथ खड़ी थीं....जिसका विश्वास मेरे उपर से तब भी नहीं डिगा, जब मैं टूट कर बिखर रहा था.....अब और क्या बताऊँ......

आनंद....तुम मुझे आसमान पर मत बिठाओ.....मैं क्या थी और अब क्या हूँ...ये सिर्फ मैं जानती हूँ..और जो मैं हूँ...इसको बनाने में या पुनर्जीवित करने में तुमने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी..में तो अपना वजूद ही भूल गयी थी......

अब तुम मुझे आसमान पर मत बिठाओ...ज्योति....कुछ gifts जो भगवान् हमे देता है, वो मर नहीं सकतीं....वो खत्म नहीं सकतीं...हाँ उनकी आंच ठंडी हो सकती है.....मैने सिर्फ वही किया....

वही मनुष्य है कि मनुष्य के लिए मरे....

 लेकिन ये रिश्ता.......

कुछ  रिश्ते बेनाम होते हैं......लेकिन सब से खुबसूरत होते हैं.....गमले में लगा गुलाब देखा है ना....कभी किसी जंगले में जा कर जंगली गुलाब को भी देखो....कैसा हवा के साथ लहराता है, इठलाता है, लचकता है...वो खूबसूरती गमले के गुलाब में नहीं होती...मत दो हर रिश्ते को नाम....

अच्छा अब अगर में ये पुंछु कि मेरा क्या स्थान है.......तो.....

हूँ......सोचना पड़ेगा....


प्रेम...

आनंद बेटा......आज खाने में क्या खायेगा......मालिन माँ का हमेशा की तरह कठिन  सवाल......

कुछ भी बना दो माँ......हमेशा की तरह आनंद का सरल सा जवाब....

तुझसे तो कुछ पूँछना ही बेकार है......मटर का पुलाव बना देती हूँ.....चाय लेगा....

मालिन माँ....ये भी कोई पूंछने की बात है...जवाब ज्योति का.....मेरे लिए भी बना दो.....ना.

अच्छा....अच्छा...कहते हुए मालिन माँ रसोई की तरफ चल दीं....

आनंद.......

हाँ ज्योति.....आनंद का कुछ चोंकेते हुए सा जवाब 

क्या हुआ आनंद...इतना चोंक क्यों गए...लगता है की दिमाग कुछ चल रहा है......कुछ परेशान हो....??

नहीं परेशान तो नहीं..हाँ दिमाग जरुर चल रहा है......

क्या चल रहा है दिमाग में.....बोलोगे.

कुछ ख़ास नहीं...ज्योति.....सोच रहा हूँ...की मेरी जो छवि लोगो के दिमाग में बनी है...एक आवारा, मस्त मौला, लापरवाह...इससे मुझे कितना फायदा है....लोग मेरे बारे में seriously सोचते ही नहीं, मेरे चरित्र की गहराई का अंदाजा नहीं लगा पाते....तो मैं कितनी उलाहनो से बच जाता हूँ....जानतो हो ज्योति...."पर उपदेश कुशल बहुतेरे" ..... लेकिन जो उपदेश हम दूसरों को देते हैं..जब उनको जीने की बारी आती है..न ज्योति.....तब कितने लोग खरे उतरते हैं....

आनंद.....ऊँगली उठाना बहुत आसान है....ख़ास कर दूसरों पर...मुझे सब कुछ पता है....जो जो तुम सुन रहे हो, जो जो उंगलियाँ तुम पर उठ रहीं हैं.... लेकिन मैने अभी तक तुमको अपना धैर्य खोते हुए नहीं देखा.....और खोना भी मत.....ये सब बरसाती मेंढक हैं...जो सिर्फ टर्र टर्र करते हैं..वो भी जब तक बरसात होती है....

ले बेटा...चाय......और ये ले मटर का पोहा....मालिन माँ...का अवतरण......

ज्योति....जिन्दगी का अगर कोई लक्ष्य नहीं है.....तो जिन्दगी, जिन्दगी नहीं....जीता तो जानवर भी है...शायद इंसान और जानवर में यही फर्क है....खेल के मैदान में..बच्चे गेंद लेकर खेलते रहते हैं....कोई इधर मारता है कोई उधर मारता है.....लेकिन जब वही बच्चे दो-दो ईंटे उठा कर , दो एक तरफ और दो एक तरफ रख देते हैं.....तो वो एक match बन जाता है, लक्ष्य निश्चित हो जाता है.....और उसमें रोमांच पैदा हो जाता है.

तुम कितना सोचते हो ....आनंद.

चाय लो....और ये पोहा...खा लो...वर्ना मालिन माँ...फांसी दे देगी....

वो तो मैं खा लुंगी.....मैं एक बात पूँछु...आनंद.

क्यों नहीं.....जरुर

प्रेम के बारे में क्या सोचते हो तुम...

ज्योति....प्रेम के बारे में तो ज्ञानी सोचते हैं.....

आनंद....अब ये मत कहना की मैं तो ज्ञानी नहीं हूँ...मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता.....

अरे नहीं......ऐसा नहीं है......ज्योति.....प्रेम के बारे में जितने ग्रन्थ लिखे जाएँ, कम हैं.... लेकिन में तो ये सोचता हूँ..की प्रेम के बारे में लोग लिख कैसे लेते हैं.... ये तो मानी और अल्फाज में समझाई नहीं जाती....मैं तो ये मानता हूँ..की ढाई आखर प्रेम का , पढे सो पंडित होई.......प्रेम तो अथाह समुन्द्र है...जो इसमे उतर गया.....वो तर गया. 

खुसरो बाज़ी प्रेम की वाकी उल्टी धार, जो उतरा सो डूब गया, जो डूब गया सो पार......मानती हो...ना.

हाँ ... आनंद.

ज्योति जो प्रेमी होगा...वो शांत होगा.....क्योंकि जहाँ गहराई होगी...वहां शांत होगा. जहाँ छिछलापन होगा, जहाँ shallowness होगी वहां शोर होगा....तुमने समुन्द्र तो देखा है ना....किनारों पर ज्यादा हल्ला मचता है....क्योंकि वहां छिछलापन होता है, shallowness होती है....लेकिन जहाँ गहराई होती है,समुन्द्र वहां शांत रहता है...यही एक प्रेमी की पहचान भी है.....प्रेम में जुबाँ कब बोलती है...

तो क्या प्रेम व्यक्त नहीं किया जा सकता या नहीं करना चाहिए.....

व्यक्त करना भी चाहिए...और किया भी जाना चाहिए....

तो फिर इसके लिए इतना शोर-शराबा क्यों.....

क्योंकि अपने गिरेबान में झाँक कर देखने की हिम्मत किसमें है....

मुजरिम है सोच सोच , गुनाहगार  सांस सांस,
कोई सफाई दे तो कहाँ तक सफाई दे.

जानतो हो ज्योति....कुछ देशों में ये शोध हो रहा है, की क्या Jesus Christ की जिन्दगी में कोई स्त्री थी....अरे..मैं तो कहता हूँ की चलो मान लिया की उनकी जिन्दगी में कोई औरत थी, तब भी वो ईसा मसीह बने, हम सब की जिन्दगी में भी औरत है, क्या हम ईसा मसीह बने....ये सवाल पूंछो....बंद करो उंगलियाँ उठाना....

प्रेम....पूजा है ज्योति.....अगर हमारे आराध्य के उपर एक भी ऊँगली उठी....तो प्यार की तोहीन है....आराधक को जलना पड़ता है...एक दीये की तरह....चुपचाप....                                                    क्रमश:




Thursday, December 15, 2011

एक नयी शुरुआत

तुमने सुना कुछ...आनंद....

क्या....

लोग क्या क्या बातें कर रहें हैं......

वो तो उनका धर्म है..करने दो.....मैं भी सुन रहा हूँ....

तुमको तकलीफ नहीं होती......किस मिट्टी के बने हो.....?

तकलीफ भी होती है, दर्द भी होता है, गुस्सा भी आता है....बोलो क्या करूँ...?

किस तरह तुम सब पी लेते हो...आनंद...किस तरह..क्या अपने आप को नीलकंठ कहलवाना चाहते हो....?

ज्योति....तुम जब इस तरह के सवाल करती हो...तब जो तकलीफ होती है...वो उस तकलीफ से ज्यादा है....जो लोगो की बातों से होती है.....

नहीं आनंद..नहीं...मैं तुमको तकलीफ नहीं देना चाहती हूँ.....

ज्योति......
मुस्करा देता हूँ जब भी गम कोई आता है पास,
बद्दुआ की काट मुमकिन है कोई तो है दुआ.....

संस्कारों का भोग तो भोगना ही पड़ेगा..उस से बचकर तो कोई न जा पाया....जब हवा तेज हो सर झुका कर चलने में ही समझदारी है.....धैर्य....... रखने में ही समझदारी है......जैसा हमने बोया है, वही तो काटेंगे......बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से पाए....

आनंद.......कितना बर्दाशत कर सकते हो.....तुम ?

ज्योति.....जिन्दगी में जब प्राथमिक्ताए fix हो जाती हैं....तब क्या बर्दाशत करना है और कितना बर्दाश्त करना है.....ये सब बेमानी हो जाता है.....सामने ध्येय होता है..और हमारी तरफ से प्रयत्न....जो लोग बात कर रहे हैं....वो आ कर मेरा दर्द बाँट तो नहीं सकते....तो फिर उनकी चिंता क्यों करूँ....

हाँ ....उनकी चिंता मुझे जरुर होती है.....जो मेरे दर्द को बराबर का बाँट लेते हैं.....और मेरे कंधे से कंधा मिलाकर खडे हैं......

हे भगवान्........तुम गलत युग में पैदा हो गए हो......आनंद. ... हँस क्यों रहे हो....

ये सब में नहीं जानता ...ज्योति. मैं..ज्ञानी नहीं हूँ......कर्मयोगी बनने की कोशिश कर रहा हूँ.....कर्म सिर्फ कर्म.....सिर्फ कर्म......

यहाँ से होगी एक नयी शुरुआत.......बोलो होगी ना .................

Wednesday, December 14, 2011

नयी शुरुआत.....

हाँ आनंद, एक नयी शुरुआत तो करनी पड़ेगी....अफ़सोस करने से कुछ नहीं होता है......

हूँ............सही कह रही हो, ज्योति......कब तक और कहाँ तक मेरा साथ निभा पाओगी , ज्योति....

क्या जवाब दूँ आनंद.......लो सुनो..

किसी का पूंछना कब तक हमारी राह देखोगे,
हमारा फैसला जब तक ये बीनाई रहती है....

ज्योति....जिन्दगी के इस कड़े सफ़र में जब तुम साथ हो.....तो ये सफ़र भी आसान हो जायेगा. जो कुछ बर्दाशत करना है, वो तो करना ही पड़ेगा....लेकिन....

थके हारे परिंदे जब बसेरे की लिए लौटें,
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरुरी है.

आनंद तुम्हारे साथ जानते हो मुझे क्या आराम है....या क्या आराम रहता है.....

नहीं...बताओ तो...

तुम्हारे साथ मैं जो हूँ , वही रहती हूँ...मुझे बनना नहीं पड़ता है.......और इंसान जब जो है वही रहे, तभी comfortable रहता है.

मैं एक बात बोलूं, ज्योति.....

बोलो....

क्या तुम को एक show piece की तरह रखा जाता है......

पता नहीं आनंद....शायद  हाँ....कहाँ तक और कब तक बन संवर के ओरों के सामने आऊं....मै जो हूँ, जैसी हूँ..क्या इस रूप मैं लोगों को स्वीकार नहीं..........चेहरे पे क्रीम, पावडर के साथ साथ एक दिखावटी हंसी भी पहननी पड़ती है......क्यों करूँ मैं ये सब...बोलो...क्यों...?

हूँ..................जानती हो ज्योति...मुझे तुम एक पहाड़ी नदी की तरह लगती हो.....

हाय...अल्लाह.....वो क्यों?

क्योंकि पहाड़ी नदी.....छल छल , कल कल बहती हुई ही अच्छी लगती है.....तुम को देख कर ऐसा लगता है..उस पर बाँध बना दिया गया हो......

आनंद..इतने समझोते कर लिया हैं...की अब अपना असली वजूद ही भूल गयी हूँ....सब कुछ है आनंद मेरे पास , सब कुछ..लेकिन मैं खाली हूँ.....बिलकुल खाली.....

लेकिन....ज्योति..हार कर थक मत जाना....जिन्दगी हर वक़्त करवट लेती है....मुझको देखो...कभी सोचा था....मैं इस रूप को भी देखूंगा जिन्दगी के....नहीं.....लेकिन देखा. हर रात की सुबह होती है....अमावस्या के बाद पूर्णमासी भी आती है......

ठीक कह रहे हो आनंद.......लेकिन इस बार अमावस्या ज्यादा लम्बी हो गयी लगता है.....तुमको कैसा लगेगा जब तुमको ये यकीन हो जाए...कि तुम्हरे हर movement पर नज़र है.....तुम आज़ाद हो कर भी एक कैदी हो....वैसे  एक बात मैं जरुर सोचती हूँ आनंद....तुम्हारे बारे मैं.....

वो क्या......

कि तुम कौन सी मिटटी के बने हो.....जिन हालातों से तुम गुजर रहे हो , कोई आम आदमी होता, तो ख़ुदकुशी कर चुका होता....भाड़ में जाये जिम्मेदारियां.....

कौन सी मिटटी कबाना हूँ...ये तो में भी नहीं जानता...लेकिन हालत तपा तपा कर रूह को इतना मजबूत बना देंगे कि छोटी छोटी चोट तो असर भी नहीं करेगी.....और अब करती भी नहीं है.....

हादसों कि जद में हैं  तो मुस्कराना छोड़ दें,
जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दे....

जब नयी शुरुआत करनी ही है....तो क्यों ना हौसले के साथ करी जाए....तुम हो ना....

Tuesday, December 13, 2011

एक नयी शुरुआत.............


मालिन माँ.....राम राम...

राम राम ..ज्योति बिटिया....कैसी है...?

मैं तो ठीक हूँ .....आप कैसे हो......

बस बिटिया..... ईश्वर की कृपा है.....

आ.....आनन्द वो बैठा है...बरामदे में....चाय पीयेगी बिटिया....अभी अभी आनंद ने फरमाइश की है....

तो बना दो न मालिन माँ.....बरामदे से आते हुए आनंद की आवाज़....

कैसी हो ज्योति.....

 ठीक...और आप.....

बिलकुल ठीक.... आओ....बरामदे  में बैठते हैं....

ओहो...नया छप्पर डलवाया है....

हाँ ज्योति....बहुत दिनों से मन था.....गर्मी के दिनों में....दोपहर में इसके नीचे बैठ कर....उस नीम के पेड़ देखना बहुत अच्छा लगता है...दूर तक कुछ नहीं होता, सिर्फ एक सन्नाटा......और गर्म हवा..ज्योति.....जरा मालिन माँ से बोल दो..की चाय में अदरक न डाल दे.

और बताओ ज्योति ...क्या चल रहा है.....कुछ नया लिखा....?

नहीं आनंद......

क्यों...?

कुछ अंदर से उठ नहीं रहा है......अंदर से आ नहीं रहा है.....आनंद.

कुछ आ नहीं रहा है...या इतना ज्यादा आ रहा है और इतनी विविधता के साथ आ रहा है की तुम निर्णय नहीं कर पा रही कि लिखूं या न लिखूं.....अगर लिख दिया तो नाम जाने किस किस के चेहरे से पर्दा उतर जाए.....तुम लिखती हो भी तो ऐसा...सो सुनार की, एक लुहार की....

बस करो आनंद...ऐसा कुछ नहीं हैं !!!!!!

अरे अपने प्रशंसकों से पूंछो....  

तुम ने कुछ नहीं लिखा.....आनंद.

मैने......ज्योति मैं कवि या लेखक तो हूँ नहीं....जो देखता हूँ....वही लिखता हूँ, जो सोचता हूँ वही लिखता हूँ......हाँ.....कुछ लिखा है.....लेकिन कभी कभी एक अजीब सी असमंजस  में पड़ जाता हूँ....की में कोई लेखक तो हूँ नहीं, जो में ओरों  की लिए लिखूं...........क्या लेखन मेरे लिए एक outlet जैसा है क्या.....संभव है....लेकिन कभी कभी, ज्योति.....टूटने सा लगता हूँ., हारने सा लगता हूँ.....मन करता है...भाग जाऊं.....लेकिन भागूं तो किस से....दुनिया से...या अपने आप से......नहीं नहीं......ये गलत है....जिम्मेदारी हैं मेरे उपर....और निभाना है, शान से खूबसूरती से.........आनंद अपनी लय में बोलते जा रहे थे....

ये ले बेटा चाय और पराठे.....और सुन जरा दस-बीस रुपए दे दे.....शाम के लिए सब्जी लानी है...

वो वहां ताक में रखे हैं...आप ले लो.

........आनंद......

हाँ ज्योति.....कुछ ज्यादा बोल गया क्या...?

नहीं.....बोलो....ये जरुरी है.....तुम इंसान हो..pressure cooker नहीं...जो सीटी बजा कर दबाव कम कर लेता है.....तुम बोलो आनंद.....कहाँ खो गए.....

कहीं नहीं...मैं तो यहीं हूँ..... जरा सोच रहा था.....ज्योति

इस तरह तय की हैं हमने मंजिलें,
गिर पडे, गिर कर उठे, उठ कर चले...

ज्योति जिन्दगी जीने का ये एक फलसफा रहा है मेरा.....लेकिन धोखे खा खा कर....अब तो विश्वास  डोलने सा लगा है.....अब अगर टूटा तो........

नहीं आनंद.....तुम उनमे से नहीं जो टूटते हैं...हालातों को तोड़ कर उनसे बाहर निकल जाना यही तो तुम्हारी खासियत है....उनको देखो जो तुमको देख कर हिम्मत बांधते हैं.....कौन हैं वो...मैं  बताऊँ....

नहीं ज्योति..मैं जानता हूँ..... और सच बताऊँ तो मुझको वो डूबते को तिनके का सहारा नज़र आते हैं....

ठीक है....आनंद....जिन्दगी की यही खूबसूरती है.....

हाँ......ज्योति ये तो है......एक नयी शुरुआत.

गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो,
जिसमें खिले हों फूल वो डाली हरी रहे.... 

Monday, December 5, 2011

अच्छा...तुम ही बोलो...तपस्वनी

इस गाँव में कुछ अच्छे मित्र भी हैं.....अरे नहीं..पढे लिखे नहीं हैं....

नैथानी जी.........आप की किराने की दूकान है.

प्रकाश.......रानीखेत और चिलियानौला को जोड़ने वाली सड़क के नुक्कड़ पर इसकी चाय की दूकान है.

बिष्ट जी........सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं.

चन्दन.....मंदिर के पास इसकी चाय - बीड़ी की दूकान है.....

हमसब मे बिष्ट जी ही सब से ज्यादा पढ़े लिखे हैं.......

लेकिन.....इनसब को जाहिल और गंवार समझने की गलती न कर बैठिएगा...जो मैंने करी थी...जब इस गाँव में आया था.....सब इंसान हैं....क्योंकि ये अभी भी दूसरों का दर्द महसूस करते हैं...गाँव में जब भी कोई विपत्ति आई हैं....सब एक साथ दिखे....कोई अपना दमन बचाकर निकलने वाला नहीं है......

शहर में तो जनाजे को भी सब कंधा नहीं देते,
इस गाँव मे छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं.....

रोज़ शाम....को , या यूँ कहिये आठ बजे के बाद....चन्दन की दूकान पर जमावड़ा होता है....और दिन भर का हिसाब किताब............ ये है  यहाँ की जिन्दगी........

तपस्वनी......आज तुम को परिचित करवा रहा हूँ......

उसका नाम है दया पुजारी. मंदिर से कुछ ही दूर उसका घर है.....जब सवेरे धुप की पहली किरण उस का घर चूमती है तो वो तुलसी में पानी डालने बालकोनी में आती है.......ढीले से बंधे हुए बाल, कमर तक झूलती हुई चोटी, श्रधा  से झुकी हुई पलकें, कानो में बालियाँ.....अब और क्या बताऊँ....

देखने में साधारण.
डीलडोल...साधारण.
कद-काठी....साधारण.
स्वभाव......निषछल.
ह्रदय.....साफ़.
नज़र----बेदार. 

नाजुक इतनी की डर लगता है... छुने से मुरझा न जाए.

नाजकी उस के लब की क्या कहिये,
पंखुरी एक गुलाब की सी है.

लेकिन गंभीरता इतनी....की जैसे पर्वत.

अपने आप को हालत में ढाल लेने में..जैसे पानी.....

आज  तक इसको आप सभी से छुपा कर रखा था.....जान का सदका तो सभी उतारते हैं, कोई नज़र का सदका भी तो उतारे....

जुबाँ कम और आंखे बहुत बोलती हैं..... वो कह देती वो सब जो "वो" कहना भूल जाती है.....अब आप का प्रश्न होगा या होना चाहिए....तो उसमें तपस्वनी जैसा क्या है.....?

जी.....पते की बात पूछीं आपने.....उसमें तपस्वनी जैसा क्या है.....?

मैंने उसको अपने आप से लड़ते हुए देखा है. 
मैने उसको दौलत में खेलते हुए देखा है. 
मैंने उसको अपने आप को देते हुए देखा है.....
मैने उसकी आँखों में पानी और होंठो पे हंसी साथ साथ देखी है. 
मैने उसको लाभ और हानि, जय- पराजय, में संभव देखा है.

अब बोलिए उसको क्या नाम दूँ..............

अच्छा...तुम ही बोलो...तपस्वनी   



अपना ख्याल रखना तपस्वनी.....

ये भी तो हो  सकता है की वो बदल गयी हो या बदल रही ही....

संभव है....

तुम तो डरा रहे हो मुझे.....

तुम डर क्यों रहे हो......

क्या मतलब.....

मतलब साफ़ है.....

तुमको कोई उम्मीद है....और जहाँ उम्मीद होती है..वहां पर दुःख और डर तो होते ही हैं......

तो मैं क्या करूँ...?

कुछ मत करो.....

तुम मेरी मदद कर रहे हो मेरे मन.....या मुझे confuse कर रहे हो....?

मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ......मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूँ.....उम्मीद मत करो.....तुम प्रेम करते हो.....तुम्हारा कार्य यहाँ पर खत्म होता है......प्रेम two way traffic नहीं होता. अपने आप को हटाओ....तभी तो वो............

हाँ........मैं समझ रहा हूँ......

अच्छा है.......और जितनी जल्दी समझ लो, उतना अच्छा है......

तो क्या सब कुछ सपना था.....

नहीं.......हकीकत थी.....

तो क्या हकीकत ख़त्म भी हो सकती है.....

नहीं....अगर तुम प्रेम की बात कर रहे हो...तो प्रेम कभी नहीं मरता....प्रेमी मरते हैं, बदलते हैं....लेकिन प्रेम नहीं.....

तो क्या सालों की तपस्या......

अपने से सम्बंधित प्रश्न करो..... दूसरों की आस्था और तपस्या पर नहीं....तुमको इसकी इज़ाज़त नहीं है.....

पता नहीं......

कौन क्या कर रहा है...इस पर ध्यान मत दो.....वो ये क्यों कर रहा है...ये जानना ज्यादा जरुरी है..... और उचित है.... और इससे भी ज्यादा उचित है....तुम क्या कर रहे हो....और क्यों कर रहे हो.....

लेकिन अगर हमने किसी के साथ ईमानदारी बरती है तो....?

तो ....क्या....? उसके परिणाम की इच्छा रखते हो.....ये तो मजदूर करते हैं...मेहनत करते हैं और मेहनताना  लेते हैं..... क्या तुम मजदूर हो......?

क्या कोई रिश्ता नैतिक या अनेतिक होता है....?

नहीं....नैतिक या अनैतिक एक काम के दो नाम हैं......संभव है जिसको दुनिया अनैतिक मानती है...वो तुम्हारी नज़र में नैतिक हो ..या इसका उलटा....

तो क्या करना चाहिए......

वो करो जो तुम्हारा दिल कहे, तुम्हारा मन कहे ......क्योंकि दिल कभी झूठ नहीं बोलता....और गलत रास्ते पर नहीं ले जाता......

लेकिन दुनिया.....?

ये दुनिया तुम्हारी बनाई हुई है....

तो मैं न बदलूँ....?

किस के लिए...और क्यों......क्योंकि तुम प्रेम करते हो......

गिले शिकवे जरुरी हैं, अगर सच्ची  मुहब्ब्त है,
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है.

शायद तुम ठीक कहते हो.......

अपना ख्याल रखना तपस्वनी.....

Friday, December 2, 2011

तपस्वनी.....

शाम काफी गहरा चुकी थी..... ठंड की वजह से मंदिर में लोगों कि आवा-जाही भी गिनी चुनी थी. उपर से बारिश ने न रुकने की कसम सी खा ली है....ये जिस मंदिर का अब मैं जिक्र कर रहा हूँ...ये रानीखेत के चिलियानौला गाँव में चीड़ के जंगलों के बीच में पड़ता है....पुराना शिव मंदिर है....पास में ही एक छोटी सी पहाड़ी नदी है......मैं वहीँ रहता हूँ.....

चिलियानौला..एक छोटा सा गाँव है.....एक छोटा सा बाज़ार है....२ से ३ हजार की आबादी होगी....लेकिन आठ बजते बजते सुनसान सा हो जाता है.....एक आध गाड़ी की आवाज़ सुनाई दे जाती है......चन्दन सिंह कुवार्बी गाँव के पंच हैं....गाँव के सब से रईस  आदमी हैं..लेकिन भले और सीधे-साधे.....उन्होने ही  मुझे इस मंदिर में रहने की इज़ाज़त दी है.....और देखरेख करने की....

मैंने तो उनसे साफ़ साफ़ कह दिया..की देखो साहब...देखरेख जरुर करूँगा..लेकिन मंदिर में पूजा पाठ करने को न कहिये....क्योंकि वो मुझे आता नहीं है.....उनको मैं क्या बताता की मैं तो एक तपस्वनी को ढूँढने आया हूँ, उसको मनाने आया हूँ.....जो रूठ गयी है.....

नहीं...नहीं मुझसे नहीं......वो उलझ जाती है...अपने आप से उलझ जाना उसकी एक फितरत है...या एक अदा....पता नहीं...लेकिन उसको सुलझाने मैं मेरी अपने आप से अक्सर मुलाकत हो जाती है....लेकिन आजकल वो खो गयी है......खैर...मैं भी कहाँ अपनी रामकथा आप को सुनाने बैठ गया....
देह धरे को दंड है, सब काहू को होए...

लेकिन मैं एक बात बताता चलूँ.....ये तपस्वनी वो नहीं..जो गेरुआ पहनती हो.....ये वो है..जो अपने सारे दाईत्वों को निभाती है, हंसती भी है, मुस्कराती भी है..लेकिन सब से अलग अकेली रहती है....

अब आप भी कहेंगे ये क्या बात हुई....की समाज में रहती भी है और अकेली भी है....लेकिन होते हैं कई लोग ऐसे होते हैं...जो पानी में कमल के पत्ते की तरह दुनिया में रहते है.....वो राधा भी है, वो मीरा भी है. वो जिसकी दीवानी है..... वो कोई खुशनसीब ही होगा......मैं.....अरे न रे बाबा....ना ना......

आजकल उसने पर्दा कर लिया है......खुद से भी और मुझसे भी....

गुस्सा है.....हो सकता है..

रूठी है......हो सकता है...

आहत है...संभव है....

क्या कोई है जो उसको सम्हाल ले.....उसको जरुरत है......

तुम्हारी अपनी क्या हालत है...वो भी बयान कर दो.....

मेरी हालत......लो भला मुझे क्या होने लगा....

तुम क्यों सकुचाते हो अपना हाल  बयान करने  में....

ना रे बाबा ....बात सकुचाने की तो है ही नहीं...

जब हम किसी को प्रेम करते  हैं....तो अपना दर्द कहाँ रह जाता है....

नहीं फुर्सत यकीँ जानो, हमे कुछ और करने की,
तेरी यादें, तेरी बातें बहुत मसरूफ रखती हैं........

बस यही तो....अपनी बातों को एक शेर के पीछे छुपा लेने की ये आदत.....

नहीं रे मन...नहीं.......

वो तपस्वनी बहुत परेशान है......

जब तक वो खुलेगी नहीं....वो बहेगी  नहीं.....वो डूबती जायेगी.....वो ख़तम होती जायेगी...
अरे वो अपने आप में अथाह समुद्र है..कुछ भी बर्दाशत करने की कुव्वत है उसमें....और मैं उसको डूबने दूँ.......संभव नहीं....है.

तो क्या करोगे.....

पता नहीं...

तो फिर परेशान क्यों.....

प्रार्थना तो कर सकता हूँ....

वो ठीक है, और उचित भी....

लेकिन उसको यकीं तो हो जाए....की मैं अपनी तपस्वनी को ढूंढ रहा हूँ...

वो जानती है......तुम अपना कर्तव्य करो....फल की चिता मत करो....

तुम से ज्यादा उसको तुम्हारी चिंता है....

लेकिन वो नाराज है.......

वो नाराज नहीं है...वो आहत है.......

जाओ ...अब मंदिर जाओ ....

क्या मंदिर..जब तपस्वनी ही नहीं....

तुम अगर उसको समझते हो ....तो जहाँ तुम हो, जिस हाल में तुम हो..वो वहीँ है...

मैं जानता हूँ, समझता हूँ.....लेकिन..फिर भी इंसान हूँ.....ना....

तपस्वनी.....एक बार तो बोलो....या क्या मैं ऐसे ही विदा लूँ...तुम से नहीं..संसार से...