इन्द्रधनुष देखा है...बहुत खुबसूरत लगता है..ना...... हर रंग कि अपनी खूबसूरती होती है....जरा एक रंग हटा कर इन्द्रधनुष को देखो.....फीका लग रहा है....है ना..... तुम तो जानती ही हो प्रकाश भी सात रंगों से मिलकर बना है.....ये सब कुदरत के करिश्मे हैं....मानती हो ना....इसी तरह सुख-दुःख, हंसना-रोना, जन्म-मृत्यु , मिलन-विछोह ये सब जीवन के रंग हैं...इनमे से कोई भी रंग कम करके जरा जीवन कि कल्पना करो.....नहीं हो सकती.....बस अंतर वहाँ पर है.....जो इस सच को समझ ले....और इसको ईश्वर कि देन समझ कर कबूल कर....उस के सामने सर झुका कर ख़ुशी-ख़ुशी इस को स्वीकार कर.....हंसता रहे......जो तुम अब तक करती आई हो....
ये सोचना भी इस वक़्त तुम्हारा जायज है....कि ये मुझे अचानक क्या हो गया......मैं इतना दार्शनिक कब से और क्यों हो गया भला....बोलो तो. .....
ज्योति ये भी तो जीवन का एक रंग है....और एक फक्कड़ आदमी ज्यादा दार्शनिक हो जाता है..... जब जगह-जगह लोग, उसको, आगे चल, भाई.....ये कहते हों.....और उसकी हकीकत को कोई ना जानता हो....तो वो उनको देख कर उन पे हंसे ना तो क्या करे....याद है ना तुमको वो लाइन...."या वो जगह बता दे, जहाँ पर खुदा ना हो....", मुझको यहाँ से वहाँ धक्का दे देते हैं....
ज्योति....मैने कभी नहीं सोचा था कि मैं इंसान से मशीन बन जाउंगा....मैं इन रोबोट के बीच में रह रह के थक गया हूँ....यहाँ पर इंसान नहीं मिल रहे हैं.......तुम यहाँ पर किसी इंसान को जानती हो तो पता भेज दो....या खुद आ जाओ.....मेरा ये एहसास कि मैं भी इंसान हूँ....दिन ब दिन कम होता जा रहा है......क्या मैं कुछ परेशान सा लग रहा हूँ.......? ना.....मैं परेशान नहीं हूँ....कभी मन करता है कि बगावत कर दूँ दुनिया से .....लेकिन......, लेकिन....., लेकिन......इस लेकिन...ने ऐसी जंजीर डाल रखी है...पैरों मैं...कि सिवाय दम घुटने के अलावा कोई और चारा....फिर हाल अभी तो नज़र नहीं आ रहा है.....
अजब चराग हूँ, दिन रात जलता रहता हूँ,
मैं थक गया हूँ , हवा से कह दो, कि अब बुझाए मुझे....
देखा...मैं खुद अपनी ही बातों से हट रहा हूँ......बादल चाहे कितना ही सूरज को ढंक लें .....उसकी गर्मी को तो कम नहीं कर सकते......ये भी तो इन्द्रधनुष का एक रंग है......इंसान का मूड भी कैसा धूप का छाँव जैसा है...ना..बोलो तो.....
ज्योति...तुम जानती हो मेरे जीवन जीने का मन्त्र क्या है......अगर बताऊँ तो हंसोगी तो नहीं.......पहले बोलो...हंसोगी तो नहीं ना....ठीक तो ये है मेरा जीवन जीने का मन्त्र....
"सँभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना, पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को. नर हो न निराश करो मन को।।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ, फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो, उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को, नर हो न निराश करो मन को।।"
...............देखो हंसना नहीं....तुम ने वादा किया है......आओ, अंधकार से ज्योति कि और चलें.....
1 comment:
अभी आज जल्दी मे पढा है मंगलवार के बाद आराम से पढूँगी।तब तक ज़रा व्यस्त हूँ।
Post a Comment