Sunday, December 5, 2010

मेरा क्या ....अंतिम किस्त

मुझे घर छोड़ कर आनंद आगे चल दिए. मै कुछ पल वहीं इंतज़ार करती रही की शायद एक बार मुड़ कर देखे. लेकिन..... वो तो आगे ... फिर आगे.... और आगे चले गए. मै सोचती रही कि इस इंसान को , जो इतना संवेदनशील हो, उसको जब अपने बारे मे दुनिया कि राय सुनाई पड़ती होगी.....तो तकलीफ तो इसको होती होगी.... दिल तो इसका भी टूटता होगा......लेकिन ..... चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आने देता.....

ज्योति...... माँ की आवाज़ आई.

आई माँ....

अकले आई इतने अंधरे में....

नहीं माँ.... आनंद जी छोड़ गए.

तो वो अंदर क्यों नहीं आया.... तबीयत कैसी है उसकी?

अंदर क्यों नहीं आये..... इसका जवाब तो वही दे सकते हैं....तबीयत पहले से ठीक है. तीरथ राम के घर गए हैं... कह रहे थे दवा लेनी है.

अरे..... मैं तो राम सिंह के हाँथो कहना भिजवा रही थी...

तो भिजवा दो.... वो एक घंटे में वापस लौटेंगे.

ठीक है..... माँ वापस रसोई मे चली गयी.

मै आनंद .. की नदी और दो किनारों वाली बात पर सोचने लगी. ...... कितना गहरा और पवित्र रिश्ता है... हमारा. कितनी स्पष्ट और सरल सोच....... वो समझते हैं की मेरे दिल मे क्या है.....लेकिन आज तक... कभी भी उन्होंने.... इस का ज़िक्र तक नहीं किया. एक सम्मान का भाव महसूस किया है मैने, जब मे उनके साथ रहती हूँ .....क्या ये जरुरी की ऐसे रिश्ते को किसी नाम की जंजीर से बाँधा ही जाए......अपने दिल की बातों को अकसर वो बड़े ही आसानी से कह देते हैं..... एक दिन हंसते हंसते बोले..... ज्योति , मै इज्ज़त ना कमा पाया, आजतक. ..... बात आई-गयी  हो गयी....... लेकिन ये तो मैने भी देखा है..... की कोई भी जो मुँह मे आये....आनंद की लिए बोल देता है.... और आनंद मुस्करा के जहर को पी लेते हैं....... लेकिन..... अरे हाँ..... उनका गुस्सा..... अरे तौबा.....एक बार मेरे उपर एक ने कटाक्ष कर दिया था... और बात उन तक पहुँच गयी........बाप रे  बाप....क्या हाल किया था उसका......लेकिन क्रोध  भी संतुलित होता है......बिलकुल  जितना होना चाहिए..उतना ही.

दीदी...... अब राम सिंह की गुहार..

बोलो... काका...मैं यहाँ हूँ...अपने कमरे में.....

दीदी.....आनंद बाबू ने ये किताब भिजवाई है आप के लिए..... और कहा है की इसको पढ़ लें.

ठीक है......लाओ. (इसको पढ़ लें) मेरी खिंचाई करने मे उनको विशेष  रस मिलता है, मगर मुझे भी  अच्छा लगता है. कितना अधिकार झलकता है.

"आवारा मसीह" ....... क्या शीर्षक है.

एक छोटी सी स्लिप किताब के अंदर...."नाम पे ना जाओ....किताब को पढो" ..... हे भगवान्... क्या उनको पता था की किताब का शीर्षक देखकर में प्रथम प्रतिक्रिया क्या होगी....... आनंद.... आनंद....तुम भी.......नहीं- नहीं  ....आप भी....ना.
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आज चौथाई किताब खत्म हुई.... और उसके बराबर मैने आनंद को फिर खड़ा पाया. आवारा..... दुनियाबी भाव मे आनंद आवारा नहीं है.... लेकिन ना घर का होश, ना खाने-पीने की फ़िक्र, वो आदमी अपने लिए नहीं जीता ... इसी बात पर तो मेरा  और उनका झगडा  हो जाता है........चाय और चुरुट पर जो आदमी ज़िन्दगी गुजार देने का हौसलारखता हो.......उसको क्या कहे.

आवारा मसीहा का शरत चंद.... और मेरा आनंद.... (मेरा कहने का साहस पहली बार किया है.. वो भी खुद से) .... पुर्षोतम के १२ साल के बेटे की मृतु पर आनंद ने मुझसे कहा...की देखो पैसे वालों और गरीब ....दोनों के आंसूओं का कोई रंग नहीं होता.....किसी अपने के जाने पर दिल मे उठी टीस....कोई फर्क नहीं करती.....रिश्तों मे दरार आने पर.........आँख  मे अगर नमी ना हो..... तो क्या उसको इंसान कहना चाहिए...... अरे हाँ...... ये पुर्षोतम वहीँ हैं......जिन्होने.....आनंद को....मेरे साथ देख लेने पर चरित्र , निर्माण की शिक्षा दे डाली थी......लेकिन आनंद ...... अपने कर्तव्य से कभी पीछे नहीं दिखे... चाहे वो किसी के लिए भी हो.......आम भाषा मे....दुश्मनों के लिए भी........

हाँ..... आनंद .... हम दोनों एक नदी दो किनारे हैं.......ये मेरा वादा हैं तुमसे की अगर ज़िन्दगी की इस नदी मे कभी  भावनाओं की बाढ़ आ भी आगई.....तो किनारे कभी नहीं टूटेंगे.....

शाख से टूट जाएँ , वो पत्ते नहीं हैं हम,
आँधियों से कोई कह दे , की औकात  मे रहें.

रिश्तों की ख़ूबसूरती.....उसकी गहराई मे है.....वो किस तरह से बना , इसमे नहीं....

कितनी आसानी से मेरे और आनंद की रिश्ते की बात, आनंद ने......चतुर्वेदी जी को समझाई थी... चतुर्वेदी साहब....क्या आप पुनर्जन्म मे , वापस इस पृथ्वी पर आना चाहेंगे?

न रे  ना.... बस ये ही पूरा  हो जाए.....

तो फिर आप.... मेरे और ज्योति की रिश्तों को समझने के चेष्टा  ना करें.....क्योंकि उसके लिए पुनर्जन्म लेना पड़ेगा आप  को.......जब तक रिश्तों के बारे में , आप लोगों की सोच का दायरा  शरीर तक ही सीमित है.... तो ये मेरी प्रार्थना है...की किसी पर कटाक्ष ना करें.....नेतिकता...आप लोगों के लिए.. सिर्फ शरीर और बिस्तर तक ही सीमित है.......

चतुर्वेदी जी चुप......

माफ़ करियेगा.....अगर मैने आप को तकलीफ दी हो.... आनंद की क्षमायाचना...... मैं आनंद  को देखती रही... उन के एक - एक स्वर मे जो दृढ़ता थी... वो महसूस करती रही......

आज किताब खत्म हुई.......किताब का आखरी पन्ना... और आनंद की एक शेर......

किसी चिराग का अपना मकाँ नहीं होता,
जहाँ रहेगा, वहीं रौशनी लुटायेगा.....

इति.........

2 comments:

vandana gupta said...

कुछ रिश्ते बेनामी ही अच्छे होते हैं क्योंकि वो रूह के रिश्ते होते हैं……………रूहो को कब नाम की जरूरत होती है ……………………ऐसा लगा जैसे ऐसा चरित्र कहीं आस पास ही है मगर दिखता नही………………बेह्द उम्दा ………………जो महसूस कर रही हूँ शब्दो मे नही उतार पा रही।

Kailash Sharma said...

बहुत ह्रदयस्पर्शी. क्या सभी रिश्तों को नाम देना ज़रूरी होता है?