Saturday, December 4, 2010

मेरा क्या २....

कैसी तबीयत है, अब.. ज्योति का अपेक्षित सवाल ......ठीक है...... बोलो.....उसी का जवाब.

सवाल भी तुम्हारा .... जवाब भी तुम्हारा......मैने सर उठा कर हलकी सी आवाज़ मे कहा....

क्या हुआ..... आवाज़ इतनी धीमी  क्यों है.....दूसरा सवाल.....

इसका जवाब भी तुम दोगी , या मैं दूँ....?  मेरा मजाकिया लहजा..

वो भी हँस पड़ी......चलो आप ही बता दो.....

सर मे दर्द है.....कल रात से.

रात से............ ? ज्यादा है.......? ज्यादा ही होगा तभी तो सर पर पट्टी बंद कर बैठे हो......

एक कप चाय बना दोगी......

हाँ..... मैने भी नहीं पी है. सोचा कि यहीं पी लूँ.

तुम सोचने भी लगी हो........चलो अच्छा है.....

तुम ना..........

ठीक है..... आज कल अच्छी चाय बनाने लगी हो.... कहीं से सीखी है...क्या.....

क्या मतलब.....?

नहीं ..... नहीं ...... तलवार ना निकालो..... थोड़ा सा मजाक करने का मन था सो कर लिया. पिछले जन्म के कुछ अच्छे कर्म होंगे मेरे.......तभी तो इस जन्म मे इतने अच्छे लोग मिले हैं......

अरे.... वाह.....क्या काम है ... जो इतनी मक्खनबाजी हो रही है.....

कुछ नहीं .... काम कुछ नहीं......अकेले अकेले रहते सोचता और आत्ममंथन करता रहता हूँ.....

तो अकेले क्यों रहते हो......कुछ करो ..... कि ये अकेलापन दूर हो .... आप का भी और ........

और..... मतलब......

लो चाय पियो......

ज्योति कि झुकी हुई आंखे और कांपते हुए हाँथ....वो सब कह रही थीं.... जो वो नहीं कह पा रही है....मै देख रहा था और समझ रहा था.....लेकिन.....कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं.....जो दूर रह के ज्यादा करीब होते हैं.....वहाँ फासले जिस्मो के हो सकते हैं.....दिलों के नहीं. शायद ऐसा ही कुछ रिश्ता है.... ज्योति के साथ... खैर...

क्या सोच रहे हो.....चाय की पहली चुस्की के साथ, ज्योति का पहला सवाल.

जी..... ये काम मेरे बस का नहीं है....

आनंद...... आप कब तक ज़िन्दगी की हकीकतों को मजाक मे लेते रहोगे...

आज पहली बार ज्योति के मुँह  से अपना नाम सुना.....अच्छा लगा.मन तो किया की उस से बोलूं.... की जरा एक बार मेरा नाम लो.....काफी दिनों बाद अपना नाम सुना... नहीं तो बाबूजी, भैया, सर.... इन्ही उदबोधो से उद्बोधित होता रहता हूँ... दिन भर, हफ्ते भर.....मेरा भी एक नाम.... माता-पिता जी के बाद ... कोई नाम से पुकारने वाला बचा ही नहीं.....

नहीं ज्योति... मै मजाक मे नहीं लेता. लोग ऐसा समझते हैं....तुमको याद होगा , तुम तो इतहास की छात्रा रही हो....किसी ने कहा है ना...."Laugh, world will laugh with you, cry and you cry alone" , मै क्यों अपनी करुण कथा, या अपना दर्द दूसरों को बोलूं.....

रहिमन निज मन की व्यथा, मनही रहूँ गोय.
सुन लेहे इठ्लीयेंह सब, बाँट ना लेहे कोई.

वो तो बात है......

और फिर.... अगर हम किसी को अपने करीब पाते हों..... और उसके बाद भी सारी बाते कह के समझानी पडें... तो ये नहीं कहना चाहिए की कोई करीब है.... क्या मैं गलत हूँ?

नहीं.... सही कह रहे हैं आप .....आप इतना सोचते हैं.....?

क्यों ...क्या मैं इंसान नहीं हूँ....या मेरे ह्रदय नहीं है.....?

नहीं.... नहीं मेरा वो मतलब नहीं था.....

मै समझता हूँ... ज्योति. .....मै ज़िन्दगी से संतुष्ट हूँ....जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया, जो रह गया मै उसको भुलाता चला गया.....चाहने की कोई इन्तेहा नहीं है.....हो सकता है... की मैं तुमको भी चाहता हूँ..... लेकिन...

उम्र जलवों मे बसर हो , ये जरुरी तो नहीं.....

जो कुछ मेरे नसीब मैं लिखना था लिख दिया,
परवरदिगार, अब तेरी जरुरत नहीं रही....

उसने तो जो लिखना था, लिख कर भिज दिया इस दुनिया मे हमको ..... अब ये हमारे उपर हैं...कि हम उसको कैसे वापस करते  हैं.....

मै अभी आता हूँ....जरा एक चुरुट पी कर...

आनंद बाहर चले गए..... और मैं आनंद के इस रूप पर सोचती रह गयी..... ये इंसान इतना गहरा है.....लोग क्या क्या इसके बारे में कहते हैं....कितनी सरल है , इसकी सोच. कितनी स्पष्ट.....क्या मैं इनसे आज बोल दूँ कि मैं..... ना रे ना.... जो इंसान इतना समझता है.... क्या वो मेरे दिल कि बात नहीं समझता होगा.....

हाँ जी.... आज कुछ उपदेश ज्यादा हो गए ना.....एक कप चाय कि तो बनती है.... पियोगी.....?

आप बनाओगे....?

मोहतरिमा.....आप मुझे क्या समझती हैं..... जो आदमी सिर्फ चाय पर ज़िन्दगी गुजार देता हो.... वो चाय नहीं बना सकता?

अच्छा ...... आनंद... आप बैठो....मै बनाती हूँ....?

ज्योति रसोई मै चली गयी.... मैं बैठा बैठा सोचता रहा....ज्योति....अगर ह्रदय बोल पाता तो आज तुम बोल पड़तीं...लेकिन मै समझ रहा हूँ....जो तुम्हारे ह्रदय में है....लेकिन पगली.....मै तुम्हारी बहुत इज्ज़त करता हूँ, और सामान करता हूँ...जो तुम्हारे ह्रदय में..है.

लो चाय ......

वाह..... अच्छा .... जाड़े की शाम... गोरा सा चाय का कप, साँवली से चाय, उडती हुई भाप.....किसी रहस्यवाद  मे ले जाता है.

बाप रे....किसी की तारीफ़ करनी हो तो आप को बुला ले.....शब्दों के जादूगर हो तुम .. आनंद. 

शुक्रिया.....आज कल चाय अच्छी बना रही...तबीयत तो ठीक हैं ना... तुम्हारी. मेरा हल्का सा मजाक.

ज्योति मेरी तरफ देखती रही.....

ऐसे क्या देख रही हो.....

में देख रही हूँ और सोच रही हूँ.... की भगवान् ने क्या स्वभाव आप को दिया.....क्या आप पिछले जन्म मे विश्वास  करते  हो?

क्यों.....

नहीं पहले बताओ.....

हाँ...

तो पिछले जन्म मे कुछ रिश्ता रहा होगा... मेरा आप से...

सुनो एक बात कहनी है......

बोलो....

माता पिता...मेरे लिए.....

ये अच्छी बात है.....उसकी बात काटते हुए मैने कहा.... मै समझ रहा था की वो क्या कहना चाहती है..

ये आप कह रहे हो....?

ज्योति.....तुम जानती हो, समझती हो... की अगर मै किसी को अपना मानता हूँ.. तो तुम हो, किसी को अपना कहता हूँ तो तुम हो... इस रिश्ते की ख़ूबसूरती को महसूस भी करती हो तुम....जानती भी हो तुम. क्या ये जरुरी की हर रिश्ता आग के चारों तरफ घूम कर ही मजबूत होता हो? मेरे लिए रिश्ता महत्वपूर्ण है....वो किस तरह बना है ये नहीं. कितनी बार, आग के चारों तरफ लिए हुए रिश्ते जल जाते हैं......और दिलों के रिश्ते , जहाँ पर जिस्म साथ नहीं होते..... अमर हो जाते हैं.....

मै समझ रहीं हूँ....लेकिन आपका ख्याल कौन रखेगा?

जिसने इस दुनिया मे भेजा है... वही ख्याल भी रखेगा. मै मजाक नहीं कर रहा हूँ... ये सत्य है....कम से कम मेरे लिए तो  है ही....

नजदीकी....दिलों की चाहिए....जिस्मों की नजदीकी.....मेरे लिए ज्यादा महत्व नहीं रखती.

शाम हो गयी है..... तुम घर चलो. माता - पिता जी को मेरा नमस्कार कहना. जरा खूँटी से मफलर उतार दो... मै भी जरा नदी के किनारे घूम आऊं.... कमरे मे बैठे  बैठे थक गया हूँ....चलो तुमको भी घर छोड़ दूंगा.

सर दर्द  कैसा है....मफलर देते हुए ज्योति का सवाल.

अब कुछ कम है..... इतना बोल लिया ना.....सर हल्का हो गया....

तीरथ राम से दवा भी लेनी है......ये दखो..नदी के दो किनारे देख रही हो.....ये दोनों  कभी नहीं मिलते... लेकिन रहते साथ साथ हैं....तुमने  कभी एक किनारे की नदी सुनी है......नदी...हमारी ज़िन्दगी है.........इधर मैं,  उधर तुम..... अलग - अलग मगर साथ - साथ.

ये जीवन  है.

1 comment:

vandana gupta said...

क्या ये जरुरी की हर रिश्ता आग के चारों तरफ घूम कर ही मजबूत होता हो? मेरे लिए रिश्ता महत्वपूर्ण है....वो किस तरह बना है ये नहीं. कितनी बार, आग के चारों तरफ लिए हुए रिश्ते जल जाते हैं......और दिलों के रिश्ते , जहाँ पर जिस्म साथ नहीं होते..... अमर हो जाते हैं.....

उफ़ ! हर बार रुलाना क्या जरूरी है देव साहब्…………कितनी गहनता और सरलता है आपके लेखन मे साथ ही ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ भी……………आपके लेखन की कायल हो गयी हूँ।