Thursday, December 2, 2010

...... अंत निकट है.

एक निराशा छाती जा  रही है मन में.....ज्यों ज्यों तुम्हारी डायरी के पन्ने ख़त्म होने को आ रहे हैं....
कुछ ही पन्ने तो शेष बचे हैं.... फिर उसके बाद..... चिट्ठी ना कोई ना सन्देश, है ऐसा कौन सा देश जहाँ तुम चले गए...... मेरा मन नहीं और पन्ने  पढने का..... खत्म हो जायेगी डायरी....फिर मै क्या पढूंगी.....
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पेज नम्बर ८७.....

ज़िन्दगी तूने लहू ले के दिया कुछ भी नहीं.... तेरी झोली मे मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं......

तुम जानती हो मैने अपने लिए  कभी किसी से कुछ नहीं माँगा......उससे भी नहीं...... दर्द को चुपचाप , हंसी के पर्दे पीछे छुपाने का हुनर मैने कहाँ से सीखा पता नहीं......अगर कभी पलकों की कतारों मे कुछ नमी महसूस हुई.... तो नींद के बहने कुछ देर आंख्ने बंद कर लेना ...... कोई ना समझ  पाया...... मेरी पलकों पर ये आंसू प्यार की तौहीन  हैं, उसकी आँखों से गिरे, मोती के दाने हो गए....

मेरे पिता जी ने मुझे समझाया बेटा " Some cause happiness wherever they go and some cause happiness whenever they go" .....मै अपने को wherever वाली श्रेणी मै लाते लाते खो गया... लेकिन हारा नहीं.... प्यार बाँटूगा.... बाबा.... आप को निराश नहीं करूंगा.....आप जहाँ भी हो ... अपना आशीर्वाद बरसाते रहना.... माँ से भी कहना मै बहुत खुश हूँ.

तुम तो जानती हो ..... तपस्वनी.....की मेरी हमेशा से यही कोशिश रही की कोई मेरे दिल की  तह तक ना पहुँच  पाए..इसलिए सब को हंसी-मजाक मे लगाये रखने का हुनर .... मैने बदस्तूर ज़िंदा रखा. तुम ने कितनी बार मेरी इस आदत को समझते हुए मुझपर गुस्सा भी किया......अब तो दिन, हफ्ते और महीने गुजर जाते हैं.... मे बोलता नहीं हूँ..... चुप.....शांत.....काफी समय से मे हंसा नहीं हूँ..... हंसने को दिल बहुत करता है.... लेकिन जब अकेले हंसता हूँ..... तो लोग  देखते हैं.....एक - दो गाली दे लेते हैं, माँ बच्चों से " बेटा पागल है.... " ये कह कर दूर कर लेती हैं.....कुछ बच्चे एक दो पत्थर मार कर भाग जाते हैं......अच्छा लगता है... उनका मनोरंज हो जाता है.... दूसरों को खुश  करना भी तो एक कला है....है ना.....बोलो तो. घर से बहुत दूर है मंदिर चलो यूँ कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए. ... कभी कभी गाँव के छोटे छोटे बच्चों के बीच,  मै जोकर बन कर नाचता हूँ.... तो वो खिलखिला  कर हंसते हैं...... तब मुझे  अपना जोकर बनना अच्छा लगता है. मेरे दिल के किसी कोने मे एक मासूम सा बच्चा , बड़ो को देखकर दुनिया मे, बड़ा होने से डरता है.

ओफ़..... कितना लिखता हूँ मै.......मेरा बदन जल रहा है....लगता है फिर बुखार है..... पास मे मस्जिद है.. चलो शायद इमाम साहब के पास कुछ दवा मिल जाए.....

कहते हैं की जब तक दिल पर चोट नहीं लगती......वो नहीं मिलता........ ना बुतखाने , ना काबे मे मिला है.. मगर टूटे हुए दिल मे  मिला है...... अब मै उसकी मर्जी पर चलता हूँ. सिर्फ उसकी मर्जी.......

लो मस्जिद भी आगई.... चलो आज रात यही गुजर होगी.

इमाम  साहब से पता  चला की तुम्हारा गाँव यहाँ से कुछ दूर ही है... पैदल चलने पर भी ३ घंटे मे पहुंचा जा सकता है...... ठीक है..... कल जल्दी चल दूंगा....आज फिर दिल ने एक तमन्ना की, आज फिर हमने दिल को समझाया.....

९ फरवरी ---- मै कृष्ण मंदिर पहुँच गया. बाबा से मुलाक़ात हुई.... उन्होंने तो नारायण समझ कर मेरी ख़ातिर करदी.... कहने लगे... ना जाने किस वेश मे नारायण मिल जाए......मुझे उनके भोलेपन ने जीत लिया...... आज २ रोटी की खातिर तुम्हारे दरवाजे पर आया , लेकिन चौकीदार  ने २ गालियाँ देकर भगा दिया..... मै हँस रहा था...भाग्य पर और भाग्य विधाता  पर.....

तबीयत अब ठीक नहीं रहती....... इसलिए अब अपने आप को उसको सौँप देना चाहता हूँ.... बीनी रे झीनी चदरिया. ज़िदगी का जो  प्रीपेड कार्ड उसने दिया है..... वो व्यर्थ के टॉक टाइम मे ना जाय.... किस का टॉक टाइम कितना है..... कौन  जानता है. ......

प्यार बांटो और प्यार करो... लेकिन मेरी तरह चरित्रहीन ना बनना.... बहुत तकलीफ होती है, अंदर तक भेद जाती है ...जब कोई , किसी प्रेमी को चरित्रहीन कहता है.

मुस्करा देताहूँ जब भी ग़म कोई आता है पास,
बद्दुआ की काट मुमकिन है कोई, तो है दुआ......

जो कभी ना कह सका, वो सब लिख दिया..... अब ये इस डायरी की किस्मत है कि किसके हाँथ मे पड़ती है.....चूरन वाला इसमे चूरन बांधता है....या ये किसी कि अमानत बनती है.......देखते है.....जैसे फूल कि किस्मत... कि देवता के सर चढे या अर्थी पर .......

.कलम मे स्याही खत्म हो रही है और डायरी मे पन्ने भी ...... अंत निकट है.

शरीर हटा दो...तो सिर्फ प्रेम शेष रह जाएगा.
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तुम्हारी डायरी खत्म हो गयी.... लेकिन ८८ पन्नो मे... बाकी १२ पन्ने कहाँ गए....किस से उन १२ पन्नो का हिसाब मांगू......बोलो तो? कितना कुछ था तुम्हारे अंदर और तुम लोगों को बहलाते रहे..... क्या कभी कोई ना मिला जो तुम को समझता..... लेकिन तुम भी तो निर्मोही थे..... कभी किसी से मोह हुआ नहीं....और अगर हुआ तो उसको अपने दिल कि गहराइयों मे छुपा ले गए...... क्यों किया तुमने ऐसा......

रंजिश ही सही, दिल को दुखाने  के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ......

मरने वालों को भी नहीं मिलते हैं मरने वाले,
मौत ले जा के ख़ुदा जाने कहाँ छोडती है.....

तुम मरे  नहीं हो.......तुम मर भी नहीं सकते.......४४ साल कि उम्र कोई उम्र होती है......एक बार आओ.... दो रोटी मांगने के लिए ही सही.....एक बार आओ......

2 comments:

vandana gupta said...

देव साहब
अंत आते तक रुला दिया …………रोयां रोयां कंपकंपा गया……………पता नही आपकी इस कहानी मे ऐसा क्या था जिसने मुझे ऐसे बांध कर रखा जैसे मेरी ही कोई कहानी हो किसी जनम की……………एक अजीब सी कशिश है आपकी इस कहानी मे जो आज कहीं देखने को नही मिलती हाँ पहले मिला करती थी शायद रानू के उपन्यास मे या गुलशन नन्दा के उपन्यास मे जहाँ पढने वाला खुद को आत्मसात कर लेता था पात्रों से………………आगे भी ऐसे ही लेखन की अपेक्षा करती हूँ।

Kailash Sharma said...

अंदर तक छू गयी...इतनी कशक , इतना दर्द ...बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति..आभार