Sunday, January 30, 2011

बाकी फिर कभी....

ओह....डायरी में पन्ने भी खत्म हो रहे हैं....अब क्या बताऊँ..किसी किताब वाले कि दूकान पर जा कर अगर भिक्षा  में एक डायरी मांगूगा तो वो भी हंसेगा....क्या करूँ....आज सवेरे  ३.३० बजे आँख खुल गयी...ध्यान आदि से निवर्त हो कर सोचा कि चलो डायरी पूरी  कर लूँ. ध्यान इस विचार के साथ खत्म हुआ.....

तेरे जलवे अब मुझे हर सू नज़र आने लगे,
काश ये भी जो के मुझमे तू नज़र आने लगे.

मेरे यहाँ रहने से अंजलि को काफी काम पड़ गया है. छोटी सी रानी बिटिया...गर्म गर्म चाय ले कर आ गयी लो बाबा चाय लो.....पंडित जी भी चाय का ग्लास ले कर मेरे पास ही बैठ गए.....

सवेरे सवेरे कहाँ जाने कि तैयारी है....? उनका प्रश्न.

थोड़ा अहम कम करने जा रहा हूँ.....मेरा जवाब.

क्या मतलब...?

हाँ...पंडित जी.....कुछ दिनों से मंदिर में बैठे बैठे कुछ अहंकार सा आ गया है. सब कुछ बैठे बिठाए मिल रहा है, इसलिए...आज पास के गाँव में भिक्षा मांगने जा रहा हूँ.....ज्यादातर लोग, जो बचा हुआ होता है...वो भिक्षा में दे कर पुण्य कमाते हैं, कुछ गालियाँ देकर, और एक या दो ही होते हैं...जो अपनी जरूरतों को काट कर भिक्षा देते हैं...कई बार तो कुछ लोग कटाक्ष भी कर देते हैं.....और मैं...मेरे मालिक कि मर्जी कह कर मुस्करा देता हूँ. इससे अहम को कम करने में मदद मिलती है....मुझे ऐसा लगता है.

आज फिर स्वास्थ्य कुछ ढीला ही है....अंजलि बिटिया कि एक कप चाय ने काफी साथ दिया. चलते चलते कुछ थकान सी लगी तो पास के मकान  में कुछ देर विश्राम के लिया रुका. बारिश शुरू हो गयी है.

अब्बा देखो दरवाजे पर कोई भिखारी  बैठा है......   एक छोटे से बच्चे कि आवाज़ सुनाई दी.

जा.....ये रोटी दे दे उसको....अब्बा....हियाँ आवो. इतनी आवाज़ मैने सुनी.



मैं शायद थकान और ज्वर कि वजह से कुछ मुर्छित सा हो रहा था. आँख खुली तो एक मियाँ सामने बैठे हुए, मुझे घूर रहे थे....हुज़ूर क्या आप कि तबियत नासाज़ है.....उनका सवाल.

जी...मियाँ हरारत सी है....

तो कहाँ इस तूफानी मौसम में घूमने निकल पड़े.....तफरी कि लिए निकले थे या खुदकुशी करने....

मियाँ कि आवाज़ और बात करने का अंदाज कुछ साल पीछे खींच रहा था...लेकिन कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए मैं भी अनमना सा उनके सवाल सुन रहा था. मैं चुप......

बोलिए हुज़ूर.....जवाब दीजिये....

मैं मियाँ कि तरफ गौर से देखता रहा....तपस्वनी...जानती वो मियाँ कौन थे......वो थे सज्जाद  मियाँ. तुम को शायद उनकी याद ना हो..... याद है तुम्हारे घर के पड़ोस में जो मौलाना साहब रहते थे, सज्जाद उनका ही छोटा बेटा था. ...लेकिन सज्जाद तुमको छेड़ता बहुत था....इसलिए तुम उस से दूरी बना कर ही रखती थीं.

सज्जाद ने दो मोटी मोटी गालियाँ दी....और फिर खींच कर गले से लगा लिया और साले कि आँखों में आंसू भी आ गए, मेरे लिए....देखो ना वो मेरे लिए रो पड़ा. और सारे हाल जानने कि लिए सवाल दर सवाल करता चला गया. कहने लगा कि कहाँ ठिकाना है...मेरे ये कहने  पर में उपराड़ी गाँव के कृष्ण मंदिर में रुका हूँ....तो वो बोला....अबे....राधा भी तो वहीं रहती है.......तू मिला?

दोपहर हो गयी....बारिश कुछ कम हुई...आज पहली बार तबियत को लेके ना जाने से कुछ डर सा लगा..सो वापस मंदिर ही चल पड़ा. आज कि भिक्षा में मालिक ने सज्जाद मियाँ  के घर का खाना लिखा था...सो नसीब हो गया. लेकिन वो आज भी तुमको याद करता है तपस्वनी......याद है एक बार मैने तुमसे कहा था.....

दिन आ गए शबाब के आँचल संभलिये,
होने लगी है शहर में हलचल संभालिये.

बाकी फिर कभी...थोड़ा आराम करने का मन है....

2 comments:

vandana gupta said...

दिन आ गए शबाब के आँचल संभलिये,
होने लगी है शहर में हलचल संभालिये.

इतनी रोचकता बनी हुई है कहानी मे कि लगता है क्रमश: क्यों आया……………अब आगे का इंतज़ार है।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

bahut rochak...
aahkir ka sher... kya kahna ?