Saturday, January 1, 2011

बोल राधा बोल....

Facebook या face is  a  book ....खैर मैं नामों के उलट-फेर में नहीं पड़ना चाहता....कहते हैं कि चेहरा दिल कि किताब होता है.....सही है , मानता हूँ.....लेकिन जब चाँद सामने न हो तो किसे पढ़ें और कैसे पढें.......

राधा.....तुम मेरे सामने नहीं हो.......बहुत दूर हो......लेकिन फिर  भी मैं तुम्हारे एक-एक विचार, एक-एक शब्दों को जोड़ कर मैं तुम्हारी तस्वीर बना लेता हूँ..... और फिर तुमको पढ़ लेता हूँ....और तुम को पढ़ना अब तो और भी आसान हो गया है......क्योंकि विचारों और शब्दों से बनी तुम्हारी तस्वीर में , मैं , अपने आप को भी पाता हूँ.... काफी हद तक पाता हूँ.....इसीलिए.....प्रेम करने लगा.....तुमको अपना हमख्याल पाता हूँ.....

कभी-कभी तुम बिलकुल करीने से, सजी संवरी नज़र आती हो.....और कभी-कभी एक बेचेनी नज़र आती है तुम मै.....कुछ ढूंढती हुई...कुछ तलाश करती हुई.......जैसे कह रही हो.....मुझे उपर से नहीं अंदर से देखो......मैं तुम्हारी हूँ.....क्या तुम मुझे प्यार नहीं कर सकते......जैसी मैं हूँ......क्यों तुम मुझे अपने पसंद के आकार में ढाल कर प्रेम करना चाहते हो.........राधा को राधा ही रहने  दो......और राधा को राधा की तरह ही प्रेम करो......

अच्छा...बोलो....मैने तुम्हारे फाके कि book को read किया ...वो ठीक है की नहीं........कुछ नहीं....काफी हद तक और कई बार ऐसा हुआ है...राधा...की लिखा तुमने....और कहानी मेरी बयाँ हो गयी...... हो सकता है...कि विचार भी आकर्षित करते  हों....और फिर वही आकर्षण प्रेम का रूप ले लेता हो......तो क्या गलत है इसमे......बोलो तो....? कम से कम ये जिस्मानी बन्धनों से तो परे होता है.....संभव है......कि जिस्म खूबसूरत न हो.....लेकिन विचारों कि ख़ूबसूरती.....जिस्मानी ख़ूबसूरती पर भारी पड़ती है......और जहाँ...जिस्म और विचार दोनों ही खूबसूरत हों......तो फिर सोने पर सुहागा......

तुम रोकती क्यों हो अपने आप को ............बोल राधा बोल....

एक पगली मेरा नाम तो ले शर्माए भी घबराए भी,
गलियों-गलियों मुझसे मिलने, आये भी घबराए भी.
कौन बिछुड़ कर फिर लौटा है, क्यों आवारा फिरते हो,
रातों को एक चाँद मुझे समझाए भी, घबराए भी....

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