Thursday, January 27, 2011

मुसाफिर से सफ़र का हौसला नहीं छीना जाता.

तपस्वनी.....कितने युग बीत गए...पता नहीं......

आज मैं मंजिल पर पहुँच गया हूँ.....मंदिर में रुका.....तो जरा सा भी अजनबी सा वातावरण नहीं लगा. अचानक ही मन मे कुछ पंक्तियाँ घूम गयीं.....

जान लीजिये वो कहीं आस - पास है,
तन  झूमने लगे, जहाँ मन डोलने लगे.

तुमको सहेजने के चक्कर में, खुद को कई बार खोया.....कई बार तो जब खुद को ढूँढा तब तुमको ही पाया. और अब अगर तुम दूरी बनाओगी..तो....ख़ुदा जाने अंजाम क्या होगा. मंदिर पहुँच कर ये सोचा की कैसे पता करूँ तुम्हारे बारे में......कुसुम की वो बात याद थी की कृष्ण मंदिर के पास कहीं बड़ा सा बंगला है तुम्हारा..अब किस के दरवाजे पर जाकर तुम्हारा पता पूँछु....बोलो तो. तब मैने अपने दिल का सहारा लिया...और लो...तुम तो बालकोनी में ही दिख गयीं.......कहाँ हो.....

सब कुछ तो खो चुका हूँ.....तब तो तुमको पाया है....अब क्या तुम भी दूरी बनाने लगी हो.......

मुसाफिर से सफ़र का हौसला नहीं छीना जाता.



3 comments:

vandana gupta said...

शुक्र है कहानी आगे बढी तो……………फ़कीर को तपस्विनी का दीदार तो हुआ अब आगे का इंतज़ार है।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

hausla hi to manzil tak panhuchata hai.

Kailash Sharma said...

bahut maarmik aur bhavpurn..