Friday, January 28, 2011

दूसरा और तीसरा पन्ना

पन्ने दर पन्ने मैं अपनी ज़िन्दगी की किताब को खुद ही खोल रहा हूँ....इसको भी तो धूप और हवा चाहिए.

इतने सालों मे सब से जुड़ता हुआ , सब से अलग होता हुआ...मैं चलता रहा....तलाश निरंतर चलती रही...या यूँ समझ लीजिये की जैसे मेरे अंदर कोई sensor लगा हो....दिमाग किसी तरफ ले के चला ....मैं वहाँ पहुंचा....लेकिन दिल ने मना कर दिया और मैं आगे बढ़ गया. फिर तलाश ......कब तक आखिर , आखिर कब तक. ....लेकिन चलते रहना ही तो ज़िन्दगी है.

एक चेहरा साथ साथ रहा, पर मिला नहीं,
किस को तलाशते रहे कुछ पता नहीं.....

ये दूसरा और तीसरा पन्ना, मैं अपनी तपस्वनी को समर्पित कर रहा हूँ.......... आप को तपस्वनी से मिलवाता हूँ..... कैसे शुरू करूँ.....उसको शब्दों में बांधना तो वैसा ही होगा जैसे किसी पहाड़ी नदी पर बाँध बनाना.....मैं तो जानता भी नहीं था की वो एक तपस्वनी है....आम और ख़ास में अंतर करना मुझे नहीं आता था. मेरा स्वभाव तो ...उड़ते हुए धुंए की तरह था....जिधर हवा ले गयी, चले गए....कभी दीवार से टकराया , तो कभी गुलों के साथ हो लिया.....लेकिन एक दिन, जब उससे सामना हुआ....और उसको थोड़ा बहुत समझने का मौका मिला....तो दांतों तले ऊँगली दबानी पड़ गयी.....उसको जितना देखता हूँ.....और देखने का मन करता है....जितना समझता हूँ...और समझने का मन करता है. ....आज के जमाने में इतनी शिद्दत से प्यार करने वाला भी कोई हो सकता है.....सवाल क्यों पूंछता है पगले...जब जवाब तेरे सामने, तेरे पास और तेरे साथ है.

आज मंदिर में.....पंडित जी तपस्वनी के बारे में पूंछा तो क्या बोलता...लोग मुझे फ़कीर कहते हैं....उनका मुझे देखने का नजरिया सिर्फ इतना है..की मैं गाँव गाँव घूमता रहता हूँ....अपनी धुन में रहता हूँ.....जब पंडित जी ने पूंछा की तुम फ़कीर क्यों बन गए.....तो मैं क्या जवाब देता. मैं झूठ नहीं बोल पाता ...लेकिन अगर कोई सच बोलने से किसी पर रुसवाई के बादल छा जाए..तो ऐसे हालत में झूठ ना बोलकर , चुप रह जाना मैं उचित मानता हूँ...और चुप रह गया. जब पंडित जी ने सीधा प्रश्न  किया की क्या किसी को प्रेम करते हो...?

पता नहीं ...बाबा. ...ये तो अभी पता नहीं...लेकिन एक तपस्वनी ने मुझे खरीद लिया है....

क्या तपस्वनी यहीं रहती है.....बाबा का अगला सवाल था.

जान लीजिये वो कहीं आस पास है,
तन झूमने लगे जहाँ मन डोलने लगे....

ये मेरा जवाब था. .....पंडित जी की मुस्कराहट और आँखों की गहराई ने मुझे बता दिया की पंडित जी को अपने सवाल का जवाब मिल गया था. ...... जब तुम लगातार मंदिर आती रहीं......तो पंडित जी ने बहुत सरल तरीके से मुझसे एक दिन कहा.....की लग रहा है .....की फ़कीर की तपस्वनी मिल गयी है.....तो क्या मैं अब आगे चलूं ...पंडित जी. ...मैने पंडित जी से पूंछा.

ये मैं कैसे कह सकता हूँ.....मैं तो कृष्ण का पुजारी हूँ....मेरे लिए जहाँ ......कृष्ण वहीं राधा.......पंडित जी को लोग अनपढ़ समझते थे...लेकिन अनुभव की वो दौलत उनके पास थी....जिसे के आगे बड़े बड़े विद्ववान फीके पड़ जाते....उनकी अनुभवी आंखे सब देखतीं थीं.

राधा भी तो तपस्वनी ही थी या है.......पंडित जी ने मुझसे पूंछा.....

मैं उनके इस सवाल पर अवाक रह गया.....कितना सधा हुआ तीर छोड़ा था पंडित जी ने.....राधा वो भी थी....राधा ये भी है.....तपस्वनी वो भी थी..तपस्वनी ये भी है....मैं मंत्रमुग्ध पंडित जी की तरफ देखता रह गया..... रात काफी हो चली थी..लेकिन पंडित जी अपने अनुभव के धनुष पर कस कर आज सारे तीर छोड़ रहे थे...और मैं अपने ज्ञान को ढाल बना कर उनका सामना कर रहा था. ..लेकिन बिलकुल बुरा नहीं लगा....बल्कि ...माता-पिता के बाद....आज पहली बार किसी ने इतने आत्मीय तरीके से मुझे छुआ....

3 comments:

vandana gupta said...

राधा भी तो तपस्वनी ही थी या है.......पंडित जी ने मुझसे पूंछा.....

अब इसके बाद क्या रहा कहने को…………आज की प्रस्तुति आँख नम कर गयी…………कितना अनकहे को शब्द दे गयी।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

achchi bhavpoorn abhivyakti.

Er. सत्यम शिवम said...

बहुत ही सुंदर रचना...