मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ,
तुमको अपने अंदर समाहित करके,
चक्षु जैसे आंसुओं को छुपाते हैं,
वैसे ही, मैं तुम को अपने छुपा के जीता हूँ.....मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.
रोज़ तुम मेरे मन के आँगन में उतरती हो,
सब कुछ कह देने के लिए,
सब कुछ दे देने के लिए,लेकिन....
तुम्हारे साथ,,,,,सच कहा तुमने,
मैं, मैं नहीं रहता,
तुम हो जाता हूँ....
जानता हूँ, तुम नहीं मानोगी....लेकिन, .....मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.
मैं पुरुष हूँ.....हाँ मैं पुरुष हूँ,
लेकिन पाषण नहीं हूँ....
ये समाज पुरुष प्रधान हो सकता है....
लेकिन मैं आज भी " यत्र नार्यस्तु, पुज्येंते, तत्र रमन्ते देवता:"
को मानता हूँ, विश्वास करता हूँ......मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.
जहाँ पर मैं अपने आप को खत्म महसूस करता हूँ,
वहाँ से तुम शुरू होती हो,
तभी तो मैं पूर्ण होता हूँ.....
शून्य तभी बनता है,
जब लकीर का एक सिरा , दूसरे से मिल जाता है......
आओ हम पूर्ण हो जाए....
मैं भी तुम से मैं तक का सफ़र रोज़ करता हूँ.....
मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.
इंतज़ार करता हूँ.....तुम्हारा
तुम भी तो......लेकिन तुम नहीं मानोगी.....
प्रेम में पतन नहीं, उत्थान होता है....
ख़ाक को बुत, बुत को देवता करता है इश्क,
इन्तेहा ये है की इंसा को खुदा करता है इश्क....
एक बार आओ ये प्रयोग करें,
कि हम दोनों मन से एक हो जाएँ....
ना तुम वापस जाओ, ना मैं वापस जाऊं...
तन ना सही, मन से एक जाएँ.....
आओ प्यार का वो फूल खिलायं,
जिसको मुरझाने का गम ना हो, डर ना हो.
मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.
तुम हो मेरे मन कि गहराइयों मे....उन गहराइयों मे, जहाँ जाने से मे खुद भी डरता हूँ....
लेकिन मैं तुम मे रहता हूँ......मैं जानता हूँ...कि तुम हंसोगी.....इनकार करोगी.....
सच्चाई के धरातल पर मैं रोज़ कई जंग लड़ता हूँ.....
और जीतता भी हूँ.....क्योंकि तुम शक्ति स्वरूपा मेरे अंदर समाहित हो......
मैं भी तो ऐसे ही जीता हूँ.....एक प्रयोग.
6 comments:
रूहानी प्रेम की सुंदर काव्यात्मक अभिव्यक्ति..........अच्छा लगा आपका नया......एक प्रयोग।
शुभकामनाएं।
इसी विषय पर मैने भी कुछ लिखा है मगर अलग अन्दाज़ मे……………आपने प्रेमी मन की सारी भावनायें उँडेल दी हैं…………आपका प्रयोग कारगर साबित हो रहा है…………यही तो प्रेम है जहाँ प्रेम अपनी ऊँचाईयाँ छूता है…………एक बेहद भावप्रवण अभिव्यक्ति।
sundar kavita.. prem kee anupam abhivyakti
जहाँ पर मैं अपने आप को खत्म महसूस करता हूँ,
वहाँ से तुम शुरू होती हो,
तभी तो मैं पूर्ण होता हूँ.....
शून्य तभी बनता है,
जब लकीर का एक सिरा , दूसरे से मिल जाता है...
खूबसूरत भाव ..अच्छी प्रस्तुति
प्रेम में पतन नहीं, उत्थान होता है...
बहुत सही कहा है..सच्चे प्रेम की बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति..
ati sundar !
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