Sunday, January 2, 2011

क्रमश:

बिटिया......देख आनंद बाबू आयें हैं.......

मैं दौड़ती  हुई दरवाजे पर पहुंची.....आज दस दिन बाद आनंद मिला है....आओ आनंद अंदर आओ. मैं लगभग हाँथ खींचती हुई उनको अंदर ले आई. लेकिन पहली बार आनंद के हाँथो से अपने हाँथ पर एक मजबूत पकड़ महसूस करी.....अच्छा लगा.

चाची, राम- राम

आ आनंद बेटा.......कैसा है.

मैं ठीक हूँ....आप कैसे हो?

सब कृपा है......जानकी नंदन की.

चाची ये आप के लिए......

और मेरे लिए.....ज्योति का अपेक्षित सवाल.

तुम्हारे लिए................कोहिनूर के आगे सब फीका लगता है.....तुमको मैं क्या दे सकता हूँ.....लेकिन ये लो....बनारस  गया था..... वहाँ की साड़ी है...

ओ...माँ.....इतनी महंगी साड़ी......क्या जरूरत थी......

ज्योति.....तोहफे की कीमत नहीं, तोहफा देने वाली की नीयत देखी जाती है.

बैठो...आनंद....कैसा रहा बनारस निवास १० दिन का...?

बनारस तो मैं सिर्फ एक दिन के लिए गया.....वहाँ से कुछ दूर एक जगह है..चकिया....और चकिया में एक जगह है चंद्रप्रभा ...मैं वहाँ गया था......

चंद्रप्रभा.....वहाँ क्या है...?

वहाँ गंगा अकेली बहती है.....

अकेली...मतलब....?

मतलब उसके घाटों  पर व्यापार नहीं होता. सिर्फ गंगा है...और जंगल..और कुछ गाँव.

तुमको तो अपने मतलब की जगह मिल गयी.....

हाँ ज्योति......सोचा कुछ दिन अपने साथ रहूँ...इस बार. शहरों में  तो हिस्सों मे ज़िन्दगी जीनी पड़ती है. इंसान देख कर बात करनी पड़ती है.....सो....सोच की इस बार मैं और बस मैं...

तुम कैसी हो.......जहाँआरा...मेरा सवाल ज्योति से.

जहाँआरा....अब ये नया नाम.....ठीक हूँ....यही कह सकती हूँ......बाकी तो तुम सब जानते हो.
क्रमश: 

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