Sunday, January 2, 2011

कारवां गुजर गया, ग़ुब्बार देखते रहे....

नहीं......तुम्हारी कोई  भी दलील मुझ पर असर नहीं करती....हर्ष. मैं ये नहीं कहती कि  प्रेम व्यर्थ है.....लेकिन तुम गलत जगह पर इसको ढूंढ रहे हो......इतना कह कर प्रार्थना तो आगे चली गयी .....

हर्ष वहीं खड़ा सोचता रहा....कि क्या प्रेम भी logic या तर्क का विषय बन गया है........उसने तो सिर्फ इतना सुना था कि प्रेम हो जाता है...प्रेम किया नहीं जाता.....इसलिए हर्ष ने प्रार्थना से अपने दिल कि बात कह दी......लेकिन प्रार्थना ने इतने दलील के बाण चलाये कि उस ने प्रार्थना से पूंछ ही लिया कि क्या हमारे रास्ते अलग हुए.........

पता नहीं...प्रार्थना का दो टूक उत्तर.

प्रार्थना के इस तरह दो टूक उत्तर हर्ष पहले भी सुन चुका था......लेकिन उसको अपने प्यार पर भरोसा था.....और वो समझता था कि प्रेम कि शक्ति......सर्वोच्च होती है......लेकिन ....जो उसको मिल रहा था......उस पर उसे यकीं नहीं हो रहा था.....कितनी आसानी से प्रार्थना ने हर्ष का प्रेम आग्रह ठुकरा दिया......एक तरफ तो प्रार्थना ने कहा कि मैं सब कुछ समझतीं हूँ.....जानती हूँ...और दूसरी तरफ.........इनकार.

नहीं सब बेकार है.....करे कोई और भरे कोई...प्रेम के नाम पर इतने छलावे  हो चुके हैं..... कि जो वाकई प्रेम करता हो...या करता है...वो भी कोडियों के भाव बिक जाता है.....जो सोच समझ कर किया जाता है...वो तो ऐयाशी होती है.......प्रेम मे कब बुद्धि का इस्तेमाल हुआ है.....

खैर.....कारवाँ गुजर गया , गुब्बार देखते रहे.......हर्ष ये कहता हुआ.....वापस लौट पड़ा.

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