इसको आत्मकथा मत समझना...वो तो बड़े - बड़े लोगों की होती है... उसको लोग पढते हैं और कुछ सीखते हैं...ये तो मेरी डायरी के चंद पन्ने हैं......जो मेरे अंदर दबे-दबे सड़ने लगे हैं....मुझे अपने आप को सहना भी अब बोझ लगने लगा है..इसलिए सब कुछ कह कर, साफ- साफ़ कह कर, चला जाउंगा......कहाँ तक बोझ उठाऊं ...अपना....बोलो तो. कंधे थक गए हैं.....पैर जवाब देने लगे हैं...शरीर भी अब साथ नहीं देता, अब तो कंधो पर चलने का मन करने लगा है....बचपन बीत गया...लेकिन दिल से बचपना नहीं गया. दिल की कुछ तलाश करने की आदत से मैं आजिज़ आ गया हूँ....हाँ मैं आजिज़ आ गया हूँ. ..पता नहीं इसे क्या चाहिए...कुछ मिलता है तो ...नहीं ये नहीं...फिर तलाश पर निकल पड़ता है....
दिल भी एक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए, या कुछ भी नहीं.
हाँ..प्रेम की तलाश है इसको.....प्रेम की...प्रेम समझते हैं ना आप...देखिये आप लोग भी प्रेम को सीमित ना करिए...उसको जिस्म की सीमाओं तक ना बांधिए..तो एहसाँ होगा...परिंदे आसमाँ में उड़ते ही अच्छे लगते हैं...है ना...बोलो तो. जूनून और आंधी में फर्क तो तुम समझती ही होगी.... जूनून जब मौसम के सर पे सवार हो जाए तो आंधी बन जाता है...उसको रोकना किसके बस में है....लेकिन जूनून जब इंसान के सर पर सवार होता है......तब वो इंसान का इम्तेहान लेता है....मैं इम्तेहान देते-देते थक गया हूँ.....बहुत थक गया हूँ. अब सोने का मन करता है. किताब बन गया हूँ.....जिसके हाँथ लगा , उसने पढ़ा...कुछ ओराक (पन्ने) जो उसके मतलब के लगे, फाड़ लिए...किताब को छोड़ दिया....और कुछ लोगों ने चंद पंकित्यों को underline कर के छोड़ दिया.....
जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ....तो कितने बिखरे हुए कदम नज़र आते हैं....सब मेरे ही हैं....कुछ यहाँ, कुछ वहाँ, कुछ इधर, कुछ उधर....कोई सलीके से उठा कदम ही नहीं दिखाई पड़ता. .... बहुत बरस बीत गए....फिर एक तपस्वनी मिली...हाँ तपस्वनी...अब इस बात पर बहस ना की जाए , की इस जमाने में और तपस्वनी.... जी हाँ बिलकुल ठीक पढ़ रहे हैं...आप ..तपस्वनी. बस उसकी तपस्या वो नहीं जो जंगल में किसी पेड़ के नीचे बैठ कर होती है......उसने तो अपने दिल को ही जंगल बना लिया है....और वहीं तपस्या करती है. ...पता नहीं उसका आराध्य , उसकी इस तपस्या के लायक है भी की नहीं....
जी जरा मेरे झोली में से एक अलबम तो निकाल दीजिये, please .... thank you . और इसमे लगी हुई तस्वीरों को देखिये....जी इसमे कुछ तस्वीरे आप को कटी हुई नज़र आएँगी....जी ...ये जो आप कटी हुई तस्वीरें देख रहे हैं...आप ये मेरी हैं.....जिसको आप लोग आनंद के नाम से जानते हैं....यूँ तो मेरे नाम के कई पर्यावाची हैं....लेकिन वो ऐसे नहीं हैं जिनको यहाँ पर लिख सकूँ.....सब ने अपनी सहूलियत के हिसाब से मेरे नाम रख लिए....अगर दिनकर, दिवाकर, रवि, भानु या भास्कर जैसे नाम होते तो लिख देता, लेकिन......यहाँ पर ये लेकिन ही तो सब कुछ कह देता है.....मैं अपनी समझ से जो सही लगा..करता रहा....जो राह सही लगी उस पर चलता रहा.....कभी टूटता, कभी जुड़ता , कभी बिखरता, कभी संवरता ....लेकिन चलता रहा.....कभी दिल मुझे समझाता, कभी मै दिल को समझाता....चलता रहा....मंजिल का पता नहीं..लेकिन चलता रहा....अब मुझे पागल करार देने में आप संकोच नहीं करेंगे...मैं जानता हूँ...लेकिन क्या करूँ.....
अब चलते चलते इतना दूर निकल आया हूँ.....की एक भी शजर नज़र नहीं आता है....जिसके नीचे बैठ कर चंद सांस ले लूँ.....अरे नहीं...अब मैं झूठ बोल रहा हूँ.....वो जिस तपस्वनी का मैने अभी उपर ज़िक्र किया है.....वो एक शजर नहीं है....वो एक पीपल का पेड़ है.....जिसने मुझे मेरी सांस ही नहीं लौटाई , बल्कि मुझमे ज़िन्दगी भर दी....बुरा ना माने तो एक बात कहूँ....जरा एक बार मेरे सीने पर हाँथ रख कर देखिये...हाँ...ये जो धडकन महसूस कर रहे ना आप....सरकार....... उसी तपस्वनी की दी हुई हैं.....उसने अपने आप को दे कर मुझे बचा लिया....वो ज़िन्दगी देती है. ...लेकिन एक बार फिर मैं अपाहिज बन गया हूँ......और नहीं तो क्या कहूँ..... बोलो तो.....?
उसकी आदत पड़ गयी थी.....अब उसकी कोई खबर नहीं है.....आजकल पिछुवा हवा भी तो नहीं चल रही है....जो उसकी खबर ले आये....मन परेशान है.....लेकिन मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता....ना...बिलकुल नहीं.....दर्द पी जाने की तो आदत पड़ गयी है....और उस पर मुस्कराहट ....पता नहीं ज़िन्दगी जी रहा हूँ या ज़िन्दगी कट रही है.....समझ में नहीं आ रहा है.....कोई खबर नहीं. ....ज़िन्दगी की.
एक जानदार लाश समझिये मेरा वजूद, अब क्या धरा है, कोई चुरा ले गया मुझे.
हो वापसी अगर तो इन्हीं रास्तों से हो, जिन रास्तों से प्यार तेरा , ले गया मुझे.
अब काफी वक़्त हो चला है...ना जाने कैसी होगी वो.....हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चाँद.
दिल भी एक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए, या कुछ भी नहीं.
हाँ..प्रेम की तलाश है इसको.....प्रेम की...प्रेम समझते हैं ना आप...देखिये आप लोग भी प्रेम को सीमित ना करिए...उसको जिस्म की सीमाओं तक ना बांधिए..तो एहसाँ होगा...परिंदे आसमाँ में उड़ते ही अच्छे लगते हैं...है ना...बोलो तो. जूनून और आंधी में फर्क तो तुम समझती ही होगी.... जूनून जब मौसम के सर पे सवार हो जाए तो आंधी बन जाता है...उसको रोकना किसके बस में है....लेकिन जूनून जब इंसान के सर पर सवार होता है......तब वो इंसान का इम्तेहान लेता है....मैं इम्तेहान देते-देते थक गया हूँ.....बहुत थक गया हूँ. अब सोने का मन करता है. किताब बन गया हूँ.....जिसके हाँथ लगा , उसने पढ़ा...कुछ ओराक (पन्ने) जो उसके मतलब के लगे, फाड़ लिए...किताब को छोड़ दिया....और कुछ लोगों ने चंद पंकित्यों को underline कर के छोड़ दिया.....
जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ....तो कितने बिखरे हुए कदम नज़र आते हैं....सब मेरे ही हैं....कुछ यहाँ, कुछ वहाँ, कुछ इधर, कुछ उधर....कोई सलीके से उठा कदम ही नहीं दिखाई पड़ता. .... बहुत बरस बीत गए....फिर एक तपस्वनी मिली...हाँ तपस्वनी...अब इस बात पर बहस ना की जाए , की इस जमाने में और तपस्वनी.... जी हाँ बिलकुल ठीक पढ़ रहे हैं...आप ..तपस्वनी. बस उसकी तपस्या वो नहीं जो जंगल में किसी पेड़ के नीचे बैठ कर होती है......उसने तो अपने दिल को ही जंगल बना लिया है....और वहीं तपस्या करती है. ...पता नहीं उसका आराध्य , उसकी इस तपस्या के लायक है भी की नहीं....
जी जरा मेरे झोली में से एक अलबम तो निकाल दीजिये, please .... thank you . और इसमे लगी हुई तस्वीरों को देखिये....जी इसमे कुछ तस्वीरे आप को कटी हुई नज़र आएँगी....जी ...ये जो आप कटी हुई तस्वीरें देख रहे हैं...आप ये मेरी हैं.....जिसको आप लोग आनंद के नाम से जानते हैं....यूँ तो मेरे नाम के कई पर्यावाची हैं....लेकिन वो ऐसे नहीं हैं जिनको यहाँ पर लिख सकूँ.....सब ने अपनी सहूलियत के हिसाब से मेरे नाम रख लिए....अगर दिनकर, दिवाकर, रवि, भानु या भास्कर जैसे नाम होते तो लिख देता, लेकिन......यहाँ पर ये लेकिन ही तो सब कुछ कह देता है.....मैं अपनी समझ से जो सही लगा..करता रहा....जो राह सही लगी उस पर चलता रहा.....कभी टूटता, कभी जुड़ता , कभी बिखरता, कभी संवरता ....लेकिन चलता रहा.....कभी दिल मुझे समझाता, कभी मै दिल को समझाता....चलता रहा....मंजिल का पता नहीं..लेकिन चलता रहा....अब मुझे पागल करार देने में आप संकोच नहीं करेंगे...मैं जानता हूँ...लेकिन क्या करूँ.....
अब चलते चलते इतना दूर निकल आया हूँ.....की एक भी शजर नज़र नहीं आता है....जिसके नीचे बैठ कर चंद सांस ले लूँ.....अरे नहीं...अब मैं झूठ बोल रहा हूँ.....वो जिस तपस्वनी का मैने अभी उपर ज़िक्र किया है.....वो एक शजर नहीं है....वो एक पीपल का पेड़ है.....जिसने मुझे मेरी सांस ही नहीं लौटाई , बल्कि मुझमे ज़िन्दगी भर दी....बुरा ना माने तो एक बात कहूँ....जरा एक बार मेरे सीने पर हाँथ रख कर देखिये...हाँ...ये जो धडकन महसूस कर रहे ना आप....सरकार....... उसी तपस्वनी की दी हुई हैं.....उसने अपने आप को दे कर मुझे बचा लिया....वो ज़िन्दगी देती है. ...लेकिन एक बार फिर मैं अपाहिज बन गया हूँ......और नहीं तो क्या कहूँ..... बोलो तो.....?
उसकी आदत पड़ गयी थी.....अब उसकी कोई खबर नहीं है.....आजकल पिछुवा हवा भी तो नहीं चल रही है....जो उसकी खबर ले आये....मन परेशान है.....लेकिन मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता....ना...बिलकुल नहीं.....दर्द पी जाने की तो आदत पड़ गयी है....और उस पर मुस्कराहट ....पता नहीं ज़िन्दगी जी रहा हूँ या ज़िन्दगी कट रही है.....समझ में नहीं आ रहा है.....कोई खबर नहीं. ....ज़िन्दगी की.
एक जानदार लाश समझिये मेरा वजूद, अब क्या धरा है, कोई चुरा ले गया मुझे.
हो वापसी अगर तो इन्हीं रास्तों से हो, जिन रास्तों से प्यार तेरा , ले गया मुझे.
अब काफी वक़्त हो चला है...ना जाने कैसी होगी वो.....हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चाँद.
2 comments:
जिस तपस्विनी पर आनंद को इतना भरोसा है वो अगर दूर है तो जरूर कुछ कारण होगा............दूर होने का अर्थ दूरियां बनाना ही नहीं होता.............कभी कभी इंसान परिस्थितियों के हाथों खिलौना बन जाता है..........ऐसे में खुद को बहाव के साथ ही बहने देना चाहिए, वो समय भी जरूर आएगा जब तपस्विनी को अपनी तपस्या और आनंद को अपने इन्तजार का फल मिलेगा..........अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा।
आनन्द को जानना और फिर तपस्विनी से उसके संबंध की अभिव्यक्ति…………एक अलग ही अहसास संजोये हैं।
Post a Comment