भाई साहब........एक जानी पहचानी सी आवाज़...
अरे.....हर्ष....तुम और यहाँ....? कब आये...?
आज सुबह.....
सूचना दे देती होती...तो मैं स्टेशन आ जाता......आओ अंदर आओ.....अरे मालिन माँ.....जरा दो कप बढ़िया सी चाय बना दो आज......
आज ...का क्या मतलब ..क्या रोज़ अच्छी चाय नहीं बनाती हूँ.......
अरे नहीं मालिन माँ......तुम तो
अच्छा बैठ.....मैं बना कर लाती हूँ......
आओ हर्ष...बैठो......कैसे आना हुआ......
भाईसाहब.....कंपनी के काम से आया था.....तो सोच आप से भी मिलता चलूँ......
अरे...बहुत अच्छा किया....ना आते तो सजा मिलती. और बताओ...घर में सब कुशल मंगल है.....
हाँ...सब ठीक है.
आजकल क्या लिख रहे हो......लिख तो रहे हो ना.....अरे मैं आप से हर्ष का परिचय करना तो भूल ही गया. ये हर्ष , मेरे बचपन का दोस्त है...दोस्त तो काफी थे....लेकिन ये अकेला है जो इतना दूर मेरे साथ चला है. लिखता है.....लेकिन सच लिखता है....आप को कल्पना लोक मे नहीं ले जाता है....
भाईसाहब...एक उपन्यास लिखने की सोच रहा हूँ.......
शुरुआत करदी......या अभी सब कुछ अंदर ही है......शीर्षक क्या है.....कुछ लोग शीर्षक सामने रख कर तब लिखतें हैं...और कुछ सब लिखने के बाद सोचते हैं....की शीर्षक क्या हो.
नहीं ... अभी तो सब अंदर है...भाई साहब अभी कुछ दिन पहले एक अजीब शख्स से मुलाक़ात हुई.....उसको पढ़ा....और पढने के बाद...ऐसा लगा अंदर कहीं....की उसके तार कहीं मुझसे मिलते हैं.....सो मैं और पढने लगा उसको....फिर और....फिर और....और कब उसकी तरफ झुकाव हो गया....पता नहीं चला.......क्या आप ये मानते हैं....की इंसान का लेखन भी उसके व्यक्तित्व का आईना होता है.....लेखक जो सोचता है वही लिखता है.....वो ज्यादा असर करता है....या जो कल्पना की दुनिया मे जा कर कुछ लिखे....पहले अपने आप को अपने प्रेमी से अलग करे....फिर दर्द भरी प्रेम की कविता लिखे और हकीकत मैं...उस का उससे, जो उसने लिखा, कोई सम्बन्ध ही ना.......वो ज्यादा असर करता है ......
देखो हर्ष ...लिखने के भी सब के अपने मापदंड होते हैं.....कुछ लोग शौकिया लिखते हैं....कुछ लिखने के लिए लिखते हैं..कुछ वाह-वाही लूटने के लिए लिखते हैं......ये जो वाह-वाही लूटने वाले होते हैं...ये खतरनाक होते हैं......क्योंकि ये लोगों की नब्ज पहचान कर लिखते हैं...और सरल आदमी इनके बुने शब्दों के जाल में उलझ जाता है....और उसमे अपने आप को देखने लगता है...जिसमे ये खुद नहीं होते....... और रही बात असर करने की.....तो बात जहाँ से निकलती है.... वहीं असर करती है....जो दिमाग से निकलती है....वो दिमाग पे असर करती है...और जो दिल से निकलती है...वो दिल पे असर करती है....हाँ...इस पैमाने को समझने में थोड़ा वक़्त लग जाता है......वाह-वाही लूटने वाले , वाह-वाही से ही खुश हो लेते हैं...समाज के प्रति उनकी क्या जिम्मेदारी है....वो इस तरफ सोच नहीं पाते.....क्योंकि वो तो अपनी वाह-वाही से ही बाहर नहीं निकल पाते. ....मैं तो इसको पाठकों के प्रति धोखा मानता हूँ.
मैं भी यहीं पर धोखा खा गया......
धोखा खा गया मतलब.....?
हाँ...मैने उस शख्स को पढकर...उसमे अपने आप को देखना शुरू कर दिया......फिर उनसे पत्र-व्यवहार भी शुरू हुआ....तब जाकर उनकी हकीकत सामने आई....जब उन्होंने खुद ये स्वीकार किया...की जो वो लिखतीं है...उसका असलियत से कुछ लेना-देना है ही नहीं......वो तो खुद ये कहतीं हैं...की मैं अलग - अलग किरदार जीतीं हूँ.....और फिर अपनी तलाश करती हूँ....कौन से किरदार में वो अपने आप को ढूंढती हैं....कविता वाले....या हकीकत वाले.....
क्या तुम प्रार्थना की बात कर रहे हो.....मेरा प्रश्न हर्ष से.
आप को कैसे पता.....हर्ष का प्रश के उत्तर में प्रश्न.
तुम ही ने तो बताया था...जब गाज़ियाबाद स्टेशन पर मिले थे.....
अरे हाँ..........हाँ वही.....प्रार्थना...बहुत हंसी मजाक हो लिया....लेकिन...किस तरह लोग multiple character मे जी लेते हैं.....घुटन नहीं होती उनको.....कब किसके सामने कौन से किरदार में पेश होना है...ये समस्या नहीं होती उनको.....
अरे नहीं......ये शौक धीरे-धीरे ...... आदत बन जाता है.....और फिर तो उनको खुद पता नहीं होता की कब उन्होंने किरदार बदल लिया. ..... और जब उनको घुटन महसूस होती है....तब तलाश शुरू होती है उनकी खुद को ढूँढने की.....और वो इतने किरदार अपने चारों तरफ गढ़ लेते हैं हैं की ये समझ में नहीं आता की असल वो ....कौन सा किरदार में हैं......और आजकल तो ये फैशन सा बन गया है.....और मजे की बात ये ....की ये अपने आप को भगवान् की पहेली.... करार देते हैं...और खुश हो लेते हैं....
तो भाई साहब....क्या ऐसे लेखक या कवि.....समाज के प्रति अपने दाईत्व का निर्वाह करते हैं....
समाज के प्रति......अरे हर्ष.....ये लोग अपने लिए लिखते हैं.......ये अपने आप को समाज से अलग...भगवान् की अनुपम कृति समझते हैं.....और गर्व महसूस करते हैं....
ये लो चाय......खाने में क्या खाओगे.....? मालिन माँ का दखल..
खाने में खाना खाना खायेंगे...मेरा नटखट सा जवाब. ...... अरे माँ...कुछ भी बना दो....और हाँ ज्योति को भी मैने खाने पर बुलाया है......
बुलाया है....नहीं...बुलाया था....मैं यहाँ हूँ...मालिन माँ राम राम....
राम राम बेटी....कैसी है तू....
मैं ठीक हूँ.....
आओ ज्योति.....माँ ...एक कप चाय और....ज्योति के लिए भी....इनको पहचानती हो ज्योति....
ये....हर्ष.......तुम कहाँ से टपके.....और कब......हर्ष और ज्योति classmate रह चुके हैं.
Hello ज्योति......आज ही आया.....तुम कैसी हो......लग तो स्वस्थ ही रही हो....सुंदर तो तुम हो ही है....
मैं ज्योति और हर्ष की इस नोक-झोंक का आनंद ले रहा था..और ठंड में अदरक और तुलसी की चाय का भी.
कैसे आना हुआ......ज्योति का सवाल ..हर्ष से......अब मेरा दखल लाजमी था.
ज्योति...मैं और हर्ष...आजकल के लेखकों के बारे में बात कर रहे थे....
कोई ख़ास वजह...ये topic कहाँ से उठ गया आज...?
हर्ष किसी कवित्री के शब्दों के जाल में उलझ गया...और प्रेम कर बैठा....और जब असलियत में उन कवित्री महोदया से दो-चार हुआ....तो बिखर गया.
शब्दों के जाल ....मतलब.....ज्योति का सवाल हर्ष से.
ज्योति....मैं लिखता हूँ और पढता भी हूँ....इसी बीच एक कवित्री को पढ़ा..और कविता के द्वारा उनके विचारों से अवगत होने पर लगा की शायद मेरे हृदय के कुछ तार उनसे मिलते हैं......तो निकटता महसूस हुई....लेकिन जब पत्र-व्यवहार हुआ...तब उन्होंने खुद ये स्वीकार किया की ....जो वो लिखती हैं.....वो लिखने के लिए लिखतीं हैं....जिस प्रेम की वो बात करती हैं.....वो तो होता ही नहीं.....उनके हिसाब से प्रेम.....बेकार , बेदाम की चीज़ है...जो सिर्फ किताबों में ही मिलता है.
हर्ष......प्रशंसा...एक ऐसा यंत्र है....जो बड़े बड़े लोगों को गिरा लेता है.....मान लो तुम ने कुछ लिखा..... जिस पर तारीफों के पुष्प बरसने लगे...वाह...क्या बढ़िया अभिव्यक्ति है......कितने सुंदर भाव हैं...कितना सुंदर वर्णन किया है....etc etc.... तो तुम को इसका चस्का लग जाता है.....तो तुम वही लिखने लगते हो...जो लोग चाहते हैं....आनंद भी लिखतें हैं......लेकिन उनके लेखन पर तो तारीफों के पुष्प नहीं बरसते....क्योंकि वो जो महसूस करते हैं वही लिखते हैं, जिससे खुद गुजरते हैं, वही लिखते हैं.....तो शब्दों के जाल से बाहर निकलो...और इंसान को पहचानो....
मैं आज ज्योति के इस स्वरुप को देख कर खुश था...ऐसा लग रहा था की आज काफी दिनों बाद उसको वो जमीन मिली हो....जिस पर उसका अधिकार हो. ....अच्छा लग रहा था....
तो भाईसाहब...क्या ऐसे लेखक समाज के साथ धोखा नहीं करते...?
हर्ष...धोखा..बहुत बड़ा शब्द है.......हाँ ये जरूर है.....की हमारे समाज में कुछ लोग होते हैं...जो लेखों या लेखकों को आदर्श मानते हैं.....और उनको follow करते हैं..लेकिन काठ की हांडी एक ही बार आग पर चढ़ सकती है.....धीरे-धीरे..जब लोगों के सामने ये सच आता है की लेखक जो लिखता है...उसका खुद का उससे कोई सरोकार नहीं है....तो वो भी लोगों की नज़रों से गिरने लगता है.....एक pharase है ना इंग्लिश मे " pen is mighter then sword ." ...कलम, तलवार से ज्यादा शक्तिशाली होती है....लेकिन जब कलम के उपर तारीफों के, पैसे की धूल जम जाती है तो उसकी धार कुंड पड़ जाती है..... फिर वो लेखक ... सिर्फ वो लिखता है...जो लोगों को पसंद हो....जैसे फिल्मो के गीतकार....
हाँ....अच्छा याद दिलाया आपने....फिल्मों के गीतकार के उपर भी प्रार्थना ने कमेन्ट किया की वो बेचारे तो पैसे के लिए लिखते हैं....वरना रोटी कहाँ से खायेंगे.....
आजकल के गीतकार शायद इसलिए लिखते होंगे......लेकिन....मैं जानता हूँ....शहरयार...जिन्होने उमराव जान की गजलें लिखी.....जब फिल्म के निर्माता ने उनसे कुछ change करने के लिए कहा ....तो शहरयार बिगड़ गए.....बोले मैं अपने आप को बेचता नहीं हूँ.....पाकीजा के गीतकार और संगीतकार....ने अपना सब कुछ दांव पे लगा दिया था...इस फिल्म में....और फिल्म के रिलीज़ होने से पहेली उनकी मौत हो गयी....आज हम लोग उनको याद करते हैं....लाजवाब गीत और संगीत के लिए...याद करो...." ये चिराग बुझ रहे हैं , मेरे साथ साथ जलते जलते, यूँ ही कोई मिल गया था....चलते चलते..." खैर...ये वो मुद्दा है...जिस का कोई अंत नहीं.....
ज्योति....क्या प्रेम तर्क का विषय है......हर्ष , ज्योति से मुखातिब.
हर्ष...मैने ये तो सुना है...की नफरत मत करो...अभी ये नहीं सुना की प्रेम मत करो.
क्या प्रेम सिर्फ...शरीर तक ही सीमित होता है......
प्रेम दिल में पैदा होता है..और दिल तक जाता है.....प्रेम के नाम पर वासना...ये आजकल का ट्रेंड है.....लेकिन शाश्वत सत्य तो यही है की प्रेम में अपने आप को दे दिया...तो फिर कहाँ वासना. बच्चे भी हमारे प्रेम से ही तो जन्म लेते हैं....नहीं तो क्या ये वासना नहीं.....संभव है की प्रार्थना जी भी किसी से प्रेम करती हों....और वहाँ पर उनको कटु अनुभव हुए हों....
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जान था,
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है....
मैं अवाक सा ज्योति को निहार रहा था...आज ज्योति अपने रंग में थी.....
तो मैं क्या करूँ.....हर्ष का सवाल.
शब्दों के माया जाल को तोड़ो....और अपनी कलम पर वाह-वाही की धूल ना जमने दो....जैसा लिखते हो ...लिखो....सच लिखो....खूब लिखो..
भाई साहब....इस उपन्यास का नाम क्या दूँ......
जाने क्यूँ.....