Tuesday, February 1, 2011

हर शख्स दौड़ता हैं यहाँ भीड़ कि तरफ,

हमने जाकर देख लिया है, राहगुज़र के आगे भी,
राहगुज़र ही राहगुज़र है, राहगुज़र के आगे भी.

मानती हो ना तपस्वनी...इंसान खत्म हो जाते हैं...लेकिन रास्ते नहीं.... कितने रास्तों से होता हुआ यहाँ तक पहुंचा हूँ.....मैं ही जानता हूँ...और हर रास्ता ..एक किताब साबित हुआ.....जिसने कुछ ना कुछ मुझे सिखाया ही है. जो चलने वाले होते हैं, वो मंजिल कि फ़िक्र नहीं करते...बस दिल में मंजिल कि याद बनी रहे तो दुनिया अपने आप रास्ता दे देती है और मंजिल अपने आप सामने आ जाती है...अगर चलने का हौसला हो तो.......इस चलने के सिलसिले में कई बार बदन टूटता है, कई बार मन. कई बार पैरों में छाले पड़ जाते हैं...लेकिन मंजिल कि धुन....सब कुछ बर्दाशत करने कि ताकत दे देती है.....तुम जानती ही होगी जब कृष्ण जेल में पैदा हुए और वासुदेव उन्हें सूप में रख कर गोकुल छोड़ने चले तो यमुना उफान पर थी.....और उसी यमुना ने उनको गोकुल जाने का रास्ता दिया था...ये एक एतिहासिक दृष्टांत हो सकता है...लेकिन अगर इसके दूसरे रुख को देखो....

कोई चले, चले ना चले, हम तो चल पड़े.
मंजिल कि जिस को धुन हो, उसे कारवाँ से क्या....

यही सब कुछ बाते हैं...जो मुझे ज़िंदा रखतीं हैं. जानती हो.....राधा.....मुझे इतने जख्म कैसे मिले.....क्योंकि मैने दुनिया के बनाये आम रास्तों पर चलने से इनकार कर दिया. और अपना रास्ता खुद बनाने कि सोची....रास्ते बने ना बने, मंजिल मिली ना मिली...पर जख्मों का वो गुलदस्ता दिया लोगों ने जिसके फूलों में ये ख़ासियत है कि वो मुरझाते नहीं हैं.....

गम को यारों कभी सीने से जुदा मत करना,
गम बहुत साथ निभाते हैं, जवाँ रहते हैं.

तपस्वनी....मैं जानता हूँ..मेरी हर बात तुम बिलकुल उसी तरह समझोगी जैसे मैं लिख रहा हूँ. क्योंकि तुमने भी तो अपना रास्ता खुद ही बनाया है....यही तो समानता है मुझमें और तुम

हर शख्स  दौड़ता हैं यहाँ भीड़ कि तरफ,
और ये भी चाहता है, उसे रास्ता मिले....

मेरी डायरी कि पन्ने पढकर ...तुम को इस बात का अंदाजा  लग जाएगा  कि ज़िन्दगी कि कितने रंगों ने अब तक मुझको रंगा है....

1 comment:

vandana gupta said...

यही है ज़िन्दगी शायद्…………हर रास्ता एक मंज़िल की तरफ़ ले जाता है चाहे खुद बनाओ चाहे ज़ि्न्दगी बनाये।