Tuesday, February 22, 2011

ईदगाह-2

गुस्ताखियाँ करना मेरा स्वभाव रहा है.....बचपन से गुस्ताखियाँ करता चला आ रहा हूँ...और बड़े बुजुर्ग माफ़ी भी फरमाते आ रहे हैं, की किसी दिन तो साहबजादे को समझ आएगी....आज एक बड़ी गुस्ताखी करने की जुर्र्त कर रहा हूँ.......इसीलिए से पहले से माफ़ी नामा पेश कर रहा हूँ......

हम सभी ने उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "ईदगाह" जरुर पढ़ी होगी....मेरे मन में अचानक ये ख्याल पैदा हुआ....की हामिद मियां तो अब बड़े हो चले होंगे....अब अगर वो होते तो इस कहानी में आगे क्या होता......बस इसी ख्याल ने आग को हवा दे दी और मैं "ईदगाह-2" लिखने का मन बना बैठा..............इसको लिखने में अगर मुझसे कोई गुस्ताखी हो जाए.....तो मुझे माफ़ फरमा दें.


वक़्त चलता रहा...अमीना बी के लिए वो चिमटा एक बेशकीमती चीज़ हो गयी....और होती भी क्यों न.....उमर किस के रोके रुकी है भला.....हामिद मियाँ दिन-बी-दिन बड़े होते गए....वो चार -पांच साल का गरीब से दिखने वाला लड़का......जवान हो गया....और हालत ने जिस बच्चे को चार-पांच साल में ही बड़ा और जिम्मेदार बना  दिया  हो.....वो सोलह-सत्रह साल में क्या बनके निखरेगा....सोना...और क्या.

अमीना बी....दो घरों में काम कर के हामिद की स्कूल फीस के पैसे देने लगी और हामिद मियाँ.....पांच-छे- सातवीं पढ़ते हुए बारहवीं कर गए.....आज गाँव में सब से ज्यादा पढ़े हुए लोगों में शुमार होता है...मियाँ का....... दसवीं पास करने के बाद तो हामिद ने दादी का काम करना भी छुड़वा दिया.....दिन में वो स्कूल जाता....और शाम को पुराने अखबारों से बनाये लिफाफों को दुकानदारों को बेचने.....गुजर लायक पैसे हामिद दसवीं से ही कमाने लगा....और खुश....खुशमिजाजी तो अल्लाहताला ने उसके दिल में भर दी थी.....जिस से भी मिलना दुआ-सलाम करना, मिजाजपुर्सी करना, बड़ों का अदब करना, मीठा बोलना....जी कुछ ही दिनों में गाँव का हर दुकानदार   इंतज़ार करता मिलता कि हामिद आये तो लिफ़ाफ़े खरीदें...और अगर किसी दिन हामिद न आ पाए....तो घर से जा कर नकदी दे कर लिफ़ाफ़े ले आते....और अगर नकदी न भी हो.....तो हामिद ने कभी किसी को "न" नहीं बोला....उसको अपने पिछले दिन याद थे.

ईद फिर आई.....इस बार दादी , मानो बच्ची बन गयी हो.....नया सलवार-कुर्ता और उपर से जर्री का दुपट्टा....दादी की उम्र 75  की होगी.....लेकिन बदन में जैसे पंख लग गए हों....शामियाने वाले को भी नहीं बक्शा दादी ने...अरे मर्दुआ, जरा कुर्सी तो सलीके से लगा दे...और देख पानी में बर्फ डाल दे...अरी.....सलमा....देख जरा शरबत में ख़स डाल दे......और सुन...सिवैयों में मेवा डाल दीजियो.....अरी सुन.....वो लड्डू पर जरा कपड़ा डाल दे... 

मैं देख लूँगी दादी....आप बैठ जाओ.....सलमा ने अमीना बी का हाँथ पकड कर कहा. 

अरी....सुन हामिद कहाँ है...? 

मैं यहीं हूँ...दादी......

हामिद समझ रहा था की आज दादी के पर जग गए हैं......और लगे भी क्यों न.....सालहों -साल बाद तो वो दिन आया जिसका ख्वाब दादी ने कभी देखा भी न था.....आज हामिद मियाँ की दूकान का फीता जो कटना था......चौधरी साहब के बगल की कुर्सी पर अमीना बी बैठेंगी .....ईद की नमाज के बाद चौधरी साहब को आना है....नमाज अदा हुई....पूरा गाँव हामिद मियाँ के जलसे में शिरकत फरमाने  आ पहुंचा.....फीता कटा....ईद हुई.  नूर, सलमा, सिम्मी, मोहसिन....सब तो थे....

अब दादी की उंगलियाँ चूल्हे से रोटी उतारने में  नहीं जलती.....दादी सब से अमीर हो गयीं....उनके पास हामिद जैसा पोता जो है......

जो भी दौलत थी वो हामिद के हवाले कर दी,
जब तलक मैं न बैठूं , वो खड़ा रहता है.


हामिद को आज भी वो दिन नहीं भुला जब दादी ने कितने महीन से बचाए हुए पांच पैसे उसको दिए.....जा ईद के मेले में घूम आ......तीन  पैसे के उस चिमटे ने...और उस से भी ज्यादा सारे खिलोनों से लड़ते हुए वो चार साल का बच्चा अपनी दादी की उँगलियों को आग से बचाने के लिए चिमटा लाया...तो दादी की आँखों से गिरे हुए वो चंद आंसू  के कतरे
आज दुआ बन कर बरस रहे हैं.....और वो चिमटा दादी आज भी कुरआन शरीफ की तरह सहेजती हैं.....सच में...अल्लाह कसम......  

No comments: