Saturday, February 12, 2011

पुरानी दिल्ली...2

ओह...इस कमबख्त आँख को इतना भी सलीका नहीं की किस राह से बचना है...किस छत को भिगोना है...

इक बार रो लो.....आनंद. ...क्या पुरुष हो इसलिए रोने में संकोच है.....

नहीं...ज्योति....ऐसा कुछ नहीं हूँ....लड़ कर उपर उठना ही मेरी फितरत है....पर इक दिल है....जो महसूस करता है...इसलिए कभी कभी..........

गम मुझे, हसरत मुझे , वहशत मुझे, सौदा मुझे,
इक दिल दे कर खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे.....

जानती हूँ....आनंद....और समझती भी हूँ....जानते हो हम मजबूर या लाचार कब होते हैं......जब सब कुछ जानकर , सब कुछ समझते हुए भी...और चाहकर भी................हम कुछ कर ना सकें......उससे बड़ी लाचारी क्या होगी....?

सही कह रही हो....ज्योति...शायद इसीलिए..अब मैं दूसरों के दर्द में, जिसमे कुछ कर ना सकूँ..... दूरी रखता हूँ....जितना करीब जाता हूँ...उतना ही दर्द और महसूस होता है.....और कुछ ना कर सकने के कारण....जो गुस्सा अंदर ही अंदर उठता है...वो अपनी लाचारी और मजबूरी का एहसास करा देता है.....हम से मजबूर का गुस्सा भी अजब बादल है, जो अपने ही दिल से उठे, और अपने ही दिल पर बरसे......पता नहीं ....क्या चाहता है वो ...मेरा मन तो कभी कभी तो उससे भी शिकायत करने का करता है....

जो कुछ मेरे नसीब में लिखना था, लिख दिया.
परवरदिगार, अब तेरी जरूरत नहीं रही......

और क्या बोलूं..बोलो तो. ...जो कुछ उसने लिख दिया है...उसको पूरा करना ही तो अब मेरा काम है....कभी आग से गुजर के...कभी बादलों पर चलते हुए....कभी आँधियों का सामना करते हुए, कभी आँधियों का रुख मोड़ते हुए.....

आनंद...अपने इस गुस्से को ठंडा मत होने देना......क्योंकि यही गुस्सा तुम को तुम्हारी मंजिल तक ले कर जाएगा....जानती हूँ....किस किस आग में झुलसे हो तुम.....

दुनिया ना जीत पाओ तो, हारो ना खुद को तुम.
थोड़ी बहुत तो जहन में नाराजगी  रहे.......

तुम ठीक कह रही हो ज्योति......अगर बुरा ना मानो तो .............तो दवा दे दो......और मालिन माँ से कह दो की दो प्रेमी जनों के  लिए चाय बना दें.....

अच्छा जी ......

हाँ.................अच्छा स्वामी जी.......मैं कह देती हूँ.....धन्यवाद ...कन्या.

वो उठ के चली गयी...मैं सोचता रहा...कितना अपनत्व है इसके शब्दों में, कितनी चिंता है....सब कुछ जानती है मेरे बारे में...लेकिन कितनी शांत और संयमित रहती है....सब कुछ है इसके पास...लेकिन दिल का इक कोना, जो सालों साल से खाली है....जिसमे ये अपने प्रियतम को रखती है....कोई भी उस कोने तक पहुँच ना पाया...इसलिए...ज्योति को ज्योति  की तरह  कोई समझ नहीं पाया....ये भी इक पुरानी दिल्ली है....इसीलिए....मेरे दर्द को वो..और उसकी घुटन को मैं....समझ लेता हूँ. कितनी बार इस दिल्ली ने भी आँधियों की मार झेली है....

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है
मगर धरती की मजबूरी सिर्फ बादल समझता है.
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर कैसी है.....
ये मेरा दिल समझता है, या तेरा दिल समझता है.....
मुहब्बत इक एहसासों की पावन सी कहानी है...
कभी कबीरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है.....

जिस दिल...में ये एहसास बसते  हों.....वो तो पुरानी दिल्ली ही हुए......लुटने की लिए तैयार.

हकीकत जिद लिए बैठी है चकनाचूर करने को,
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है....................ये मेरी कमजोरी है.

सुनो आनंद......

जी .......ये तो मेरा अब job profile बन गया है.......

क्या......job profile बन गया है

सुनना ......

ओहो....आनंद ......कुछ खाओगे....नाश्ता किया है....?

दे दो.....दवाई भी लेनी है.....

मालिन माँ ............... दो पराठे भी बना दो......आनंद के  लिए.

आनंद...इक बात बताओ.....

पूंछो....

मै रोती  हूँ तो लोग आ कर कंधा थपथपाते हैं,
मैं हंसती  हूँ तो लोग अकसर रूठ जाते हैं.........ऐसा क्यों ?

ज्योति......हम लोग अकसर अपने दुखों से उतना दुखी नहीं होते हैं...जितना हम दूसरों को सुखी देख कर दुखी होते हैं......इसलिए जब आंसू बहते हैं......तो वो लोग हमदर्दी इसलिए नहीं दिखाते की वो दुखी हैं.....वो इसलिए की वो हमारी good books में आ जाए......और जो सचा हमदर्द होता है..ना..ज्योति....वो हमदर्दी दिखाता नहीं है....अपितु..जिस वजह से हम दुखी हैं...उस कारण को हटाने का प्रयत्न करता है...वो stage पर सामने नहीं आता....लेकिन अपना काम कर जाता है......और रहू दूसरी पंक्ति......तो किसी मेरे खुश रहने पर कई लोगों के सीने पे सांप लोट जाते हैं..... और फिर वहाँ से शुरू होता है अफवाहों का सिलसिला.....और उस ख़ुशी का कारण जाने का सिलसिला...और कारण को हटाने का सिलसिला....

और हम जैसे लोग.....जो हैं...ज्योति.....इनको भगवान् ने लुटने के लिए ही भेजा है....जा...प्यार बाँट...प्यार बांटना बच्चों का खेल नहीं है...ज्योति...ये तुमसे अच्छा कौन जानता है.....क्योंकि गुलाब बांटने में कई बार हाँथो  को कांटो से भी गुजरना पड़ता है.....लेकिन जिसको गुलाब की चाह होती...उनको कांटो का डर भी नहीं होता.

क्या इसीलिए .....दिल्ली बार बार लुटती है....?

हाँ...और इसीलिए बार बार बसती भी है.

जानती हो ना ज्योति.....मुझे कई लोगों ने कहा...की मुझको दुनिया में जीने का हुनर नहीं आता....मुझको दुनियादारी नहीं आती.....हाँ नहीं आती.....

उसी को जीने का हक है इस जमाने  में,
जो इधर का लगता रहे , और उधर का हो जाए...........ये नई दिल्ली है..... 

1 comment:

vandana gupta said...

ओह! आज तो कमाल कर दिया ……………नयी और पुरानी दिल्ली का क्या खूब चि्त्रण किया है ……………
कुछ खास दिल होते हैं जहाँ दर्द को पनाह मिलती है
इक तेरा दिल है जहाँ इश्क हंसता है
इक मेरा दिल है जहाँ मोहब्बत फ़ना होती है