Friday, February 4, 2011

तपस्वनी.....और.....फ़कीर......

ये तीसरी डायरी है पिछले डेढ़ महीने में........ आज दिल का वो कमरा खोला जहाँ पर कई सालों से मैं खुद नहीं गया.... नहीं..... नहीं ऐसा नहीं कि मैं डरता हूँ.... बल्कि वो एक मंदिर है जहाँ पर गिने-चुने लोग ही जा पाते हैं....

बुत भी रखे हैं, नमाजें भी अदा होती हैं.
दिल मेरा दिल नहीं, अल्लाह का घर लगता है.

कोई इस डोरी का का सिरा या अंत नहीं जानता है. इस डोर कि शुरुआत तपस्वनी से होती है...और अंत इस फ़कीर पे......  पता नहीं कि इन डायरियों का अंजाम क्या होगा.....लेकिन सब कुछ लिख कर ही जाना चाहता हूँ.....बात....लगभग २२ साल पहले कि है.......जब मैने पहली बार राधा का दीदार किया....वो गुलाबी सूट और उसमे गुलाबी वो......गुस्सा आया था.....अरे गुलाबी गुलदस्ते में, गुलाब....जरा contrast रंग पहन लिया होता....लेकिन...बिजली गिरनी थी...सो गिर गयी.....वो खिड़की के पास तुम खड़ी थीं....पता नहीं तुमको याद हो या ना याद हो...शायद तुम्हारे घर में कोई जलसा था...बहुत लोग थे....लेकिन कोई भी नहीं था.....वक़्त कि पतंग लगातार उडती रही.....कभी हवा के साथ....कभी हवा के खिलाफ.....कभी आसमाँ छू ले ने को बेकरार...

सच है...तपस्वनी...वक़्त किसी ना किसी मोड़ पर लाकर  हमको फिर आमने-सामने खड़ा कर देगा...नहीं सोचा था....उस दिन तुमको रूचि के घर पर देखा.....तो रोक नहीं पाया.....पूंछ ही बैठा.....पहचाना नहीं लगता है......और तुम्हारा ठंडा सा जवाब......एक ठेक सी लगी दिल को...लेकिन इतना महसूस नहीं हुआ....वक़्त काफी मरहम लगा चुका था....लेकिन जब उस दिन तुमसे सारी दास्ताँ सुनी...तो तुमको तपस्वनी नहीं कहता तो और क्या कहता....तुमको देखता हूँ....तो समुद्र कि याद आती है....उपर से कितना शोर सुनाई पड़ता है..लेकिन अंदर....खामोशी...गहराई..और गहराई...और गहराई.....अल्लाह....और उस गहराई में जलती हुई प्यार कि शमां....शमां भी तुम और उसपर कुर्बान हो जाने वाले परवाने भी तुम.....जब तुमने हकीकत बयान करी.....तो मैं तुमको तपस्वनी ना कहता तो और क्या कहता.....अब तुम खुद बोलो......बोलो तो. 

मैं ग़ज़ल कहूँ, या ग़ज़ल पढूं, मुझे दे तो हुस्ने ख़्याल दे
तेरा गम ही है मेरी तर्बियत*, मुझे दे तो रंजो मलाल दे........... * शिक्षण
 सभी चार दिन कि हैं चांदनी, ये रियासतें, ये वजारतें,
मुझे उस फ़कीर कि शान दे, कि जमाना जिसकी मिसाल दे.
मेरी सुबह तेरे सलाम से, मेरी शाम तेरे ही नाम से,
तेरे दर को छोड़ के जाऊँगा, ये ख़्याल दिल से निकाल दे.
क्रमश:

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