ये खाली फ्रेम देख रही हो ...... ज्योति...... इसमें कई सालों से एक तस्वीर हुआ करती थी...मैं नाम उजागर नहीं कर रहा हूँ.....क्योंकि किसी अपने के चेहरे पर रुसवाई के बादल मुझे नामंजूर है....जिस चेहरे पर रुसवाई के बादल होंगे...वो चेहरा भी किसी मेरे अपने का ही होगा.....
कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी.....
यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.....
अच्छा ...ज्योति एक बात बताओ क्या फ्रेम में से तस्वीर निकाल लेने से....इंसान भुला दिया जा सकता है.....? मुझे तो यूँ लगता है की...खाली फ्रेम उस इंसान की याद और दिलाता है.....जिस की तस्वीर उस फ्रेम में थी......अगर शिव के मंदिर से शिव की मूरत हटा दी जाए...तो क्या शिव मंदिर नहीं रहेगा....? खैर....हर इंसान की अपनी-अपनी सोच होती है.....मैंने कभी भी किसी पर अपनी सोच मनवाने का जोर नहीं डाला....तो आज भी नहीं डालूँगा.....इसीलिए...अपने दिल में कुछ तस्वीरें बसा ली हैं.....ताकि वो ख़ास तस्वीर किसी फ्रेम की गुलाम न बने. .....बस ये खाली फ्रेम एक टीस जरुर पैदा करता है.......अगर इजाज़त दो....तो मिर्ज़ा ग़ालिब का एक कीमती शेर अर्ज़ करूँ.....
कोई मेरे दिल से पूंछे, तेरे तीर-ए-नीमकश को.......आधा धंसा हुआ तीर
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता.
तो ये जो खाली फ्रेम है...ये तीर-ऐ-नीमकश है.....जो टीस पैदा करता है....और अगर ये टीस किसी अपने खासमखास से मिली हो...तो इसकी ख़लिश दुगनी हो जाती है......और वो बिरले ही होते हैं....अजूबे ही होते हैं....जिनको ये दर्द नसीब होता है..... तुमसे इसका बयाँ क्या करना.... तुम तो खुद इस दर्द से गुजरी हो.....इस दिल में अभी और भी जख्मों की जगह है....अबरू की कटारी को दो आब और ज्यादा.....
शम्मे महफ़िल जल उठी, और जल गया परवाना भी,
देखना ये है, उजाला किसके मुस्तकबिल में है....
देखो.....ये खाली फ्रेम....तुम्हारे और करीब ले आया है.....लेकिन....जोर न डालो, परेशाँ न हो....नाम नहीं लिखूंगा......ये जुबाँ किसी ने खरीद ली, ये कलम किसी का गुलाम है. ....मैने हमेशा से..ओरौं के दर्द को मरहम समझ कर अपने दिल मे समेटा है.....और मरहम समझ कर लगाया भी...उससे मैं अपने दर्द भूल गया....लेकिन
अब उसके दिल पे मेरी हुकुमत नहीं रही,
अब दस्तरस से ये भी इलाका निकल गया.
वक़्त की बड़ी यारी रही है मेरे साथ.....एक दर्द से तबियत ठीक से रंगेज़ नहीं हो पाती...दूसरा दरवाजे पर खड़ा होता है....अब बताओ दरवाजे पर अगर कोई खड़ा हो....तो उसको स्वीकार तो करना ही पड़ता है.....ये संस्क्रति की सीख है.....सभ्यता की सीखा है.....मैं जानता हूँ...मेरे जैसे असभ्य के मुंह से , सभ्यता की बाते.....अरे तौबा.
कल वक़्त मिला.....और बोला...और मियाँ.....अभी भी और अभी तक ज़िंदा हो.......मैने कहा.....मियाँ....जायेंगे भी तो जब अब वक़्त मुकरर करेगे, जब आप इज्ज़ाज्त देंगे....वक़्त से पहले तो मैं खुदा के सामने भी नहीं हाज़िर होउंगा....
तो तब तक......वक़्त का सवाल....?
क्या तब तक.......ये खाली फ्रेम....मुझे एहसास दिलाता रहेगा......की यहाँ पर कौन था....
वो मेरी पीठ में खंजर जरुर उतारेगा,
मगर निगाह मिलेगी तो कैसे मारेगा.
बताइए.....अगर एक खाली फ्रेम का ये तासुब (impact) है. मेरे दिल पर तो इसमे लगी हुई तस्वीर , अगर कुफ्र न समझें तो अर्ज़ करूँ.....तुझमे खुदा देखता था मैं.
तुम्हारे रहमो-करम पर जरूर हैं लेकिन,
हम अपने शहर में जीने का हक तो रखते हैं....
4 comments:
तस्वीर हो न हो क्या फ़र्क पड्ता है ……………फ़्रेम हो ना हो कोई फ़र्क नही पडता क्योंकि जो दिल मे बस जाता है उसके लिये किसी फ़्रेम की जरूरत नही होती……………ज़रा गर्दन झुकाई और दीदार कर लिया…………फिर और कौन सी जगह देखूँ ?
शायद प्रेमियो का दिल ही उनका मन्दिर होता है जहाँ महबूब की मूरत होती है और अश्को से इबादत होती है………बताइये अब और क्या कमी रही ?
खाली फ्रेम ज्यादा याद दिलाता है ...सुन्दर अभिव्यक्ति
खली फ्रेम की बहुतेरे एंगल से चर्चा की आपने । समझा जा सकता है की उसमें लगी तस्वीर का कितना impact होगा ।
फ्रेम से निकली जा सकती है तस्वीर , दिल से नहीं !
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