आज कितनी तेज धूप है.....और शफाक नीला आसमाँ....कभी कोई भक्त आकर मंदिर के घंटो को छेड़ जाता है....कभी तुमने महसूस किया है....राधा....कि जब आसमाँ साफ़ हो तो असीम का अंदाज होता है.....जहाँ तक नज़र जाती है...नीला रंग......और ऐसे में विचारों का आवागमन भी बिना किसी रुकावट के होता है.....और जब बादल छाए होते हैं.....अंदर भी कुछ बादल छा जाते हैं.....वो वीरवार था......जब तुमने अपने अंदर को मेरे सामने पहली बार खोला था....सूरज पूरब से होता हुआ पश्चिम तक पहुँच गया था......मैं तुमको सुनता रहा... और अपनी असंवेदनशीलता को महसूस करता रहा..... और जब तुम गयीं.....तो उसके बाद काफी देर तक मैं अपने आप को टटोलता रहा....कि मेरे अंदर वो दिल कहाँ है...जो दूसरों को समझता था...जो दूसरों कि आँखे पढता था....क्यों नहीं समझ पाया मैं.....तुमको.
अब सब कुछ अंत कि ओर है....ओर मैं जब अपने आप को तुम्हारे सामने रखता हूँ....तो छोटा ही पाता हूँ....बहुत छोटा. ......तुमने जीता है मुझे....असली सिकन्दर तो तुम हो......अब जब वक़्त ने इक बार फिर मुझे एकांतवास पे भेज दिया है....तो फिर मैं अपने आप को समेट कर अपने को बनाने कि कवायत में लगा हूँ.....लेकिन कुछ टुकड़े नहीं मिल रहे हैं.....कैसे मिलेंगे ...वो तो तुम्हारे पास ही रह गए हैं.......लेकिन अब अधूरापन भी अच्छा लगता है.....क्योंकि ये उसकी याद दिलाता रहता है...जिसकी वजह से मैं अधूरा हूँ.....
माँ के स्वर्गवास के बाद.......मैं पूरा ही फ़कीर हो गया.....तुमको मेरी माँ कि याद तो होगी.....बचपन से लेकर उनके स्वर्गवास होने तक....जब भी कोई तकलीफ हुई...मैं उनके पास जाता था...ओर बिना मेरे कुछ कहे वो कह देतीं थीं...सब ठीक हओ जायेगा..तू वो करते रह...जो तू समझता है....कि ठीक है. ....जब मौलविओं ने मुझे खत्म करने का मंसूबा बना लिया था.....तो अपने कृष्ण के साथ वो राधा ही थी...जो मेरे सामने खड़ी हो गयी थी....याद तो होगा तुम्हे. ......मैने इक बार कोशिश करी कि किसी कि नज़रों मे घर बना लूँ ... लेकिन उन्होंने आंसू समझ कर मुझे नज़रों से बहा दिया.....ओर मैं वहाँ भी घर ना बना सका. ....
तेरे क़दमों पे सर होगा, कज़ा* सर पे खड़ी होगी, *मौत
फिर उस सजदे का क्या कहना, अनोखी बन्दगी होगी.
मजा आजायेगा महशर में फिर सुनने-सुनाने का,
जुबां होगी वहाँ मेरी, कहानी आप की होगी.
बोलो....अगर मैं तुमको तपस्वनी कहता हूँ.....तो गलत है..... अरे हाँ...याद आया...तुमको ग़ज़ल का शौक था....ओर मैने तुमसे कहा था.....ग़ज़ल लिखना ओर पढ़ना बहुत आसान है अगर तुम साथ हो तो.....
तुमने कहा था.....वो कैसे...बोलो तो.
मैने कहा था....सारे अल्फाजों को तुम पे सजा दिया जाए...ओर फिर तुमको पढ़ा जाए.....इक से इक कीमती शेर बनेगें....
ओर तुम.....आप भी ना.......इतना कह कर चुप हो गयी थीं.
लो उसी सिलसिले का इक शेर ......तुम्हारी खिदमत में पेश है.....
सर से पा तक, वो गुलाबों का शजर लगता है,
बावजू* हो के भी उसे छुते हुए डर लगता है. *नमाज से पहले मुँह-हाथ धोना
मैं तेरे साथ सितारों से गुजर सकता हूँ,
कितना आसान मुहब्बत का सफ़र लगता है.
आदाब.......
अब सब कुछ अंत कि ओर है....ओर मैं जब अपने आप को तुम्हारे सामने रखता हूँ....तो छोटा ही पाता हूँ....बहुत छोटा. ......तुमने जीता है मुझे....असली सिकन्दर तो तुम हो......अब जब वक़्त ने इक बार फिर मुझे एकांतवास पे भेज दिया है....तो फिर मैं अपने आप को समेट कर अपने को बनाने कि कवायत में लगा हूँ.....लेकिन कुछ टुकड़े नहीं मिल रहे हैं.....कैसे मिलेंगे ...वो तो तुम्हारे पास ही रह गए हैं.......लेकिन अब अधूरापन भी अच्छा लगता है.....क्योंकि ये उसकी याद दिलाता रहता है...जिसकी वजह से मैं अधूरा हूँ.....
माँ के स्वर्गवास के बाद.......मैं पूरा ही फ़कीर हो गया.....तुमको मेरी माँ कि याद तो होगी.....बचपन से लेकर उनके स्वर्गवास होने तक....जब भी कोई तकलीफ हुई...मैं उनके पास जाता था...ओर बिना मेरे कुछ कहे वो कह देतीं थीं...सब ठीक हओ जायेगा..तू वो करते रह...जो तू समझता है....कि ठीक है. ....जब मौलविओं ने मुझे खत्म करने का मंसूबा बना लिया था.....तो अपने कृष्ण के साथ वो राधा ही थी...जो मेरे सामने खड़ी हो गयी थी....याद तो होगा तुम्हे. ......मैने इक बार कोशिश करी कि किसी कि नज़रों मे घर बना लूँ ... लेकिन उन्होंने आंसू समझ कर मुझे नज़रों से बहा दिया.....ओर मैं वहाँ भी घर ना बना सका. ....
तेरे क़दमों पे सर होगा, कज़ा* सर पे खड़ी होगी, *मौत
फिर उस सजदे का क्या कहना, अनोखी बन्दगी होगी.
मजा आजायेगा महशर में फिर सुनने-सुनाने का,
जुबां होगी वहाँ मेरी, कहानी आप की होगी.
बोलो....अगर मैं तुमको तपस्वनी कहता हूँ.....तो गलत है..... अरे हाँ...याद आया...तुमको ग़ज़ल का शौक था....ओर मैने तुमसे कहा था.....ग़ज़ल लिखना ओर पढ़ना बहुत आसान है अगर तुम साथ हो तो.....
तुमने कहा था.....वो कैसे...बोलो तो.
मैने कहा था....सारे अल्फाजों को तुम पे सजा दिया जाए...ओर फिर तुमको पढ़ा जाए.....इक से इक कीमती शेर बनेगें....
ओर तुम.....आप भी ना.......इतना कह कर चुप हो गयी थीं.
लो उसी सिलसिले का इक शेर ......तुम्हारी खिदमत में पेश है.....
सर से पा तक, वो गुलाबों का शजर लगता है,
बावजू* हो के भी उसे छुते हुए डर लगता है. *नमाज से पहले मुँह-हाथ धोना
मैं तेरे साथ सितारों से गुजर सकता हूँ,
कितना आसान मुहब्बत का सफ़र लगता है.
आदाब.......
2 comments:
sundar...
andaze bayan aur bhi sundar..
गर मोहब्बत का सफ़र आसान होता
तो लैला डूबी ना होती मजनूँ मरा न होता
ये तो आग का दरिया है
और डूबकर जाना है
अब इससे आगे क्या कहूँ …………अहसासों को सुन्दर शब्दो से नवाज़ा है।
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