Tuesday, March 2, 2010
गुमशुदा की तलाश
माँ............ आज फिर पापा लेट आयेंगे क्या? बिटिया ने पूंछा।
मैं क्या बताऊँ.... वो मुझ से कह के गए नहीं हैं। एक ठंडा सा जवाब मिला माँ से।
मेरा इतना सारा होम वर्क पड़ा है और पापा का कुछ पता नहीं। बिटिया की शिकायत थी।
तुम को अपने होम वर्क कि चिंता है, यहाँ घर के सारे काम लटक रहे हैं, लेकिन साहब को जब घर के बारे मैं सोचने का वक़्त मिले तभी तो। उनको तो दुनिया कि ज्यादा चिंता है अपने घर में चाहे आग लगी हो। एक विश्लेषक आलोचना।
आप सोच रहे होंगे कि अब ये क्या शुरू कर दिया मैने। घर कि बाते भी मैं ब्लॉग पे लिखने लगा। नहीं ऐसा कुछ नहीं है। ये मेरे मित्र सुंदर लाल के घर का छोटा सा दृश्य है। और ये रोज़ का है। मै सुंदर लाल को अच्छी तरह जानता हूँ, समझता हूँ। लेकिन, सुंदर लाल को एक पिता कि तरह उसकी बेटियाँ जानती हैं, पति के रूप मे उसकी पत्नी जानती है, लेकिन सुंदर लाल को सुंदर लाल के रूप मे कोई नहीं जानता और न ही कोई जानना चाहता है। वक़्त किस के पास है जो इंसान को इंसान के रूप मे समझे। कोई पति, कोई पिता, कोई दोस्त, कोई पेप्सी के प्लास्टिक के ग्लास कि तरह होता है। इंसान बचा कहाँ है। बेचारा सुंदर लाल। वो तो एक रोबोट बन गया।
" चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला।
मेरी आवारगी ने मुझको क्या से क्या बना डाला"।
कल मिला था सुंदर लाल, हंस रहा था। मैने पूंछा क्या बात है भाई, बड़े खुश हो। तो एक दार्शनिक कि तरह जवाब दिया- मैं तो हर वक़्त हंसता हूँ, यार। कभी हालात पर और कभी खुद पर। भाई, रोने से फायदा क्या। कौन समझता है यहाँ पर। सब अपना अपना काम निकालते हैं। मेरी बेजुबान आँखों से जो गिरे हैं चंद कतरे, जो समझ सको तो आंसू, न समझ सको तो पानी। ड्यूटी - ड्यूटी-ड्यूटी- यही तो जिन्दगी है। जज़्बातों की कद्र कहाँ होती है बाज़ार मे। मैं सुंदर लाल का मुहं देखता रहा। वो एक दार्शनिक की तरह बोलता ही जा रहा था। जैसे कोई बाँध टूट रहा हो। मैं भी चुप था, और सुंदर लाल को, सुंदर लाल की तरह महसूस करने कि कोशिश कर रहा था।
"बहुत गहरी चोट लगी है ", मैने पूंछा। वो मेरी तरफ घुमा, कुछ देर तक मेरी आँखों मे आंखे डालकर देखता रहा, फिर मुस्करा कर बोला " कुछ तो नाज़ुक मिजाज हैं हम भी, और ये चोट भी नई है अभी" , मैने कहा, यार, शेर सुना कर कब तक अपने आप को छुपाते रहोगे" बोलो मेरे भाई बोलो, ये जमाना समझता नहीं है, सुनता है, और वो भी सिर्फ वो बातें जो उसके मतलब की होती हैं।
सुंदर लाल ने जवाब दिया - बड़े भाई, अगर हम भी आम लोगो जैसे बन जायें , तो क्या फर्क है उनमे और मुझमे. मुझे तकलीफ कम और आश्चर्य ज्यादा है. क्योंकि लोग ऐसे भी होते हैं, ये किताबो में पढ़ा था, पहली बार सामना हुआ. मजा आता हैं उन लोगो का सामना करने मे. जिनकी खातिर कभी इलज़ाम उठाये हमने, वही पेश आए हैं इन्साफ के शाहों कि तरह. जब चोट उनसे लगती है जिनसे उम्मीद हो, तो तकलीफ कम होती है। लेकिन जब चोट उनसे लगती है, जो "अपने" हो , तो दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। और रही बात जमाने कि तो सुनो जमाने कि चिन्ता मैने कभी नहीं की. हाँ इतना जरूर सीख लिया कि वो कौन से लोग होते हैं जो चोट खा कर भी दुआ ही देते हैं, कि खुश रहो. में तो उनको इतना ही कहता हूँ, कि " आओ सिकंदर -ऐ - हुनर आजमाए, तुम तीर आज़माना, हम जिगर आजमाए।"
सुंदर लाल मुझे अपने जीवन का दर्शन समझा कर और झूठा बहाना बना कर की जरूरी काम है, चला गया. मैं वही खड़ा खड़ा सोचता रहा, कि ये आदमी किस मिट्टी का बना है. जिनसे चोट खाता , उन्हीं से जा कर पूंछता है- कोई तकलीफ तो नहीं हुई आप को. और अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका दिल टूटा.............
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6 comments:
halat se kam aur apno ke hatho jyada ruswa hota hai insaan aur na jaane kahan khota ja raha hai insaan..........bas wo hi nhi milta .........bahut hi gahri baat kahi hai.
these very some very nice words....................neetu
इस टिप्पणी के माध्यम से, सहर्ष यह सूचना दी जा रही है कि आपके ब्लॉग को प्रिंट मीडिया में स्थान दिया गया है।
अधिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।
बधाई।
बी एस पाबला
आज 16 मार्च 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में इसी शीर्षक से आपकी यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई।
ye to mein janta tha k sundar lal ko chot lagi hai... par itni gehri hogi iska guman na tha...
neways keep writing abt sundarlal .. i will b happy so b updated cauz u know.. i have a great respect for him..... cheers...
न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता
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