देखिये मेरी बात का गलत मतलब मत निकालिए. . क्योंकि
सच्ची बात कही थी मैने , लोगो ने सूली पे चढ़ाया,
मुझको जहर का जाम पिलाया, फिर भी उनको चैन न आया.
मैं और मेरा दोस्त सुंदर लाल दोनों उस वर्ग में आते है, जो ये महसूस करते हैं कि ईश्वर ने अगर दुनिया में भेजा है तो कुछ करने के लिए ही भेजा होगा. न कि स्वार्थी की तरह अपने लिए जियो. वो तो जानवर भी करते हैं. हम सभी अपने चारो तरफ गलत होता हुआ देखते हैं, लेकिन जुबान खोलने से डरते हैं. जमाना बाहुबलियों का है. और अगर घर मे बीबी , बच्चे हैं तो हम नपुंसक बन जाते है. जानते हैं कि गलत है, फिर भी बर्दाशत करते है. आवाज़ उठाने से डरते हैं. इसलिए नहीं कि हम सब डरपोक हैं, बल्कि इसलिए कि कल घर पे गुंडों का सामना कौन करे.
आजकल तो गुंडे भी वर्दी मे घुमते हैं. कोई जात के नाम पर रोटिया सेंक रहा है, कोई भाषा के नाम पर. क्या आप मेरी बात से सहमत हैं? मुझको नहीं लगता कि भगवान् ने आदमी मे कोई भेदभाव रखकर उसको बनाया होगा. लेकिन हमने इंसान के साथ इंसानियत को मार डाला. मुझे याद आता है निदा फाजली साहब का एक शेर-
" हिंदु भी मजे मैं हैं, मुसल्मा भी मजे मे,
इंसान परेशान है, यहाँ भी , वहां भी. "
मुझको गुस्से के साथ साथ तरस भी आता है उनलोगों पे, जो इन राजनितिज्ञो के हाँथ का खिलौना बन कर खेलते हैं. कोई राम के नाम पर लड़ता है और तो कोई रहीम के नाम पर और मजे कि बात ये हैं कि उसके बाद उपदेश भी देते हैं कि सब का मालिक एक. और हम सब सुनते भी हैं, तालियाँ भी बजाते है. क्यों नहीं हम उन पर जूता फेंकने कि हिम्मत रखते ? ऐसा हम सब के साथ होता है कि कोई दुर्घटना देखते है तो वहां से बच कर निकलने कि सोचते है, क्यों ????? क्योंकि पुलिस का सामना कौन करे. पुलिस वालों कि गन्दी जुबान कौन सुने? अपनी इज्ज़त अपने हाँथ, और इसीलिए वहां से बच निकालने मे ही हम अपनी भलाई समझते हैं. और भलाई है ही उसमे. कोई आरुशी मरती है तो हम को उसमे अपनी बेटी नज़र नहीं आती. कोई रुचिका अपमानित होकर आत्महत्या कर लेती है, हम बेचारी कह कर चुप हो जाते है. क्या हो गया हम सब को ??????? एक लड़की का बलात्कार होता है और उसके बचाव मे वकील खडा हो जाता है. मुझे तो शर्म आती उस वकील पे.
" शहर मे हादसों के लोग आदी हो गए, एक जगह एक लाश थी और कोई हंगामा न था.
दुश्मनी और दोस्ती पहले भी होती थी मगर, इसकदर माहौल का माहौल जहरीला न था.
कब तक हम ये सब देखकर चुप रहंगे. क्या हम सब के अंदर अंतरात्मा मर गयी. क्या हम सिर्फ चार दीवारी को ही अपना घर मानते रहंगे ?? क्या हम इन सब से बाहर आना नहीं चाहते या बाहर आने से डरते हैं. किसी न किसी को तो ये बीड़ा उठाना ही पडेगा. कब तक हम दूसरे की तरफ देखंगे ????
झूठी सच्ची आस पे जीना, कब तक आखिर आखिर कब तक,
मय की जगह खूने दिल पीना, कब तक आखिर, आखिर कब तक.
सोचा है अब पार उतरंगे, या टकरा कर डूब मरेंगे ,
तूफानों कि ज़द पे सफीना, कब तक आखिर , आखिर कब तक.
मेरे दोस्तों, एक बार अपने आप से हम सभी को पूछना पड़ेगा, क्या हम ज़िंदा हैं ?? क्या हमारे सीने मे दिल है ?? दिल है तो दूसरे की तकलीफ में रोता क्यों नहीं ?? अगर हम ज़िंदा हैं तो हम में प्रतिक्रया क्यों नहीं होती ????
मै अपने आप को अपने उन सभी भाइयों और बहनों को समर्पित करता हूँ, जो मेरी सेवा लेना चाहे.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है, कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
तेरे सीने मे नहीं, तो मेरे सीने सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.
आएये, आप का स्वागत है. जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ....................
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