Tuesday, March 16, 2010

कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में.....

अरे................... कोई इंसान है यहाँ.


ये पुकार बड़ी अजीब सी लगती है. सोचने वाले ये भी सोच सकते हैं की ये कैसा अजीब आदमी है . चारों तरफ इंसान ही इंसान हैं उसके बाद भी ये इंसान को ढूंढ रहा है.

जी हाँ मै इंसान को ढूंढ रहा हूँ. इसीलिए तो मै कहता हूँ
" कैसी चली है अब के हवा, तेरे शहर में,
बंदी भी हो गए हैं खुदा, तेरे शहर में. "


आदमी तो मिलते हैं, इंसान नहीं. जो भी मिलता है, फरिश्तों की तरह मिलता है. क्या तेरे शहर मै इंसान नहीं है कोई?

मेरे अंदर इतना बिखराव है की अगर अपने आप को समटने के कोशिश भी करता हूँ तो समझ   मे नहीं आता की कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पे रुकूँ.
चंद जख्मी को छिपाना हो तो कोई बात नहीं, पट्टियां जिस्म पे बांधू, तो कहाँ तक बांधू.

1 comment:

रज़िया "राज़" said...

चंद जख्मी को छिपाना हो तो कोई बात नहीं, पट्टियां जिस्म पे बांधू, तो कहाँ तक बांधू.
संवेदनाओं से भरपूर रचना।