Sunday, March 7, 2010

महिला दिवस ..........माँ............ तुझे सलाम.

अजीब आदमीयों को हर चीज़ अजीब ही लगती होगी. क्या ये सच है? नहीं...... मेरा ऐसा कहने के पीछे भी एक कारण है. मैने अक्सर देखा है सडको पर पोस्टर या बेनर  लगे हुए " हिंदी पखवाड़ा" ,     " सड़क सुरक्षा सप्ताह" आदि...... 

इसने मुझे अक्सर सोचने पे मजबूर किया कि के जब सरकार हिंदी पखवाड़ा घोषित करेगी तभी हम हिंदी का प्रयोग करेंगे ? जब सड़क सुरक्षा सप्ताह घोषित किया जाएगा, तभी हम सड़क पर सुरक्षित चलेंगे? मैं हमेशा महिला को एक बड़ी अजीब सोच के साथ देखता हूँ. ईश्वर के बाद अगर कोई जिन्दगी देता है तो वो महिला ही है. जरा शांत दिमाग के साथ बैठ के सोचिये कि कितने बड़ी नेमत दी है भगवान् ने नारी को---- जिन्दगी देने की. शायद  तभी  हमारे  वेदों मे भी लिखा  गया " मात्र देवो भव". मेरे  दोस्तों जरा अकेले  मे बैठकर  " माँ" इस शब्द पर गौर करिए और सोचिये.

बहुत बड़ी विडंबना हैं हमारे समाज की हमने "महिला " को भी राजनीति की रोटियां सेंक ने मे इस्तेमाल किया है.  मैं और कुछ नहीं लिख सकता . जगजीत सिंह साहब की एक ग़ज़ल उद्धत करना चाहूंगा-

हिजाब-इ-फितना परवर , अब उठा लेती तो अच्छा  था.
खुद अपने हुस्न को पर्दा बन लेती तो अच्छा था.
तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है.
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था.
तेरे  माथे का टीका , मर्द की किस्मत का तारा है,
अगर तू साजे -इ-बेदारी उठा लेती तो अच्छा था.
तेरे माथे पे  ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था.


माँ................... तुझे सलाम.

3 comments:

गीतिका वेदिका said...

अच्छा ब्लॉग! असीम शुभ-कामनाएं
माँ...अच्छा है, (बहन, भाभी, बेटी, दोस्त,सारी महिला कौम को भी सलाम दीजिये)

निर्मला कपिला said...

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा थ
वाह महिला दिवस के बहाने बहुत अच्छी गज़ल पढवाई है धन्यवाद। और शुभकामनायें

रज़िया "राज़" said...

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था.
"माँ" की एक अध्वितिय रचना। वाह!