मेरे मन से आवाज़ आई, भाई कौन हो? उसने फिर जवाब दिया-- कब तक मुझको बाहर इधर ढूंढते रहोगे? मुझे लगा कि मै अपने आप से बात कर रहा हूँ. दोस्त लोग तो मुझे पागल कहते ही हैं, लगता है वो सही हैं. तीसरी बार में आँख बंद करने से भी डरने लगा. तो फिर आवाज़ आई, मुझसे बचकर कहाँ तक भागोगे? कहीं भी नहीं भाग पाओगे. जिन्दगी भर तुम मुझे ढूंढते हो, आज मै बात कर रहा हूँ, तब तुम अपने आप को पागल समझ रहे हो.
मैने फिर अपने आप से ही पूंछा " अब तक कहाँ थे,जब मै परेशान था"? फिर आवाज़ आई, मै तो हमेशा से ही तुम्हारे साथ था, साथ हूँ और मै ही सिर्फ तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम मुझसे दूर भागते रहे और भागते रहते हो. देखो न, अभी मैने तुमसे बात करनी शुरू करी, तो तुम अपने आप को पागल करार देने लगे. मै तुमको कभी भी गलत करते हुए नहीं देख सकता, लेकिन क्या करूँ जब तुम मुझे अनसुना करके अपने आप को भाग्य विधाता समझने लगे.
क्या तुम ईश्वर हो? मैने अपने आप से सवाल किया.
अगर मै, हाँ कहूँ तो तुम विश्वास कर लोगे. आवाज़ आई.
मेरे पास इस का जवाब नहीं है. मैने खुद को जवाब दिया.
जवाब है, मगर तुम्हारा अहंकार इतना है कि तुम वो जवाब मानने को तैयार नहीं हो.
अजीब बात है. ये मेरे अंदर क्या हो रहा है.
इतना डर क्यों रहे हो? फिर पूंछा.
क्रमश:
4 comments:
अच्छा लिखा है, ऐसे ही लिखते रहें।
sundar lekhan...badhai...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
बढ़िया अभिव्यक्ति बधाई...
bahut khub
jabardast he
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
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