मंदिर से निकल कर मै स्कूल चल दिया. आज आम रास्ते से से हटकर खेतों की मेड़ो पे चलता हुआ. जहन मे ये ख्याल आता रहा की पंडित जी को राधिका का जिक्र करने की या जरूरत थी या उनको क्या पता है? रेलवे स्टेशन से उत्तर की तरफ जो पोस्ट ऑफिस है, वहां पर जो बड़ा सा पीपल का पेड़ है, वहां पर राधिका का घर था. 1999 से 2010 आ गया. ११ साल बीत गए. 1995 मे पहली बार उसको देखा था.
लो चलते चलते स्कूल आ गया. गर्मी की छुट्टियां होने की वजह से काफी सन्नाटा है. एक आध टीचर्स इधर उधर दिख रहे हैं. मुझे देख कर आपस मे कुछ बातचीत भी कर रहे हैं.
ये प्रिंसिपल साहब का ऑफिस किधर होगा? मैने एक अध्यापक से पूंछा.
वो दाहिनी तरफ पहला कमरा है.
धन्यवाद , कह के मै आगे चल दिया. क्या मैं अंदर आ सकता हूँ? मैने कमरे के बाहर से पूंछा.
प्रिंसिपल साहब कुछ अध्यापकों के साथ बैठ कर कुछ बातचीत कर रहे थे. उन्होंने ने चश्मे के उपर से मुझे देखा और एकदम से बोले बाहर क्यों खडे हो?
मै अंदर गया और एक कुर्सी खींच कर बैठ गया. इससे पहले वो मेरा परिचय और अध्यापकों से करवाते, मैं खुद ही बोल पड़ा जी मेरा नाम अविनाश है और मै इनका पुराना शिष्य हूँ. प्रिंसिपल साहब मेरा मुँह देख रहे थे. थोड़ी देर मे उनका काम खत्म हो गया और कमरा खाली हो गया. मैने प्रिंसिपल साहब से अनुरोध किया और प्रार्थना की, कि पिता जी का सन्दर्भ दे कर मेरा परिचय न करवाएं . इससे लोगों कि उम्मीद बढ़ जाती हैं और वो मुझमे पिता जी को देखने लगते हैं और अविनाश मर जाता है. प्रिंसिपल साहब अवाक रह गए मेरा विश्लेषण सुनकर. स्कूल के लिए जो भी बन पड़ेगा वो मै करूंगा, और मुझे अच्छा लगेगा कि मे अविनाश बन कर ही वो काम करूँ.
मैने प्रिंसिपल साहब रमेश कि नौकरी के लिए भी आग्रह किया तो बिना पूरी बात सूने ही उन्होंने हाँ कह दिया और शुरू में ४५००/- तनख्वाह भी बता दी. कह रहे थे कि विनय के जिले में 2nd आने के कारण आस पास के गाँवों से भी लोग अपने बच्चों का नाम लिखवाने के लिए आ रहें है.
ये तो बड़ी खुशी की बात है. इतना न कह कर मैं चलने ली लिया तैयार हुआ, तो एक चपरासी २ चाय और २ गरम समोसे ले कर अंदर घुसा. मैने प्रिंसिपल साहब से निवेदन किया की क्या हम सारे अध्यापकों के साथ चाय पी सकते हैं, अच्छा लगेगा. १० मिनट्स के अंदर सारा स्टाफ कमरे मे था. विनय की सफलता ने सारे अध्यापकों मे जोश सा भर दिया था.
चाय के बाद मैने चलने की इज़ाज़त मांगी और चल दिया. आज न जाने क्यों राधिका के घर जाने का मन हुआ. जाऊं या न जाऊं, इसी उहापोह मे सड़क पर चल रहा था. क्या मेरा जाना उचित होगा? जो गुजर गया, वो गुजर गया. उसके घर वाले भी मुझे जानते हैं.
बेटा अविनाश, राधिका की माँ ने तुमको बुलाया है. जाना पहचाना पंडित जी का स्वर कान से टकराया.
आप कहाँ से आ रहे है? मैने पूंछा.
पोस्ट ऑफिस गया था. वहीं से आ रहा था.
रमेश की नौकरी की बात मैने पंडित जी को बता दी. और उन्होंने शाम को खाने का न्योता भी दे दिया. सारी बातचीत के बाद जानबूझ कर याद दिलाते हुए बोले राधिका के माँ याद कर रही थी.
देखते हैं. अभी चलता हूँ. मैने ये कह के विदा ली........
क्यों भागते हो? मेरे दिल ने मझसे सवाल किया.
किस से? मेरा सवाल था.
राधिका के जिक्र से. दिल ने कहा.
मै भागता नहीं हूँ. लेकिन ये जरूरी तो नहीं है की जो दिल मे हो उसको दिखाया ही जाये.
फूल खिलता है तो बताता नहीं है की वो खिल गया. खुशबू ही बता देती है.
मैं गाँव वापस किसी उद्देश्य से आया हूँ. ये भी कह सकते हो की राधिका से भाग कर.......... मै कमजोर हूँ. क्योंकि मै प्यार करता हूँ.
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