Wednesday, April 21, 2010

जून की भरी दोपहर ...... 3

बस अड्डे पर  अचानक हुए शोर और हलचल  फल वालों की आवाज़, चाय वाले की आवाज़ ने बता दिया की बस अड्डे पर आ चुकी है. मै पंडित जी के साथ ही बस अड्डे तक आया. और फिर नमस्कार करके आगे चल दिया था. की पीछे से आवाज़ सुनाई पड़ी---- श्रीवास्तव जी नमस्कार.

मैं सोच मे पड़ गया की यहाँ पर इस तरह से संबोधन करने वाला कौन है. घूम के देखा तो एक वृद्ध सज्जन पंडित जी के साथ चले आ रहे थे. पंडित जी परिचय करवाया ,बेटा ये स्कूल के प्रिंसिपल साहब हैं. मैने एकदम से उनके पाँव छुए तो वो भी भाव विह्वल हो उठे. मुझे गले लगा कर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी. मैने मन मे सोचा की जो मेरे पिता जी कर के गए, उसका फल मै खा रहा हूँ. प्रिंसिपल साहब ने बताया की स्कूल की  क्लास १० का एक बच्चा जिले मे 2nd आया है. मैने कहा की ये तो आप लोगों की मेहनत और प्यार की नतीजा है. वो बोले बेटा ये पेड़ आप के पिता जी ने लगाया था. मेहनत तो उनकी है, जिस का फल हम को मिल रहा है. मैने कुछ पल के  लिए आकाश की तरफ देखा और मन मे पिता जी को याद करके सब कुछ उनको समपर्ण कर दिया. प्रिंसिपल साहब ने बड़े प्यार से एक आग्रह किया की कल मे स्कूल आऊं. मैने कहा की जरूर. प्रिंसिपल साहब चले गए पंडित जी वहीं रुके .

मैने पंडित जी से कहा की आप ठीक ही कह रहे थे. की बड़ा मुश्किल काम है, जो बीज पिता जी लगा गए हैं, उसको आगे बढ़ाना. क्योंकि लोगों की उम्मीदे बहुत है, और उन पर खरा उतरना आसान नहीं होगा. पंडित जी भी थोड़ी जल्दी मे थे बेटा इंतज़ार कर रहा था.

बाज़ार से मेरा घर थोड़ी दूर था, शाम भी हो रही थी इसलिए सोचा की रिक्शा लेने के बजाय , पैदल ही चलते हैं. पिता जी को याद करते करते एक शेर जहन मे आई---

तुम ये कैसे जुदा हो गए, हर तरफ , हर जगह हो गए
जाने वाले गए भी कहाँ, चाँद, सूरज, घटा हो गए.

ये कैसे रास्ते पर  ला के खड़ा कर दिया है मुझको? मैने पिता जी से सवाल किया. इतनी ऊँचे मापदंड बना कर गए आप, की उन  तक पहुंचना या उनको छु पाना भी मेरे लिए आसान नहीं है. और उपर से पंडितजी, प्रिंसिपल साहब, बसेसर, बच्चा सिंह और बाकी लोगों की उमीदे जो मुझ पर  टिकी हैं, क्या पूरा कर पाऊंगा. क्या मै वो बीज जो आप लगा के गए....... उसको बढ़ा पाऊंगा????

बेटा कल मंदिर मै नाशता हमारे साथ ही करना, बगल से पंडित जी रिक्शे मै गुजरे और आमंत्रण दे कर गए. मैने भी तुरंत स्वीकार कर लिया. रमेश को देखा....... बच्चा था..... जब मैने देखा था. नवयुवक बन गया है. घर पहुंचा. एक अजीब सा भारीपन था सर मे शायद इतनी बड़ी जिम्मेदारी कभी सर के उपर नहीं पड़ी थी. इतनी उमीदों का पहाड़ नहीं देखा था. कुछ डर सा लग रहा था. मै इज्ज़त न कमा पाऊं, कोई बात नहीं , लेकिन जो इज्ज़त का पहाड़ मेरे माता-पिता मेरे लिए खड़ा कर के गए हैं, उसमे कोई चोट न लगने पाये,यहीं है मेरा प्रयत्न.............

खाना क्या खाओगे ??? मालिन ने पूंछा.

कुछ नहीं,  आज भूंख नहीं है. एक कप चाय बना दो, और २ -४ बिस्कुट दे दो.
क्यों, आज भी खाना नहीं. मालिन ने  पूंछा.

मालिन ७० साल की एक विधवा महिला है, जो मेरी माता जी के समय भी मेरे घर मे काम कर चुकी हैं. और मुझ पर वो अपना पूरा हक जमाती हैं. मुझे भी अच्छा लगता है की कोई तो है, जो मुझे रोक-टोक सकता है. मै उन्हे मालिन माँ कह के संबोधित करता हूँ. .........

कल सवेरे नाश्ते पे पोखरे वाले मंदिर मे जाना है. मैने मालिन माँ को बताया.

जाओ जहाँ जाना है. खाने पीने का कुछ ठीक नहीं है. बस किताबे पढ़ लो. मालिन माँ ने अपना गुस्सा जताया.  माता  जी ठीक कहती थीं, की सब अपने काम से लग जायेंगे, तुमको देखने वाला कोई नहीं होगा.

मालिन माँ, तुम भी कहाँ सब की बात ले के बैठ गयीं. सब खुश हैं न, और क्या चाहिये.

तुम चुप ही  रहो, मालिन माँ ने फिर मुझे डांटा. सब को अपना फ़र्ज़ याद नहीं है क्या. तुम्हारे पिता जी देवता थे इस गाँव के लिए, उनका काम , उनकी इज्ज़त क्या ओरों  का फ़र्ज़ नहीं है? मालिन माँ ने मुझसे सवाल किया...... क्रमश: