मालिन माँ ने रात ११ बजे तक मुझे दुनियादारी की पाठ पढ़ाये और जब खुद उन्हे नींद आने लगी तो मुझसे कहा की अब तुम सो जाओ. सवेरे 5 बजे आँख खुली, एक कप चाय पी कर, थोड़ी देर खेतो मे घूम कर, वापस आया. फिर तैयार हो कर मंदिर जाने की तैयारी करी तो मालिन माँ ने चाय सामने रखते हुए कहा अब तो रात को ही वापस आओगे.
मै उनकी तरफ देख कर मुस्करा दिया.
आज दिन मे मुझे कमला के घर जाना है. कुछ पैसे दे दो. खाली हाँथ नहीं जाते. इस से पहले की वो मुझे दुनियादारी के और पाठ पढ़ाती ,मैने पचास रुपए उनके हाँथ पे रखे और मै चल दिया.
रास्ते मे थोड़ी सी मिठाई खरीदी और मंदिर पहुंचा तो रमेश बाहर ही मिला. एकदम से वो मेरे पैरों की तरफ झुका, मैने उसे रोका, ये क्या कर रहे हो. कहने लगा माफ़ करना भाईसाहब, बिलकुल उम्मीद नहीं थी, आप के यहाँ होने की, इसलिए कल बस अड्डे पर पहचान नहीं सका. उसको गले से लगाया और हाँथ मे मिठाई का डिब्बा रख कर पूंछा की पिता जी कहाँ है.
मै यहीं हूँ बेटा, आज आरती मे थोड़ी देर हो गयी. पंडित जी जवाब दिया.
थोड़ी देर मे हरी मटर- जीरे से छोंकी हुई, तला हुआ धान का चूड़ा, रति राम की दूकान के नुक्ती के लड्डू और कांच के गिलास मे गरम गरम चाय मेरे सामने रखी रमेश ने. इतनी सारी चीजे देखकर मैने काहा पंडित जी आज दावत है क्या? अरे नहीं बेटा, तुम्हारी मालिन माँ सवेरे आकर बना गयी.
मालिन माँ????? मैने आश्रय से पूंछा. हाँ, सवेरे ७ बजे आई थी वो, कहने लगी की आज तुम चाय पीने यहाँ आओगे. तो जो तुमको नाश्ता पसंद है, वही बना दिया. गुस्सा कर रही थी की तुम खाने - पीने के मामले मे बहुत लापरवाह हो. मैं कुछ देर के लिए खामोश हो गया. सोच रहा था मालिन माँ के बारे मे. किस समय वो अवेरे उठी, यहाँ आ कर इतना सब बना गयी, और वापस आकर मेरे लिए चाय भी बना दी, और कुछ जिक्र नहीं. ये माँ का ही दिल होगा.
और रमेश, अब आगे क्या करने का इरादा है? मैने रमेश से पूंछा.
भाईसाहब, या तो M.A. करूँ और एक मन सोचता है की यहीं गाँव मे कोई छोटा सा काम कर लूँ तो पिता जी की देखभाल भी हो जाएगी. आप क्या सोचते हैं? रमेश ने मुझसे पूंछा.
दोनों ही बाते ठीक हैं, मैने मन मे सोचा वैसे भी राय - मशविरा देने मै थोड़ा कंजूस हूँ. मै जो बोलूंगा, मानोगे. मैने पूंछा.
हाँ - हाँ क्यों नहीं. पंडित जी ने जवाब दिया. पंडित जी जिन्दगी रमेश की है, तो निर्णय लेने का अंतिम अधिकार भी तो उसी का होना चाहिए.
नहीं भाई, ऐसी कोई बात नहीं है. जो आप उचित समझे कहें.
स्कूल मे नौकरी करोगे? अचानक ही मेरा मुँह से निकल पड़ा.
आप ने तो मेरे मन की बात कह दी. लगभग कूदते हुए रमेश ने जवाब दिया. सोचलो, स्कूल मे पैसे या तनख्वाह बहुत अच्छी नहीं होगी. मुझे मंजूर है. रमेश ने दो मिनट सोच कर जवाब दिया.
बहुत अच्छा, फैसला है तुम्हारा. मेरे और पंडित जी के मुँह से एक साथ ही निकला.
नाश्ता ख़तम हो गया था. मै जरा गाँव घूम आऊं? रमेश का सवाल पंडित जी से था. बिलकुल जाओ. पंडित जी ने बड़े संतुष्ट मन से जवाब दिया.
रमेश चला गया. पंडित जी पोखरे मे हाँथ मुँह धो कर , वापस आकर बैठे.
बेटा, कल रात से मन थोड़ा परेशान था. क्यों? मेरा स्वाभाविक सा सवाल.
कल रात खाने के बाद, मैने रमेश से पूंछा था की बेटा अब आगे क्या सोचा है. तो उसने सिर्फ इतना कहा की , बापू, अभी सोचा नहीं है और तुम ने पांच मिनट मे ही सारी दुविधा दूर कर दी. पंडित जी ने कहा.
पंडित जी, मुश्किल किसी चीज़ मे नहीं होती. मुश्किल हमारे दिमाग मे होती है. जब हम किसी से कोई सवाल पुन्च्तेय हैं, तो जवाब भी हमारे दिमाग मे होता है. मुश्किल तब होती है, जब उसका जवाब , हमारे सोचे हुए जवाब से मेल नहीं खाता. अगर चीज़ मे मुश्किल होती, तो फिर वो सबके लिए मुश्किल होती. एवेरस्ट पे चढ़ना अगर मुश्किल होता तो सब के लिए होता. मगर कोई उस पर चढ़ कर उसपे झंडा गाड़ देता है, कोई उसपे चढ़ने के नाम से घबरा जाता है.
पंडित जी मेरी बात से सहमत लगे. थोड़ी देर शान्ति बनी रही. अचानक पंडित जी मेरी तरफ पलटे और एकदम से पूंछा, अब राधिका कैसी है?
इस प्रशन की उम्मीद नहीं थी, तो मैने पूंछा कौन राधिका? पंडित जी मेरी तरफ देख कर बोले बेटा इन बूढी आँखों ने भी आदमी को पढ़ना सीखा है. तुम जितना अपने आप को ओरों के साथ गलाते हो, जितना हंसी मजाक करते हो, वो और जो तुम्हारी आंखे बोलती हैं वो, मेल नहीं खाता.
पंडित जी...... कहाँ से आप के दिमाग मे राधिका घूम गयी???
बेटा..... तुम्हारी आंखे आज भी गाँव मे उसको ढूंढती हैं. 1999 मे उसके पति की मौत के बाद तो वो गाँव आई ही नहीं. सुना है की दूसरी शादी हो गयी है.
अच्छा..... है न. खुश तो है न. मैने पूंछा.
राधिका की माँ, तुम्हारे बारे मैं पूंछ रही थी. कल मंदिर आई थी शाम को..........
पंडित, जी मैने प्रिंसिपल साहब से आने का वादा किया था, चलता हूँ. रमेश से कह दीजियेगा की अगर संभव हो तो स्कूल आ जाये.
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