Thursday, July 18, 2019

एक पुराना मौसम लौटा

समय गुज़रता था समय गुज़रता है  और समय गुज़र जाएगा ये उसकी की नियति है। काफी वक़्त हो चला।  वक़्त के पुल  के नीचे से समय का पानी काफी बह चुका।  अब तो नई शुरुआत का समय है। 

सावन का मौसम लग चुका है और बारिश की झड़ी लगी है।  पेड़ पौधों पर जमी धूल बारिश के पानी से साफ़ हो चुकी है और पत्ता - पत्ता, बूटा - बूटा हरे रंग में चमक रहा है।  इस बारिश में चलती हुई हवा में पेड़ तो ऐसे झूम रहे हैं जैसे कोई अल्हड़ अभी अभी जिंदगी के सोलवहें साल में प्रवेश कर रही हो।  उसे जंगली गुलाब बहुत पसंद हैं क्योंकि वो झाड़ में लगते हैं और एक ही झाड़ में कई सारे गुलाब, बुराँस के पेड़ को देखा है कभी आपने ? नहीं न।  मैं जानता हूँ बाबू , आपने नहीं देखा होगा।  बुराँस के पेड़ पर जब जवानी आती है, तो कौन सी मदिरा उसके सामने टिक पाती है।  ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा। बस स्टैंड से थोड़ा ऊपर चलकर वो जो पानी का सोता है वहां पर कुंदन की चाय की दूकान है।  न कुंदन बदला न ही उसकी दूकान। एक ट्रांजिस्टर सवेरे से बजना शरू होता है और जब तक दूकान बंद होने का समय न हो जाए बजता ही रहता है।   

गाँव में अभी भी कुछ ज़्यादा नहीं बदला है।  कुछ पक्के मकान जरूर बन गए हैं लेकिन कच्चे मकान अभी भी हैं।  मिसर जी की दूकान के बायीं तरफ नीम का वो बड़ा पेड़ आज भी मौजूद है। रेलवे स्टेशन पार करके वो काली जी का पोखरा आज भी है।  उसके किनारे पर कृष्ण जी का मंदिर आज भी है।  और मंदिर के पास वो बरगद का पेड़ जी हाँ , अभी भी वहीं है।  आज भी शाम के वक़्त मदिर से कीर्तन , घंटे - घड़ियालों की आवाज़ आती है , आज भी पोखरे में शाम की आरती के बाद तैरते हुए दिए दिखते हैं। कितना अद्भुत समां होता है।  शाम गहराते हुए रात में बदल जाती है और मंदिर के पीछे एक छोटा सा घर जिसके बरामदे में एक बल्ब टिमटिमा रहा है और एक आराम कुर्सी पर एक बुज़ुर्गवार बैठे हुए नज़र आते हैं , जी हाँ ये बुज़ुर्गवार मंदिर के पंडित जी हैं नाम दशरथ चौबे है।  उम्र बिला शक़ ७० से ऊपर है।  चेहरे पर शान्ति, मन में स्थिरता और शून्य में देखती आँखें।     

बाबा ......... पंडित जी की पोती ने आवाज़ दी।  उसका नाम सुशीला है। उम्र अगर , चलिए हटाइये उम्र का ज़िक्र क्यों कर करें।  बस यूँ समझ लीजिये बाबा  की देखरेख और मंदिर की देखभाल का जिम्मा उसी के सर है।  उसने सारा समय अपने बंसी बजैया को दे दिया।

क्या है बेटा....... पंडित  जी ने बेटी की आवाज़ का जवाब दिया। 

बाबा , आप से कोई मिलने आये हैं।  सुशीला ने कहा

मुझसे ?  पंडित जी का प्रश्न। 

कौन हैं ? दूसरा प्रश्न।

बाबा कोई आनंद हैं। 

कौन !!!! आनंद !!!!! ....... पण्डित जी का विस्मय और आश्चर्य से भरा स्वर।  वो कुर्सी से ऐसे उठे कि जैसे कोई २० -२५ साल का लड़का और मंदिर की तरफ लगभग दौड़ पड़े।  सुशीला ने पकड़ा नहीं तो लगभग गिर गए थे।  वो पंडित जी को मंदिर तक ले गयी।  और मंदिर में एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा था।  दोनों एक दूसरे को देखते रहे।  कोई शब्द नहीं, कोई आवाज़ नहीं , ख़ामोशी कैसे बोलती है कोई यहां देखता।  अचानक दोनों एक दूसरे की तरफ बढे और गले लग गए।  अब आंसू बोल रहे थे शब्द नहीं। कौन कहता है की मौन बोलता नहीं है। कई बार जो बातें शब्द बयां नहीं कर पाते खामोशी कह जाती है। 

सुशीला इस बात को लेकर आश्वस्त थी की कोई अपना ही है।  पंडित जी उस आदमी के साथ मंदिर के बरामदे में ही बैठ गए। 

सुशीला , बेटी ज़रा गुड़ और पानी तो ले आ।  पंडित जी स्वर में आतिथ्य का भाव।  अरी सुन, गुड़, अदरक और तुलसी डाल कर चाय बना दे बेटी और सुन ज़रा बसेसर की दुकान से देख तो अगर लड्डू हों तो ले आ

पंडित जी के स्वर से ऐसा तो निश्चित था कि कोई अपना ही है जो बरसों बाद आया है या मिला है।  


ये कौन था ? 
         

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