Thursday, March 24, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 6

क्या कह रही है तू ?

हाँ दीदी ,मुझे पता है की मैं क्या कह रही हूँ।  वो मंदिर आये थे. बाबा से मिले , चाय पी , काफी देर बैठे। हीर चली गए।  बाबा ने कहा है की शाम को आरती में आना।

क्या कहा उन्होंने ?

कहा तो कुछ नहीं ,मुस्कराए और चल दिए। अच्छा तो ऐन चलती हूँ , दीदी।

राधा  . . . . .  हँसे की रोये ? विश्वास करे की न करे।

क्या मंदिर जा कर  पंडित से पूंछू ? राधा का अपने आप से सवाल।

क्यों क्या करेगी पूँछकर ?

अरे ! करना क्या है।

इसी उहापोह में वक़्त की रेत हाँथ से फिसल गयी और शाम आ पहुंची।

मैं मंदिर जा रही हूँ, राधा ने निर्मला से कहा और निकल गयी.

हालाँकि मंदिर ज़्यादा दूर नहीं था लेकिन वक़्त इस वक़्त नहीं कट रहा था , वैसे रुकता नहीं है।  लेकिन अपने आप में राधा भी जानती थी की वक़्त बहुत गुज़र गया है पता नहीं आगे क्या होगा।  5 साल बीत गए।  कुछ इमारतें खंडहर बन गईं और कई रास्तों की दिशा बदल गईं , कई दरख़्त सूख गए.....

मतलब बहुत कुछ हुआ , शाम की आरती का आवाज़ राधा के कानों में पड़ी , अरे मंदिर आ गया।

 आ गयी बेटी , पंडित जी मंदिर के बाहर ही मिल गए, लगा जैसे उसी का इंतज़ार कर रहे हों।

नमस्ते  ..... राधा का अभिवादन।

खुश रह बिटिया।

आ. . . .

पंडित जी राधा का हाँथ पकड़ कर  लगभग दौड़ते हुए चल रहे थे। पंडित जी ने राधा को कुर्सी पर बैठाया और स्वयं मंदिर में चले गए. राधा वहां बैठी सब तरफ देखती रही। आज मंदिर में रौशनी भी ज्यादा थी और आरती का स्वर भी स्वरमय था. पत्ते के दोनों में चिराग पोखरे के पानी में तैर रहे थे।  घंटे और घड़ियाल की आवाज़ दूर दूर तक जा रही थी , कुछ तो अलग था आज माहौल में. अचानक राधा की नज़र बरगद के नीचे पड़ी आराम कुर्सी पर जा टिकी।  राधा ठिठक कर  खड़ी हो गयी और कुर्सी तक गयी और.  . . . . . . .

आनंद आंखे बंद करे अधलेटा था।

तुम आ गईं  . . .  .. .

ये किसकी आवाज़ है राधा ने मुड़कर देखा , आसपास कोई नहीं था.

बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं।

नमस्ते राधा जी  . . . .  आनंद ने अदब से कुर्सी से खड़े होते हुए राधा से कहा।

कैसे हैं  . . .  . राधा का सवाल।

तुम्हारी कठिन सवाल पूंछने की आदत नहीं बदली , राधा।

तो और क्या पूंछू , आप ही बता दीजिये। राधा ने आनंद से थोड़ा क्रोधित हुए कहा।

कब आये और कहाँ थे ?

कल आया और कहाँ था , क्या बताऊँ।  वक़्त इतना बीत गया है की याद भी नहीं।

आप कैसीं हैं ?

मैं ठीक हूँ।

फिर सन्नाटा।

वक़्त की रफ़्तार और हालत ने एक रिश्ते को तुम से आप तक ला दिया।  और मैं इसको एक हानि मानता हूँ।जब औपचारिक्ताएँ किसी भी रिश्ते के बीच पसर जाती हैं तो परिणाम  . . .   फिर सन्नाटा, ही हुआ करता है. कोई शख्स जो की कभी अपना रहा हो और जब उसके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़े , तो समझ लेना चाहिए की उस रिश्ते की उम्र पूरी चली है।

                                                                                                                              क्रमश:









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