Monday, April 4, 2016

कभी किसी रोज़ यूँ भी होता . . . . . . 10

जवाब दूँ या न दूँ।
दूँ तो क्या दूँ और न दूँ तो बद अख़लाक़ी होगी।
मेज पर रखे ज्योति के पत्र को देख कर आनंद की प्रतिक्रया।

उठो  मयकशों ताज़ियत को चलें
ख़ुमार आज से पारसा हो गया ।

मालिन मां जरा कागज़ कलम दे दीजिये।

प्रिय ज्योति जी ,

आप का ख़त मिला , लेकिन ,

इसमें कोई शिकवा , न शिकायत न गिला है ,
ये भी कोई ख़त है की मुहब्ब्त से भरा है।

हालत ये है कि अगर लिखूं तो बहुत कुछ नहीं तो कुछ भी न लिखूं।  क्या लिखूं ? आप ने जो किया , वो किया , सो किया। अब ये सब  सोच के क्या फायदा ? यूँ होता तो क्या होता , वो होता तो  क्या होता।

जाने भी दो यारों।   

हमको किस ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही,
किसने तोड़ा दिल हमारा , ये कहानी फिर सही।

मैं वापस आ गया हूँ और आराम से हूँ। आराम से अपने सामने खेल और तमाशे होते हुए देखता रहता हूँ और आनंद लेता हूँ।  सभी कुछ वही है।  बस आंखे  तालाब नहीं हैं , फिर भी भर आती हैं , और इंसान मौसम नहीं है फिर भी बदल जाता है।  और इलज़ाम वक़्त के नाम।   वक़्त बुरा था, वक़्त अच्छा था , आदि आदि  . . . . .you know .


आशा करता हूँ स्कूल अच्छा चल रहा होगा।

माता  जी को मेरा प्रणाम।

आनंद।

मालिन माँ    . . .


हाँ  . .

ये पत्र रामदीन काका को दी दीजियेगा।

और मुझे खाना दे दीजिये।

रात काफी हो चली थी और आनंद बिस्तर में चला गया।

खिड़की से जाड़े की रात और गहरे नीले आसमान पर चमकता हुआ चाँद और बिखरे हुए तारे।

                                                                                                                                             क्रमश:


 
   

No comments: