तुमने सुना कुछ...आनंद....
क्या....
लोग क्या क्या बातें कर रहें हैं......
वो तो उनका धर्म है..करने दो.....मैं भी सुन रहा हूँ....
तुमको तकलीफ नहीं होती......किस मिट्टी के बने हो.....?
तकलीफ भी होती है, दर्द भी होता है, गुस्सा भी आता है....बोलो क्या करूँ...?
किस तरह तुम सब पी लेते हो...आनंद...किस तरह..क्या अपने आप को नीलकंठ कहलवाना चाहते हो....?
ज्योति....तुम जब इस तरह के सवाल करती हो...तब जो तकलीफ होती है...वो उस तकलीफ से ज्यादा है....जो लोगो की बातों से होती है.....
नहीं आनंद..नहीं...मैं तुमको तकलीफ नहीं देना चाहती हूँ.....
ज्योति......
मुस्करा देता हूँ जब भी गम कोई आता है पास,
बद्दुआ की काट मुमकिन है कोई तो है दुआ.....
संस्कारों का भोग तो भोगना ही पड़ेगा..उस से बचकर तो कोई न जा पाया....जब हवा तेज हो सर झुका कर चलने में ही समझदारी है.....धैर्य....... रखने में ही समझदारी है......जैसा हमने बोया है, वही तो काटेंगे......बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से पाए....
आनंद.......कितना बर्दाशत कर सकते हो.....तुम ?
ज्योति.....जिन्दगी में जब प्राथमिक्ताए fix हो जाती हैं....तब क्या बर्दाशत करना है और कितना बर्दाश्त करना है.....ये सब बेमानी हो जाता है.....सामने ध्येय होता है..और हमारी तरफ से प्रयत्न....जो लोग बात कर रहे हैं....वो आ कर मेरा दर्द बाँट तो नहीं सकते....तो फिर उनकी चिंता क्यों करूँ....
हाँ ....उनकी चिंता मुझे जरुर होती है.....जो मेरे दर्द को बराबर का बाँट लेते हैं.....और मेरे कंधे से कंधा मिलाकर खडे हैं......
हे भगवान्........तुम गलत युग में पैदा हो गए हो......आनंद. ... हँस क्यों रहे हो....
ये सब में नहीं जानता ...ज्योति. मैं..ज्ञानी नहीं हूँ......कर्मयोगी बनने की कोशिश कर रहा हूँ.....कर्म सिर्फ कर्म.....सिर्फ कर्म......
यहाँ से होगी एक नयी शुरुआत.......बोलो होगी ना .................
क्या....
लोग क्या क्या बातें कर रहें हैं......
वो तो उनका धर्म है..करने दो.....मैं भी सुन रहा हूँ....
तुमको तकलीफ नहीं होती......किस मिट्टी के बने हो.....?
तकलीफ भी होती है, दर्द भी होता है, गुस्सा भी आता है....बोलो क्या करूँ...?
किस तरह तुम सब पी लेते हो...आनंद...किस तरह..क्या अपने आप को नीलकंठ कहलवाना चाहते हो....?
ज्योति....तुम जब इस तरह के सवाल करती हो...तब जो तकलीफ होती है...वो उस तकलीफ से ज्यादा है....जो लोगो की बातों से होती है.....
नहीं आनंद..नहीं...मैं तुमको तकलीफ नहीं देना चाहती हूँ.....
ज्योति......
मुस्करा देता हूँ जब भी गम कोई आता है पास,
बद्दुआ की काट मुमकिन है कोई तो है दुआ.....
संस्कारों का भोग तो भोगना ही पड़ेगा..उस से बचकर तो कोई न जा पाया....जब हवा तेज हो सर झुका कर चलने में ही समझदारी है.....धैर्य....... रखने में ही समझदारी है......जैसा हमने बोया है, वही तो काटेंगे......बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से पाए....
आनंद.......कितना बर्दाशत कर सकते हो.....तुम ?
ज्योति.....जिन्दगी में जब प्राथमिक्ताए fix हो जाती हैं....तब क्या बर्दाशत करना है और कितना बर्दाश्त करना है.....ये सब बेमानी हो जाता है.....सामने ध्येय होता है..और हमारी तरफ से प्रयत्न....जो लोग बात कर रहे हैं....वो आ कर मेरा दर्द बाँट तो नहीं सकते....तो फिर उनकी चिंता क्यों करूँ....
हाँ ....उनकी चिंता मुझे जरुर होती है.....जो मेरे दर्द को बराबर का बाँट लेते हैं.....और मेरे कंधे से कंधा मिलाकर खडे हैं......
हे भगवान्........तुम गलत युग में पैदा हो गए हो......आनंद. ... हँस क्यों रहे हो....
ये सब में नहीं जानता ...ज्योति. मैं..ज्ञानी नहीं हूँ......कर्मयोगी बनने की कोशिश कर रहा हूँ.....कर्म सिर्फ कर्म.....सिर्फ कर्म......
यहाँ से होगी एक नयी शुरुआत.......बोलो होगी ना .................
1 comment:
कर्म ही जीवन है और फ़ल की आशा ना करना ही नयी शुरुआत्।
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