मालिन माँ.....राम राम...
राम राम ..ज्योति बिटिया....कैसी है...?
मैं तो ठीक हूँ .....आप कैसे हो......
बस बिटिया..... ईश्वर की कृपा है.....
आ.....आनन्द वो बैठा है...बरामदे में....चाय पीयेगी बिटिया....अभी अभी आनंद ने फरमाइश की है....
तो बना दो न मालिन माँ.....बरामदे से आते हुए आनंद की आवाज़....
कैसी हो ज्योति.....
ठीक...और आप.....
बिलकुल ठीक.... आओ....बरामदे में बैठते हैं....
ओहो...नया छप्पर डलवाया है....
हाँ ज्योति....बहुत दिनों से मन था.....गर्मी के दिनों में....दोपहर में इसके नीचे बैठ कर....उस नीम के पेड़ देखना बहुत अच्छा लगता है...दूर तक कुछ नहीं होता, सिर्फ एक सन्नाटा......और गर्म हवा..ज्योति.....जरा मालिन माँ से बोल दो..की चाय में अदरक न डाल दे.
और बताओ ज्योति ...क्या चल रहा है.....कुछ नया लिखा....?
नहीं आनंद......
क्यों...?
कुछ अंदर से उठ नहीं रहा है......अंदर से आ नहीं रहा है.....आनंद.
कुछ आ नहीं रहा है...या इतना ज्यादा आ रहा है और इतनी विविधता के साथ आ रहा है की तुम निर्णय नहीं कर पा रही कि लिखूं या न लिखूं.....अगर लिख दिया तो नाम जाने किस किस के चेहरे से पर्दा उतर जाए.....तुम लिखती हो भी तो ऐसा...सो सुनार की, एक लुहार की....
बस करो आनंद...ऐसा कुछ नहीं हैं !!!!!!
अरे अपने प्रशंसकों से पूंछो....
तुम ने कुछ नहीं लिखा.....आनंद.
मैने......ज्योति मैं कवि या लेखक तो हूँ नहीं....जो देखता हूँ....वही लिखता हूँ, जो सोचता हूँ वही लिखता हूँ......हाँ.....कुछ लिखा है.....लेकिन कभी कभी एक अजीब सी असमंजस में पड़ जाता हूँ....की में कोई लेखक तो हूँ नहीं, जो में ओरों की लिए लिखूं...........क्या लेखन मेरे लिए एक outlet जैसा है क्या.....संभव है....लेकिन कभी कभी, ज्योति.....टूटने सा लगता हूँ., हारने सा लगता हूँ.....मन करता है...भाग जाऊं.....लेकिन भागूं तो किस से....दुनिया से...या अपने आप से......नहीं नहीं......ये गलत है....जिम्मेदारी हैं मेरे उपर....और निभाना है, शान से खूबसूरती से.........आनंद अपनी लय में बोलते जा रहे थे....
ये ले बेटा चाय और पराठे.....और सुन जरा दस-बीस रुपए दे दे.....शाम के लिए सब्जी लानी है...
वो वहां ताक में रखे हैं...आप ले लो.
........आनंद......
हाँ ज्योति.....कुछ ज्यादा बोल गया क्या...?
नहीं.....बोलो....ये जरुरी है.....तुम इंसान हो..pressure cooker नहीं...जो सीटी बजा कर दबाव कम कर लेता है.....तुम बोलो आनंद.....कहाँ खो गए.....
कहीं नहीं...मैं तो यहीं हूँ..... जरा सोच रहा था.....ज्योति
इस तरह तय की हैं हमने मंजिलें,
गिर पडे, गिर कर उठे, उठ कर चले...
ज्योति जिन्दगी जीने का ये एक फलसफा रहा है मेरा.....लेकिन धोखे खा खा कर....अब तो विश्वास डोलने सा लगा है.....अब अगर टूटा तो........
नहीं आनंद.....तुम उनमे से नहीं जो टूटते हैं...हालातों को तोड़ कर उनसे बाहर निकल जाना यही तो तुम्हारी खासियत है....उनको देखो जो तुमको देख कर हिम्मत बांधते हैं.....कौन हैं वो...मैं बताऊँ....
नहीं ज्योति..मैं जानता हूँ..... और सच बताऊँ तो मुझको वो डूबते को तिनके का सहारा नज़र आते हैं....
ठीक है....आनंद....जिन्दगी की यही खूबसूरती है.....
हाँ......ज्योति ये तो है......एक नयी शुरुआत.
गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो,
जिसमें खिले हों फूल वो डाली हरी रहे....
1 comment:
एक नयी शुरुआत के साथ लग रहा है जैसे सच मे नयी शुरुआत ही हुई है।
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