Wednesday, December 14, 2011

नयी शुरुआत.....

हाँ आनंद, एक नयी शुरुआत तो करनी पड़ेगी....अफ़सोस करने से कुछ नहीं होता है......

हूँ............सही कह रही हो, ज्योति......कब तक और कहाँ तक मेरा साथ निभा पाओगी , ज्योति....

क्या जवाब दूँ आनंद.......लो सुनो..

किसी का पूंछना कब तक हमारी राह देखोगे,
हमारा फैसला जब तक ये बीनाई रहती है....

ज्योति....जिन्दगी के इस कड़े सफ़र में जब तुम साथ हो.....तो ये सफ़र भी आसान हो जायेगा. जो कुछ बर्दाशत करना है, वो तो करना ही पड़ेगा....लेकिन....

थके हारे परिंदे जब बसेरे की लिए लौटें,
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरुरी है.

आनंद तुम्हारे साथ जानते हो मुझे क्या आराम है....या क्या आराम रहता है.....

नहीं...बताओ तो...

तुम्हारे साथ मैं जो हूँ , वही रहती हूँ...मुझे बनना नहीं पड़ता है.......और इंसान जब जो है वही रहे, तभी comfortable रहता है.

मैं एक बात बोलूं, ज्योति.....

बोलो....

क्या तुम को एक show piece की तरह रखा जाता है......

पता नहीं आनंद....शायद  हाँ....कहाँ तक और कब तक बन संवर के ओरों के सामने आऊं....मै जो हूँ, जैसी हूँ..क्या इस रूप मैं लोगों को स्वीकार नहीं..........चेहरे पे क्रीम, पावडर के साथ साथ एक दिखावटी हंसी भी पहननी पड़ती है......क्यों करूँ मैं ये सब...बोलो...क्यों...?

हूँ..................जानती हो ज्योति...मुझे तुम एक पहाड़ी नदी की तरह लगती हो.....

हाय...अल्लाह.....वो क्यों?

क्योंकि पहाड़ी नदी.....छल छल , कल कल बहती हुई ही अच्छी लगती है.....तुम को देख कर ऐसा लगता है..उस पर बाँध बना दिया गया हो......

आनंद..इतने समझोते कर लिया हैं...की अब अपना असली वजूद ही भूल गयी हूँ....सब कुछ है आनंद मेरे पास , सब कुछ..लेकिन मैं खाली हूँ.....बिलकुल खाली.....

लेकिन....ज्योति..हार कर थक मत जाना....जिन्दगी हर वक़्त करवट लेती है....मुझको देखो...कभी सोचा था....मैं इस रूप को भी देखूंगा जिन्दगी के....नहीं.....लेकिन देखा. हर रात की सुबह होती है....अमावस्या के बाद पूर्णमासी भी आती है......

ठीक कह रहे हो आनंद.......लेकिन इस बार अमावस्या ज्यादा लम्बी हो गयी लगता है.....तुमको कैसा लगेगा जब तुमको ये यकीन हो जाए...कि तुम्हरे हर movement पर नज़र है.....तुम आज़ाद हो कर भी एक कैदी हो....वैसे  एक बात मैं जरुर सोचती हूँ आनंद....तुम्हारे बारे मैं.....

वो क्या......

कि तुम कौन सी मिटटी के बने हो.....जिन हालातों से तुम गुजर रहे हो , कोई आम आदमी होता, तो ख़ुदकुशी कर चुका होता....भाड़ में जाये जिम्मेदारियां.....

कौन सी मिटटी कबाना हूँ...ये तो में भी नहीं जानता...लेकिन हालत तपा तपा कर रूह को इतना मजबूत बना देंगे कि छोटी छोटी चोट तो असर भी नहीं करेगी.....और अब करती भी नहीं है.....

हादसों कि जद में हैं  तो मुस्कराना छोड़ दें,
जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दे....

जब नयी शुरुआत करनी ही है....तो क्यों ना हौसले के साथ करी जाए....तुम हो ना....

1 comment:

vandana gupta said...

थके हारे परिंदे जब बसेरे की लिए लौटें,
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरुरी है.
वाह्………बहुत खूब्…………एक नयी शुरुआत के लिये ऐसा होना लाज़िमी है…………