Sunday, July 18, 2010

खामोशी....

क्या कहा.......... रात बहुत बीत गयी है?
अच्छा है.. ख़ामोशी मे कलम खूब चलती है. सुनो.. जरा लालटेन मे तेल डाल दो. इस लेख को पूरा करना है,
क्या........... तेल नहीं है. ........... ये भी अच्छा है.

ठीक कह रही हो......... सिर्फ कागज पर अक्षर उतारने से घर नहीं चलता. लेकिन कल अखबार वालों को ये लेख चाहिए. अगर दे दूंगा तो 500 रूपए आ जाएंगे.

हाँ कल रामलाल भी मिला था, धीरे से वो भी अपने पैसों के बारे में पूंछ रहा था. मैने कहा भाई दे दूंगा, मै कहीं नहीं जा रहा हूँ. तुम भी ठेक कहती हो सिर्फ प्राइमरी स्कूल की तनख्वाह से घर नहीं चलता. अब तो ये भी नहीं याद है की तुम आखिरी  बार साड़ी कब खरीदवाई थी.

देखो मै भी बदलने की कोशिश तो कर रहा हूँ. मै भी वो लिखने की कोशिश कर रहा हूँ जो लोग पढना चाहते हैं. लेकिन मै इस जमाने के लायक कैसे बनूँ, इतना छोटापन मेरे बस का नहीं.

आप जानते हैं , आप की समस्या क्या है?

क्या...?

आप मूल्यों और संस्कारों की बात करते हैं. मै ये नहीं कहती की आप गलत हैं. लेकिन बाज़ार मे जो बिकता है, वो बेचिये ?

ठीक कह रही हो.लेकिन एक बात बताओ : अगर नमक ने अपनी नमकीनियत खो दी , तो उसे कौन नमकीन करेगा." तुम क्या सोचती हो की हकीकत सिर्फ मै ही लिखता हूँ. ये मूल्य ये संस्कार ये मेरे कमाई है और चंद रुपयों की ख़ातिर मै इनको बेच दूँ, क्या तुम ये गवांरा करोगी?

तो रास्ता क्या है?

काहे का रास्ता?

क्या हम लोग ऐसे ही रहेंगे?

ऐसे ही मतलब? क्या हम लोग कभी भूखे सोयें  हैं? क्या हम कभी बिना कपड़ो के रहे हैं? क्या कभी कोई रात हमने बिना छत के गुजारी है? नहीं................ समस्या हमारी असीमित इच्छाएं हैं.जो एक के बाद एक, सुरसा की मुँह की तरह फैलती ही जाती हैं, बढती ही जाती हैं. मैं  प्राइमरी स्कूल मै पढ़ाता हूँ. और मेरा मालिक इतना मेहरबान है मुझ पर की किसी के सामने हाँथ फैलाने की नौबत नहीं आई. और क्या लोगी?

तुम अखबार पढ़ती हो...... हत्या, बलात्कार , चोरी , भ्रष्टाचार .... कभी इन सब का कारण जानने की कोशिश करी?

समाज मे बढ़ता असंतुलन , हर तरफ.... अमीरी- गरीबी के बीच बढती खाई. हर चीज़ दोषी है. ये वक़्त है जब हमको अपने संस्काओं और अपने मूल्यों को बचाना है. कल जब मुन्ना बड़ा होगा तो उसे क्या सीखाएँगे.

कम से कम इतना तो कह सकतें हैं

" जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी,
जब तलक मे न बैठूं , वो खडें रहतें हैं."

इसलिए, श्रीमती  जी..... अगर संभव हो तो लालटेन मे तेल डालदो. और ये ध्यान  रखो की एक न एक दिन ये कलम ही क्रान्ति लाएगी. हो सकता है वो दिन देखने के लिए मै न रहूँ, लेकिन..... वक़्त तो बदलेगा. और वक्त के साथ सब से बड़ी अच्छाई यही है... की वो गुजर जाता है..... अच्छा  हो या बुरा ..... गुजर जाता है.

समाज को बदलने की कोशिश मै नहीं करता. मै सिर्फ अपने आप को नियंत्रित करने का प्रयत्न करता हूँ. समाज हमी से तो बनता है. अगर हम अपने आप को बदल लें , समाज तो खुद ब खुद बदल जाएगा. हंसी आ रही होगी......... की लो एक और समाज सुधारक ......








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