तबियत से खानाबदोश हूँ , सो घूमता फिरता रहता मन कहीं एक जगह नहीं ठहरता. हिमालय से मेरा विशेष लगाव है, शायद इसलिए की मेरा जन्म वहीं हुआ. नंदा देवी, त्रिशूल की बर्फ से ढकीं हुई चोटियाँ मुझे आज भी खींचती हैं. उतरांचल मुझे मेरा घर लगता है बाकी प्रदेशो मैं , मै अपने आप को मेहमान सा लगता हूँ.
खैर छोड़िए, मै भी क्या बात ले बैठा. मरे गाँव से कुछ दूर उपराड़ी नाम का गाँव है. देवदार के जंगलो के बीच एक तपत कुंड है जहाँ पर जमीन से इतना गरम पानी निकलता है की लोग पोटली मे चावल डाल कर उसमे उबाल लेते हैं. वहीं पर शिव का एक पुराना मंदिर है, जहाँ पर साधु-सन्यासियों का आना-जाना लगा रहता है. तपस्वी कई देखे लेकिन एक दिन अचानक एक तपस्वनी से मुलाकात हो गयी. न केसरिया कपड़े, न हाँथ मै माला, न गले मे रुद्राक्ष. ये कैसी तपस्वनी है? उत्कंठा बढ़ गयी.
शायद उस तपस्वनी ने मेरी उत्कंठा पढ़ ली. और मुझे पास बुलाकर पूंछा क्या कुछ नया या अद्भुत देख रहे हो. क्या तपस्या गेरुए कपड़े पहन कर ही होती है.
नहीं...... मेरा जवाब था.
क्या आप ने घर परिवार त्याग दिया है..... मेरा स्वाभाविक सा सवाल.
नहीं.............. मेरा घर भी है और परिवार भी. मै अपनी सारी जिमेय्दारियाँ निभाती हूँ. लेकिन कमल के पत्ते की तरह. सब मेरे अपने हैं , लेकिन कोई भी नहीं. तपस्या आग जला कर , हवन कर के होती हो.... ऐसा कोई नियम तो नहीं है. आग तो मैने भी जलाई है....... लेकिन अपने अंदर.
मै घर की तरफ वापस चल दिया. कुछ सोचता हुआ. क्या मतलब हुआ इसकी बात का...........? अपने अंदर आग जलाने का क्या मतलब होता है?
दुसरे दिन मेरी उन से फिर मुलाकत हुई. मुझे देख कर जोर से हंसी. अभी भी परेशान हो क्या.
नहीं परेशान नहीं.... थोड़ा आश्चर्य है.
वो क्यों.....?
आप तपस्वनी क्यों बनी?
मै...............? एक निशछल सी हंसी.
तपस्वी तो तुम भी हो.
मै और तपस्वी.........गाँव मै जा कर मालूम करिए. तो मेरे बारे मे आप को पता चल जायेगा.
कौन किसी के बारे मे क्या सोचता है, ये जानना उतना जरूरी नहीं जितना ये जानना की तुम अपने बारे मे क्या सोचते हो............ एक सीधा सा तर्क.
तुम्हारे अंदर भी तो एक मुनि है. उसे जगाओ. तो तुम भी तो एक तपस्वी हुए. बोलो ठीक है की नहीं.
मै निरुतर.
मान लो तुम किसी चीज़ को पाना चाहते हो, और वो तुम्हे नहीं मिलती. लेकिन दिल मे ता-उम्र उसकी तमन्ना बनी रहे. तो क्या तुम उस की तपस्या नहीं कर रहे हो, उसका ध्यान नहीं कर रहे हो ? यही तो तपस्या है. जिस रोज़ दिल मे मालिक से मिलने की तड़प, जगह लेले, तो तपस्या का रुख बदल जाता है. तपस्या तो इंतज़ार का दूसरा नाम है.
मै चुपचाप उसकी तरफ देख रहा था और वो निष्काम और निर्लिप्त सी बोलती जा रहीं थीं.
1 comment:
जिस रोज़ दिल मे मालिक से मिलने की तड़प, जगह लेले, तो तपस्या का रुख बदल जाता है. तपस्या तो इंतज़ार का दूसरा नाम है.
बिल्कुल सही बात कही…………………बस अपने अन्दर की लौ जला लो फिर घर संसार मे रहकर भी तपस्वी बना जा सकता है………………एक उत्कंठा होनी चाहिये फिर तपस्या तो हर पल अपने आप होती ही रहेगी।
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