Monday, July 12, 2010

एक मंथन ऐसा भी...

एक मंथन ऐसा भी....... जहाँ ह्रदय एक विस्तृत सागर है और मन, एक मथनी की तरह उसे मथ रहा है. अब मेरे अंदर का विष बाहर आ रहा है....... दूर हटो, देखो ये विष कहीं तुमको भी न डस ले. 

नहीं........... मेरे अंदर विष कैसे हो सकता है.

ये संस्कारों का विष है. जो हम पिछले जन्म से ले कर आये हैं.

आओ तुमको एक कहानी सुनाता हूँ. भीष्म जब शर-शैया पर थे, तो कृष्ण उनसे मिलने आये. उन्होंने कृष्ण से पूंछा की ये मे कौन से जन्म के संस्कारों की सजा पा रहा हूँ? मैने अपने पिछले ९९ जन्म मे जा कर देख लिया, मैने कोई ऐसा काम नहीं किया था जिस का परिणाम ये शर-शैया होती?

कृष्ण मुस्कराये और बोले " पितामह, आप ने एक जन्म पीछे जा कर और देखा होता तो आप को अपने प्रश्न का उत्तर  मिल जाता. अपने १०० वें जन्म मे भी आप एक राजकुमार थे और एक बार शिकार के समय, एक सांप को उसकी पूंछ से पकड़ कर आप ने जो फेंका था, वो कांटो पर जा कर गिरा, वो दृश्य आपने देखा और उसकी छाप आपके मन पर इतनी गहरी पड़ी, की वो संस्कार बनी और अब जा कर उसका भोग हुआ". 

तो ये है संस्कारों की शक्ति और उनका खेल. कौन सा संस्कार कब उभरे...... कौन जानता है. जयशंकर प्रसाद की वो पंक्तियाँ - " कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन आनंद". निकलने दो मेरे संस्कारों को. मेरे मौला........मेरे मालिक. क्यों किसी और को दोष दें? जो गलत हो रहा है........... वो मेरे ही तो कर्म का फल है. और फिर गलत क्या और सही क्या? जो हमारे हिसाब से गलत है, संभव है, उस वक़्त के हिसाब से वही हमारे लिए अच्छा हो.......... कौन जानता है.

इसलिए.... मेरे मन. सर झुका और जो कुछ भी तेरे साथ हो रहा है..... मालिक का शुक्रिया अदा कर. और दुआ कर की हे मालिक, कुछ ऐसा कर की सारे संस्कारों का भोग इसी जन्म मे हो जाये. अगल जन्म............. न. इसलिए उसे अपना जो सहज मार्ग है. सब कुछ मालिक का, मालिक की मर्जी ................ यही है मुक्ति का रास्ता. संस्कारों का पिंजरा नहीं .......... अब और नहीं. पिंजरा , पिजरा ही होता है चाहे बांस का हो या सोने का. पंछी के लिए तो क़ैद ही है. अब ये पंछी किसी तरह की क़ैद मे नहीं जाना चाहता.

नहीं......... मेरे मालिक और नहीं. तूने रास्ता तो दिखा दिया, अब हिम्मत भी बक्श मेरे मालिक ताकि तेरे बाते रास्ते पर चल कर इस आवागमन से मुक्ति मिले. मुझे अपने परम धाम मे ले चल. जहाँ से कोई वापस नहीं आता. जिन जिन विषयों मे ये मन आसक्त है............. मालिक निकाल मुझे उनसे. शक्ति दे, ताकि अपने आप की इस लड़ाई मे मे विजयी हूँ. " विजयी भव:" का आशीर्वाद दे मुझे, और जीवन की इस आखरी लड़ाई मे मेरा साथ दे मेरे मालिक.

तूने तो गज को भी ग्राह से मुक्ति दिलाई थी, तुने अजामिल को भी मुक्ति दी. तू राजऋषि जनक भी हुआ और सुदामा भी.

क्या तू मेरी नहीं सुनेगा.................... मेरे मालिक.

  

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